न्यासिता : आर्थिक लोकतंत्रीकरण

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nand kishor aacharya

— नंदकिशोर आचार्य —

र्थशास्त्र का सम्बन्ध जहाँ, एक ओर, उत्पादन की शक्तियों अर्थात् प्रौद्योगिकी से होता है, वहीं दूसरी ओर, उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व और उत्पादन से होने वाले लाभ के वितरण से भी है। इस सम्बन्ध में कार्ल मार्क्स की यह स्थापना बहुत महत्वपूर्ण है कि उत्पादन शक्तियों के आधार पर ही उत्पादन-सम्बन्धों का निर्धारण होता है। इस का अर्थ यह है कि प्रौद्योगिकी स्वयं ही अपने स्वामित्व और उत्पादन से होने वाले लाभ के वितरण के बारे में दिशा-संकेत दे देती है। जब हम विशाल पैमाने के उत्पादन की ओर उन्मुख केन्द्रीकरण के स्वभाव वाली प्रौद्योगिकी भी स्वीकार करते हैं तो स्वाभाविक हैं स्वामित्व का स्वरुप भी केन्द्रीकृत हो जाता है-फिर चाहे उस के केन्द्रीकरण का स्वरुप निजी स्वामित्व यानी पूँजीवादी प्रकार का हो या राजकीय स्वामित्व अर्थात् समाजवादी प्रकार का।

इस केन्द्रीकृत स्वामित्व के कारण लाभ के वितरण के सवाल पर स्वामी और श्रमिक में संघर्ष बना रहता है- एक रुप में यह संघर्ष पूँजीपति के विरुद्ध होता है तो दूसरे रुप में राज्य के विरुद्ध भी हो सकता है अर्थात् पूँजी और श्रम के सम्बन्ध संघर्षपूर्ण बने रहते है। लेकिन महात्मा गांधी जिस उत्पादन तकनीकी का आग्रह करते हैं, उस में उत्पादन के साधनो पर केन्द्रीकृत स्वामित्व की सम्भावना ही नहीं रहती, जिस का अर्थ यह है कि यह तकनीकी शोषण का माध्यम बन ही नहीं सकती। स्वदेशी की संकल्पना से प्रेरित इस तकनीकी द्वारा उत्पादन के लिये न तो बड़ी पूँजी की जरुरत रहती है, न बड़ी संख्या में श्रमिकों को भाड़े पर नियोजित करने की और न ही उसे उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए किसी बड़ी मध्यवर्ती संस्था की। इस तकनीकी की मूल प्रवृत्ति स्वामी और श्रमिक के भेद को ही समाप्त करने की ओर उन्मुख रहती है। कह सकते हैं कि स्वामी, श्रमिक और, विक्रेता तीनों एक ही हो जाते हैं।

इस प्रौद्योगिकी से प्रसूत उत्पादन-सम्बन्धों के कारण पूँजी का शोषणकारक केन्द्रीकरण सम्भव नहीं रहता और लाभ के समान वितरण अर्थात् आर्थिक समानता का आदर्श बड़ी हद तक स्वयं ही लागू हो जाता है। दरअसल ऐसी समान-व्यवस्था को वास्तविक न्यायपूर्ण व्यवस्था कहना चाहिए जिस आर्थिक प्रक्रिया में शोषण की गुंजाइश ही न रहे। महात्मा गांधी स्वदेशी पर आश्रित जिस ग्राम-केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था की बात करते हैं, उसे वह इसी तरह के शोषण-मुक्त काम-धन्धों के आधार पर संगठित मानते हैं। उन्हीं के शब्दो में ‘मेरी दृष्टि में, उस गुण का कोई मूल्य नहीं रह जाता जो केवल व्यक्तियों तक सीमित हो या उस पर आचरण करना केवल व्यक्तियों के लिए ही सम्भव हों।”‘ वैयक्तिक गुण तो केन्द्रीकृत व्यवस्था में भी कुछ लोगों में रह सकते हैं, पर, अपनी सारी सदाशयता के बावजूद, वह हिंसक व्यवस्था को ही बदलने के प्रयास में शामिल नहीं होता। इसी बात को स्पष्ट करते हुए गांधीजी कहते हैः ‘बड़े पैमाने की मशीनें एक आदमी के हाथ में धन का केन्द्रीकरण कर देती हैं जो बाकी लोगों पर हुकूम चलाता है और वे उस की गुलामी करते हैं। हो सकता है कि वह अपने कारीगरों के लिए आदर्श परिस्थिति पैदा करने का प्रयास करे, पर तब भी शोषण तो वह करता ही है, जो हिंसा का ही एक रुप है।

