— कश्मीर उप्पल —
अशोक सेकसरिया, किशन पटनायक और सच्चिदानन्द सिन्हा से मेरी पहली मुलाकात गिरधर राठी ने सन् 1982 में इटारसी में करायी थी। मेरे बचपन के मित्र गिरधर राठी आपातकाल के दिनों के बाद अपने वृद्ध माता-पिता को देखने इटारसी अपने घर जल्दी-जल्दी आने लगे थे। 1982 में गिरधर राठी इटारसी आए हुए थे। अशोक सेकसरिया और समाजवादी मित्र भी उन दिनों इटारसी में इकट्ठा हुए थे। वे सभी इटारसी के पास आदिवासी क्षेत्र केसला में ‘लोहिया अकादमी’ स्थापित करने के संदर्भ में इटारसी आए हुए थे। इसी क्षेत्र के डॉ मल्होत्रा ने ‘लोहिया अकादमी’ हेतु अपनी कुछ एकड़ भूमि इस हेतु केसला गाँव में दान दी थी। इसके बाद किशनजी और सच्चिदादी इटारसी आते रहे। वे कई बार मेरे घर भी रुकते थे। केसला में सुनील और राजनारायण ने आदिवासी किसान संगठन बनाया था। हमारी बातचीत में अशोक सेकसरिया सदैव उपस्थित रहते थे।
अशोक सेकसरिया से मेरा पत्र व्यवहार सन् 1991 से शुरू हुआ था। इन पत्रों में पुस्तकों, लेखों और समीक्षा आदि के विषयों पर अशोक जी के दृष्टिकोण से परिचित होने का मुझे अवसर मिलता था। वर्ष 1999 में किशन पटनायक के लेखों की पुस्तक प्रकाशित करने का निर्णय हुआ था। मुझे साठ के दशक से उस समय की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं को पढ़ने और संग्रहित करने का शौक रहा है। अज्ञेय के संपादन में ‘दिनमान’ के अंकों से लेकर रघुवीर सहाय के संपादन के अंतिम अंक तक ‘दिनमान’ के अंक मेरे पास सुरक्षित रहे हैं। नवभारत टाइम्स और जनसत्ता में प्रकाशित किशन पटनायक सहित अन्य लेखकों की कतरनों की फाइलें भी थीं। लघु पत्रिकाओं का कहना ही क्या।
अशोक सेकसरिया जी को मैंने किशन पटनायक के यत्र-तत्र प्रकाशित लेखों की कतरनें भेजना शुरू कर दिया था। सत्तर और अस्सी के दशक में प्रकाशित लेखों के संग्रह में निहित कुछ जरूरी बातों को मैं अशोक जी की जानकारी में लाने का प्रयास करता था। अशोक जी के पत्रों से मुझे पता चलता था कि वह सब अशोक जी भी देख चुके हैं। अशोक जी के पत्रों से मुझे एक नयी दृष्टि मिलती थी। उन्होंने तय किया था कि हर पन्द्रह दिन में हम पत्र लिखते रहेंगे। यह सिलसिला पुस्तक के प्रकाशन वर्ष 2000 तक चलता रहा। इसके बाद हमारे सम्पर्क का माध्यम टेलीफोन बन गया था। किशन जी की दूसरी पुस्तक के लिए अशोक जी इटारसी आ गये थे। कुछ लेखों का अंग्रेजी से अनुवाद भी करना था। इटारसी आते ही उन्होंने फादर बुल्के के ‘अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ की चर्चा की। मैंने वह कोश अपने एक साथी प्रोफेसर के हाथों भोपाल से मँगा लिया। अशोक जी मेरे लिए अपने पिताजी सीताराम सेकसरिया लिखित ‘एक कार्यकर्ता की डायरी’ पुस्तक के दोनों भाग लेकर आए थे। अशोक जी ने इटारसी के बाजार से कागज और पेन खरीदे। उन्होंने एक-एक रुपये वाले एक दर्जन पेन यह कहते हुए पसंद किये थे कि इनका काम लिखना ही तो है। अशोक जी कुछ दिन मेरे घर रहे फिर वे केसला सुनील के पास चले गये। वे बीच-बीच में इटारसी आते रहते थे।
