— किशन पटनायक —
राजनीति एक व्यवहार है। जैसे-जैसे किसी राजनैतिक व्यक्ति या समूह की क्षमता औ प्रभाव बढ़ने लगता है, उसको अपने आदर्श और नीति का कार्यरूप बतलाना पड़ता है। सिद्धांत और व्यवहार में तालमेल रखना एक कठिन काम प्रतीत होने लगता है। सत्ता से वह जितना दूर रहेगा उतना वह आदर्श और नैतिकता की बात करेगा। प्रभाव बढ़ने पर और सत्ता हासिल करना संभव दिखाई देने पर उसकी असली परीक्षा शुरू होती है।
आदर्श की चुनौती और रखलन का आकर्षण– इन दो पाटों के बीच विवेकशील राजनेता सावधान रहता है। सत्ता से दूर रहते समय उसकी जो प्रतिबद्धताएँ और नैतिक संस्कार बन जाते हैं, सत्ताभोग के काल में उसके लिए कवच बनते हैं। इसलिए लंबे समय तक सत्ता के पदों पर बने रहना अच्छा नहीं है। सत्ता की इच्छाविहीन राजनीति में कोई रस नहीं होता है, मगर सत्ता की इच्छा पर संयम न होने से राजनीति की नैतिक प्रेरणा नष्ट हो जाती है।
अगर प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने 18 साल के प्रधानमंत्रित्व के बीच कभी पाँच या सात साल का सत्ता-पद से संन्यास लिया होता तो शायद वे आज भी एक आलोक-स्तंभ बने रहते। सत्तापद पर चिपके रहने के कारण उनकी क्या दुर्दशा हुई है यह हाल के चुनावों में स्पष्ट हो रहा है। उनकी दौहित्र-वधू सोनिया के कांग्रेस के मुख्य प्रचारक होने के बावजूद उनके भाषण में कहीं यह बात नहीं आती है कि नेहरू की सरकरी नीतियों से देश को सही मार्गदर्शन मिला था। एक व्यक्तित्व के तौर पर इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की कोई तुलना जवाहरलाल नेहरू से नहीं हो सकती। लेकिन आज के चुनाव में इंदिरा, राजीव, इन सब का नाम लेकर वोट माँगा जा सकता है। नेहरू के नाम से कोई वोट नहीं माँगता है। यह कितना विचित्र है?
राजनीति में व्यवहार का पलड़ा कभी-कभी इतना भारी होता है कि मूल्यों से समझौता न करनेवालों को जनता भी हिकारत भरी नजर से देखती है। मानो बिलकुल शुद्ध होना अव्यावहारिकता है और इसलिए राजनैतिक अक्षमता का परिचायक है। मूल्यों और नैतिकता के बारे में जनसाधारण उतना कठोर नहीं है जितना कि हमलोग अकसर सोचते हैं। जनसाधारण राजनीति से कुछ परिणाम देखना चाहता है। आदर्शवादी व्यक्तियों और समूहों से परिणामों की उम्मीद नहीं जगती है तो आदर्श के प्रति वह उदासीन हो जाता है।
जनसाधारण राजनीति से कैसा परिणाम चाहता है? क्या जनसाधारण राजनीति में नैतिकता का नियामक बन सकता है? इसका जवाब आज के राजनैतिक अध्ययनों-चिंतनों से नहीं मिलता है।
यह समझ लेना चाहिए कि जनसाधारण की उपस्थिति सार्वजनिक जीवन में एक नियामक का काम नहीं करती है। लोगों की भावना सिर्फ यह होती है कि अनैतिक काम बहुत अधिक नहीं होने चाहिए। अनैतिकता बहुत अधिक दिखाई नहीं देनी चाहिए। अगर दो प्रतिद्वंद्वी हैं और दोनों पराक्रमी हैं और उनमें से एक ज्यादा कलंकित है तो लोग अपेक्षाकृत साफ-सुथरे आदमी को पसंद करेंगे। इस अर्थ में जनसाधारण की नैतिकता के बारे में एक नियामक भूमिका है। चूँकि जनसाधारण उपस्थित है और राय देने वाला है इसलिए भी राजनेता उसकी नैतिकता संबंधी भावनाओं को अपील करने की कोशिश करते हैं। इसी तरह जनसाधारण एक नियामक है। जनसाधारण की उपस्थिति नहीं रहेगी तो शायद नैतिकता का प्रसंग भी नहीं उठेगा। इस सीमित दायरे में जनसाधारण सार्वजनिक नैतिकता का नियामक है।