लेकिन, हम जानते हैं कि वर्तमान समाज की आर्थिक संरचना आधुनिक तकनीकी की ओर उन्मुख है, अतः वहाँ श्रम और पूँजी के हिंसात्मक सम्बन्धों के सवाल का हल किस प्रकार सम्भव हो सकता है? साथ ही, स्वयं गांधीजी भी यह मानते हैं कि स्वदेशी वाली ग्रामोद्योगी आर्थिक व्यवस्था में भी उन की सहायता करने तथा हाड़तोड़ श्रम के निराकरण के लिए कुछ भारी उद्योगों की भी आवश्यकता पड़ेगी ही, अतः उन के स्वामित्व और लाभ के समतामूलक वितरण का सवाल अहिंसा की दृष्टि से हल करने पर भी विचार जरुरी होगा। क्या गांधीजी इस बारे में कुछ सुझाते हैं?

माझा और ‘ईशावास्यम् इदम् सर्वम् की अवधारणाओं से महात्मा ती स्वामित्व के सवाल का एक ऐसा समाधान प्रस्तुत करते हैं जो वित्त वैयक्तिक सदाशयता पर निर्भर न रहकर एक सांस्थानिक परिवर्तन बन जाता है। इसे गांधीजी ने ‘न्यासिता’ कहा है। बासिता’ एक प्रकार का ‘अनासक्त स्वामित्व’ है। महात्मा गांधी यह मानते हैं कि वर्तमान में आर्थिक साधनों पर स्वामित्व रखने वाले इंजीपतियों और भूमि-मालिकों को एक न्यासी की तरह व्यवहार करना चाहिए और अपनी पूँजी को एक न्यास में परिवर्तित कर देना बाहिए। वह पूँजीपतियों का आह्वान करते हैं: “मैं उन व्यक्तियों को, जो आज अपने आप को मालिक समझ रहे हैं, न्यासी के रुप में काम करने के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ अर्थात् यह आग्रह कर रहा हूँ कि वे स्वयं को अपने अधिकार की बदौलत मालिक न समझें, बल्कि उन के अधिकार की बदौलत मालिक समझें, जिस का उन्होने शोषण किया है। गांधीजी के इस कथन से यह भी ध्वनित हो जाता है कि न्यासिता 

एक प्रकार से मालिकों द्वारा शोषण से उत्पन्न पाप का प्रायश्चित भी है। इस प्रकार गांधीजी मालिकों के नैतिक बोध को जागृत करने कर प्रयास करते हैं। उन के अनुसार जैसे कोई धर्म के अनुकूल आचरण नहीं करता है, वह धर्म की नहीं, संदर्भित व्यक्ति की कमज़ोरी है, उसी प्रकार यदि धनवान लोग न्यासिता के सिद्धान्त के अनुसार काम नहीं करते है इस से सिद्धान्त की नहीं, धनवानों की दुर्बलता सिद्ध होती है।

