महाराष्ट्र फाउंडेशन के प्रणेता सुनील देशमुख नहीं रहे

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स्मृतिशेष : सुनील देशमुख


— डॉ. सुरेश खैरनार —

5 जनवरी। कल खबर पता चली कि महाराष्ट्र फाउंडेशन अमरीका के संस्थापकों में से एक, प्रमुख साथी सुनील देशमुख अब नहीं रहे! मैं स्तब्ध रह गया। उनसे संबंधित एक संस्मरण बहुत दिनों से दिल के कोने में था ! तो आज आप सभी साथियों के साथ उसे साझा कर रहा हूँ।

सांप्रदायिकता के विरुद्ध मेरे काम करने को लेकर, आज से पंद्रह साल पहले (
2008) महाराष्ट्र फाउंडेशन अमरीका ने अपने खुद होकर पुरस्कार से सम्मानित किया! ऐसे समय जबकि सामान्यतः ज्यादातर पुरस्कार पाने के लिए अर्जी दाखिल करने से लेकर लॉबिंग तक सबकुछ करना पड़ता है। शायद यह पुरस्कार अपवाद है। जहाँ पर किसी को भी कोई औपचारिकता का पालन किए बगैर, पुरस्कार खुद उसे सम्मानित करने उसके दर पर पहुँच जाता है। अन्यथा पद्म पुरस्कार से लेकर मैगसेसे, नोबेल पुरस्कार तक, न जाने कितनी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। और गलियों के पुरस्कारों के बारे में सुना है कि लोगों को अपने खुद के पैसे खर्च करने के बाद, यहाँ तक कि उसके ऊपर किये गये मीडिया कवरेज के खर्च को मिलाकर, देने के किस्से हैं!

और मैंने भी इसी कारण, इस पुरस्कार को स्वीकार करने का निर्णय लिया! तो उसे लेने के लिए, मुंबई के शिवाजी मंदिर नाट्यगृह दादर में कार्यक्रम में मैं गया था। और शाम को पुरस्कार वितरण समारोह में, पुरस्कार पूर्व मंत्री मधुकर राव चौधरी के हाथ से दिया जाना पहले से ही तय था। लेकिन सुबह हम सभी पुरस्कार से सम्मानित होने वाले लोगों को अपने मन की बात कहने का कार्यक्रम सुबह से दोपहर के खाने के समय तक था। उसमें ज्यादातर लोगों ने अपनी जीवन यात्रा के बारे में बोला।

मेरी बारी आने पर मैंने कहा कि सामने बैठे हुए, ज्यादातर लोगों को मेरी जीवन यात्रा मालूम है इसलिए मै सिर्फ वर्तमान समय में भारत की सांप्रदायिक स्थितिपर रोशनी डालने की कोशिश करने जा रहा हूँ! और जो भी कुछ बोला, उसके कुछ समय के बाद सुनील देशमुख मुझे हाथ पकड़कर अलग ले जाकर कहने लगे कि ” आप के मनोगत को सुनने के बाद, हमें लगा कि आपको किसी उचित व्यक्ति के हाथों पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए! तो हम सभी ने मिलकर सोचा कि शहिद हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे के हाथों आप अकेले को अलग से पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा! और अन्य लोगों को पहले से ही तय, मधुकर राव चौधरी के हाथों !”

तो मैंने सुनील देशमुख जी को कहा कि “अभी हमारे देश की राष्ट्रपति प्रतिभा ताई पाटील है! आपने मुझे पूछा होता कि आपको प्रतिभा ताई और कविता ताई मे से किसके हाथ से पुरस्कृत किया जाय? तो मैंने कहा होता की कविता करकरे! लेकिन ऐन समय पर कविता जी कैसे आ सकती है? तो सुनील देशमुख ने कहा कि “जब आप बोल रहे थे, उसी क्षण तय करके हमने तुरंत उनसे फोन पर बात की। और वह भी बोलीं कि “डॉ सुरेश खैरनार मेरे पति के प्रिय लोगों में से एक हैं! और उसकी वजह यह कि उन्होंने महाराष्ट्र की तीन आतंकवादी घटनाओं की सबसे पहले जाँच करने का काम किया है! सबसे मुख्य बात हेमंत को एटीएस की जिम्मेदारी सौपने के पीछे के कारण डॉ. सुरेश खैरनार ने, सबसे पहले महाराष्ट्र के हाल के दिनों के तीनों (6 अप्रैल 2006, 1 जून 2006 नागपुर संघ मुख्यालय को उडाने की कोशिश और 2006 और 2008 के मालेगांव के दोनों विस्फोट!) आतंकवादी घटनाओं का प्राथमिक जांच करने के कारण! सबसे पहले नांदेड़ और मालेगाँव के दोनों बम विस्फोटों की, और नागपुर के संघ मुख्यालय पर तथाकथित फिदायीन हमले की जांच उन्होंने सबसे की है!
और हेमंत बहुत प्रभावित थे! तो ऐसे व्यक्ति को अपने हाथ से पुरस्कृत करने में मुझे खुशी होगी!

