भारत में तिब्बत के प्रश्न पर लोकमत

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— आनंद कुमार —

(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)

भारत की सरकारी कमजोरी के बावजूद भारत में तिब्बत पर चीनी कब्जे को हमेशा निंदनीय माना गया। समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने इसे ‘शिशुहत्या’ कहा और चीन पर तिब्बत को कम्युनिस्ट चीन का उपनिवेश बनाने और नेहरू सरकार पर इस पापपूर्ण कार्रवाई की अनदेखी का आरोप लगाया। उन्होंने भाषा, लिपि, नदियों के बहाव, तीर्थों की ऐतिहासिकता और अंतरराष्ट्रीय संधियों के आधार पर तिब्बत की स्वतंत्रता के दावे की पुष्टि की। लोहिया ने देशभर में ‘हिमालय बचाओ सम्मेलन’ का आयोजन करके ‘हिमालय नीति’ के लिए जनमत निर्माण भी किया। बाबासाहब डा. भीमराव आम्बेडकर ने देश की संसद में तिब्बत की सहायता की मांग की। तिब्बत के प्रश्न को डा. राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपालानी, लालबहादुर शास्त्री, मुहम्मद करीम छागला, डा. रघुवीर से लेकर चौधरी चरण सिंह, रबि राय, मधु लिमये, निर्मला देशपांडे और जार्ज फर्नांडीज का समर्थन मिला।

तिब्बत की आजादी और दलाई लामा की मदद के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 1959 में कलकत्ता में एक अफ्रीकी-एशियाई सम्मेलन का आयोजन करके दलाई लामा की मदद का अंतरराष्ट्रीय अभियान शुरू किया और  जेपी की प्रेरणा से अनेकों संगठन और मंच ‘तिब्बत बचाओ’ के प्रयासों से जुड़े। डा. आंबेडकर के अनुयायियों में भी तिब्बत के प्रति प्रबल समर्थन है। सरकार से जुड़े होने के बावजूद राष्ट्रवादी संगठनों की भी तिब्बत के साथ हुए अन्याय को लेकर स्पष्ट सहानुभूति है।

अभी भी एक स्वाधीन अथवा स्वायत्त राष्ट्र के रूप में तिब्बत के पुन: स्थापित होने की संभावना के बारे में शंका के तीन कारण हैं :

1) तिब्बत पर सैनिक कब्जे के बाद चीन ने इसका अंग-भंग करके मूल तिब्बत देश के सीमावर्ती हिस्सों को पड़ोसी प्रदेशों में मिला दिया है। तिब्बती भाषा की जगह चीनी भाषा लादी जा चुकी है। चीन से बड़ी तादाद में आबादी का स्थानान्तरण करके तिब्बत में तिब्बती अल्पसंख्यक बनाए जा चुके हैं। इसलिए तिब्बत देश का अब अस्तित्व ही नहीं बचा है।

2) क्या चीन इसके लिए तैयार होगा? फिर वह सिंझियंग (‘नया प्रदेश’) अर्थात पूर्वी तुर्किस्तान के  मुस्लिम बहुल उघ्युर स्त्री-पुरुषों को कैसे रख पाएगा? मंगोलिया के बड़े हिस्से पर कायम कब्जे को भी छोड़ना पड़ेगा। वस्तुत: मौजूदा चीन का दो तिहाई भौगोलिक क्षेत्र (तिब्बत, शिनजियांग और आंतरिक मंगोलिया) चीनी कम्युनिस्ट क्रांति के विस्तारवाद का परिणाम है।

3) चीन और भारत जैसे दो महादेशों के बीच तिब्बत अंतरराष्ट्रीय ताकतों के दांवपेंच का हमेशा के लिए शिकार बन जाएगा। उसकी स्वायत्तता चीन के लिए असुविधाजनक रहेगी और भारत भी लद्दाख से लेकर सिक्किम, भूटान, नेपाल और अरुणाचल में रहनेवाले बौद्धों के बीच तिब्बत से सांस्कृतिक निकटता को लेकर सशंकित रहेगा। अमरीका, ब्रिटेन  और यूरोपीय महासंघ भी तिब्बत की मजबूरियों का फायदा उठाएंगे।

तिब्बत पर चीनी सेनाओं के 1949-59 के बीच कब्जे से ‘हिमालय बचाओ’ की पुकार शुरू हुई। तिब्बत में 1959 में विद्रोह और परम पावन दलाई लामा द्वारा अपने 60,000 से अधिक अनुयायी स्त्री-पुरुषों द्वारा भारत में शरण लेने से कम्युनिस्ट क्रांति से पैदा हुए चीनी राष्ट्रवाद का खूंखार चेहरा बेपर्दा हुआ। फिर 1962 में चीन द्वारा भारत के हिमालय क्षेत्र में हमले से सारी दुनिया में चीनी विस्तारवाद का खतरनाक सच सामने आया। यूरोप और अमरीका ने इसे कम्युनिस्ट शक्ति का विस्तार माना। एशिया-अफ्रीका के नव-स्वाधीन देशों में चिंता हुई। सोवियत संघ तक इससे अचंभित हुआ।

