सिलेबस बदल देने और सरकार बदल जाने से इतिहास नहीं बदलते

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— डॉ. लखन चौधरी —

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी ने 10वीं की सामाजिक विज्ञान एवं विज्ञान की नई किताबों से एक बार फिर पाठ्यक्रमों यानी सिलेबस में बदलाव करते हुए पूरे के पूरे अध्याय हटा दिए हैं। मसलन अब 10वीं के विद्यार्थी लोकतंत्र और विविधता, लोकतंत्र की चुनौतियां और राजनीतिक दलों वाला पूरा का पूरा अध्याय नहीं पढ़ सकेंगे। इसी तरह आवर्त सारणी, पर्यावरणीय स्थिरता और ऊर्जा के स्रोत संबंधी पूरे अध्याय को हटा दिया गया है। एनसीईआरटी का तर्क है कि विद्यार्थियों पर पढ़ाई का बोझ कम करने एवं उनकी रचनात्मक मानसिकता पर दबाव कम करने की खातिर इस तरह के निर्णय लिये गए हैं। परिषद की दलील है कि यह सब सिलेबस यानी पाठ्यक्रमों को युक्तिसंगत बनाने के लिए किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इससे पहले भी सत्र 2022-23 के पाठ्यक्रमों से कक्षा 6वीं से 12वीं तक की किताबों से 30 फीसदी पाठ्यक्रम हटा दिए गए यानी बदल दिए गए थे।

एनसीईआरटी द्वारा स्कूली एवं उच्चशिक्षा के पाठ्यक्रमों यानी सिलेबस में बदलाव की चर्चा एवं विमर्श पिछले कुछ दिनों से सुर्खियों में है। सरकार सिलेबस बदलने को लेकर बेहद तत्पर और अड़ियल दीखती है, लेकिन सिलेबस बदलने के पीछे की मंशा को स्पष्ट करना नहीं चाहती है। उसकी ओर से तर्क दिया जा रहा है कि पाठ्यक्रमों को युक्तिसंगत किया जा रहा है। पाठ्यक्रम के कई तरह के अनावश्यक दोहरावों को सिलेबस से निकाला जा रहा है। सबसे बड़ी बात कि विद्यार्थियों के उपर सिलेबस का बोझ कम किया जाना, मूल मकसद है। एक तरह से सरकार के विचार ठीक लगते हैं, लेकिन इसके पीछे सरकार की छिपी या अदृश्य मंशा क्या है? यह समझना जरूरी है, क्योंकि इसी में सरकार का एजेण्डा शामिल है, और यही सिलेबस बदलने के पीछे की असल वजह है।

पाठ्यक्रमों में बदलाव की यह कवायद कितनी जरूरी या कितनी प्रासंगिक है? यह अहम सवाल तो है, साथ ही साथ यह मसला भी महत्वपूर्णं है कि पाठ्यक्रमों में होने वाले या हो रहे अथवा किये गए बदलाव कितने उपयोगी, तार्किक एवं सार्थक हैं? पाठ्यक्रमों में किया जा रहा बदलाव विद्यार्थियों और शिक्षार्थियों के लिए कितना लाभदायक या उपयोगी होगा? यह सवाल भी बेहद प्रासंगिक है, क्योंकि पाठ्यक्रमों एवं इतिहास में बदलाव का मुद्दा विद्यार्थियों के ज्ञान के साथ कॅरियर एवं जीवन से जुड़ा बेहद निर्णायक एवं संवेदनशील होता है। इससे भी अहम बात यह है कि क्या सिलेबस बदल देने या सिलेबस बदल जाने से इतिहास बदल जाएगा? या सिलेबस बदल देने और सरकारें बदल जाने से इतिहास बदल जाता है?