यह कविता करकरे की प्रतिक्रिया सुनील देशमुख के मुँह से मैंने सुनी थी। और उन्होंने आगे कहा कि “मैं बहुत खुश हूँ  कि सचमुच ही हमने, सही व्यक्ति को पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया है!” तो मैंने कहा कि “मुझे मालूम है कि पुरस्कार से सम्मानित किए जाने वाले सभी लोगों के भाषण हो गए हैं लेकिन मुझे कविता करकरे के हाथ से पुरस्कृत होने के बाद सिर्फ दो मिनट का समय चाहिए!” तो सुनील देशमुख मुस्कुराते हुए अंगूठा दिखाते हुए बोले कि डन!

फिर मैंने अपने दो मिनट के संबोधन में कहा कि “इस दशक के मेरे दो हीरो हैं जिन्हें मैं सैल्यूट करना चाहता हूँ ! एक इराक के पत्रकार जिसने हाल ही में, अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के ऊपर, बगदाद के प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने पैर से जूता निकालकर फेंका! और दूसरी कविता जी।

हेमंत करकरे जी की 26/11 के दिन हत्या के बाद, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कविता जी के घर आकर, कुछ बड़ी रकम देने की पेशकश की थी! और कविता जी ने बड़ी ही विनम्रतापूर्वक, साफ मना कर दिया। ऐसी स्वाभिमानी महिला को मेरा सैल्यूट! समस्त हॉल तालियों से गूँज रहा था! और सबसे हैरानी की बात, मेरे बचपन से राष्ट्र सेवा दल की बैचमेट मेधा पाटकर तो तुरंत सामने की कुर्सियों की लाइन से उठकर मेरे दोनों हाथों को पकडते हुए बोलीं कि “आपके सुबह के भाषण से यह दो मिनट का संबोधन भन्नाट है!” और भी काफी लोगों ने सराहा है!

सबसे आश्चर्य की बात, कार्यक्रम के बाद सुनील देशमुख ने मुझे अलग से पकड़ा  और सीधा कहा कि “अब इसके आगे महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार समिति की जिम्मेदारी आप को सम्हालना है!” मैंने हाथ जोड़कर कहा कि मेरा टेंपरामेंट किसी आर्थिक व्यवहार करने वाली संस्थाओं को चलाने का नही है, बहुत धन्यवाद आपका! लेकिन महाराष्ट्र में एक से बढ़कर एक लोग हैं। उनमें से आप और किसी को भी यह जिम्मेदारी दे सकते हो ! मुझे इससे अलग ही रखिए!”

बहुत लोग खासकर पैसा कमाने के लिए विदेश जाते हैं। सुनील देशमुख भी गए थे! अमरीका के शेयर बाजार में प्रवेश करके उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी होने के बाद उन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए, अपने अमरीका के अन्य मित्रों के साथ बातचीत करने के बाद यह फैसला लिया था कि
महाराष्ट्र फाउंडेशन अमरीका के पुरस्कार के द्वारा महाराष्ट्र के सभी गैर-आरएसएस और परिवर्तनवादी लोगों को ढूंढ़-ढूंढ़कर पुरस्कृत करेंगे। यह फाउंडेशन बनाने के बाद पुरस्कार देने का सिलसिला काफी समय से जारी है। और लगभग हर समारोह के दौरान अमेरिका से वह खुद आकर पुरस्कार से सम्मानित करने का कार्यक्रम करते थे।

महात्मा गाँधी सार्वजनिक जीवन को मधुमक्खी के छत्ते की उपमा देकर कहते थे कि “भारत के अन्य राज्यों की तुलना में महाराष्ट्र में सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वालों और उनके काम को मदद करने वालों की पुरानी परंपरा है! महात्मा गाँधी जी ने बिल्कुल सही कहा है! गत पचास वर्षों से, मैं भारत के लगभग सभी प्रदेशों में आना-जाना कर रहा हूँ ! सबसे ज्यादा बिहार में ! बिहार में सार्वजनिक काम करने वाले लोगों की संख्या बहुत है लेकिन उनके पास संसाधन का अभाव है। और यह चिंता जेपी से लेकर वर्तमान समय में, जस की तस बनी हुई है!

क्यों नहीं कोई सुनील देशमुख बिहार में पैदा हो रहा? इतनी उर्वर भूमि का बिहार ! और इतना रूखापन पैसा कमाने वाले साथियों का! देखकर मुझे बहुत ग्लानि होती है। जब तक सुरेंद्र मोहन, कुलदीप नैयर, वीएम तारकुंडे जैसे लोग थे तब तक बिहार के सभी साथियों के लिए कुछ ढंग का आर्थिक प्रबंधन हमेशा के लिए किया जाना चाहिए था, यह बात मेरे साथ तीनों महानुभाव बोलते थे। हालांकि हम चारों गैरबिहारी! कोई साधन-संपन्न बिहारी क्यों नहीं आगे आ रहे हैं? सुनील देशमुख जी के इस दुनिया से चले जाने के बाद यह सवाल आज पुनः उभरकर सामने आया है! मेरी बात से किसी की भावनाओं को ठेस पहुँची हो तो मुझे माफ करेंगे!

सुनील देशमुख की स्मृति को प्रणाम!

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