भारत की तिब्बत-चीन नीति की असफलता

फिर भी हमारी हिमालय-तिब्बत-चीन नीति नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक लगातार असफल रही है। इसके तीन कारण हैं : एक, भारत और चीन के बीच संवाद में तिब्बत की अनुपस्थिति है। जबकि हिमालय की रक्षा का रास्ता तिब्बत की मदद से ही बनाया जा सकता है। तिब्बत की आजादी ही भारत की सुरक्षा की सबसे टिकाऊ बुनियाद है। बिना तिब्बत के प्रश्न को केंद्र में रखे भारत और चीन के बीच परस्पर अविश्वास बना रहेगा।

दूसरे, भारत चीन के सामने आत्म-समर्पण की मुद्रा में रहा करता है। नेहरू-राज में पंचशील का बेढंगा समझौता इसका उदाहरण था जिसमें तिब्बत में फैल रहे चीनी साम्राज्य का कोई जिक्र नहीं था और सिर्फ 8 बरस की अवधि रखी गयी थी। इंदिरा गांधी ने अपने लम्बे कार्यकाल में पाकिस्तान, बांग्लादेश, असम और खालिस्तान के प्रश्नों के मुकाबले तिब्बत के प्रश्न को जस-का-तस रखा। 1988 में श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री के रूप में चीनी नेताओं से जाकर मिले और ‘सीमा विवाद’ और तिब्बत प्रश्न पर चीनी नेताओं के दृष्टिकोण के प्रवक्ता बनकर लौटे। चंद्रशेखर के संक्षिप्त प्रधानमंत्रित्व-काल में वाणिज्य मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने 1991 में भारत-चीन व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करके आर्थिक सहयोग में बड़ी बढ़ोतरी को संभव बनाया। पी.वी. नरसिंह राव का कार्यकाल 1993 और 1996 के दो समझौतों के कारण विशेष सफलता का दौर रहा।

श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 2003 में चीन के साथ एक समझौता किया। इस समझौते में भारत ने तिब्बत को चीन का ‘अभिन्न अंग’ माना और बदले में चीन ने सिक्किम के 1976 में हुए विलय को मान्यता दी। लेकिन इस समझौते के बारे में भारतीय जनता पार्टी के संसद सदस्य डा. सुब्रमण्यम स्वामी का कहना है कि इससे भारत के आत्मसम्मान को गहरी ठेस लगी और चीन को तिब्बत के चार टुकड़े करने की छूट  मिल गयी (देखें : सुब्रमण्यम स्वामी (2020), पृष्ठ 116)। वह इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा भारत द्वारा परमाणु विस्फोट के बाद 12 मई 1998 को अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को लिखे एक गोपनीय पत्र को भी भारत और चीन के रिश्तों में नयी समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानते हैं। इस पत्र ने नरसिंह राव के कार्यकाल में 1993 और 1996 में हुए महत्त्वपूर्ण समझौतों को निरर्थक बना दिया। (देखें : वही, पृष्ठ 110-114)

इधर नरेंद्र मोदी राज में सीमा विवाद और भारत की भूमि पर कश्मीर से लेकर लद्दाख और अरुणाचल तक चीनी कब्जे की अनदेखी करते हुए भारतीय बाजार को खोलकर आर्थिक समर्पण किया गया। चीन आज भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और ‘ब्रिक्स’ जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों में रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के साथ परस्पर सहयोगी है। लेकिन भारत ने चीन की ‘वन बेल्ट, वन रोड’ योजना से अपने को अलग रखा है। क्योंकि चीन इस योजना में पाकिस्तान के कब्जे के कश्मीरी क्षेत्र को भी शामिल करना चाहता है। इससे चीन नाखुश हुआ है। यह नाखुशी 2020 के मध्य में लद्दाख में सैनिक टकराहट के रूप में और नुकसानदेह हो चुकी है।

क्या हमारे नीति निर्माता इतिहास से कोई भी सबक सीखने में अक्षम हैं? नेहरू राज ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाया। चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई का तीन बार दौरा कराया गया–1954, 1956 और 1960 में। इसके बदले में चीन ने हमें युद्धभूमि में घसीटते हुए पराजित किया और लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र पर दिन-दहाड़े कब्जा बनाये रखा। इधर नरेंद्र मोदी राज में 2014 और 2020 के 6 बरस में 18 बार गले लगाने का प्रयास हुआ। लेकिन चीन सरकार की तरफ से 1993, 1996, 2005, 2012 और 2013 में किये गए समझौतों का उल्लंघन किया गया है। भूटान के दोक्लाम से लेकर लद्दाख की 900 किलोमीटर लम्बी सीमा के पांच क्षेत्रों – देप्संग, गलवान, पांगोंग त्सो, कुगरांग घाटी और चर्डिंग नाला (देमचोक) – में 50,000 चीनी सैनिकों की तैनाती से सैनिक दबाव बनाया गया। लद्दाख क्षेत्र को अक्साई चिन से अलग करने वाले 1000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर नया कब्जा कर लिया है (देखें : विजयिता सिंह – ‘चाइना कंट्रोल्स 1000 स्क्वेयर किलोमीटर ऑफ़ एरिया इन लद्दाख’, द हिन्दू 31 अगस्त 2020)। अब 15 जून 2020 से ही भारत चीन, पाकिस्तान और नेपाल की साझी रणनीति से परेशान है।

