कैलाश मानसरोवर यात्रा तो मुक्त हो

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Mansarovar

Krishna Nath

— कृष्णनाथ —

कैलाश मानसरोवर यात्रा आखिरी तीर्थ यात्रा है। आखिरी इस अर्थ में कि कैलाश मानसरोवर हिमालय के तीर्थों का तीर्थ है। ये तीर्थ हमारे जातीय स्मृति और संस्कार में रखे बसे हैं। कैलास मानसरोवर तिब्बत में है। 1950 से तिब्बत चीन के कब्जे में है। इसलिए कैलास मानसरोवर चीन के कब्जे में है. मुक्त नहीं है। जब तिब्बत का अंग था तो परंपरागत रूप से भारतीय साधू, गृहस्थ, व्यापारी, विद्यार्थी, कभी राहदनी लेकर तो कभी बिना राहदनी लिए कैलाश मानसरोवर यात्रा करते थे। तिब्बत से लामा, उपासक उपासिका, व्यापारी भारत के बौद्ध धर्म के वहां पहुंचने के पूर्व बोन तीर्थ था। यह तिब्बत का आदिम धर्म था। कहते हैं कि बौद्ध योगी और कवि मिलारेपा ने बोन पुजारी को परास्त किया। और तब से यह बौद्ध तीर्थ बना। भारतीय इतिहास पुराण में कैलाश शिव का स्थान है। शिव कैलाश के वासी हैं। पर्वतों में जो भी श्रेष्ठ हैं उन्हें कैलाश कहते हैं। कुमाऊं में भी कैलाश है। हंसा मानसरोवर में विराजता है, और जब उसे मानसरोवर मिल जाता है तो वह ताल तलैया नहीं डालता।

कैलाश मानसरोवर यात्रा मुक्त नहीं है। तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भी यह परंपरागत यात्रा जारी थी। मुझे स्मरण आता है कि जब हमनें हिमालय यात्रा शुरू की तो एक स्वामी जी नैनीताल से अपने साथ तीर्थ यात्रियों को कैलाश मानसरोवर यात्रा में ले जाते थे। शायद 1961 में भी ऐसी यात्रा हुई। 1962 के चीनी आक्रमण के बाद यह यात्रा बंद हो गई। 1981 में जब यह फिर शुरू हुई तो भी बहुत बंधन में है। भारत सरकार के परराष्ट्र मंत्रालय के उत्तर पूर्व डिवीजन ने कैलाश मानसरोवर यात्रा, 1995 का विज्ञापन किया है। इसके अनुसार सामान्यतया यात्रा जून से प्रारंभ होकर सितंबर तक चलती है। यात्रा सभी भारतीय नागरिकों के लिए खुली है। प्राय पच्चीस-तीस तीर्थ यात्रियों की चौदह टोलियां भेजी जाएंगी। पहली टोली नई दिल्ली से जून के प्रारंभ में निकलने की आशा है। उसके बाद हर छह एक दिन बाद टोलिया रवाना होंगी। यात्रा की अवधि बत्तीस दिन है। इसमें बीस दिन पैदल या घोड़े पर चलना होता है। यात्रा बहुत कठिन है और विषम स्थितियों में उन्नीस हजार फीट की ऊंचाई तक की चढ़ाई पार करना है। यात्रियों का स्वास्थ्य अच्छा होना जरूरी है। वे रक्तचाप मधुमेह दमा हृदय रोग, मिरगी आदि के रोगी न हो।

इस विज्ञापन से कई प्रश्न उठते हैं। पहले तो तीर्थ यात्रा में सरकार का सीधा नियंत्रण क्यों? अनुमति पत्र ‘वीसा’ आदि तक तो समझ आता है। लेकिन जब उद्योग व्यापार तक में उदारीकरण और निजीकरण की नीति अपनाई जा रही लाश मानसरोवर यात्रा भारत-चीन सरकारों के बीच क्यों फंसी हुई है? वैसे भी कैलाश मानसरोवर कम्युनिस्ट चीन का क्या सरोकार? यह तो भारत-तिब्बत को मानता है तो इस यात्रा की व्यवस्था उसे इस क्षेत्र को सौंपनी चाहिए। ऐसी कमाई का एक उदाहरण यह है कि नेपाल-तिब्बत यात्रा के विशेषज्ञ विष्णु इंटरनेशनल टूर्स एक ट्रैवला सत्रह दिनों में कैलाश मानसरोवर की विशेषता है। इसमें सिर्फ प्रारंभिक तीन दिन काठमाडौ, पशुपतिन्याय बनाता है। किरकोप से तिर और जीप से शेष यात्रा। इसकी प्रति व्यक्ति लागत छियालीस हजार छह सौ छियासठ रूपए प्रति यात्री है। जाहिर है इसका चार पाच से अधिक भाग तिब्बत के नाम पर चीन को मिलने वाला है। ऐसे ही एक विज्ञापन मेरे देखने में आस्ट्रेलिया का आया है। पर्यटन, बीमा, संचार, परिवहन आदि विदेशी मुद्रा की कमाई के अदृश्य स्रोत है। इन स्रोतों से कमाई के जरिए और भी हैं। कहते हैं कि एक घर तो डायन भी बख्शती है। तो कैलास मानसरोवर यात्रा को सरकार नहीं बख्श सकती?