जनसाधारण पहले पराक्रम को देखता है, बाद में नैतिकता को। सामर्थ्य या पराक्रम हासिल करने के नियम और शुद्धता हासिल करने के नियम अलग-अलग होते हैं।
शुद्धता के द्वारा कोई पराक्रमी नहीं बन पाता है। गांधीजी पराक्रमी थे, मगर शुद्धता के कारण नहीं; पराक्रम अर्जन के उनके काम अलग थे, और शुद्ध बनने के अलग। नैतिकता और पराक्रम का संयोग उनमें 1916 से 1945 तक रहा। 1945 के बाद उनका पराक्रम कम हो गया।
पराक्रम प्राप्त करने के महान उपाय भी होते हैं, जोखिम भरे काम होते हैं, लेकिन बहुत छोटे-छोटे रास्ते भी होते हैं। धनी और संभ्रांत लोग राजनीति में जल्द सफल हो जाते हैं। कुछ लोग चोरी करके धनी बनते हैं, धन के सहारे राजनीति करते हैं और संभ्रांत बन जाते हैं। तीसरे कदम पर वे धन और आभिजात्य के बल पर राजनीति की चोटी पर जाने का दाँव लगाते हैं। निर्धनों और शूद्रों के लिए राजनीति में बने रहना बहुत कठिन है। इसलिए भी शूद्र राजनेता नैतिकता के प्रश्न को गौण कर देता है। पराक्रमी होने के लिए ये सारे छोटे रास्ते हैं। ये रास्ते प्राचीन काल से हैं। इस पराक्रम से सत्ता प्राप्ति हो सकती है – राष्ट्र या जनता को महान नहीं बनाया जा सकता।
राजनीति का स्वर्णयुग यानी पराक्रम और मानवीय मूल्यों का संयोग तब होता है जब किसी राज्य या भूभाग में धर्म, संस्कृति, ज्ञान, अर्थनीति या राजनीति के क्षेत्र में मूल्यों का आंदोलन होता है। मूल्यों का यह आंदोलन राजनीति के बाहरी क्षेत्रों में होने पर भी राजनीति इसके द्वारा प्रभावित होती है, नए मूल्यों को राजनीति में स्थापित करने की एक धारा राजनीति के अंदर भी सबल होने लगती है। भारत के बौद्ध युग और गांधी युग की राजनीति में मानवीय मूल्यों का स्तर अन्य युगों की तुलना में उच्चतर था।
जिसको भारत में गांधी युग कहा जाएगा वह विश्व के लिए समाजवादी आंदोलन के विकास का भी युग था। इस संयोग का प्रभाव इतना अधिक था कि पूँजीवादी और प्रतिगामी विचारों के राजनैतिक दलों को भी कुछ मानवीय तथा प्रगतिशील मूल्यों के अनुकूल अपनी घोषणाएँ करनी पड़ती थीं। नेहरू-इंदिरा की कांग्रेस अपने को समाजवादी कहती थी, यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी (जनसंघ) ने एक बार अपने को ‘गांधीवादी समाजवादी’ घोषित कर दिया था। ‘आखिरी आदमी’– जो गांधीजी का शब्द था, अभी हाल तक राजनैतिक घोषणापत्रों पर मँडराता था।
ऊपर की बातों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राजनीति में मूल्यों की प्रबलता का होना एक निरंतर स्थिति नहीं है। यह भी सोचना गलत है कि साधारण मतदाता या जनसाधारण मूल्यों पर बहुत आग्रह रखता है या जनसाधारण के दबाव से ही राजनीति सही दिशा में प्रवाहित होगी। इतिहास बताता है कि यह काम आम आदमी का दायित्व नहीं है। मूल्यों और दिशाओं का प्रवर्तन बुद्धिजीवी करते हैं – तब करते हैं जब वे या तो सत्य की खोज करते हैं या लोक के प्रति अपने को उत्तरदायी समझते हैं।
