— कुमार प्रशांत —
स्थानीय आंदोलन की वजह से जब महाराजा हरिसिंह ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया था तो नाराज जवाहरलाल उसका प्रतिकार करने के लिए कश्मीर पहुंचे थे।राजा ने उन्हें भी उनके ही गेस्ट हाऊस में नजरबंद कर दिया था। अब जब विभाजन भी और आजादी भी आन पड़ी थी तो वहाँ कौन जाए कि जो मलहम का भी काम करे और विवेक भी जगाए?
माउंटबेटन ने प्रस्ताव रखा, ‘क्या हम बापूजी से वहाँ जाने का अनुरोध कर सकते हैं? आजादी से मात्र14दिन पहले रावलपिंडी के दुर्गम रास्ते से महात्मा गांधी पहली और आखिरी बार,1अगस्त 1947 को कश्मीर पहुंचे।mतब शेख अब्दुल्ला जेल में थे।
बापू का एक स्वागत महाराजा ने किया तो नागरिक स्वागत का दूसरा आयोजन बेगम अकबर जहां अब्दुल्ला ने किया। बापू ने बेगम अकबर जहां के स्वागत समारोह में कहा कि इस रियासत की असली राजा तो यहाँ की प्रजा है।वह पाकिस्तान जाने का फैसला करे तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती।
लेकिन जनता की राय भी कैसे लेंगे आप?
उसकी राय लेने के लिए वातावरण तो बनाना ही होगा ना?
बापू ने फिर भारत की स्थिति साफ करते हुए कहा कि कांग्रेस हमेशा ही राजतंत्र के खिलाफ रही है।वह इंग्लैंड का हो कि यहाँ का।शेख अब्दुल्ला लोकशाही की बात करते हैं, उसकी लड़ाई लड़ते हैं।हम उनके साथ हैं।उन्हें जेल से छोड़ना चाहिए और उनसे बात कर आगे का रास्ता निकालना चाहिए। कश्मीर के बारे में फैसला तो यहाँ के लोग ही करेंगे।
फिर गांधीजी यह भी साफ करते हैं कि यहाँ के लोगों से उनका मतलब क्या है? यहाँ के लोगों से मेरा मतलब है यहाँ के मुसलमान, यहाँ के हिन्दू,कश्मीरी पंडित, डोगरा लोग तथा यहाँ के सिक्ख! गांधीजी के इस दौरे ने कश्मीर को विश्वास की ऐसी डोर से बांध दिया कि जिसका नतीजा शेख अब्दुल्ला की रिहाई में,भारत के साथ रहने की उनकी घोषणा में,कश्मीरी मुसलमानों में घूम घूम कर उन्हें पाकिस्तान से अलग करने के अभियान में दिखाई दिया।