— अरुण कुमार त्रिपाठी —
गांधी और आंबेडकर के टकरावों और समन्वय के बाद भारतीय समाज में आए परिवर्तन पर आज भी बहस चल रही है और आगे भी चलती रहेगी। महात्मा गांधी ने जाति के समूल नाश की आंबेडकरी क्रांति को रोक लिया या उसे धीमा करके उसकी जरूरत को सवर्णों के दिल में भी उतार दिया? गांधी ने भारत की आजादी और हिंदू मुस्लिम एकता का एजेंडा पूरी तरह छोड़कर जाति उन्मूलन का एजेंडा क्यों नहीं अपनाया? गांधी के अनशन के बाद आंबेडकर और सवर्ण कांग्रेसी नेताओं के बीच हुए पूना समझौते से दो गुनी सीटें मिलने के बावजूद अछूत समाज का हित हुआ या अहित? गांधी और आंबेडकर के बीच हुआ समझौता क्या आगे चलेगा या फिर उसे तोड़ने का आंदोलन विकसित होगा? क्या पूना समझौता तोड़ने से ही जाति के उन्मूलन की नई राजनीति निकलेगी? या संघ परिवार के नेतृत्व में निकली हिंदुत्व की नई लहर आंबेडकरवाद को हजम कर जाएगी?
यह तमाम सवाल आज भी देश के दलित-सवर्ण युवाओं और बौद्धिकों को मथ रहे हैं। जब जब देश में आरक्षण का विवाद छिड़ता है तो पूना समझौते का जिक्र आता है। बाबासाहेब आंबेडकर दो बार लोकसभा का चुनाव हारे और इसके लिए उन्हें पूना समझौते की खामी जिम्मेदार लगी। 1951 में डा आंबेडकर उत्तरी बांबे से डबल मेंबर सीट पर चुनाव लड़े और कांग्रेस के नारायण सडोबा कजरोलकर से हार गए। वजह थी कि कांग्रेस का उम्मीदवार चमार था और आंबेडकर महार। चमार जातियों को कांग्रेस ने लंबे समय तक अपने से जोड़कर रखा था। कजरोलकर ने आंबेडकर द्वारा हिंदू धर्म के विरोध को मुद्दा बनाया था। इसी तरह आंबेडकर 1954 के उपचुनाव में भंडारा से लड़े और वहाँ भाउराव बोरकर से हार गए। जबकि वे डा आंबेडकर की सभाओं में दरियाँ बिछाने का काम करते थे। बाद में यह घटनाएँ मुद्दा बनीं और अस्सी व नब्बे के दशक में पूना समझौते को रद्द करने और कम्युनल अवार्ड बहाल करने की माँग उठी। तमिलनाडु में रविकुमार ने आंदोलन चलाया तो कांशीराम ने 24 सितंबर 1982 को पूना समझौते के पचास वर्ष होने पर उसकी शोक सभा मनाई। उन्होंने पूना से जालंधर तक साठ रैलियाँ कीं और इंदिरा गांधी ने उस समझौते की स्वर्ण जयंती मनाने का इरादा छोड़ दिया।
आज गांधीवादी विचारधारा और उन पर चलनेवाले कांग्रेस और समाजवादी दलों का ही नहीं डा आंबेडकर के विचारों पर चलनेवाली बसपा के भी अवसान का समय है। गांधी और आंबेडकर को नए सिरे से ब्रांड और पोस्टर ब्वाय के रूप में अपनाने की होड़ पार्टियों और कंपनियों में मची है। लेकिन भारतीय समाज में न तो छुआछूत पूरी तरह से मिटा है न ही जातीय विभाजन। हिंदू समाज पुराने मूल्यों को नए संदर्भों में प्रासंगिक करने में लगा है और उसमें उन मूल्यों की प्रधानता है जिन्हें आंबेडकरवादी मनुवादी विचार कहते थे। ऐसे में गांधी और आंबेडकर आधुनिक भारत की दो धाराओं के रूप में सामने आते हैं जो अपने मकसद के लिए एक दूसरे के करीब आते-आते दूर जाते हुए भी दिखते हैं।
गांधी ने धार्मिक और भारतीयता के आग्रही होते हुए भी यूरोप की तर्ज पर एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की और भारत के विभाजन को रोक पाने में विफल रहने के बावजूद अपनी यह बात सच साबित कर दी कि देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा। उन्होंने आजीवन उसी सत्य और अहिंसा के धर्म का पालन किया जो आंबेडकर के बौद्ध धर्म का मूल है। डा आंबेडकर ने समय-समय पर कमाल अतातुर्क और मुसोलिनी जैसी तानाशाही व्यवस्था का समर्थन करते हुए भी देश को एक लोकतांत्रिक संविधान दिया और राजनीतिक होते हुए भी अपनी और समाज की मुक्ति का मार्ग (बौद्ध) धर्म में देखा।
