— ऋतु कौशिक —
मानव सभ्यता ने अपने विकास-क्रम में बहुत-से महत्त्वपूर्ण बदलावों को देखा है। पहाड़ों में बनी प्राकृतिक गुफाओं में रहने से लेकर ईंटों से घर बनाने तक, पत्थरों से बनाये औजारों से शिकार करने से लेकर मांस को पकाकर खाने और फिर खेती करने तथा आधुनिक समय में फैक्ट्रियां और रॉकेट चलाने तक का मनुष्य का सफर बहुत ही रोचक रहा है। लेकिन इस विकास-यात्रा का एक चरण, जिसे इतिहास के पन्नों में अधिक जगह नहीं मिली, वह था मातृप्रधान सभ्यता का युग। यह मानव जाति के अब तक के इतिहास का सबसे लम्बा युग था। पुरापाषाण काल से लेकर इतिहास में सबसे लम्बेे समय तक अस्तित्व में रहा यह समाज बेशक पुरापाषाण काल के पत्थरों में कहीं दबकर गुम हो गया है, लेकिन उसकी गूंज अभी तक सुनाई दे रही है। जीवन के खुबसूरत रंगों से सराबोर और शोषणरहित स्वतंत्र सभ्यता की गूंज।
आज जब हम उस दुनिया के बारे में सोचते हैं, तो हमारे दिमाग में वर्तमान सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना इतना रच बस चुका है कि हमारे लिए ऐसी अचरज भरी दुनिया की कल्पना करना मुश्किल हो जाता है, जहाँ समाज का संचालन महिलाओं के द्वारा किया जाता था, समाज का नेतृत्व महिलाओं के हाथों में था। यह वास्तव में ही ‘‘एक अलग दुनिया’’ थी। लेकिन इसके बारे में काफी भ्रम भी मौजूद है। इस समाज को पितृसत्तात्मक समाज का प्रतिबिम्ब मान लिया जाता है। जिस प्रकार से पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों का वर्चस्व होता है और महिलाओं का स्थान निम्न होता है, महिलाओं पर जुल्म किया जाता है, उसी प्रकार मातृप्रधान समाज में महिलाओं का वर्चस्व होता होगा, पुरुषों का स्थान निम्न होता होगा और महिलाओं के द्वारा पुरुषों पर जुल्म किया जाता होगा। लेकिन यह सोच बिल्कुल ही गलत है। यह मातृप्रधान समाज की वास्तविकता से बहुत दूर है। वास्तव में पूरी प्राचीन दुनिया में, पुरुषों के समान महिलाओं की निरंकुश सत्ता किसी भी काल में मौजूद नहीं थी।
इसके बजाय, मातृप्रधान समाज एक ऐसी सामाजिक संरचना थी, जो लैंगिक बराबरी पर आधारित थी। मातृप्रधान समाज में महिलाओं और पुरुषों में गैरबराबरी नहीं थी। कोई मालिक या कोई गुलाम नहीं था। हालांकि समाज में महिलाओं का सम्मान अधिक था, क्योंकि महिलाएं ही बच्चों को जन्म देती थीं और उन्हीं से वंश चलता था तथा वे ही परिवार की मुखिया हुआ करती थीं।
दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताएं चीन, तिब्बत, मिस्र, भारत और यूरोप सभी मातृप्रधान सभ्यताएं थीं। 5000 ईसा पूर्व से पहले तक इन स्थानों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कोई चिह्न नहीं थे। कब्रों से हमें उस समय के समाज के बारे में बहुत कुछ जानकारी मिलती है। कब्र में मृत व्यक्ति के साथ बहुत-से कीमती आभूषणों को दफना दिया जाता था, जिससे मृत व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का पता चलता है। मातृप्रधान समाज के समय की जो कब्रें मिली हैं, उनसे पता चलता है कि उस समय आर्थिक रूप से स्त्री और पुरुष दोनों की हैसियत एकसमान थी। परंतु महिलाओं की कब्रों की सजावट से यह निष्कर्ष निकलता है कि महिलाओं और पुरुषों में आर्थिक समानता होने के बावजूद समाज में महिलाओं का सम्मान पुरुषों की अपेक्षा अधिक था।
