लोहिया स्मृति शेष दिवस

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राममनोहर लोहिया
राममनोहर लोहिया (23 मार्च 1910 - 12 अक्टूबर 1967)

Vinod kochar

— विनोद कोचर —

लोहिया को परखने का, कविकुल शिरोमणि और राज्यसभा सांसद डॉ रामधारी सिंह दिनकर का ये नजरिया पठनीय और मननीय है। वे लिखते हैं कि:-

“….जिस लोहिया से मेरी मुलाकात सन 1934 ई.को, पटना में हुई थी और जो लोहिया 1963में संसद में आये, उन दोनों के बीच भेद था|”

“सन चौतीस वाला लोहिया,युवक होता हुआ भी विनयी और सुशील था, किन्तु संसद में आनेवाले प्रौढ़ लोहिया के भीतर मुझे क्रांति के स्फुलिंग दिखाई देते थे | राजनैतिक जीवन के अनुभवों ने उन्हें कठोर बना दिया था और बुढ़ापे के समीप पहुंचकर वे उग्रवादी बन गए थे | उनका विचार बन गया था कि जवाहरलाल जी से बढ़कर इस देश का अहित और किसी ने नहीं किया है तथा जबतक देश में कांग्रेस का राज है, तबतक देश की हालत बिगड़ती ही जाएगी |”

” अतएव उन्होंने अपनी राह बड़ी निर्दयता से तैयार कर ली थी और वह सीधी राह यह थी की जवाहरलाल जी का जितना ही विरोध किया जाये, वह कम है और कोंग्रेस को उखाड़ने के लिए जो भी रास्ते दिखाई पड़ें, उन्हें ज़रूर अजमाना चाहिए |”

“स्वराज्य होने पर भी लोहिया जी को कई बार जेल जाना पड़ा | एक बार वे उस जेल में कैद किये गए थे, जिसमें कभी जवाहरलालजी को काफी दिनों तक कैद रहना पड़ा था | उस जेल में, स्वराज्य के बाद जवाहरलाल जी की एक मूर्ति स्थापित की गयी थी | जेल से छूटने पर लोहिया जी के मित्रों ने उनसे पूछा,’कहिये इस बार का कारावास कैसा रहा ?’ लोहिया जी ने कहा,’कुछ मत पूछो ! मैं जिस कोठरी में कैद था, उसी के सामने जवाहरलाल जी की मूर्ति खड़ी थी और हर वक़्त मेरी नज़र उसी मूर्ति पर पद जाती थी | जल्दी रिहाई हो गयी नहीं तो उस मूर्ति को देखते-देखते मैं पागल हो जाता |’

वाणी, व्यवहार और कार्यक्रमों में इतनी कठोरता बरतने के बावजूद लोहिया साहब मानते थे कि वे गाँधी जी की ही राह पर चल रहे हैं। बल्कि वे मानते थे कि वे गाँधी जी के सबसे बड़े अनुयायी हैं | राजनीति की अन्य बातों में उनका यह विश्वास कहाँ तक सही माना जा सकता था यह विषय चिंत्य है, मगर यह ठीक है कि देश में छाई हुई गरीबी को देखकर उनके हृदय में क्रोध भभकता रहता था और अंग्रेज़ी को वे एक क्षण भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे।”

“जब से लोहिया साहब संसद के सदस्य हुए, संसद में हिंदी के सबसे बड़े प्रवक्ता भी वे ही हो गए थे | उन्होंने संसद में अपने सारे भाषण हिंदी में दिए और राजनीति की पेचीदा से पेचीदा बातों का उल्लेख उन्होंने हिंदी में ही किया | उनकी विशेषता यह थी कि भारी से भारी विषयों पर भी वे बहुत सरल हिंदी में बोलते थे |”

जहां तक मुझे याद है वे सेना और फौज के बदले ‘पलटन’ कहना ज्यादा पसंद करते थे | दिल्ली में हिंदी के विरोधी तरह-तरह के लोग हैं, मगर लोहिया साहब के भाषणों से उन सभी विरोधियों का यह भ्रम दूर हो गया था कि हिंदी केवल कठिन ही हो सकती है और अंग्रेजी का सहारा लिए बिना हिंदी में पेचीदा बातों का बखान नहीं किया जा सकता |”

