— ध्रुव शुक्ल —
मैंने पहली बार 1973 में पण्डित कुमार गंधर्व को भोपाल में रवीन्द्र भवन के मुक्ताकाशी मंच पर गाते हुए देखा—- ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।’ लकदक संगीतकारों की दुनिया में उनकी सादगी अलग दीखती थी। जितने वे अपनी अंतर्लय से स्वरों का सादगीपूर्ण श्रृंगार करके अपने राग को स्वच्छ वस्त्र पहनाते-से लगते, उतने ही वे भी स्वच्छ नज़र आते थे।
मध्यप्रदेश कला परिषद ने 1976 में ‘कुमार गंधर्व प्रसंग’ का आयोजन भोपाल में किया और उस अवसर पर कवि-संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी के संपादन में साहित्य-कला आलोचना की पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ ने कुमार जी के अवदान पर विशेषांक प्रकाशित किया। मैं उन दिनों अपने शहर सागर से कुमार गंधर्व को फिर सुनने की अभिलाषा से भोपाल आया था। वे मुझे ऐसे संगीतकार की तरह दिखते रहे हैं जो स्वर साधते हुए इस खयाल में डूबा हुआ है कि न जाने कब इस राग-विराग से भरे जग से नाता टूट जाये- ‘उड़ जायेगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला।’
कुमार गंधर्व की देह के लिए मिला गाने का समय बीच-बीच में टूटता-बिखरता रहा। जब तपेदिक की बीमारी ने इस समय को बिखराया तब वे भले न गा सके हों पर मध्यप्रदेश के देवास शहर में बसकर संगीत को अपने मौन में वर्षों सहेजते रहे। वे ऋतुकालों में विविध रूप लेती मालवा की उन लोकधुनों पर ध्यान लगाये रहे जिससे संगीत को पुनर्जीवन के लिए तैयार किया जा सके। अपनी आयु से उनकी सॉंसें जीवन भर ऐसे जूझती रहीं जैसे उन्होंने अपनी एक-एक सॉंस बचाकर संगीत की काया को बचाया हो। कुमार गंधर्व को जीवन भर संगीत के किसी न्यारे घर की तलाश रही। वे कबीर का यह प्रसिद्ध पद गाया करते थे– ‘वा घर सबसे न्यारा’। उनकी इसी तलाश ने वह संगीत रचा जो संगीत जगत में सबसे न्यारा है।
हम उस पीढ़ी के लोग हैं जिनने कुमार गंधर्व के संगीत की पुनर्नवा हुई आंदोलित काया को अपने हृदयप्रान्त के बसाव में अपने बीच पाया है। जब कलाओं का घर ‘भारत भवन’ भोपाल में स्थापित हुआ तो कुमार गंधर्व भी उसके न्यासी बने। राग के लक्षणों में एक न्यास स्वर भी होता है। भारत भवन भी तो साहित्य और कलाओं का एक मिश्र राग ही है जिसमें कुमार गंधर्व का न्यासी स्वर भी लगा। आज भी कलाओं के इस घर की दीर्घाओं और कला संग्रहालयों में कुमार जी का मद्धिम संगीत गूॅंजता रहता है।
बीसवीं सदी में पण्डित कुमार गंधर्व एकमात्र ऐसे शोधपूर्ण और मर्मी संगीतकार हुए हैं जिन्होंने संगीत के घरानों में चली आ रही संगीत शिक्षा की विधियों और उनके रूढ़ अभ्यास पर अनेक प्रश्न उठाये हैं और स्वयं उनके सटीक उत्तर भी खोजे हैं। वे शास्त्रीय संगीतकारों की नयी पीढ़ी को लोकसंगीत की उस भूली हुई पगडण्डी की याद दिलाते रहे जिस पर चले बिना संगीत में नवनिर्माण करना कठिन है। उनकी विद्रोही वृत्ति ने उन्हें संगीत का कबीर भी बना दिया। वे निर्भय-निर्गुण गा उठे। वे लोक में बसे स्वर ग्रामों में जाकर अपने नये धुन उगम रागों के लिए लोककण्ठ में बसे स्वरों को पहचानते रहे और लोकगीतों को अपनी बंदिशों में बॉंधकर नये राग बनाते रहे। गांधी मल्हार, मालवती और सहेली तोड़ी जैसे उनके रचे राग कोई और न गा सका।