पुरातात्त्विक साक्ष्यों के रूप में मातृप्रधान सामाजिक व्यवस्था के कुछ पदचिह्न प्रागैतिहासिक काल से लेकर नव पाषाण काल तक तथा कांस्य सभ्यता तक और कहीं-कहीं उससे भी बाद तक पाये गये हैं। ये पदचिह्न हमें कब्रों, बस्तियों के पुरातात्त्विक साक्ष्यों, गुफा चित्रों, घरों की दीवारों पर बने चित्रों तथा पत्थर, सींग या हड्डी से बनी मूर्तियों के रूप में नजर आते हैं। पुरापाषाण काल के जितने भी मानव निर्मित चित्र या मूर्तियां मिली हैं, उनमें से अधिकतर महिलाओं के सुसज्जित चित्र या मूर्तियां ही मिली हैं, जिनमें महिलाओं के विभिन्न भावों व शारीरिक मुद्राओं को दर्शाया गया है। बहुत सारे चित्रों में महिलाओं के पूरे शरीर को न दर्शाकर केवल प्रजनन अंगों को ही दर्शाया गया है, जिनको प्रदर्शित करने का एकमात्र उद्देश्य होता था जीवन और सृजन के स्रोत के महत्त्व को प्रदर्शित करना। इसमें गर्भाशय का महत्त्व सबसे अधिक होता था।
स्त्री चित्रों व मूर्तियों की विभिन्न मुद्राओं से पता चलता है कि जीवन के स्रोत के रूप में स्त्री की शक्ति ही सर्वशक्तिमान सत्ता के रूप में निर्मित हुई थी। माता, जो अपने गर्भ के पवित्र अंधकार से सारी सृष्टि को जन्म देती है, उसे प्रकृति का रूपक माना जाता था। जिस प्रकार प्रकृति जीवन देती है, उसी प्रकार एक स्त्री को भी प्रकृति के समान जीवनदायिनी माना जाता था।
कृषि के शुरुआती चरण से ही इंसान, पवित्र धरती की सृजनकारी शक्ति को देखकर उसे जीवनदायिनी माँ के समान ही समझता था। ऐसी मान्यता थी कि धरती भी एक माता की ही तरह बसंत में बीजारोपण के समय गर्भवती होती है। फसल के काटे जाने को जन्म के समान, जबकि फल को टहनी से अलग किये जाने को मॉं के शरीर से गर्भनाल के अलग होने के समान समझा जाता था। कुछ मूर्तियों में महिलाओं को उर्वरता और उपजाऊपन की देवी के रूप में दर्शाया गया है। कहीं-कहीं महिलाओं की बच्चे को जन्म देने की मुद्रा को दर्शाया गया है, जैसा कि कैटल ह्यूक के मंदिर की दीवार पर बने एक चित्र से स्पष्ट होता है। इस चित्र में महिला को जीवनदायिनी माता या देवी के रूप में दर्शाया गया है।
ऐसा लगता है कि ऐसी प्रतिमाओं की पूजा बच्चे के सुरक्षित जन्म की कामना के लिए की जाती रही होगी। देवी को न केवल जन्म देने वाली माँ के रूप में पूजा जाता था, बल्कि मृत्यु और पुनर्जन्म की देवी के रूप में भी उसकी पूजा की जाती थी। देवियाँ जन्म और मृत्यु के बार-बार दोहराए जाने वाले चक्र की अखंड निरंतरता का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिए उस समय सिर्फ देवियों की ही पूजा की पद्धति विद्यमान थी, देवताओं की पूजा के कोई साक्ष्य नहीं पाये जाते हैं।
