इंदिरा गांधी को सजा देकर तिहाड़ जेल किसने भिजवाया?

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— प्रोफेसर राजकुमार जैन —

हिंदुस्तान की सियासत में कुछ ऐसी नायाब नजीरें हैं। जहां सताया हुआ इंसान अपने हाथ में बाजी आने के बावजूद सताने वाले के साथ लोकतांत्रिक, कानून सम्मत, न्यायपूर्ण, बदला न लेने से सलूक करता है। ऐसी एक मिसाल है जब 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने मुल्क में आपातकाल लगाकर लोकतांत्रिक अधिकारों का खात्मा करते हुए, हजारों नागरिकों को हिंदुस्तान की मुख्तलिफ जेलों में बंदी बनाकर रखा था। 19 महीने के बाद रिहाई संभव हुई थी।

सोशलिस्ट नेता मधु लिमये लोकसभा के सदस्य भी थे। उन्हें मध्य प्रदेश की रायपुर तथा नरसिंहगढ़ की जेल में मीसा में बंद कर दिया गया था। सरकार ने एक अध्यादेश की मार्फत 1976 में लोकसभा का कार्यकाल 1 वर्ष बढ़ाने की घोषणा कर दी। उन्होंने जेल से ही संसद सदस्यता से इस्तीफा देते हुए लोकसभा के स्पीकर को खत में लिखा कि समय बढ़ाना असंवैधानिक है। मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।

18 वर्ष के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा मधु लिमये को 1940 में ब्रितानिया हुकूमत का विरोध करने पर 1 साल की सख्त सजा सुनाकर जेल में बंद कर दिया गया था। 1943 में फिर आजादी की जंग में गिरफ्तार कर लिये गए, 2 साल बाद जेल से रिहाई हुई। हिंदुस्तान के आजाद होने के बाद गोवा आजादी के लिए संघर्ष करते हुए 15 अगस्त 1955 में पुर्तगाली जार की सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर 12 साल के कठोर कारावास की सजा सुना दी। सत्याग्रह करते वक्त पुलिस की मार से घायल मधु लिमये के बारे में एक बार महाराष्ट्र में खबर पहुंची कि वह नहीं रहे।

आजाद हिंदुस्तान में जन सवालों, नागरिक आजादी तथा अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते हुए प्राणघातक हमले में उनकी पसलियां भी टूट गई थीं। चार बार के लोकसभा सदस्य, उद्भट विद्वान, लगभग 100 से अधिक मराठी, हिंदी, अंग्रेजी में उन्होंने किताबें लिखीं। संसदीय इतिहास में अमिट छाप छोड़ने वाले मधु लिमये के सम्मान में लोकसभा में उनका चित्र भी लगाया गया। हिंदुस्तान में हजारों नौजवानों को उन्होंने समाजवाद का पाठ पढ़ाकर सोशलिस्ट विचारों में दीक्षित भी किया। आपातकाल में 19 महीने की जेल से रिहाई के बाद केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई चाहते थे कि मधु लिमये उनके मंत्रिमंडल में शामिल हों। परंतु उन्होंने मंत्री बनने से इनकार कर दिया।

मोरारजी देसाई की सरकार इंदिरा गांधी को आपातकाल में की गई ज्यादतियों के बदले सजा देना चाहती थी। परंतु ना तो अदालत में तथा अन्य किसी तरीके से उनको सफलता मिल रही थी।