एक छोटे समूह के द्वारा संगठित-प्रचारित होकर ये मूल्य जनसाधारण का समर्थन प्राप्त करते हैं और व्यापक समाज में हलचल पैदा करते हैं। इसी बिंदु पर जनसाधारण मूल्यों का संरक्षक भी बनता है। लेकिन जब बौद्धिक समाज में जड़ता आ जाती है तब जनसाधारण पुनः मूल्यों के बारे में उदासीन हो जाता है। गोरे देशों में 17वीं-18वीं सदी में ज्ञान और धर्म के क्षेत्रों में सांस्कृतिक आंदोलन की प्रबलता थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में यूरोप के राजनैतिक क्षेत्र में बौद्धिक समूहों ने तीव्रता के साथ हिस्सेदारी की। फलस्वरूप यूरोप की राजनीति में क्रांतिकारी मानवीय मूल्य स्थापित हुए और बाद में पूरे विश्व में इन मूल्यों का प्रसार हुआ।
कई औपनिवेशिक देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी राजनीति के तहत वहाँ के बौद्धिक समूह सक्रिय हुए। इन देशों की राजनीति में साम्राज्यवाद-विरोधी और पूँजीवाद-विरोधी मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हुई। भारत में गांधी और समाजवाद के अपने-अपने बौद्धिक वर्ग बने। जब बौद्धिक वर्ग व्यापक ढंग से और निरंतरता के साथ राजनीति को मूल्यों के द्वारा प्रभावित करता है तब जनसाधारण भी मूल्यों के बारे में मुखर होता है।
हाल के चुनावों में यह कितना हास्यापद लगता था कि कुछ बुद्धिजीवी लोग चुनाव घोषित हो जाने और नामांकन हो जाने के बाद भ्रष्टाचारी और अपराधी प्रत्याशियों की पहचान करवाते थे। प्रसिद्ध व्यावसायिक पत्रिका आउटलुक ने कई नामी-गिरामी बुद्धिजावियों को लेकर प्रत्याशियों की नैतिकता की जाँच करने की एक टोली बनाई थी। लेकिन इनमें से एक भी आदमी स्पष्ट शब्दों में नहीं बताता कि उदारीकरण और ग्लोबीकरण से भारत की आम जनता को क्या लाभ होगा। इस टोली का कोई भी व्यक्ति यह नहीं बताता कि लगातार बढ़ती आर्थिक गैरबराबरी को कैसे रोका जाए और बुद्धिजीवियों की वेतनवृद्धि क्यों वांछनीय है। धन के केंद्रीयकरण का, भ्रष्टाचार और अपराध से कोई संबंध है या नहीं? अपने युग के ज्वलंत और बुनियादी सवालों पर जिन बुद्धिजीवियों का कोई स्पष्ट मत नहीं है वे चले हैं चुनाव-राजनीति को प्रभावित करने! पक्षधर बनकर या अपना खेमा गाड़कर ही कोई बौद्धिक समूह चुनाव को प्रभावित कर सकता है।
असल में राजनैतिक अनैतिकता की वृद्धि का युग समाज में बौद्धिक पतन का भी युग होता है। पिछले कई सालों में भारत की ज्ञान-संस्थाओं की सबसे बड़ी घटना है प्रोफेसर और विशेषज्ञों के रहन-सहन और वेतन-भत्तों में अभूतपूर्व वृद्धि। उनकी जड़ता और उदासीनता के कारण देश के साधारण जनों का जो अपना पारंपरिक ज्ञान और विवेक था वह भी नष्ट हो गया और कोई नया मूल्य भी स्थापित नहीं हो पाया है।
फिर भी चुनाव के दिनों में मूल्यों की बात इसलिए होती है कि राजनेता या उसका समर्थक-बुद्धिजीवी जब जनसाधारण के पास जाएगा तो मूल्यों के बिना कोई खुला संवाद हो नहीं सकता है। अगर राजनीति में जनसाधारण न होता तो ये लोग मूल्यों की बात पाखंड के स्तर पर भी नहीं करते।
(यह लेख पहली बार फरवरी 1998 में प्रकाशित हुआ था, ‘राजनीति में मूल्य’शीर्षक से)