यूरोप में मातृप्रधान समाज
जब हम यूरोप के संदर्भ में बात करते हैं, तो 6500 से 5500 ईसा पूर्व के आसपास भूमध्य सागरीय क्षेत्रों के पुरातात्त्विक अध्ययनों से यह जानकारी मिलती है कि यहाँ की बस्तियों में केन्द्रीय इमारतें, जैसे कि किसी राजा का किला या राजमहल मौजूद नहीं था, जिससे पता चलता है कि वहाँ कोई निरंकुश शासक नहीं था। कुछ केन्द्रीय घरों के अस्तित्व मिले हैं, जहाँ संभवतः मातृसत्तात्मक वंश के परिवार रहते थे। ऐसे घरों का इस्तेमाल शायद कबीले के संबंध में निर्णय लेने के लिए किया जाता रहा होगा।
परिवार बड़े और मध्यम आकार के घरों में रहते थे, जो कि सभी के लिए समान स्तर के होते थे। हर एक घर के साथ एक कमरा संलग्न होता था, जहाँ देवी माँ की पूजा की जाती थी। यूरोप में इस समय की जो कब्रें मिली हैं, वे सामूहिक कब्रें होती थीं। बच्चों और महिलाओं को घरों के फर्श के नीचे दफनाया जाता था। यह महिलाओं और उनके बच्चों की समाज में उन्नत स्थिति और घरों के साथ उनके मजबूत रिश्तों को इंगित करता है। वयस्क पुरुषों के लिए दफन स्थलों की स्पष्ट रूप से कमी नजर आती है। यह भी स्पष्ट रूप से देखने में आया है कि महिला कब्रों को शंख के मनकों से सजाया जाता था, जबकि पुरुषों की कब्र में सजावट का कोई सामान नहीं होता था। मुखिया के रूप में महिलाओं की कब्रें गहनों से सुसज्जित होती थीं, जो समाज में उनकी सम्मानित स्थिति और प्रधानता का संकेत है।
यहाँ देवताओं की नहीं, बल्कि देवियों की पूजा की जाती थी। माँ की सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी बेटी होती थी। अगर किसी पुरुष की संतान नहीं होती थी और उसकी मृत्यु हो जाती थी, तो उसकी सम्पत्ति उसकी बहन या उसकी माँ के पास चली जाती थी। बच्चों की पहचान माता के नाम से होती थी, पिता का नाम बच्चों को ज्ञात नहीं होता था। समाज में माता के भाई का अत्यधिक महत्त्व होता था, न कि पति का। यह एक अंतर्विवाही समाज था, जो कबीले की एक सम्मानित माँ और उसके भाई के द्वारा शासित होता था, जो एक महिला परिषद की सहायता से शासन चलाते थे। यह सामाजिक संरचना मातृसत्तात्मक थी, जिसमें नेतृत्व से लेकर उत्तराधिकार का अधिकार भी महिलाओं के ही पास होता था।
ग्रीस की मिनोअन क्रेते संस्कृति में इस सभ्यता की झलक 1800 ईसा पूर्व के आसपास मिलती है। यहाँ महिलाओं को बहुत उच्च स्थान प्राप्त था। मिनोअन क्रेते, जिसने उत्तरी ग्रीस के कई द्वीपों को शामिल किया, जैसे कि आधुनिक सेंटोरिनी और थेरा। मिनोअन क्षेत्रों में कला और प्रौद्योगिकी का अत्यधिक विकास हुआ। मिस्रियों ने बहुत से तकनीकी ज्ञान मिनोअंस से ही सीखे थे। नये साक्ष्यों से पता चलता है कि ग्रीक और रोमन काल की वास्तुकला, जहाज निर्माण और अन्य तकनीकी ज्ञान प्राचीन मिनोअन क्रेते से लिये गये थे। मिनोअंस के पास न केवल बहुमंजिला अपार्टमेंट थे, बल्कि उनके शहरों के अंदर बहता पानी और सीवर सिस्टम भी था। ज्वालामुखीय पर्वतों से निकलने वाले भाप को उनके