जो हो कैलाश मानसरोवर यात्रा को मुक्त करने का तत्काल अर्थ यह नहीं है कि राज्यों के बीच की जो औपचारिकताएं, पासपोर्ट, वीसा आदि हैं वे न रहे। हालांकि जब यूरोप जो आधुनिक राष्ट्रीयता का मूल स्थान है, ऐसे प्रतिबंध हटा रहा है और पश्चिम यूरोपीय राष्ट्रों के नागरिकों के लिए एक देश से दूसरे देश में जाने में रोक-टोक नहीं है तो जम्बू द्वीप के भारतखंड में ही यह रोक-टोक क्यों? वैसे भी कैलाश मानसरोवर बृहत्तर भारत का सांस्कृतिक भारत का अंग है। राजनीतिक दृष्टि से तिब्बत का है। चीन का वहां क्या काम? इसलिए अनुमति लेना हो तो कायदे से भारत के राष्ट्रपति या उनकी सरकार और तिब्बत के परम पावन दलाई लामा या उनकी प्रवासी सरकार से अनुमति और आशीर्वाद लेकर यात्रा की जानी चाहिए। मेरी सूचना है कि प्रवासी तिब्बती असेंबली आफ डिपुटीज (प्रवासी तिब्बत संसद) स्वतंत्र तिब्बत में कैलास मानसरोवर को मुक्त तीर्थ मानने के प्रस्ताव पर विचार कर रही है। यह तो दीर्घकाल में होना ही है। तत्काल क्यों नहीं?

तत्काल भारत और चीन सरकारों में कैलाश मानसरोवर यात्रा को मुक्त करने पर बातचीत शुरू हो। इस बाबत 1962 के पूर्व की स्थिति वापस लौटे। जैसे मन के, वैसे ही मानसरोवर के अनेक रास्ते हैं। लद्दाख के चाड़थड़ से तो कुछ घंटों का रास्ता है। किनौर से शिपकला होकर है। उत्तराखंड से बद्रीनाथ होकर है, कुमाऊं से पिथौरागढ़ धारचूला-लिपुलेख दर्श होकर तो यात्रा हो ही रही है। फिर नेपाल, सिक्किम सब दूर से रास्ता है। यह रास्ते खुलने चाहिए। जैसे व्यापार के दो रास्ते खुले हैं, वैसे ही तीर्थ यात्रा का भी खुलना चाहिए।

कैलाश मानसरोवर यात्रा की मुक्ति का तात्कालिक अर्थ है कि सरकारी एकाधिकार से मुक्ति। यह मामला एकाधिकार बनाम प्रतिस्पर्धा का है। जैसे अर्थव्यव्स्था में प्रतिस्पर्धा का लाभ बताया जाता है, हवाई यात्रा आदि में दिखता है वैसा ही कैलास मानसरोवर यात्रा में क्यों नहीं हो सकता? यह प्रश्न दो सभ्यताओं और संस्कृतियों के बीच संघर्ष का है।

मेरी कल्पना में तो अपनी-अपनी गठरी मोटरी लेकर परंपरागत ढंग की तीर्थ यात्रा की छूट हो। उसमें डाक्टरी जांच का भी क्या काम ? कौन जीने का पट्टा लिख सकता है? और जो जिंदा है वही कौन सी जिंदगी जी रहा है? इसलिए अगर कोई इस अखिरी यात्रा से न लौटे तो यह स्वतंत्रता या मुक्ति भी उसका जन्मसिद्ध अधिकार बल्कि कर्त्तव्य है.

अंत में मैं नहीं जानता कि कैलाश मानसरोवर यात्रा के पीछे मेरी क्या कामना है। यह तिब्बत मुक्ति साधना का अंग है? या मेरी मृत्यु कामना है? या दोनों हैं? या दोनों नहीं है? और यात्रा है।

(यह लेख जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है।)

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