मालिकों के हृदय-परिवर्तन के प्रयास को ही अहिंसा का एक मात्र-रुप मान लेने के कारण यह भ्रम उत्पन्न होता है कि न्यासिता का सिद्धान्त एक आदर्श कल्पना अवश्य है पर उसे व्यावहारिक रुप नहीं दिया जा सकता क्योंकि बहुत कम उद्योगपति ऐसे होंगे जो स्वेच्छापूर्वक इसे मानने को प्रस्तुत होंगे। लेकिन हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि, स्वयं महात्मा गांधी के अनुसार, शिक्षण या समझाना-बुझाना एकमात्र अहिंसक उपाय नहीं है। न्यासिता के सिद्धान्त को व्यावहारिक रुप देने के लिए महात्मा गांधी त्रिआयामी कार्यक्रम प्रस्तावित करते हैं। वह, एक ओर, पूँजीपतियों से तो न्यासिता को स्वीकार करने का आग्रह करते ही है; लेकिन, साथ ही, वह श्रमिकों और राज्य को भी अपनी भूमिका निबाहने का निर्देश देतेहैं। शिक्षण ही नहीं, अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा भी गाँधी जी की दृष्टि में दो सही और अचूक उपाय हैं। गांधी जी श्रमिकों से अनुरोध करते है। कि यदि मालिक उनके प्रति अभिभावकों की तरह व्यवहार करने को तैयार न हो तो उन्हें मालिकों के प्रति असहयोग और सविनय अवज्ञा का सहारा लेना चाहिए। जिन उपायों को ब्रिटिश साम्राज्य जैसी शक्ति के विरुद्ध काम में लिया जा सकता है, उन्हें पूँजीवाद के शोषण 

और अन्याय को मिटाने के लिए क्यों नहीं काम में लिया जा सकता? यह सिद्धान्त की नहीं, उसे व्यवहार में लाने का प्रयत्न करने वालों की ही भूल माननी चाहिए कि उन्होंने मात्र लोक-शिक्षण को तो महत्त्व दिया, पर अहिंसक सत्याग्रह को नहीं। गांधीजी श्रमिकों के साथ-साथ राज्य से भी इस सम्बन्ध में सक्रिय होने का आग्रह करते हैं। यद्यपि वह, जहाँ तक सम्भव हो, पूँजीपतियों द्वारा स्वेच्छापूर्वक न्यासिता पर अमल को वरीयता देते है, लेकिन पूँजीपतियों द्वारा किसी हृदय-परिवर्तन का प्रमाण न मिलने पर, वह राज्य से भी यह आग्रह करते हैं कि वह कानून द्वारा न्यासिता को लागू करे। इस सन्दर्भ में गांधीजी के इस लम्बे कथन को देखना बहुत उपयोगी होगाः “मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी अगर लोग न्यासी के रुप में आचरण करें, लेकिन, यदि वे ऐसा नहीं करते तो हमें राज्य के जरिये न्यूनतम हिंसा का प्रयोग करते हुए उन्हे उनकी सम्पत्ति से वंचित करना होगा। इसीलिए मैने गोलमेज सम्मेलन में कहा था कि प्रत्येक न्यासहित की जाँच पड़ताल की जानी चाहिए और जहाँ आवश्यक हो, राज्यसातकरण के आदेश दिये जाये। जिनकी संपत्ति का राज्यसात्करण करना हो, उन्हे मुआवजा दिया जाये या नहीं, इसका निर्णय हर मामले की तफसील पर गौर करके किया जाये। मै व्यक्तिगत रुप से इस बात को तरजीह दूँगा कि राज्य के हाथों में शक्ति के केन्द्रीकरण के बजाय न्यासिता के भावना का विस्तार किया जाये क्योंकि मेरी सम्मति में निजी स्वामित्व की हिंसा राज्य की हिंसा से कम हानिकारक है। लेकिन, अपरिहार्य हो तो मैं न्यूनतम राज्य स्वामित्व का समर्थन करूंगा।

इसके अलावा यह भी स्मरणीय है कि राज्य के समर्थन के बिना किसी भी प्रकार का उद्योगवाद और पूँजीवाद पनप नहीं सकता है। आधुनिक उद्योगों के लिए कई तरह की राजकीय सुविधाओं और सार्वजनिक संसाधनों की आवश्यकता होती है जिन्हे राज्य की सहायता से ही निजी उद्योगों को मुहय्या करवाया जाता है। जिस आधार पर पूँजी का विकास की संपत्ति अर्थात सामाजिक संसाधन है।