मारुति लिमिटेड (मारुति कार प्रोजेक्ट) के संबंध में संजय गांधी द्वारा की गई अनियमितताओं को लेकर मधु लिमये ने कई सवाल किए थे। ऐसे ही एक प्रश्न के बारे में जानकारी इकट्ठा करने का कार्य उद्योग मंत्रालय के तहत कुछ अफसरों को करना पड़ा। आपातकाल जारी होने के बाद इंदिरा गांधी के आदेश से उन अफसरों की जांच की गई, उन्हें हर प्रकार से तंग किया गया। मधु लिमये लिखते हैं कि इनमें से एक अफसर की पत्नी श्रीमती काबले चंपा (मधु लिमये की पत्नी) के पास पहुंची। मेरी रिहाई के बाद वह पति-पत्नी मुझसे मिलने आए। उन्होंने अपनी रामकहानी सुनाई। शाह कमीशन के सामने उद्योग मंत्री अनंत पाई की गवाही हुई, उससे इंदिरा गांधी की जवाबदेही स्पष्ट हो गई। हैदराबाद से दिल्ली आते समय जहाज में मैंने उसको पढ़ा। मेरे दिमाग में विचार चक्र घूमने लगा। मधु लिमये द्वारा पूछे गए सवालों में लोकसभा के सचिवालय ने तब्दीली करके उन्हें निरर्थक बना दिया। इन सवालों के बारे में पूछताछ करने वाले अफसरों पर जुल्म ढाया गया। मधु लिमये ने मारुति लिमिटेड के खिलाफ विशेष अधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया था, सरकार ने मधु लिमये के उस विशेष अधिकार प्रस्ताव पर संज्ञान लेते हुए एक विशेष अधिकार कमेटी बैठाई। कमेटी ने अपनी जांच रिपोर्ट में कहा कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद का दुरुपयोग करके अपने पुत्र संजय गांधी जिनके नियंत्रण में यह कंपनी थी, उनके हितों की रक्षा करते हुए किया।

मधु लिमये ने अपने लेख ‘इंदिरा गांधीस इलेक्शन टू एंड एक्सपैलशन फ्रॉम द लोक सभा’ में विस्तार से इस घटनाक्रम का वर्णन किया है। मधु लिमये लिखते हैं कि विशेषाधिकार कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश नहीं की कि क्या सजा श्रीमती इंदिरा गांधी तथा दो अन्य व्यक्तियों उन्होंने साजिशन कमेटी के कार्य में बाधा उत्पन्न की थी दी जाए। इस बात का फैसला सदन पर छोड़ दिया गया। मधु लिमये को शक था कि वह इसलिए हुआ कि कमेटी के चेयरमैन समर गुहा चाहते थे, कि इसका फैसला प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के निर्देशानुसार किया जा सके। मधु लिमये आगे लिखते हैं सबसे अच्छा होता कि कमेटी अपनी सिफारिश में श्रीमती इंदिरा गांधी की भर्त्सना तथा चालू सत्र के अंत तक भाग न लेने की रोक लगाती। परंतु कमेटी ने ऐसा न करके, बिना निश्चित निर्देश दिए सदन पर छोड़ दिया। जनता पार्टी के राज में चिकमगलूर से उप-निर्वाचन में 70,000 से अधिक वोटों से जीतकर श्रीमती इंदिरा गांधी संसद में वापस आ गईं। तत्पश्चात वह एक दिन सेंट्रल हॉल में आईं, बड़ी भीड़ थी, वह वापस जाने के लिए दरवाजे की ओर जा रही थीं। मैं (मधु लिमये) और पीलू मोदी मुख्य दरवाजे के पास वाली टेबल पर बैठे हुए कुछ खा तथा कॉफी पी रहे थे। ज्योंही दरवाजे पर वे पहुंचीं, वहां से वापस लौट आईं, उनकी नजर मुझ पर पड़ी, और हमारे सामने आकर भी खड़ी हो गईं। उन्होंने मुझे और पीलू को हेलो कहा, हमने भी जवाब में हेलो कहा।

उसके बाद उन्होंने शरारती मुस्कुराहट से मुझसे पूछा क्या षड्यंत्र हो रहा है? मुझे फांसी पर तो नहीं चढ़ाया जा रहा है, मैंने कहा नहीं। अभी तो आप जीतकर आई हैं। आइए, खाना खाइए। हॅंसकर और आभार प्रदर्शित करके वे चली गईं। इंदिरा जानती थीं इस विषय में मेरी पहल व्यक्ति द्वेष से प्रेरित नहीं थी। उपर्युक्त अफसरों को दी गई यातनाओं से मैं नाराज था।