उल्लेखनीय है कि इतिहास, नागरिक शास्त्र, राजनीति विज्ञान और हिन्दी की किताबों से कई अध्याय, खण्ड, अंश, प्रकरण एवं परिच्छेद इत्यादि जानकारियां हटा दी गई हैं। इसमें मुगलकाल, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे, 2002 के गुजरात दंगे, आपातकाल, शीतयुद्ध और नक्सली आंदोलन से जुड़े तथ्यात्मक आंकड़े शामिल हैं। मंत्रालय एवं एनसीएफ के मुताबिक पाठ्यपुस्तकें अगले साल से शुरू की जाएंगी। शिक्षा मंत्रालय ने 5+3+3+4 पाठ्यचर्या और शैक्षणिक संरचना के आधार पर चार राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एनसीएफ) तैयार की है, जिसकी एनईपी 2020 ने स्कूली शिक्षा के लिए सिफारिश की है। प्री-ड्राफ्ट में कक्षा 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं में सुधार, 10+2 संरचना से 5+3+3+4 संरचना में बदलाव को संरेखित करना और विभिन्न चरणों में पाठ्यचर्या और शैक्षणिक बदलावों का सुझाव देते हुए विकासात्मक दृष्टिकोण पर जोर देना, मूलभूत, प्रारंभिक, मध्य और माध्यमिक की सिफारिशें शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि एनसीएफ को चार बार 1975, 1988, 2000 और 2005 में संशोधित किया जा चुका है, और मौजूदा नया प्रस्तावित संशोधन ढांचे का पांचवां संशोधन है।

शिक्षाजगत से जुड़े कुछ विद्वानों का मानना है कि सरकार शिक्षा जगत में ‘राष्ट्रवादियों’ के नजरिए के साथ ‘वामपंथी उदारवादियों के पक्ष में दिखावटी नियंत्रित झुकाव’ को संतुलित करना चाहती है, लेकिन एनसीईआरटी के द्वारा बदलावों को लेकर शुरू हुआ प्रयास या कहें विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर के विलय की शर्त, देश के पहले शिक्षामंत्री मौलाना आजाद का उल्लेख, महात्मा गांधी द्वारा हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों से हिंदू चरमपंथियों के उद्वेलित होने संबंधी अंश, गुजरात दंगे, फिराक गोरखपुरी की ग़ज़ल, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का गीत ’गाने दो मुझे’, विष्णु खरे की ’एक काम और सत्य’, मुगल काल, औद्योगिक क्रांति, जन आंदोलनों का उदय और एक दल के प्रभुत्व का दौर जैसे अध्याय एवं अंश हटा दिये गये हैं।

एनसीईआरटी के अनुसार हटाए गए हिस्से ’ओवरलैपिंग’ और दोहराए जा रहे थे, इसलिए उन्हें हटा दिया गया है। यानी ‘पाठ्यपुस्तकों की सामग्री को एक ही कक्षा में अन्य विषय क्षेत्रों में शामिल समान सामग्री के साथ ओवरलैप करने के मद्देनजर युक्तिसंगत बनाया गया है।’ मगर पाठ्यपुस्तक विकास समिति के कई सदस्यों का मानना है कि ’एक तरीका है जिससे पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन किया जाता है। पहले मूल पाठ्यपुस्तक समिति को परिवर्तनों के बारे में सूचित करना होता है, फिर वे प्रस्ताव की जांच करते हैं। इस पर टिप्पणी लिखते हैं कि परिवर्तन क्यों किए जाने चाहिए या क्यों नहीं किए जाने चाहिए? लेकिन इस बार इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। वास्तव में 2018 के बाद से किताबों में किए जा रहे किसी भी बदलाव के बारे में हमसे सलाह नहीं ली गई है।’

प्रो. सुहास पलशीकर

एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में पिछले कुछ महीनों बल्कि सालों से जिस तरह से और जिस तरह के बदलाव एवं परिवर्तन यानी फेरबदल किये गए और लगातार किये जा रहे हैं, यह शायद ही किसी बुद्धिजीवी के गले उतर रहा हो, वह चाहे इतिहास हो राजनीति विज्ञान या विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में किया गया या किया जा रहा बदलाव। अब प्रतिकार एवं विरोध का ताजा उदाहरण सुहास पलशीकर और योगेन्द्र यादव का वह पत्र है, जो उन्होंने एनसीईआरटी निदेशक को लिखा है। इस पत्र में दोनों जाने-माने राजनीति विज्ञानियों ने एनसीईआरटी निदेशक से गुजारिश की है कि कक्षा 9 से 12 की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से मुख्य सलाहकार के तौर पर उनके नाम हटा दिए जाएं।