श्रम भी एक प्रकार की पूँजी है, यह रिकार्डो जैसे पूंजीवादी अर्थशास्त्री भी स्वीकार करते की अतः, पूंजी के एक प्रकार द्वारा पूंजी के अन्य प्रकारों का शोषण केवल नैतिक दृष्टि से, बल्कि अर्थशास्त्रीय दृष्टि से अनुचित है। इसी प्रकार, सभी उद्योग पर्यावरण को हानि पहुँचाते है, जो उनकी निजी संपत्ति नहीं है और राज्य की अनुमति के बिना वे ऐसा नहीं कर सकते। यदि राज्य हिंसा का प्रयोग न भी करे और केवल असहयोग करे तब भी पूँजीपतियों को न्यासिता के सिद्धान्त को मानने के लिए प्रस्तुत होना होगा – और इसे हिंसा नही कहा जा सकेगा क्योंकि कोई भी हिंसक व्यक्ति या संस्था किसी दूसरे व्यक्ति या संस्था से अपने ही विरुद्ध की जाने वाली हिंसा में सहयोग देने का आग्रह नहीं कर सकता- न नैतिक और न कानूनी स्तर पर। वास्तविक लोकतांत्रिक राज्य को सत्याग्रही भी होना होता है, इसलिए पूँजीवादी शोषण व अन्याय के खिलाफ सत्याग्रह राज्य का नैतिक दायित्व है, हिंसा नहीं – और एक सत्याग्रही श्रमिक या सार्वजनिक संपत्ति के शोषण में सहयोगी हो भी कैसे सकता है?

इसके अतिरिक्त महात्मा गांधी भी यह मानते ही है की लौकिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का पालन संभव नहीं है और कभी कभी वह रक्षात्मक हिंसा को भी मान्यता देते हैं, इसलिए, एक लोकतांत्रिक राज्य द्वारा न्यासिता के सिद्धान्तों को लागू करने के लिए की गई इस कानूनी हिंसा को क्षम्य समझा जा सकता है। स्वयं गांधीजीके ही शब्दोंमे, “दुनिया केवल तर्क के सहारे नही चलती। जीवन में थोड़ी बहुत हिंसा तो है। अतः, हमें न्यूनतम हिंसा के रास्ते को अपनाना है।

राज्य द्वारा कानून बनाकर न्यासिता के सिद्धान्त को लागू करने के प्रयोजन से एक ‘सरल और व्यावहारिक न्यासिता सूत्र किशोरलाल मश्रुवाला और नरहरि पारिख द्वारा गांधीजी को भेजा गया था (जो वस्तुतः, प्रोफेसर एम. एल. दाँतवाला ने प्रचारित किया था) और किंचित् संशोधन के साथ गांधीजी ने उसका अनुमोदन भी कर दिया था। मैं यहाँ उस सूत्र को विस्तार से उद्धृत नहीं कर रहा हूँ, पर उस में यह स्पष्ट था कि वहाँ निजी स्वामित्व का किसी भी प्रकार की कोई गुँजाइश नहीं होगी। इस ‘व्यावहारिक सूत्र’ के अनुमोदन से भी कुछ समय पूर्व ही गांधीजी स्वयं ‘हरिजन’ में लिख चुके थे कि न्यासिता के सिद्धान्त के अंन्तर्गत मालिकों को अपनी सेवा और समाज के लिए उस के मूल्य को देखते हुए कमीशन मिलेगा, जिस की दर का नियमन राज्य द्वारा किया जायेगा। उन के बच्चों को उन के स्थान पर न्यासी बनने की आज्ञा तभी मिलेगी जब वे स्वयं को इस के योग्य सिद्ध कर देंगे।

यहाँ यह भी स्मरणीय है कि न्यासिता का यह सिद्धान्त केवल मध्यम उद्योगों के लिये ही है क्योंकि गांधी विचार में स्थानीय स्तर का उत्पादन स्वदेशी पर आधारित होगा, जिस में श्रम-शोषण की गुँजाइश न्यूनतम होगी और बड़े उद्योगों को तो गांधीजी स्वयं ही राज्य के सीधे नियंत्रण में रखने के पक्ष में है। कुछ बड़े उद्योगों की आवश्यकता को मानते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा थाः “जिन उद्योगों में बड़ी संख्या में लोग एकसाथ काम करते है, वे राजकीय स्वामित्व में होने चाहिए। इन में कुशल और अकुशल 