कमेटी की सिफारिश पेश होने के बाद तीन-चार कांग्रेस (आई) के संसद सदस्य मेरे से मिले। वे अलग-अलग आए थे। मिलने वालों में वसंत साठे तथा कल्पनाथ राय भी थे। उन्होंने मुझसे पूछा आप रिपोर्ट के बारे में क्या करने जा रहे हैं? मैंने उनसे कहा हम लोगों ने इस विषय पर अभी तक विचार नहीं किया है, मैं नहीं जानता कि मेरी पार्टी के सदस्य क्या रुख अपनाएंगे। अभी तक कोई व्हिप जारी नहीं हुआ। एक दिन कल्पनाथ राय जो कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 1970 से पूर्व सदस्य थे, मुझसे मिलने आए। तथा कहा, संसदीय प्रक्रिया के एक माहिर विद्वान के रूप में श्रीमती गांधी आपकी सलाह चाहती हैं कि इस विषय पर अब वे क्या करें। एक क्षण मैं असमंजस में पड़ गया। उसके बाद मधु लिमये ने कल्पनाथ राय से पूछा कि क्या वे ईमानदारी से पूछ रही हैं या हमारी नीयत को जानने के इरादे से। क्योंकि मैं अपने में स्पष्ट था, तो मैंने कहा कि दोष तो उनका जरूर है। पर हर अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता। वे चार निर्दोष अफसरों को परेशान करने के लिए जिम्मेदार हैं। मेरी राय में उन्हें सदन से माफी मांग लेनी चाहिए। उससे अपराध का परिमार्जन भी होगा, तथा संसद की गरिमा भी बढ़ेगी। और उनकी दृष्टि से भी वह ठीक होगा। वह (कल्पनाथ राय) जानना चाहता था कि अगर वे (इंदिरा गांधी) अपना खेद प्रकट कर दें तो इसके बाद तो उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। इस पर मधु लिमये ने कहा, मैं दूसरों के लिए तो कुछ नहीं कह सकता। पर व्यक्तिगत रूप से मैं गलती के लिए क्षमा मांगने को स्वीकार कर लूंगा। तथा सदन को सलाह दूंगा कि आगे कार्यवाही ना की जाए। दूसरे दिन उनका संदेश लेकर फिर एक दूत आए और उन्होंने कहा वह माफी मांगने के लिए तैयार हैं। लेकिन वह आश्वस्त होना चाहती हैं कि आगे इस मसले को लेकर कोई और कार्रवाई उनके खिलाफ नहीं की जाएगी। मैंने कहा मैं पार्टी वालों से पूछकर बताऊंगा। मैंने अपने साथियों से बात की, चंद्रशेखर मेरी राय के ही थे। आडवाणी और अटल बिहारी भी। पर मोरारजी, जॉर्ज (फर्नांडीस), सुब्रमण्यम स्वामी तथा अन्य जनसंघ वालों का रुख ठीक नहीं था। वह सब उनको जेल भेजने के लिए उत्सुक थे।

विशेषाधिकार के प्रस्ताव पर मैंने जो भाषण किया वह हमारे दल के लोगों को पसंद नहीं आया। मैंने कहा था कि माफी मांग लेने पर इस दुर्भाग्यपूर्ण श्रृंखला को समाप्त कर दिया जाए। मगर मेरी बात मानी नहीं गई। अतः मैंने इंदिरा गांधी के दूत से कहा, लोग द्वेष और दुर्भावना से भरे हुए हैं। अब मैं उन्हें कोई सलाह नहीं दूंगा, उन्हें जो करना है करें। स्वयं प्रधानमंत्री मोरारजी दुर्भावना से मुक्त नहीं थे। नतीजा यह हुआ कि प्रधानमंत्री के प्रस्ताव द्वारा उनकी (इंदिरा गांधी की) संसद-सदस्यता भी समाप्त की गई, और उन्हें जेल भी भेज दिया गया। मेरे प्रिविलेज मोशन के आधार पर श्रीमती इंदिरा गांधी दोषी करार हुई थीं। परंतु जब सजा देने का सवाल आया मोरारजी भाई में इतनी भी सदाशयता नहीं थी कि मुझ से परामर्श करते। मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि वे खुद इंदिरा गांधी का निष्कासन तथा जेल भेजना चाहते थे। मामूली सजा जैसे चालू सदन की कार्यवाही में भाग लेने की मनाही, मेरे खयाल में न्याय करने में ज्यादा बेहतर होता।

श्रीमती इंदिरा गांधी को जेल भेजे जाने से पासा पलट गया। हिंदुस्तानी अवाम को लगा कि उनके साथ अति हो रही है। इंदिरा गांधी फिर दिल्ली की गद्दी पर काबिज हो गईं।

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