— कमल सिंह —
मजदूर आंदोलन
तीस का दशक परिवर्तन का दशक था। जंगल आंदोलन में 1930 में सजा काट कर रिहाई के बाद वे (दादा देवीदत्त अग्निहोत्री) नागपुर से फतेहपुर अपने गांव लौट आए थे। यहां फिर वे कांग्रेस की बानरसेना द्वारा मर्दुमशुमारी के नम्बर मिटाओ आंदोलन में शरीक हो गए। उन्हें तीन वर्ष का कारावास मिला। गांधी-इर्विन समझौते के अंतर्गत रिहा राजबंदियों में वे भी थे। रिहा होने के बाद वे इंदौर चले गए। इंदौर सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्र के रूप में विकसित हो रहा था। दादा ने वहां ‘कल्याण हुकुमचन्द सूत मिल’ में बिन्ता श्रमिक के रूप में काम किया। यहां से मजदूर आंदोलन में उनकी शुरुआत हुई। ‘नन्दलाल भंडारी मिल’ में मजदूर हड़ताल में सक्रियता के कारण गिरफ्तार किए गए। तीन माह कारावास के बाद लौटे। अब उन्होंने कानपुर को कार्यस्थली बना लिया। पी.सी. जोशी की भतीजी चित्रा जोशी ने दादा देवीदत्त अग्निहोत्री के साथ एक साक्षात्कार का हवाला देते हुए बताया है, “कानपुर आने से पहले वे गुजरात और मध्य भारत गए, जंगल सत्याग्रह में सम्मिलित हुए, नागपुर में रहे, फिर वहां से मुम्बई, इंदौर और उज्जैन में” .. वे, एक कुशल बुनकर श्रमिक थे और बिन्ता विभाग में बतौर सुपरवाइजर काम करते थे।
मजदूर आंदोलन का पहला दौर (1920 – 27)
कानपुर के विभिन्न उद्योगों के 20 हजार मजदूरों की ऐतिहासिक हड़ताल और कानपुर मजदूर सभा की स्थापना के साथ संगठित मजदूर आंदोलन के नए अध्याय की शुरुआत हुई। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से मंहगाई की मार, आर्थिक दुश्वारियों से जनता बेहाल थी। 1918-19 के बीच जीवन स्तर सूचकांक में 43 फीसदी इजाफा हो गया जिसके कारण बुनकर मजदूरों के वास्तविक वेतन में 31 प्रतिशत और कताई मजदूरों के वेतन में 30 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई, जबकि कपड़े के दाम दो गुना बढ़ गए थे। मालिकों ने युद्ध के दौरान और युद्ध समाप्त होने के बाद महंगाई के बीच जमकर मुनाफा लूटना जारी रखा। हालात यह थे कि कारखानों से इतर दिहाड़ी जो 4 या 5 आना दिन की मजदूरी पाते थे वे दो गुना 8 आने रोज मजदूरी वसूल रहे थे। युद्धकाल में मांग की पूर्ति के लिए बढ़ाए गए काम के घंटों के कारण मजदूरों पर काम का बोझ भी बढ़ गया था।
मजदूर आंदोलन बहुत तीव्र था। गणेश शंकर विद्यार्थी के समाचारपत्र ‘प्रताप’ में इन हालात का विस्तृत हवाला दिया गया था। उसमें बताया गया कि ड्यूटी पर 1 मिनट भी देर होने पर 1 आना जुर्माने का वेतन से काट लिया जाता था। अहातों में गंदगी का आलम यह था कि संक्रामक रोगों की चपेट में आबादी बेहाल थी। 2018 में इनफ्लुएंजा महामारी के रूप में फैल गया था। ये वे हालात थे जिनमें कानपुर का मजदूर अभूतपूर्व आंदोलन में एकजुट हो गया था। निश्चय ही होम रूल आंदोलन, स्वराज पार्टी और कांग्रेस में गरम दल तथा अंतराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन विशेषकर 1917 में अक्टूबर क्रांति द्वारा रूस में मजदूर राज की स्थापना मजदूर वर्ग के इस स्वत:स्फूर्त आंदोलन का प्रेरणास्रोत रहे।
