खोखली भारतीयता के विलाप से दूर

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— पुनीत —

किताब के आवरण चित्र को देखकर कई खयालात मन में आते हैं। शायद इसकी रचनात्मक समझ, पुस्तक के बौद्धिक आयामों को समझने के द्वार खोल सकती है। चित्र में दिखती नाव भले ही छोटी-सी है, पर खेवनहार को पूरे समंदर पर नज़र दौड़ाने के लिए वही सहारा बनती है। बहुत कुछ आजमाने और अनुभव करने के लिए, ठोस ज़मीन का होना बहुत जरूरी है। मणीन्द्र नाथ ठाकुर की किताब “ज्ञान की राजनीति” जहां नाव की तलाश में है, आदित्य निगम की यह किताब हमें वृहत समुद्र को देखने का मज़ा सिखा रही है। पूर्व जहां “भारतीय ज्ञान” की नाव को मज़बूत बांध रहे हैं, उत्तर वहीं अपने खेवनहार को ज्ञान परंपराओं के भव्य सागर में उसी नाव को उतारकर, रास्ता ढूंढ़ने का साहस दे रहे हैं। प्रस्तुत किताब इस मायने में आगे की ओर एक कदम है। दोनों ही किताबें, खोखली भारतीयता के विलाप से दूरी स्पष्ट करना अनिवार्य समझती हैं।

किताब में मूलतः आठ अध्याय हैं। हम इन्हें बेहतर समझने के लिए, तीन खंडों में बांट सकते हैं- परिचय(2 अध्याय), पुनर्विचार(4 अध्याय), आलोचना (2 अध्याय) क्रमश:।

प्रथम खंड, परिचय में लेखक अपने विचारों की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। लेखक स्थापित करते हैं कि वह उत्तर-उपनिवेशवादी नहीं, बल्कि वि-उपनिवेशवादी विचारक हैं। हालांकि, वह भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा भारत की ‘आध्यात्मिक श्रेष्ठता’ के विमर्श का खंडन करते हैं, जो उपनिवेशी मानकों पर खरे उतरने की नाकाम कोशिश करता है। कृष्ण चंद्र भट्टाचार्य के विचारों से प्रभावित, वह वैचारिक स्वराज का रास्ता ढूंढ़ रहे हैं। पाश्चात्य ज्ञान के आधिपत्य से बाहर आना उसके लिए अनिवार्य है परंतु सब कुछ पाश्चात्य होने के कारण नकार देना, एक भूल होगी। महत्वपूर्ण है कि लेन-देन की शर्तें हमारी जरूरतों और समझ से तय हों, थोपी न जाएं।

आदित्य निगम

लेखक जानते हैं कि बाज़ार, जनतंत्र, फ़ासिज़्म, पूंजी के पेचीदा सवालों के जवाब केवल भारतीय दर्शनों के आधार पर नहीं तलाशे जा सकते। हालांकि, हमें यह भी समझना होगा कि ग़ैरयूरोपीय समाज ‘इतिहास-विहीन जनता’ के समाज नहीं थे। भारत में ब्रह्मगुप्त और बगदाद में अल-ख़्वारिज़्मी के उदाहरण यह दर्शाते हैं कि यूरोपीय नवजागरण और प्रबोधन से पहले भी दुनिया के बाक़ी हिस्से रोशनी में जी रहे थे। मुख्यतः लेखक बताते हैं कि ज्ञान और विचार कभी भी किसी मुल्क की सीमा में बॅंधकर नहीं रहे।

द्वितीय खंड, पुनर्विचार में चार महत्वपूर्ण अध्याय आते हैं। लेखक इन अध्यायों में राजनीति, जनतंत्र, पूंजी, सत्ता जैसी पदावलियों पर पुनर्विचार करने का आग्रह करते हैं क्योंकि वह मानते हैं कि अन्य जगह से आए यह पद, बौद्धिक मशक़्क़त के बाद, अलग स्थानों पर एक नया अर्थ अख़्तियार कर लेते हैं। ‘राजनीति’ के विषय में वह बताते हैं कि भारतीय समाज में सामाजिक नियोजन की पारंपरिक स्वायत्तता ने उसे पैठ जमाने का मौका नहीं दिया। ‘सियासत’ का व्यापक पद देकर, वह दूसरी किस्म की राजनीति की ओर इशारा करते हैं जो औपचारिक ज़मीन से परे है। वह पार्थ चटर्जी के राजनीतिक समाज के पद में कई संभावनाएं तलाश कर रहे हैं। चटर्जी अपने पद को फूको के ‘सरकारियत’ के पद से जोड़ने की कोशिश में खुद इन संभावनाओं को खत्म कर देते हैं।