यहाँ हम किशन पटनायक की पहली पुस्तक ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ (राजकमल प्रकाशन) की संपादन प्रक्रिया की वे बातें करेंगे जिनमें डूबकर अशोक जी ने यह कालजयी पुस्तक संपादित की थी। इस पुस्तक ने साहित्य के गंभीर अध्येताओं के साथ-साथ मैदानी कार्यकर्ताओं की भी प्रिय पुस्तक होने का दर्जा हासिल किया है। इस पुस्तक की पठनीयता की शक्ति इसके कई संस्करणों के माध्यम से देशभर में फैल जाना है। अशोक सेकसरिया द्वारा लिखे गए पत्रों से यह सत्य उद्घाटित होता है कि संपादन प्रक्रिया किसी रचना की रचना-प्रक्रिया जैसी ही एक कठिन साधना है। अब मैं बोलना बंद करता हूँ और आप अशोक सेकसरिया के शब्दों में उन्हें ही सुनें-
किशन जी की किताब को लेकर मैं बहुत परेशानी में हूँ। परेशानी की बात आपको इसलिए लिख रहा हूँ कि मेरा मन कहता है कि आप उसे विनम्रता या पाखंड नहीं मानेंगे – पहली परेशानी यह है कि मैं तात्विक और सैद्धांतिक बातों को बहुत कम समझता हूँ। एक क्लर्क का काम मैं कर सकता हूँ पर उसके आगे का नहीं। इसलिए मैं चाहता हूँ कि किताब का क्लर्कनुमा काम मैं करूँ और उसका तात्विक काम सुनील।
दूसरी परेशानी यह है कि 1977 से 99 तक के किशन जी के जो 297 लेख नवीन जी ने भेजे हैं उनमें से अधिकांश (80-86 प्रतिशत) ऐसे हैं जिनमें एकसाथ बहुत सारी बातें कही गयी हैं और उनमें बहुत सारे संदर्भ सामयिक हैं जिन्हें बाद में नहीं दिया जा सकता और पुस्तक को कामचलाऊ संग्रह न बनाना हो तो उन संदर्भों के बारे में फुटनोट होने चाहिए। फुटनोट दिए जाएँ या नहीं, यह एक परेशानी है।
सबसे बड़ी बात यह है कि किताब लेखों का संकलन मात्र न लगे – बस लेख इकट्ठा कर दिये गये हैं।….मेरी कल्पना में किशन जी का संग्रह इनसे भिन्न प्रकार का होना चाहिए। वह ऐसा नहीं होना चाहिए कि बस एक जगह लेख इकट्ठा हैं। उसमें किशन जी की विचार यात्रा की पूरी झलक मिलनी चाहिए और विकल्प की राजनीति तथा वैकल्पिक विकास का खाका उभरना चाहिए।
(09.08.1999)
किशन जी के कलकत्ता आने के पहले लेखों का एक कामचलाऊ वर्गीकरण मैंने और कांचरापाड़ा (कलकत्ता से 48 किलोमीटर दूर) के युवा साथी संजय भारती की मदद से कर लिया था। लेखों को सरसरी तौर पर पढ़ने के दौरान थोड़ा दुख इस बात से हुआ कि जब लेखों को पढ़ा था तो वे बहुत ही विलक्षण लगे थे पर 10-20 वर्ष बाद पढ़ने पर उनमें इतनी चमक नहीं लगी। इसका एक बड़ा कारण तो समय है- किशन जी के लेखों की विशेषता यह है कि सामयिक प्रश्न को नये ढंग से रखते हैं। जब सामयिक प्रसंग की सामयिकता समाप्त हो गयी तो चमक का कम होना स्वाभाविक है। बहुत से लेख रूस के विघटन और भारतीय राजनीति के उतार-चढ़ाव के कारण पुराने पड़ गये हैं। संकलन लेखों का ढेर न बने और वह आज भी ताजा लगे इसके लिए कई तरीके अपनाने होंगे – जो लेख एकदम सामयिक हैं उन्हें तो नहीं लेने का फैसला किशन जी ने कर दिया है। तरीकों के बारे में कई तरह की बातें दिमाग में आती हैं। आपके दिमाग में जो बात आए, उसे लिखें। संकलन का संपादन मैं नहीं कर रहा हूँ। एक प्रकार का संपादक मंडल हमने बनाया है जिसमें सुनील, अरविन्द मोहन, आप, संजय भारती, अलका सरावगी, राजकिशोर, सत्येन्द्र रंजन, अरुण त्रिपाठी, योगेन्द्र यादव और दो-तीन व्यक्ति होंगे।
किताब के लिए किशन जी ने तीन नये लेख लिखना स्वीकार कर लिया है पहला गांधीजी पर, दूसरा रूस के विघटन पर और तीसरा भारतीय या हिन्दू सभ्यता पर।
