स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 53वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

स तरह कांग्रेस के आर्थिक कार्यक्रमों में 1930-32 की सिविल नाफरमानी के बाद कोई प्रगतिशील परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि प्रगति पर रोक लगाने का ही नाजायज प्रयास हुआ। 1936 में दुबारा जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उनके कार्यकाल में लखनऊ और फैजपुर में कांग्रेस ने भूमि संबंधी नीति के बारे में दो प्रस्ताव स्वीकार किए। इन प्रस्तावों में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट की चर्चा और कृषि माल के दामों में हुई भयंकर गिरावट के कारण किसानों की हुई दुर्गति को लेकर किसानों के प्रति सहानुभूति प्रकट की गयी थी। इस प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया गया था कि किसानों के शोषण तथा ऋण के बोझ की जड़ में सड़ी-गली लगान व्यवस्था और भूमि धारणा की व्यवस्था है। इन प्रस्तावों के जरिए कांग्रेस इस बात के लिए कटिबंद्ध हो गयी कि सत्ता हस्तांतरण के बाद वह इस व्यवस्था को बदलने का तत्काल प्रयास करेगी। भूमि धारणा व्यवस्था में किस तरह के परिवर्तन लाए जाएं, इस बारे में एक व्यापक बहस कांग्रेस चलाना चाहती थी। अतः अखिल भारतीय भूमि कार्यक्रम बनाने के पूर्व उसने अनुरोध किया कि वे अपने सुझाव अपने प्रांत की विशेष स्थिति को मद्देनजर रखते हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पास अगस्त, 1936 के अंत तक भेज दें।

लखनऊ प्रस्ताव में निम्न मुद्दों की ओर खासतौर से ध्यान दिलाया गया था-

  1. किसान और खेतिहर मजदूरों का संघ बनाने की स्वतंत्रता।
  2. जहाँ किसान और राज्य के बीच जमींदार आदि मध्यस्थ हैं, वहाँ किसानों के हितों की रक्षा के लिए उन्हें कानूनी संरक्षण।
  1. किसानों पर ऋण का बोझ और लगान आदि का बकाया घटाना।
  2. किसानों से वसूली जानेवाली सामंती उगाही और चंदे खत्म करना।
  3. लगान में कटौती।
  4. सरकारी बजट में ग्रामीण इलाकों के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक उत्थान के लिए आवंटन।
  1. स्थानीय साधनों का कृषि संबंधी कार्यों के लिए इस्तेमाल करने में आनेवाली बाधा दूर करना।
  2. सरकारी अफसरों और जमीदारों का जुल्म खत्म करना; और
  3. ग्रामीण बेरोजगारी के निराकरण के लिए उद्योगों और व्यवसायों का निर्माण।

1936 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा जो चुनाव घोषणापत्र जारी किया गया, उसमें लखनऊ भूमि संबंधी प्रस्ताव के कई मदों को रखा गया था, जैसे लगान माफी, ऋण के बोझ को घटाया जाना, महाजनों से संरक्षण आदि। तत्पश्चात प्रांतीय कमेटियों की सलाह से कांग्रेस ने अपना भूमि संबंधी कार्यक्रम का मसौदा तैयार किया और उसे दिसंबर 1936 में हुए फैजपुर अधिवेशन के समक्ष रखा। इसमें गरीब किसानों को अलाभकर जोतों पर से लगान हटाने का स्पष्ट आश्वासन था। साथ ही साथ नहर टैक्स और सिंचाई की दर बहुत कुछ हद तक कम करने का वचन भी, बँधुआ मजदूरी और सामंती उगाही समाप्त करने के बारे में भी स्पष्ट अभिवचन दिए गए थे। फैजपुर प्रस्ताव ने किसानों के जमीन जोतने के अधिकार को संरक्षण देने की बात कही और उनके द्वारा भूमि पर बनाए मकान, पेड़ आदि पर उनका स्वामित्व बनाए रखने का वादा किया। ग्रामीण चरागाह, ग्राम-तालाब, कुएँ, जंगल आदि के  इस्तेमाल की गारंटी भी दी गयी। प्रस्ताव के अंत में ग्रामीण ऋण से किसानों को मुक्ति दिलाने की बात थी और सहकारी खेती की भी चर्चा छेड़ी गयी थी। यह हमें ध्यान रखना चाहिए कि सहकारी खेती के बारे में स्वतंत्रता प्राप्ति तक और उसके बाद भी किसी तरह की पहल नहीं की गयी है।