घरों को गर्म करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, सीवेज सिस्टम से जुड़े घरों के अंदर शौचालयों में फ्लश की व्यवस्था थी। धातु काटने के उपकरणों के विकास के साथ-साथ वहाँ भाप की शक्ति का भी विकास हो चुका था। मिनोअन जहाज निर्माण में भी बहुत विकसित थे। मिनोअन शहरों में बड़े पैमाने पर भंडारण जार होते थे, जो कई मीटर ऊॅंचे होते थे, जिसमें क्षेत्र की कृषि उपज को रखा जाता था। मिनोअन सभ्यता विनाशकारी ज्वालामुखीय विस्फोट से नष्ट हो गयी थी। लेकिन ऐसा माना जाता है कि अगर ये शहर नष्ट नहीं हुए होते, तो इनके तकनीकी विकास की दर इतनी तेज थी कि वे रॉकेट विकसित कर सकते थे और वर्तमान युग तक आते-आते चन्द्रमा पर उतर सकते थे।
इस समय की मिनोअन कलाकृतियों से शांति और सुखद काल का पता चलता है। ये कलाकृतियां एक ऐसे समाज को प्रतिबिम्बित करती थीं, जो मातृप्रधान समाज था। वहाँ महिलाओं की सामाजिक भूमिकाएँ पुरुषों के बराबर थीं और यौनता को स्वतंत्र तौर पर व्यक्त करना कोई अपराध नहीं समझा जाता था। वहाँ न तो यौनता को रहस्य माना जाता था और न ही उसे अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से प्रदर्शित किया जाता था। यौनता गरिमापूर्ण तरीके से व्यक्त की जाती थी।
वास्तुकला, चित्रकला, और मिट्टी के बर्तन रंग और जीवन से भरपूर थे। महिलाओं की बहुत-सी मूर्तियाँ मिली हैं, जो विभिन्न भावों और भंगिमाओं को प्रदर्शित करती हैं। मिनोअंसवासी देवी की पूजा करते थे। पूरी सभ्यता में कहीं भी कोई किलेबंदी, युद्ध-हथियार और निरंकुश शासकों के शासन का चिह्न नहीं मिला है।
चीन और जापान की मातृप्रधान सभ्यता
इसी प्रकार से चीन और जापान में भी ईसा पूर्व 2000 से पहले के जो पुरातात्त्विक स्रोत मिले हैं उनसे इन सभ्यताओं के भी मातृ प्रधान सभ्यता होने के प्रमाण मिलते हैं। 6000 ईसा पूर्व चीन में गोबी से लेकर मंचूरिया तक के क्षेत्रों में रहने वाले लोग संग्रहकर्ता और शिकारी थे तथा मछली पालन और कृषि कार्यों में संलग्न रहते थे। ये लोग बर्तनों पर अति सुन्दर चित्रकारी करते थे, अनाज उगाते थे तथा भेड़, बकरी, सूअर और कुत्तों को पालते थे। 4000 ईसा पूर्व तक चीन के साथ अन्य क्षेत्रों के व्यापारिक संबंध भी स्थापित हो चुके थे। उस समय तक चीन में महिलाओं की स्थिति अत्यंत सम्मानित थी। यहाँ के लोग मानते थे कि महिलाएँ ताकत और ज्ञान में पुरुषों से बेहतर हैं। स्त्री देवियों की पूजा की जाती थी तथा बरतनों को सजाने के लिए भी महिलाओं के चित्र बनाये जाते थे।
खुदाई में प्राप्त वस्तुओं से पता चलता है कि जापानी संस्कृति का भी मुख्य केन्द्र महिलाएँ और बच्चे थे। समाज में महिलाओं का स्थान सम्मानजनक था। विवाह का आधार प्रेम था, जिसे युवा अपने माता पिता के हस्तक्षेप के बिना स्वयं ही निर्धारित करते थे। मैट्रिलोकल यानी मातृ स्थानिक विवाहों का प्रचलन था, विवाह पश्चात पत्नी अपने पति के घर रहने नहीं जाती थी, बल्कि पति अपनी पत्नी के घर रहने के लिए आता था।