(17.08.1999)
पुराने लेख नये लेखों के साथ छपने पर हमें भले ही संतोष दें कि किशन जी कितनी सही बातें कितना पहले कर रहे थे पर पाठकों को वे दुहरावट भरे लगेंगे। इसके लिए क्या तरीका अपनाया जाए। आर.एस.एस. के बारे में किशन जी के विचारों को एक स्थान पर रखना ही है। व्यापक रूप से धर्मनिरपेक्षता पर एक खंड (किताब में कई खंड रखने की कल्पना है) रखने की बात किशन जी से हुई है।
उस खंड में आर.एस.एस. संबंधी विचारों को किसी प्रासंगिक स्थल पर XX चिह्न लगाकर या कोई और उपाय बरत कर ( ) करना क्या ठीक रहेगा?यह भी किया जा सकता है कि आर.एस.एस. शीर्षक देकर आर.एस.एस. संबंधी विचार एक जगह इकट्ठा कर दिये जाएंगे।
मोटे तौर पर अभी तक लेखों को राजनैतिक, आर्थिक, समाजवाद, सेकुलरवाद सभ्यता का संकट (ग्लोबलाइजेशन, वैकल्पिक विकास) आरक्षण (जातिप्रथा, शूद्र राजनीति) गांधी और विविध के रूप में वर्गीकृत कर अलग-अलग फाइलों में ऱखने का काम हुआ है।
लेखों का वर्गीकरण कामचलाऊ रूप से हुआ है। दिक्कत यह है कि प्रायः सभी लेखों में तरह-तरह के विषयों की आवा-जाही है।
उत्तर आधुनिकता वाली बहस मेरी समझ में नहीं आती। मेरा दिमाग इतना कुंद हो गया है कि कुछ भी गहरा मेरी समझ में नहीं आता फिर Polimic में मेरी कभी रुचि नहीं रही। अशोक वाजपेयी यहाँ आए थे तो उनके सामने मैंने अपनी यह समस्या रखी थी जिसका उन्होंने बहुत ही सटीक उत्तर दिया कि उत्तर आधुनिक में तरह-तरह की प्रकृतियाँ हैं और उन्हें जाने-समझे बिना खारिज करना गलत है।( मैं खारिज ही करता आया हूँ अपनी तरफ से उन्हें समझने का प्रयास किये बिना और यह निश्चय ही बहुत गलत है)
पवन वर्मा की किताब से मेरी बहुत दिलचस्पी थी और उसका एक extract जो outlook में छपा था, मैंने पढ़ा था। किशन जी ने किताब पढ़ी और उनका कहना गलत था कि पवन वर्मा की किताब समस्या को जड़ से पहचानने के बजाय उसके बाह्य रूप को देखती है- बाह्य रूप से देखना निश्चय ही मददगार है पर उससे जो दृष्टि मिलनी चाहिए, वह पुस्तक में नहीं मिलती। किशन जी के लेखों में वह दृष्टि है और उसे किस प्रकार संयोजित किया जाए (क्यों लेखों में वह यत्र-तत्र बिखरी हुई है) वह समस्या है।
(31.08.1999)
आपकी शंका मेरी भी शंका है और उसका कोई समाधान नहीं हो रहा है। आपकी यह बात सवा सोलह आने सही है कि पहले खंड के चारों विषय आप जैसे लोगों के लिए हैं। शंका के समाधान न होने का कारण सचमुच यह तय न कर पाना है कि लेख किसे संबोधित हैं। यह ‘किसे’ कौन है – एकदम अँग्रेजी न जानने वाला और किशन जी के विचारों से एकदम अपरिचित व्यक्ति जो वह नहीं है और हमारा लक्ष्य ऐसा ही अँग्रेजी से अनजान और किशन जी से अपरिचित व्यक्ति होना चाहिए, इसमें मुझे कोई शक नहीं है पर लेखों का चरित्र ही ऐसा है कि चाहकर भी हम उसे संबोधित नहीं कर सकते। यह दिक्कत प्रचार के लिए लिखे जाने वाले परचों को छोड़कर सब प्रकार के प्रकाशन में आए बिना नहीं रहती- केवल गांधीजी का लेखन अपवाद है।
(04.11.1999)