सूट-बूट पहनने वाले और महात्मा गांधी और उनके अनुयायियों को ठीक से वस्त्र न पहनने के लिए उलाहना देनेवाले आंबेडकर ने चीवर पहनकर बौद्ध धर्म धारण किया और यह भी कहा, “मेरा सामाजिक दर्शन केवल तीन शब्दों में रखा जा सकता है। वे शब्द हैं—स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व। मैंने इस दर्शन को फ्रांसीसी राज्यक्रांति से उधार नहीं लिया है। मेरे दर्शन की जड़ें धर्म में हैं राजनीति में नहीं। मेरे गुरु बुद्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व से मुझे यह तीनों मूल्य मिले हैं।’’ यहाँ डा आंबेडकर का वह कथन रोचक हो जाता है कि “जब उन्हें रामायण की रचना करनी हुई तो उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया, जब महाभारत की रचना करनी हुई तो वेदव्यास को बुलाया और जब संविधान बनाना हुआ तो मुझे बुलाया।’’ धनंजय कीर ने तो संविधान निर्माता के रूप में उन्होंने ‘आधुनिक मनु’ कहा भी है। मनुवाद का विरोध करनेवाले व्यक्ति के लिए यह विशेषण रोचक है।
अरुंधति राय गांधी को संत और आंबेडकर को जब डाक्टर कहकर संबोधित करती हैं तो उनका अर्थ झोलाछाप झाड़फूँक वाले फर्जी वैद्य और डिग्रीधारी असली डाक्टर से होता है। वे जब गांधी के इलाज को प्लेसिबो इफेक्ट से जोड़ती हैं तो वे आंबेडकर को वैज्ञानिक प्रभाव वाला व्यक्ति बताती हैं। लेकिन वे अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आंबेडकर के विचारों पर कुछ नहीं कहतीं। जबकि आंबेडकर के धर्मनिरपेक्ष अनुयायियों को भी उनके यह विचार अच्छे नहीं लगते। लेकिन उससे भी आगे आंबेडकर के चिंतन में औपनिवेशिक विमर्श की अनुपस्थिति बहुत अखरती है। “वे(अंग्रेज) जल्दी आए और जल्दी चले गए’’ जैसा कथन अंग्रेजों की गुलामी को सही बताने की दिशा में जाता है। संभव है आंबेडकर का दलित राष्ट्रवाद भारत को नए चश्मे से देखने का हिमायती हो और उसकी विस्तृत व्याख्या वे लोग करने की कोशिश करते हैं जो दलित देशीयता की बात करते हैं।
अंग्रेजों के साथ खड़े होने की यह राजनीति गांधी के बरक्स तो एक हद तक खड़ी हो जाती है लेकिन उन आदिवासियों और क्रांतिकारियों के संघर्ष के सामने कमजोर लगती है जिन्होंने अंग्रेजों से युद्ध किया और शहीद हुए। सत्तावन के अनुभव से भयभीत महात्मा गांधी अहिंसा के हथियार से औपनिवेशिक गुलामी, हिंदू मुस्लिम एकता और अस्पृश्यता उन्मूलन के सवालों पर एकसाथ लड़ते हैं और कई मतभेदों के बावजूद अपने समर्थकों को बदलने और लड़ाई लड़ने की कोशिश करते हैं। संत और डाक्टर का यह विरोधाभास लेखों में तो गांधी पर वार करता दीखता है लेकिन समाज की सम्यक लड़ाई में यथार्थ की जमीन पर गांधी को कठघरे में नहीं खड़ा कर पाता। ज्यादा से ज्यादा यह अंतर्विरोध भारतीय इतिहास की दो जरूरी धाराओं का अंतर्विरोध लगता है और जिनकी एकता असंभव लेकिन अपरिहार्य लगती है।
गांधी और आंबेडकर की इन बदलती भूमिकाओं को देखते हुए पंडित सुंदरलाल का वह कथन याद आता है जो उन्होंने गांधी और माओ के बारे में कहा था। उन्होंने कहा था कि माओ के हाथ में लाठी दे दो तो वे गांधी लगेंगे और गांधी के हाथ में बंदूक दे दो तो माओ लगेंगे। सवाल उठता है कि क्या भारतीय समाज गांधी और आंबेडकर की भूमिकाओं को बदलकर द्वंद्व के साथ राजनीतिक आजादी और सामाजिक आजादी के रूप में बनी इतिहास की खाई को पाट पाएगा?
(समाप्त)