विवाह पश्चात पत्नी अपने पति के घर रहने नहीं जाती थी, बल्कि पति अपनी पत्नी के घर रहने के लिए आता था। तलाक लेना आसान था। पूजा करने का अधिकार सिर्फ महिलाओं को ही था। स्त्री देवियों की पूजा की जाती थी, न कि पुरुष देवताओं की। नारी सतीत्व का कोई अलग से महत्त्व नहीं था। सभी आपस में प्रेम और सद्भाव से रहते थे। जापान में यह प्रेम आधारित कविताओं, नाटकों और नृत्यों के सृजन तथा सुख, शांति और खुशहाली का समय था।
सिंधु घाटी की मातृप्रधान सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता कृषि आधारित सभ्यता थी, जो 2500 से 1500 ईसा पूर्व के बीच फली-फूली थी, जहाँ मातृ देवी की पूजा की जाती थी और वहाँ की सामाजिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक थी। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में बहुत-सी महिला मूर्तियाँ मिली हैं। अधिकांश मूर्तियों की व्याख्या उर्वरता और वनस्पति की महान देवी का प्रतिनिधित्व करने वाली संरक्षक देवी के रूप में की गयी है। लैंगिक चित्र, लिंग और योनि, सिंधु घाटी संस्कृति में उर्वरता की पूजा के साक्ष्य हैं। हड़प्पा में मिले बड़े-बड़े स्नानागार भी देवी माँ की पूजा से संबंधित थे। यहाँ का समाज तकनीकी रूप से अति विकसित था। यहाँ से बहुत सारी चीजों का निर्यात समकालीन दूसरी सभ्यताओं (मेसोपोटामिया आदि) में किया जाता था। जल प्रबंधन की प्रौद्योगिकी अत्यंत विकसित थी, जो प्राचीन दुनिया के सभी देशों से उन्नत थी।
यह सभ्यता बहुत बड़े इलाके को अपने अंदर समेटे हुई थी, पर कोई केेन्द्रीकृत शासन व्यवस्था नहीं थी। इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है कि बिना किसी निरंकुश केन्द्रीय सत्ता के इतनी बड़ी सभ्यता को कैसे आपस में गूंथकर रखा गया होगा और वह भी संचार तथा यात्रा की आधुनिक पद्धतियों के बिना। हड़प्पा सभ्यता से मिली कब्रों में शाही कब्र के एक भी निशान नहीं मिले हैं। हड़प्पा सभ्यता में दफनाये गये व्यक्ति के साथ उसके मृत्यु उपरांत जीवन के लिए भोजन से भरे मिट्टी के बर्तनों के अलावा और कुछ खास नहीं रखा जाता था। सिंधु नगर सभ्यता में आडंबरपूर्ण कब्रों तथा ऊॅंचे महलों के अभाव से पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता का समाज गैरबराबरी वाला समाज नहीं था। इस सभ्यता के भौगोलिक विस्तार के बावजूद यहाँ मनुष्य के साथ मनुष्य की हिंसा को दर्शाने वाली चीजों की करीब-करीब गैरमौजूदगी दिखाई देती है। यह एक शांतिपूर्ण सभ्यता थी।
संदर्भ स्रोत
1.Fredrich Engels, The Origin of the Family, Private Property and the State, 1884
2.Marija Gimbutas, Civilization of the Goddesses: The World of Old Europe,1994
3.Tony Josef, Early Indians: The story of our Ancestors and Where We Came From,2020
4.James Demo, The 4000 BCE Origins of Child Abuse,Sex repression, Warfare and Social Violence in the Deserts of the Old World,1991