“मेरा ख्याल है, हम सभी हिंदी प्रेमियों ने संसद में हिंदी की जितनी सेवा बारह वर्षों में की थी,उतनी सेवा लोहिया साहब ने कुछ ही बरसों में कर दी |”

“संसद में आते ही विरोधी नेता के रूप में लोहिया साहब ने जो अप्रतिम निर्भीकता दिखाई थी, उसकी बड़ाई, खानगी तौर पर कोंग्रेसी सदस्य भी करते थे और उस निर्भीकता के कारण लोहिया साहब पर मेरी भी बड़ी गहरी भक्ति थी |”

” सन 1962 के अक्टूबर में चीनी आक्रमण से पूर्व, मैंने ‘एनार्की’ नामक जो व्यंग्य काव्य लिखा था उसमें ये पंक्तियाँ आती हैं :-
‘तब कहो लोहिया महान है, एक ही तो वीर यहाँ सीना रहा तान है |’

ये दो पंक्तियाँ लोहिया साहब को बहुत पसंद थी, गर्चे कभी कभी वे पूछते थे कि ‘ये पंक्तियां क्या व्यंग्य में लिखी हैं?’
” मैं कहता, ‘वैसे तो पूरी कविता ही व्यंग्य की कविता है मगर व्यंग्य होने पर भी आपके सीना तानने की तो बड़ाई होती है |’
“एक दिन मज़ाक मज़ाक में उन्होंने यह भी कहा था की ‘महाकवि ये छिटपुट पंक्तियाँ काफी नहीं हैं | तुम्हें मुझपर कोई वैसी कविता लिखनी चाहिए जैसी तुमने मेरे दोस्त जयप्रकाश जी पर लिखी थी |’

“मैंने भी हंसी हंसी में ही जवाब दिया था, ‘जिस दिन आप मुझे उस तरह प्रेरित कर देंगे जिस तरह मैं जयप्रकाश जी से प्रेरित हुआ था, उस दिन कविता आप से आप निकल पड़ेगी |’

“लोहिया साहब जितने अच्छे वक्ता थे, उससे अधिक बड़े चिन्तक थे मगर उनकी चिंतन पद्धति का साथ देना अक्सर कठिन होता था क्योंकि उनके तर्क निर्मोही और विकराल होते थे | कभी-कभी ऐसा भी लगता था कि जिस शत्रु पर वे बाण चला रहे हैं वह वास्तविक कम काल्पनिक अधिक है |”

“लोहिया साहब जब आखरी बार अमेरिका गए थे. उन्हें लेखकों ने कुछ किताबें भेंट की थीं | जब वे देश लौटे और मैं उनसे मिलने गया तो उन्होंने उनमें से दो किताबें मुझे उपहार के तौर पर दीं | उनमें से एक किताब कविता की है और उसकी कवियत्री हैं रुथ स्टीफन | रुथ स्टीफन ने यह पुस्तक लोहिया साहब को इस अभिलेख के साथ भेंट की थी- ‘फॉर राम,हु रिप्स शेडोस इनटू रैंग्स|’
“अमरीका में लोहिया साहब ने एक ऐसा भी बयान दिया था जिसका मकसद अमरीकी सभ्यता के खोखलेपन पर प्रहार था |”

“जबसे नवीन जी गुज़र गए,संसद का केन्द्रीय हाल मेरे लिए सूना हो गया | मगर जब लोहिया सदस्य बन संसद में आये मैं सेन्ट्रल हाल की ओर फिर से जाने लगा क्योंकि लोहिया साहब के साथ बातें करने में मुझे ताजगी महसूस होती थी और मज़ा आता था | वे अक्सर मुझसे पूछते थे, ‘ यह कैसी बात है कि कविता में तो तुम क्रांन्तिकारी हो मगर संसद में कोंग्रेस सदस्य ?’ “इसका जो जवाब मैं दिया करता था उसका निचोड़ मेरी ‘दिनचर्या’ नामक कविता में इस तरह दर्ज है:-