तीसरे, किन्हीं रहस्यमय कारणों से हमारी सैनिक शक्ति चीन के सामने कागजी शेर बना दी जाती है। सिर्फ 1986 में हमने इससे अलग कार्रवाई की थी जिससे चीन पीछे हटा भी था। जबकि चीन द्वारा वियतनाम में विस्तार करने की कोशिश का कम सैनिक बल के बावजूद भरपूर जवाब मिला। नेहरू-काल में 21 अक्तूबर 1959 को लद्दाख के कोंग्का ला में भारतीय सेना की टुकड़ी पर घात लगाकर चीनियों ने हमारे 10 सैनिकों की हत्या की और 10 को बंदी बनाया। तीन साल बाद 1962 में हमला करके भारत को ‘कड़ा सबक’ भी सिखाया। 63 साल बाद 15 जून 2020 को उसी क्षेत्र में गलवान नदी के निकट फिर वैसी ही वारदात की गयी है। इसमें भारतीय कमांडिंग अफसर समेत 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए। चीन के 4 सैनिक मरे।

इसके बाद से अबतक परस्पर विरोधी वक्तव्यों के कारण देश में हिमालय में चीन की घुसपैठ के बारे में अस्पष्टता का माहौल बन गया है। इससे ‘हिमालय बचाओ’ को नयी प्रासंगिकता मिली है। तिब्बत की आजादी के बिना भारत की सुरक्षा के अधूरेपन का सच सामने आया है। इस बिंदु पर डा. सुब्रमण्यम स्वामी की तरफ से उठाये गए चार सवालों को दुहराना अप्रासंगिक नहीं होगा क्योंकि यह देश की सरहदों की सुरक्षा का मामला है। इसमें सच ही हमारी सुरक्षा का एकमात्र आधार होगा। एक, क्या चीनी सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पार करके हमारी जमीन पर कब्जा किया था? यदि नहीं तो 15 जून 2020 को हमारे 20 जवानों और अफसरों की चीनी सेना के जवानों के साथ झगड़े में कहाँ हत्या की गयी? दूसरे, क्या चीनी सैनिक अभी भारत की जमीन पर बने हुए हैं? तीसरे, इस समय दोनों पक्षों के बीच ‘परस्पर दूरी बनाने के लिए’ (डिसइंगेज्मेंट) चल रही वार्ता का भारतीय जमीन से वापस जाने से अलग क्या उद्देश्य है? और चौथा प्रश्न यह है कि यदि चीन ने भारत की जमीन खाली करके पूर्ववत स्थिति नहीं बनने दी तो नयी दिल्ली इसके लिए क्या उपाय करेगी? (देखें : सुब्रमण्यम स्वामी (2020) पृष्ठ 122-23

जय तिब्बत, जय भारत, जय जगत

वस्तुत: यह स्वीकारने का समय आ गया है कि हिमालय की रक्षा की चुनौती के सन्दर्भ में सरदार पटेल की चीन के तिब्बत को कब्जे में लेने को लेकर 1950 में लिखी चिट्ठी का सच लगातार हमारे सामने आता जा रहा है। इसी क्रम में लोहिया की ‘तिब्बत बचाओ, हिमालय बचाओ’ की पुकार की अनसुनी करना भारत को महंगा पड़ चुका है। इसलिए जयप्रकाश द्वारा तिब्बत की मदद के लिए भारत में जनमत निर्माण और अफ्रीका और एशिया के देशों को एकजुट करना पहले से ज्यादा प्रासंगिक है।

इसलिए भारत-तिब्बत मैत्री संघ, अन्य तिब्बत समर्थक संगठनों और व्यक्तियों के लिए ‘जय तिब्बत! जय भारत! जय जगत!’ में अपनी आस्था को दुहराते हुए तिब्बत मुक्ति साधना में भरपूर सहयोग की नयी जरूरत आ गयी है। हम भारतीयों के ऊपर  हिमालय बचाने के साथ ही हिन्द महासागर बचाने का भी जिम्मा आ गया है। तिब्बत के मुक्ति साधकों ने अनेकों कठिनाइयों के बावजूद 1959 से 2022 के बीच की लम्बी अवधि में दुनिया के हर महाद्वीप में अपनी पीड़ा का सच फैला दिया है। इसी के समांतर दलाई लामा भारत के प्रति अपनी श्रद्धा और आभार प्रकट करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। आइए, हम भी भारत-तिब्बत मैत्री के परचम को देश के हर जिले में फहराएं। हर देशभक्त स्त्री-पुरुष को, विशेषकर विद्यार्थियों-युवजनों-भूतपूर्व सैनिकों को इस अभियान से जोड़ें। जब देश की सुरक्षा खतरे में हो तो राजनीतिक मतभेदों को पीछे छोड़कर राष्ट्रीय एकता के बल पर आगे बढ़ना ही नागरिक धर्म है।

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