पूंजीवाद और आधुनिकता के संबंध में लेखक बताते हैं कि यूरोप की देन एक खास पूंजीवादी व्यवस्था ही है, जिसके मूल में व्यक्तिवाद, व्यक्तिगत बुर्जुआ संपत्ति और प्रकृति के लगातार दोहन के ज़रिये प्रगति का एक पूरा फ़लसफ़ा है। ग़ैरयूरोपीय समाजों की जीवन शैलियों को अतीत का अवशेष समझना भी इसी यूरोपीय पूंजीवाद और तर्कवाद के नए विमर्श की देन है। आधुनिकता यूरोपीय नहीं है, वह कई दर्शनों और ज्ञान परंपराओं से निकली है, जो यूरोप से दूर और पूर्व थे। जनतंत्र के विषय में हम सीखते हैं कि वह संसदीय व्यवस्था और पूंजीवाद दोनों के लिए ही खतरा है क्योंकि वह अवाम के हस्तक्षेप का ज़रिया बनता है। लेखक जनतंत्र को ‘जनतांत्रिक जीवन और संघर्षों में ढूंढ़ना चाहते हैं। बकौल एलेक्सिस टोकेविले, जनतांत्रिक क्रांति से ‘बराबरी के जुनून’ का जन्म होता है। जनतांत्रिक औपचारिकताओं के खिलाफ, जब यह जुनून काबू से बाहर निकलकर बगावत करने लगे, वही जनवाद है। जनतंत्र और जनवाद इन मायनों में बहुत अलग नहीं हैं।

तृतीय खंड, आलोचना में अंतिम दो लेख, स्वराज परंपराओं के असली दुश्मन रफ्तार और पश्चिमी आधुनिकता की आलोचनात्मक व्याख्या करते हैं। लेखक 1909 में छपी दो महत्वपूर्ण पुस्तिकाओं/लेखों का ज़िक्र कर रहे हैं- ‘हिंद स्वराज’ और ‘द फ़्यूचरिस्ट मैनिफ़ेस्टो’। पूर्व के लेखक, महात्मा गांधी किसी आदिम काल में जाने की तरफदारी नहीं करते हैं बल्कि वह हमारे समक्ष ‘सुस्तकदमी’ और स्वैच्छिक धारण की गई सादगी की सार्थकता दर्शा रहे हैं। उत्तर के लेखक, इतालवी फ़्यूचरिज्म कलाकारों के समूह के सदस्य फिलिपो तोम्मासो हैं, यह लेख ‘रफ़्तार’ के जश्न का घोषणापत्र था। यह समूह अचलता और आनंद के महिमामण्डन से हताश है और रोशनी, हिंसा और जवानी के जुनून का जश्न मनाना चाहता है। गांधी दर्शाते है कि प्रगति की यह रफ़्तार, मनुष्य और प्रकृति के बीच दरार डाल रही है। यह राह तरक्की की नहीं, मानव सभ्यता के खात्मे की है। हमारी वैचारिक परंपराओं की बर्बादी में बची-खुची कसर, पश्चिमी आधुनिकता के मनहूस तोहफों- ‘राष्ट्रवाद’ और ‘राष्ट्र की संप्रभुता’ के विचार पूरी कर देते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन विचारों की जड़ में हिंसा सराबोर है। स्वराज परंपराओं की आवश्यक शर्त है कि इन यूरोपीय तोहफों को हम कूड़ेदान का रास्ता दिखा दें। पश्चिम के तर्ज पर राष्ट्र-राज्य बनना ही हमारा मुकद्दर नहीं हो सकता। इन हालात में सुस्तकदमी के सौन्दर्यशास्त्र को अपनाना मजबूरी नहीं, हमारा बौद्धिक चुनाव है।

इन सीखों की रोशनी में गांधी की आधुनिक सार्थकता और इस किताब की अहमियत, दोनों का दावा किया जा सकता है। इस किताब का आम हिंदुस्तानी भाषा में आना बहुत बड़ी बात है, जो लेखक की इसके मूल भाव के प्रति वफादारी दर्शाता है। यह किताब केवल अंग्रेजों को भारतीय ज्ञान परंपराओं की बदहाली का ज़िम्मेदार नहीं समझती है, न ही इस ज्ञान को आदिम काल के तथा कथित सुनहरे युग में तलाश कर रही है, राष्ट्रवादियों पर आलोचनात्मक नज़रिए से उठाए गए तीखे सवाल इसे अलग दर्जे के अदब में शुमार कर देता है।

बहरहाल, कुछ जगह खामियां भी देखी जा सकती हैं। कम लेखों में बहुत कुछ कहने की कोशिश की जा रही है। बेशुमार उदाहरण और संदर्भ, लेख को आसान करने के बजाय जटिल बना देते हैं। किताब के द्वितीय खंड(बीच के 4 अध्याय) में रैखिकता और अनुक्रम की कमी भी दीखती है। लेखक इस बात का कोई तार्किक स्पष्टीकरण देने में विफल हैं कि वह विशिष्ट पदावलियों के साथ ही क्यों जद्दोजहद कर रहे हैं, और दूसरों से क्यों नहीं। बहरहाल, वैचारिक स्वराज की तलाश में, भारतीय भाषा में यह पुस्तक नई चेतना का आगाज़ कर रही है, जिसके लिए लेखक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।

किताब – आसमां और भी हैं : वैचारिक स्वराज के तक़ाज़े
लेखक – आदित्य निगम
प्रकाशक – सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65, नोएडा-201301
दाम – ₹325

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