1921 में कानपुर में मजदूरों की तीन हड़तालें और हुईं। दमनकारी ‘रौलेट एक्ट’ के विरोध में सत्याग्रह में मजदूरों की शिरकत को लेकर प्रस्ताव कांग्रेस में भी पारित हुआ, हालांकि गांधीजी मजदूरों को असहयोग आंदोलन से अलग रखने और अंतिम अस्त्र के रूप में हड़ताल का सहारा लेने से पूर्व मिल मालिकों से इजाजत के पक्ष में थे। वे मानते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में मिल मालिकों को भी साथ रखना जरूरी है। कानपुर के मजदूरों ने एक सप्ताह की शानदार हड़ताल कर कानपुर बंद किया। लाला लाजपत राय के स्वास्थ्य में सुधार के लिए कानपुर के मजदूर 22 जुलाई 1922 को कार्य से विरत रहे। यह मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना जाहिर करता है। इस वर्ष (1922) विक्टोरिया मिल के मजदूरों की चार सप्ताह और म्योर मिल के मजदूरों की छह सप्ताह की हड़ताल हुई।
एल्गिन मिल में मजदूरों पर पुलिस ने लाठी भांजी। मजदूरों ने पथराव करके जवाब दिया। इस दौरान मजदूर वर्ग के मध्य से रमजान अली नामक जुझारू मजदूर नेता उभरा था जो कि डॉ. मुरारीलाल रोहतगी जैसे मध्यवर्गीय नरम नेताओं से अलग था। विक्टोरिया मिल में एक अंग्रेज सिलाई मास्टर ने रामरतन सिंह नामक मजदूर को थप्पड़ मार दिया। मिल के 3000 मजदूरों ने काम बंद कर दिया। 21 दिसम्बर, 1923 से 1 जनवरी 1924 पूरे 15 दिन मिल बंद रही; मालिकों ने 1 जनवरी से फिर मिल खोली पर हड़ताल जारी रही। 5 फरवरी से काम सुचारु हो पाया। 4 अप्रैल, 1924 को बोनस की मांग पर कानपुर कॉटन मिल (एल्गिन मिल नं. 2) के मजदूरों ने बोनस के लिए हड़ताल कर दी। अन्य मिलों में बोनस बंट चुका था। मजदूरों ने मालिकों का रवैया देखकर नयी रणनीति अपनाई। काम बंद कर मिल के भीतर धरना देकर बैठ गए। प्रबंधकों ने पुलिस बुला ली। मजदूरों पर भयंकर लाठी चार्ज किया। मजदूरों के प्रतिरोध पर फायरिंग की। मजदूरोंं और बाहर एकत्र भीड़ पर घोड़े दौड़कर उन्हें कुचला गया। कुछ मजदूरों को भट्टी में झोंक दिया गया। सरकार ने चार मजदूरों की मौत कबूली। जबकि अनेक लापता दिखाए गए। कानपुर कॉटन मिल का नाम तभी से “खूनी काटन मिल” पड़ गया। रमजान अली और शिव बालक पर सरकार ने दंगा भड़काने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया।
कांग्रेस की समझौतापरस्त नीतियों के कारण कानपुर मजदूर सभा पर कांग्रेस का प्रभाव घटने लगा। राधा मोहन गोकुलजी, मौलाना हसरत मोहानी, सत्यभक्त, और शौकत उस्मानी जैसे वामपंथियों का असर कानपुर के मजदूर आंदोलन पर बढ़ना शुरू हुआ। कानपुर मजदूर सभा की ओर से ‘मजदूर’ नाम से एक समाचार पत्र प्रारंभ किया गया। ‘वर्तमान’ अखबार के संपादक रमाशंकर अवस्थी ने लेनिन की जीवनी तथा ‘रूस की राज्यक्रांति’ नामक पुस्तिकाएं लिखीं। कानपुर में ही 28 से 30 दिसंबर,1925 में कम्युनिस्ट पार्टी का पहला खुला सम्मेलन हुआ। राधामोहन गोकुलजी, सत्यभक्त, श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ्फर अहमद जैसे कामरेडों सहित मेरठ षड्यंत्र केस आदि विभिन्न मुकदमों में जेल में अवरुद्ध कम्युनिस्ट नेतृत्व की पहली कतार की प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी इस सम्मेलन में थी। बहरहाल, कानपुर मजदूर सभा के चुनाव में मुरारीलाल रोहतगी को ही संगठन का सदर चुना गया। इसी वर्ष गणेश शंकर विद्यार्थी कौंसिल (धारा सभा) के लिए चुने गए।
(जारी)