पत्र में कहा गया है कि ’’पाठ्यक्रम को तर्कसंगत बनाने के नाम पर जो कुछ किया गया, और किया जा रहा है, उसका कोई शैक्षिक तर्क नहीं है। इस फेरबदल से पहले न तो उनकी राय ली गई और न ही उन्हें किसी प्रकार से सूचित किया गया। पत्र में दोनों राजनीति विज्ञानियों ने कहा है कि पाठ्यपुस्तकों में इस तरह से बदलाव किये जाने से विद्यार्थियों की जिज्ञासा एवं समझ पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों को जैसा बना दिया गया है उससे विद्यार्थी की राजनीति विज्ञान के सिद्धांतों की समझ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना लाजिमी है। इसलिए हम एनसीईआरटी से अनुरोध करते हैं कि राजनीति विज्ञान की कक्षा 9,10,11 और 12 की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से मुख्य सलाहकार के रूप में हम दोनों के नाम हटा दिए जाएं।’’

इसके पूर्व जानेमाने लेखक, राजनयिक और पूर्व राज्यसभा सांसद पवन के. वर्मा ने भी आवाज उठाते हुए सही कहा है कि ’’हमें अपने इतिहास के नैरेटिव को पहले से अधिक व्यापक और समृद्ध बनाने की जरूरत है। अनेक प्रतिष्ठित इतिहासकारों ने एनसीईआरटी द्वारा किए बदलावों की आलोचना की है, जिसके चलते मुगल भारत, साम्प्रदायिक दंगों, हिंदू चरमपंथ के प्रति गांधी की अरुचि और आपातकाल के संदर्भों को दोहरावपूर्ण बताकर हटा दिया गया है। इसका सबसे अच्छा समाधान यही होगा कि इतिहासकारों का एक स्वतंत्र पैनल गठित किया जाए, जिसमें हर विचारधारा के विद्वान सम्मिलित हों। वे ही तय करें कि हमें क्या दुरुस्त करने की जरूरत है। पर क्या कोई भी सरकार इसकी अनुमति देगी?’’

योगेन्द्र यादव

इधर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी अपने स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में बदलाव को लेकर सक्रिय दीखता है। आयोग अब ’भारतीय ज्ञान परंपरा’ संबंधी बदलाव का मसौदा राज्यों को भेज रहा है। देश के सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में आगामी शैक्षणिक सत्र 2023-24 में स्नातक और स्नातकोत्तर विषयों के साथ भारतीय ज्ञान परंपरा के पाठ पढ़ाये जाने हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इसका मसौदा तैयार किया है। इसमें भारतीय गणित प्रणाली, बीजगणित, ज्योतिषीय उपकरण, मूर्ति पूजा, साहित्य, वेदांग दर्शन, औषधि प्रणाली, स्वास्थ्य दर्शन और कृषि के बारे में पढ़ाया जाएगा। भारतीय ज्ञान परंपरा की पढ़ाई करने वाले छात्रों को स्नातक प्रोग्राम में कुल अनिवार्य कोर्स में से कम से कम पांच फीसदी क्रेडिट मिलेंगे। इसलिए छात्रों को इस कोर्स की पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। सभी विश्वविद्यालयों, हितधारकों और राज्यों को भारतीय ज्ञान परंपरा का मसौदा भेज दिया गया है, जिस पर सुझाव आमंत्रित हैं।

सवाल उठता है कि क्या सामाजिक विज्ञान और इतिहास के पाठ्यक्रमों को बदलना जरूरी है? या इतिहास के पाठ्यक्रम को पहले से अधिक व्यापक और समृद्ध बनाने की जरूरत है? सामाजिक विज्ञान एक ऐसा विषय है जिसमें अक्सर व्यक्तिगत पूर्वाग्रह हावी होते दीखते हैं, लिहाजा अतीत में की गई भूलों में सुधार करना चाहिए। इसलिए विद्वानों का कहना है कि सरकार को इसमें निर्णयकर्ता की भूमिका से बचना चाहिए, क्योंकि इसके विचारधारागत झुकाव होते हैं।

दरअसल, इतिहास पर पुनर्विचार एक गंभीर एवं जटिल विषय है, इसलिए केवल मुगलों को पाठ्यक्रम से हटाने तक इसे सीमित नहीं किया जा सकता है। याद रहे! बदलाव जरूरी है, लेकिन अक्सर इस तरह के बदलाव तब विरोधाभासी बन जाते हैं, जब बदलाव एक गैर-शैक्षिक और पक्षपातपूर्ण एजेंडा में तब्दील हो जाते हैं। सरकार को इसकी जल्दबाजी से बचने की जरूरत है। समय के साथ बदलाव जरूरी है, लेकिन इसके लिए समुचित एवं पर्याप्त विमर्श की दरकार हमेशा होती है।


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