स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 35वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

गांधी प्रणीत सत्याग्रह शास्त्र

पिछले अध्याय में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संवैधानिक तौर-तरीकों तथा आतंकवादी क्रांतिकारियों के रास्ते की समीक्षा हमने की। अब हमें गांधीजी प्रणीत सत्याग्रह के नए मार्ग की समीक्षा करनी है।

गांधीजी के सत्याग्रह सिद्धांत के संबंध में एक बात हमें याद रखनी चाहिए, वह यह कि उन्होंने आत्मशुद्धि के लिए अपने जीवन में अखण्ड साधना की, उसका और सत्याग्रह के परिष्कृत सिद्धांत का सीधा संबंध है।

गांधीजी दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत करने में लगे थे। उससे उन्हें कुछ आय होने लगी थी। उस जमाने के अंग्रेजीदां शिक्षित मध्यवर्गीय लोगों की तरह ही वे भी अपना जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा में लिखा है कि दक्षिण अफ्रीका में मैंने अपने जीवन को सभी भौतिक सुखों से समृद्ध बनाया था। लेकिन इन भौतिक सुखों में उनका मन ज्यादा रमा नहीं। अतः धीरे-धीरे वे सादगी की ओर आकर्षित होने लगे। वैष्णव संस्कारों तथा गुजरात-काठियावाड़ के ऊपर पड़े जैनी प्रभाव की वजह से इंग्लैण्ड में ही स्वास्थ्य लाभ हेतु उन्होंने शाकाहारी भोजन लेना आरंभ कर दिया था। अब वे और आगे बढ़े। जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वावलंबन को उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया। इस दिशा में सबसे पहले उन्होंने धोबी पर अपनी निर्भरता को समाप्त किया और अपने कपड़े स्वयं धोने और इस्त्री करने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने अपने बाल भी अपने हाथों काटने का सिलसिला शुरू कर दिया। उनकी इस नयी कला पर लोग उनका मजाक उड़ाने लगे तो उन्होंने कहा, कोई भी सफेद चमड़ी वाला नाऊ मुझ जैसे काले आदमी के काले बालों को छूने तक के लिए तैयार नहीं है। इसलिए मैंने निर्णय किया है कि अब मुझे अपने हाथों से अपने बाल काटने की आदत डालनी चाहिए।

गांधीजी लिखते हैं कि उसमें गोरे नाई का दोष नहीं था। अगर वह मुझे अपना ग्राहक बना लेता तो उसके सारे गोरे ग्राहक उसको छोड़कर चले जाते। हिंदुस्तान की स्थिति भी उनके ध्यान में थी, इसलिए कहा कि क्या हम भारत में अपने नाई को किसी अछूत के बाल काटने देंगे? बस, इन्हीं ऊपरी तौर पर सतही और छोटी लगने वाली बातों से गांधीजी के जीवन में एक स्थायी क्रांति आने लगी। उनकी साधना सत्याग्रह के प्रयोग के लिए उनमें आत्मबल पैदा कर रही थी।

गांधीजी का ध्यान धीरे-धीरे सार्वजनिक सफाई की ओर जाने लगा और अंत में सार्वजनिक स्वच्छता उनके जीवन का एक केंद्र बिंदु-सा बन गयी। पश्चिमी देशों में स्वच्छता पर जो विशेष ध्यान दिया जाता था वह उन्हें बहुत भाता था। वे इस बात को लेकर दुखी होते थे कि भारतीय अपने घरों के अंदर तो स्वच्छता रखते हैं लेकिन सार्वजनिक स्वच्छता की ओर उऩका कतई ध्यान नहीं होता, वे कूड़ा-कचरा ऐसे ही गलियों और सड़कों पर फेंक देते हैं।

दक्षिण अफ्रीका में अल्पसंख्यक गोरे लोग जान-बूझकर सभी काले लोगों के साथ भेदभाव बरतते थे और उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखते थे। इनके ऊपर तरह-तरह के अन्यायमूलक बंधन लगाते थे। इस अत्याचार और अन्याय के खिलाफ गांधीजी ने वहां सभी जाति और धर्म के हिंदुस्तानियों को संगठित करना शुरू किया। हिंदू-मुसलमानों की एकता और अस्पृश्यता का निराकरण जैसे कार्यक्रम दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के संगठन के दौरान ही उपजे थे और इनका महत्त्व गांधीजी के मन पर छा गया था। उग्रपंथियों, जैसे तिलक आदि का संवैधानिक आंदोलन और गांधीजी का सिविल नाफरमानी का आंदोलन, इन दोनों में बुनियादी फर्क यह था कि जहां तिलक आदि उग्रपंथी लोग कानून की सीमा में रहकर उसका जान-बूझकर उल्लंघन न करते हुए जन-जागरण और लोक संगठन का काम निर्भयतापूर्वक करते थे, उसके विपरीत गांधीजी यह कहते थे कि जो कानून अन्याय और जुल्म पर आधारित है उसका जान-बूझकर और खुलकर हमें उल्लंघन करना चाहिए और उसके लिए जो भी देहदण्ड दिया जाए उसे स्वेच्छा और अनुशासित ढंग से हमें भोग लेना चाहिए। इसी तरह के प्रयोग में निम्न बातें सन्निहित थीं :