तब भी माँ की कृपा, मित्र अब भी अनेक छाये हैं,
बड़ी बात तो यह कि लोहिया संसद में आये हैं |
मुझे पूछते हैं,’दिनकर ! कविता में जो लिखते हो
वह है सत्य या कि वह जो तुम संसद में दिखते हो ?’
मैं कहता हूँ,’मित्र सत्य का मैं भी अन्वेषी हूँ,
सोशलिस्ट ही हूँ लेकिन कुछ अधिक जरा देशी हूँ |
बिलकुल गलत कम्यून, सही स्वाधीन व्यक्ति का घर है,
उपयोगी विज्ञान मगर मालिक सबका ईश्वर है |’
इस कविता में एक जगह गरीबी की थोड़ी प्रशंसा सी है:-
‘बेलगाम यदि रहा भोग,निश्चय संहार मचेगा,
मात्र गरीबी छाप सभ्यता से संसार बचेगा |’

यह बात लोहिया जी को बिलकुल पसंद नहीं थी। वे निश्छल आदर्शवादी थे और गरीबी के साथ किसी भी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं थे | ईश्वर का खंडन तो उन्होंने मेरे समक्ष कभी नहीं किया मगर भाग्यवाद या नियतिवाद के वे प्रबल विरोधी थे।

बातचीत के प्रसंग में, एक दिन मैंने उनसे कहा था कि ‘काम और युवा की जिस समस्या से नयी सभ्यता उलझ रही है उसका ज्ञान प्राचीनों को भी था | जिस मनुष्य के अस्तित्व से समाज का गौरव बढ़ता है, लोगों को ऊँचा उठने की प्रेरणा मिलती है,उसके साधनों के प्रति प्राचीन सभ्यता भी उदार थी | और नहीं तो पञ्च कन्यायें पूजनीया कैसे मान ली गयीं ?’ और अगर क्षुधा की बात लीजिये तो गांधारी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा था-

वासुदेव, जरा कष्टं, कष्टं निर्धन जीवनम्
पुत्र शोक महाकष्टं कष्टातिकष्टं क्षुधा |

लोहिया साहब ने उसी समय इस श्लोक को कंठस्थ कर लिया और कई दिन बाद भेंट होने पर उन्होंने यह श्लोक मुझे सुनाया |
पिटे पिटाये रास्ते से अलग, डॉ. लोहिया साहसी लेखक हैं | वे बहुत प्रतिभाशाली हैं | और उनमें कहीं भी अभिमान छू तक नहीं गया | उनमें वह सनकीपन भी नहीं जो प्रायः विद्वानों में देखा जाता है | विद्रोही लोहिया मानवीय मूल्यों के प्रति बहुत आश्वस्त हैं |
कांग्रेस के सदस्य के नाते,मैं कह सकता हूं कि अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बहुत तीव्र है | उनकी कार्यशैली प्रतिरोध की शैली है | गांधीजी को राममनोहर लोहिया पर पिता जैसा गर्व था | मार्क्सवाद और गांधीवाद दोनों पर ही लोहिया का विश्लेषण अलग था | उनका भविष्य का लेखन निश्चित ही उन्हें प्रतिष्ठा देगा और एक विशिष्ट विचारक के रूप में प्रतिष्ठित करेगा |

उनके स्वर्गगमन से कोई एक मास पूर्व मैंने एक दिन उनसे निवेदन किया था- ‘आप क्रोध को कम कीजिये,वही अच्छा है | देश आपसे बहुत प्रसन्न है | अब आपको छोटी-छोटी बातों को लेकर कटुता नहीं पैदा करनी चाहिए | यह देश बड़ा ही कठिन देश है | कहीं ऐसा न हो कि भार जब आपके कन्धों पर आये तब आपका अतीत आपकी राह का काँटा बन जाये |’

उन्होंने उदासी में भर कर कहा,’तुम क्या समझते हो उतने दिनों तक मैं जीने वाला हूँ ? मेरी आयु बहुत कम है इसलिए जो बोलता हूँ उसे बोल लेने दो|’ कितने आश्चर्य की बात है कि वे अपने अंत को समीप देख रहे थे |”

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