किशनजी के सुझाव के आधार पर एक व्यवहारिक सीमा तय की गयी और एक प्रकार की मौन सहमति की तरह यह बात तय हुई कि पहले खंड में ऐसे लेख हों जो व्यापक वैचारिक भूमि (सैद्धांतिक नहीं) को स्पष्ट करते हों और दूसरे खंड में ‘मैदानी’ (आपका शब्द) लेख हों। कोई दूसरा उपाय नजर नहीं आया। आदमी तरह-तरह के छल करता है और कभी लगता है कि उसके पास छल का विकल्प नहीं है। वार्ता में किशन जी के 13 लेख प्रशिक्षण कालम में छपे थे – ये लेख एकदम अँग्रेजी न जानने वालों और किशन जी के विचारों से अपरिचित पाठकों को संबोधित हैं। इन लेखों को पहले किताब में लेने की बात थी अब उन्हें बाद में दिया जा रहा है और इनकी एक अलग पुस्तिका छापी जाएगी जिसे हम लोग ही छापेंगे।
(04.11.1999)
किशन जी 20(11.99) को कलकत्ता आए और 21 को भुवनेश्वर गये। इस बीच उन्हें बुखार भी हो गया। पहली किताब का काम पूरा सा हो गया है। दूसरी किताब का काम कठिन है। किशन जी की राय है कि पहली किताब के लिए बैठने की जरूरत नहीं है। जरूरत दूसरी के लिए बैठने की है। पहली किताब का पूरा विवरण आपको 15 दिसंबर तक मैं भेज दूँगा। पांडुलिपि प्रकाशक को 26 जनवरी को देनी है। मेरे पास फोन नहीं है। पर फोन मुझे किया जा सकता है।
(22.11.1999)
किताब का पहला खंड अब पूरा होने पर लग रहा है कि अच्छा होगा- हालांकि ये लेख सीधे राजनीतिक-आर्थिक लेख नहीं हैं पर उनमें इन खतरों के बारे में चेतावनी उभर कर आयी है।
दूसरा खंड ही जानलेवा होगा और उसे सुनील, आप, किशन जी और मैं बैठकर देखें ज्यादा प्रासंगिक और सटीक बनाएँ, यही समस्या है। अधिकांश लेखों के प्रसंग बदल गए हैं। ऐसे लेखों को छाँट दिया है पर जो बचे हुए हैं उनमें भी यह समस्या किसी न किसी प्रकार बनी हुई है।
किताब लेखों का संकलन मात्र न हो, इस महत्त्वाकांक्षा के कारण समस्याओं का पैदा होना शायद स्वाभाविक है।
(30.11.1999)
मुझसे कुछ लिखा भी नहीं जाता। पत्र आने पर लगता है कि मुसीबत आयी- जवाब देना पड़ेगा। आपके पत्रों से दूसरा ठीक उलट हो रहा है। तुरंत जवाब देने और आपका पत्र पाने की इच्छा होती है।
इसका कारण कहीं स्वार्थ भी है- स्वार्थ शायद यहाँ गलत शब्द नहीं है। किशन जी के लेखों का काम कभी तेजी से होता है पर इस तेजी के बाद तुरंत ऐसी सुस्ती आ जाती है कि 4-5 दिन मैं काम को देखता ही नहीं। ऐसे मंद अवसरों पर आपके पत्र से स्फूर्ति आती है। दूसरी बात यह है कि लेखों के संग्रह-संकलन रूप के बारे में किसी से यहाँ बातचीत नहीं होती। एक कारण तो जो यहाँ मेरा परिचित क्षेत्र है, वह किशन जी के नाम से वाकिफ है, उनके सोच की मौलिकता और उनकी दूरदृष्टि से नहीं। ऐसे में आपके पत्रों से एक प्रकार का आदान-प्रदान होता है जो बहुत सहायक होता है।
मैं यह चाहूँगा कि आपके मन में जो भी बात आए उसे तुरंत लिख भेजें। पुस्तक की भूमिका किशन जी लिख रहे हैं, मेरे दिमाग में भूमिका के लिए जो भी बातें आयी हैं, उन्हें मैं नोट कर किशन जी को दे रहा हूँ।
आपके पत्रों को गंभीरता से न लेना तो हो ही नहीं सकता। गंभीरता से तो शायद ऐसे लोगों की बात को भी लेना चाहिए जो हमारा मजाक उड़ाते हों।
(02.12.1999)
अद्भुत , आपने यह पत्राचार प्रकाशित कर बहुत उपकृत किया है .. कभी अशोक जी ने नवीन जी को लेकर कहा था कि इन्हें जितना जानेंगे , आपकी श्रद्धा उतनी ही बढ़ती जाएगी .. निस्संदेह अशोक जी के बारे में भी यही सच है .