दोनों ही प्रकार के श्रमिक राज के माध्यम से अपने उत्पादों के स्वामी होंगे। “10 यन्त्रों के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए बड़े कारखानों की आवश्यकता से सम्बन्धित एक सवाल के जवाब में रामचन्द्रन से उन्होंने कहा थाः “हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक तो समाजवादी हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जायें। उन की हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उनका उद्देश्य हो।”1”

बहुत से आलोचकों का मानना है कि न्यासिता को आर्थिक क्षेत्र में लागू करना अव्यावहारिक होगा क्योंकि निजी आकांक्षाओं की प्रेरणा ही वहाँ प्रभावी एवं सफल हो सकती है। लेकिन, इस तर्क के आधार पर तो राजनीतिक लोकतंत्र को भी खारिज किया जा सकता है क्योंकि राजनीति के क्षेत्र में भी निजी आकांक्षाओं की प्रेरणा कम प्रभावी नहीं रही है। इस के बावजूद, लोकतंत्र एक प्रकार की राजनीतिक न्यासिता है और कई कमियों के बावजूद (जिन्हे सुधारने की प्रक्रिया भी चलती रहती है) राजनीतिक शक्ति को पुनः राजतंत्रीय व्यवस्था में लौटकर जा सकना वांछनीय नहीं हैं। इसी प्रकार आर्थिक शक्ति को भी निजी हाथों में बने रहने देना वांछनीय नहीं माना जा सकता। न्यासिता एक प्रकार का आर्थिक लोकतंत्र है, जिसे चाहें तो ‘सात्विक समाजवाद’ कह सकते हैं। यहाँ यह उल्लेख भी प्रासंगिक होगा कि बहुत-से सहकारी उद्योग दुनिया भर में सफलतापूर्वक चल रहे हैं, जो प्रकारान्तर से न्यासिता ही है।

यह भी उल्लेखनीय है कि संयुक्त राज्य अमेरिका तक में ऐसे कई संस्थान सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं, जिन का स्वामित्व श्रमिकों या ग्राहकों का है अथवा उनमें श्रमिको की बड़ी भागीदारी है। एक अध्ययन के अनुसार, करीब दस हजार कंपनीयों में ई एस ओ पी (Employee Stock Ownership Plan) लागू है और उन मे से 19 प्रतिशत कंपनीयों में बहुमत अंशधारक श्रमिक वर्ग है। करीब 13 हजार क्रेडिट युनियने है, 100 के करीब सहकारी बैंक है, 100 से भी कुछ अधिक सहकारी बीमा कंपनीया है, करीब 2000 म्युनिसिपल सेवाएँ और 115 के लगभग टेलिकम्युनिकेशन सहकारी समितियाँ है। और ये सभी सफलतापूर्वक संचालित हो रही हैं। अमूल और मुंबई की टिफीन सर्विस जैसी कई संगठन भी सहकारी प्रयासों के उत्तम उदाहरण है। ये सभी प्रयास प्रकारान्तर से न्यासिता की अवधारणा के ही रुप है।

संदर्भः

1. हरिजन, 1.09.1940, पृ. 271,72।

2. वही

3. यंग इंडिया, 26.11.1931 पृ. 369.

4. हरिजन, 16.12.1939, पृ. 376.

5. हरिजन 25.08.1940 पृ. 260,61.

6. दि मॉडर्न रिव्यू, अक्टूबर 1935, पृ. 142.

7. हरिजन, 28.09.1934, पृ. 259.

8. हरिजन, 25.10.1952, पृ. 301.

9. हरिजन, 31.03.1946, पृ. 63,64.

11. हिन्द स्वराज, महादेव भाई देसाई की प्रस्तावना।

12. जेरी मेंडर तथा एडवर्ड गोल्डस्मिथ, (संपादक), दि केस अगेन्सट दि ग्लोबल इकॉनामी, (सैनफ्रेंन्सिस्कोः सिएरा क्लब बुक्स), पृ. 434.

परिचय : प्रो. नंदकिशोर आचार्य, गांधीयन समाजवादी  विचारों के प्रख्यात विद्वान और प्रतिष्ठित प्रोफेसर (गांधी स्कूल फॉर डेमोक्रेसी एंड सोशलिज्म, आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर)।

आभार :  Institute  of Gandhian Studies , Wardha 

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