कुमार गंधर्व शास्त्रीय संगीत में लोकजीवन की वापसी के लिए भी हमेशा याद किये जायेंगे। उनके धुन उगम रागों में ऋतुओं के साथ लोकजीवन के तीज-त्यौहार, मेले और पर्व बसे हैं। विरह-बिछोह का दुख भी है। मिलन का मंगल गान भी है और रसिया को नार बनाने वाली लोक की हॅंसी-ठिठोली भी है। कुमार गंधर्व अपने खयाल गायन में लोकसंगीत का नया और पारंपरिक श्रृंगार करते रहे हैं। वे लोक में अपना अलग और नया संगीत पाने के लिए जीवन भर अपने स्वर ही तो साधते रहे। उनके संगीत प्रयोग अनेक संगीत रसज्ञों के गले नहीं उतरे और संगीत समालोचकों ने कुमार गंधर्व को संगीत की पारंपरिक रीतियों का उल्लंघनकर्ता भी माना।
कुमार गंधर्व को उन श्रेष्ठ गुरुओं का सान्निध्य मिला जिनके प्रतिष्ठित घराने थे और उनका भी मार्गदर्शन मिला जो बिना घराने के ही संगीत रसिकों के बीच आदरणीय बने। आज तक कुमार गंधर्व के अनुपम संगीत के सच को कोई नकार नहीं सका। उन्होंने भक्ति संगीत को नयी शास्त्रीयता प्रदान की और शास्त्रीयता को भूले हुए लोक संस्कार की याद दिलायी। संगीत पारखी राघव मेनन ने कुमार गंधर्व की संगीत यात्रा को रेखांकित करते हुए कभी कहा था कि— जिस तरह हम संसार के इतिहास को ईसा से पहले और ईसा के बाद पढ़ते हैं, उसी तरह भारतीय शास्त्रीय संगीत का इतिहास कुमार गंधर्व से पहले और कुमार गंधर्व के बाद पढ़ा जायेगा।
अपने जीवन में कोई संगीतकार पूरा राग कभी नहीं गा पाता। वह हर राग के एक अंश को ही नये रूप में बार-बार गाता है। हर बार उसका किसी राग में प्रवेश खाली हाथ लौटने जैसा है। क्या इस खाली हाथ लौटने को संगीतकार की मृत्यु कह सकते हैं और फिर उसी राग में दोबारा प्रवेश को संगीतकार का जन्म? लगता है कुमार गंधर्व एक ही जन्म में कई जन्म लेते रहे। कभी कोई जीवनी पूरी नहीं लिखी जा सकती। फिर एक संगीतकार की जीवनी कैसे लिखी जा सकती है, जिसे हर राग में बार-बार जन्म लेना पड़ता है। एक छोटी-सी जीवनी में इतने सारे जन्मों की कथा कैसे समा सकती है?
कुमार गंधर्व कहते थे कि—काल में बार-बार करने का गुण नहीं। एक बार गाने के बाद वह गायब हो जाता है। जो स्थिर नहीं है उस पर संगीत का पूरा जीवन आधारित है। हर बार कुछ नया ही करना पड़ता है। वे यह भी कहते थे कि—मैं तो रोज मरता हूॅं। जो कुमार गंधर्व आज तिलक कामोद गा चुके, वे कुमार गंधर्व और तिलक कामोद दोनों मर चुके। फिर कुमार गंधर्व गायेंगे और तिलक कामोद ही, पर वही नहीं—वे दोनों मर चुके।
‘वा घर सबसे न्यारा’ नाम से कुमार गंधर्व की यह जीवनी रज़ा फाउण्डेशन, दिल्ली के सौजन्य से सेतु प्रकाशन, नोएडा (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित हुई है। चित्रकार सैयद हैदर रज़ा और कुमार गंधर्व के संगीत में एक साम्य भी नज़र आता है और वह है—अंकुरण की खोज। जिस तरह कुमार गंधर्व अपने संगीत में स्वरों के नव अंकुरण की ज़मीन गोड़ते रहे, उसी तरह चित्रकार रज़ा ने रंगों के अंकुरण की ज़मीन को खूब परखकर चित्र रचे हैं। किसी संगीतकार की जीवनी पाठकों को गाकर तो नहीं दिखा सकती पर उसे पढ़कर यह अंदाज़ ज़रूर लगाया जा सकता है कि पण्डित कुमार गंधर्व अपने गाने को पाने के लिए अपनी देह से उपजी भाव, राग, ताल और काल की उगम को अपनी अंतर्लय पर साधने के लिए जीवन भर कितने विकल रहे।
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