हाँ, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1960 में नागपुर में अवश्य जोर-शोर से सहकारी खेती पर प्रस्ताव हुआ था, लेकिन उसके बाद की घटनाओं से सिद्ध हो गया कि हिंदुस्तान में न सामूहिक कृषि व्यवस्था चलेगी, न ही सहकारी कृषि व्यवस्था, अपितु ग्राम जीवन के कुछ हिस्सों में सहकारी व्यवस्था चल सकती है, जैसे कर्ज के आवंटन या कृषि माल की खरीद–बिक्री के क्षेत्र में। लेकिन सहयोगी खेती एक दिवास्वप्न मात्र था। परंतु फैजपुर कांग्रेस के समय कांग्रेस के कथित उग्रवादी नेताओं को इसका अहसास नहीं था। प्रस्ताव के अंत में खासकर मजदूरों को ऊँची मजदूरी देने और उनकी तथा किसानों की संगठन स्वतंत्रता को मान्यता देने का वायदा भी किया गया था।

1945 में एक ओर कांग्रेसी नेताओं की रिहाई और दूसरी ओर ब्रिटेन में टोरी पार्टी की पराजय होकर लेबर पार्टी की शानदार विजय हुई। हम पहले ही इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि 1919 में लेबर पार्टी की सदस्यता के लिए कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में उसका कृतज्ञता ज्ञापन किया गया था। अब लेबर पार्टी को अपने प्रस्तावों को कार्यान्वित करने और भारतीय जनता के राष्ट्रीय स्वतंत्रता के अधिकार को कबूल करने का सुनहरा मौका मिला था। लेबर पार्टी की सरकार ने विधानमंडलों के जो चुनाव युद्धकाल में स्थगित हुए थे, उनको दुबारा कराने और जनमत को अधिकृत ढंग से जानने का निर्णय किया।

इस चुनाव के लिए दिसंबर 1945 में कांग्रेस के द्वारा चुनाव घोषणापत्र प्रकाशित किया गया। इसमें भूमि सुधारों की ओर कांग्रेस एक कदम आगे बढ़ी गयी थी। जिस तरह लखनऊ और फैजपुर प्रस्तावों के पीछे पाँच-छह साल सतत संघर्ष और बढ़ती हुई राष्ट्रीय, आर्थिक, सामाजिक चेतना की पृष्ठभूमि थी, उसी तरह 1945 के कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र के पीछे 1942 के क्रांतिकारी आंदोलन का संदर्भ था। नयी राजनैतिक और आर्थिक चेतनाओं का यह एक स्वाभाविक और अवश्यंभावी मिश्रण था।

इस घोषणापत्र में कांग्रेस ने प्रतिज्ञा की कि सत्ता में आने के बाद वह भूमि की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाएगी तथा राज्य और किसानों के बीच जितने बिचौलिए अथवा मध्यस्थ हैं, उन सबको समाप्त करेगी। जमीन जोतनेवाले जमीनों के मालिक बन जाएंगे और उनके तथा राज्य के बीच सीधा रिश्ता कायम होगा। जमींदारों, जागीरदारों और साहूकारों द्वारा किसानों पर जो तरह-तरह के जुल्म ढाए जाते हैं, और नित नए बहाने से उनसे जो उगाहियाँ, वसूलियाँ और चंदे लिये जाते हैं, उनको उनसे हमेशा के लिए मुक्त किया जाएगा।

चुनाव घोषणापत्र में औद्योगीकरण की भी चर्चा की गयी थी। चुनाव घोषणापत्र उद्योगों का विशिष्ट प्रांतों में केंद्रीकरण नहीं चाहता था, उसे अभिप्रेत था विकेंद्रित औद्योगीकरण जिससे हर प्रांत में और विभिन्न प्रांतों के बीच संतुलित औद्योगिक विकास हो सके।

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