  1. कानून तोड़नेवाला एक साधक है और इस नाते वह अपनी आत्मा को शुद्ध तथा निर्मल बनाने का सतत प्रयत्न करे, मन के मैल को हर तरह से धोने का प्रयत्न करे, अपनी आवश्यकताओं को कम करे और जीवन संयमित ढंग से बिताने का भरसक प्रयास करे।
  2. सत्याग्रही तात्कालिक नीति के तौर पर नहीं बल्कि बुनियादी तौर पर अहिंसा के सिद्धांत को अपनाए और हिंसा का सर्वथा त्याग कर दे।
  3. गांधीजी का यह दृढ़ विश्वास था कि जब तक सत्याग्रही सामुदायिक अनुशासन, संकल्पशक्ति, धीरज और मुस्तैदी से ओतप्रोत नहीं होंगे, वे वंशवाद ही क्या, किसी भी दूसरे किस्म की जोर-जबरदस्ती का सफल मुकाबला नही कर पाएंगे।

दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने साधारण जनता को मौलिक गुणों की साधना में लगाने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी मां और आसपास की दूसरी महिलाओं से इस बात की शिक्षा पायी थी कि शारीरिक दुर्बलता के बावजूद अगर मन मजबूत है तो बहुत कुछ हद तक शारीरिक दुर्बलता पर काबू पाया जा सकता है। शारीरिक दुर्बलता को आत्मबल और आत्मतेज हासिल करने का साधन बनाया जा सकता है। लेकिन उन महिलाओं की यह शिक्षा धार्मिक व्रत-कैवल्य और मोक्षप्राप्ति के लिए थी, न कि किन्हीं भौतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए करना चाहते थे। वे उसी में मोक्ष देखते थे। गांधीजी ने कई बार कहा था कि निहत्थे मर्दों को ही नहीं दुर्बल महिलाओं को भी सिविल नाफरमानी में महत्वपूर्ण रोल अदा करना है।

रंगभेद के खिलाफ लड़ने की शक्ति उन्होंने सारे दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों में पैदा की। इससे न केवल वहां का भारतीय समाज संगठित हुआ, बल्कि उसका असर कई गोरे लोगों पर भी पड़ा। गांधीजी मानव-स्वभाव को अच्छी तरह समझते थे। उनकी धारणा थी कि सहानुभूति और सहानुकंपा से कोई इंसान अछूता नहीं है। एक सत्याग्रही अपनी साधना से मानवीय मन में सुप्त रूप से निवास करनेवाली संवेदना और कोमल भावनाओं को निश्चित रूप से छू सकता है। यह उनका दृढ़ विचार था। दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई में गांधीजी को जो सफलता मिली उससे उनके मन में एक आत्मविश्वास आ गया। जब वे हमेशा के लिए हिंदुस्तान लौट आए तो अपने मन में वे यह निश्चय कर चुके थे कि दक्षिण अफ्रीका की तरह हिंदुस्तान में भी सत्याग्रह को जीवन का एक अंग बनाना होगा।

जिस समय दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष चल रहा था गांधीजी राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेताओं का समर्थन पाने के लिए समय-समय पर हिंदुस्तान की यात्रा करते रहते थे और राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में भी भाग लेते रहते थे। उनको तत्कालीन सभी भारतीय नेताओं का समर्थन और आशीर्वाद प्राप्त था। इस दौरान वे गोखले रूपी चुंबक की तरफ लोहे की तरह आकर्षित हुए। उन्होंने स्वयं लिखा है कि सर फिरोजशाह मेहता मुझे हिमालय की तरह भासमान हुए, लोकमान्य तिलक महासागर की तरह और गोखले के रूप में मुझे गंगा मिली जिसमें डुबकी लगाकर हर इंसान शुद्ध और पावन बन जाता है। गोखले ने भी हर तरह से गांधीजी की सहायता की। इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में उनके सवालों को वे उठाते और दक्षिण अफ्रीका के प्रश्न पर गांधीजी को भारत सरकार का समर्थन भी दिलवाने का प्रयास करते थे।

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