— डॉ अवधेश कुमार राय —
स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधा डॉ लोहिया एक मौलिक विचारक व समाजवादी चिन्तक थे। उनका चिंतन मात्र राजनीति तक सीमित नहीं था ,बल्कि सामाजिक ,आर्थिक के साथ–साथ, संस्कृति ,दर्शन, साहित्य,इतिहास, भाषा आदि के बारे में भी था। लोहिया का चिंत्तन देश– काल की सीमा से बंधा नहीं था,वह समस्त विश्व के लिए एक मौलिक देंन था।
लोहिया एक नई सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे ।इसलिए वे समस्त मानव को विश्व नागरिक मानते थे । वह चाहते थे कि एक देश से दूसरे देश जाने के लिए कोई क़ानूनी रूकावट न हो और बिना पासपोर्ट के कोई भी कहीं जा सके। जयप्रकाश जी लिखते है, ‘’लोहिया के विचार इतने मौलिक होते थे कि उनको पूर्णरूपेण ग्रहण करना कठिन होता था ——- लोहिया ने अपने मौलिक विचारों से भारतीय राजनीति को गहरे रूप में प्रभावित किया ।‘’
लोहिया का जन्म २३ मार्च १९१० को अकबरपुर ,फ़ैजाबाद जिले में हुआ था। वे जब ढाई वर्ष के थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया और उनका लालन –पालन उनकी दादी ने किया । लोहिया के पिता हीरालाल जी कांग्रेस के अनुयायी थे और गाँधी जी से उनका निकट का संबंध था । लोहिया जब ९ वर्ष के थे तब पहली बार अपने पिता के साथ १९१९ में गाँधी जी से मिले । उनकी प्रारंभिक शिक्षा अकबरपुर में ही हुई और इसके बाद मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने मुंबई के मारवाड़ी विद्यालय से उत्तीर्ण की। इंटरमीडिएट की परीक्षा उन्होंने बी. यच.यू तथा बी .ए. कलकत्ता विश्वविद्यालय के ईश्वरचंद विद्यासागर से उत्तीर्ण किया ।बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आने तक लोहिया पर राष्ट्रवाद का गहरा प्रभाव पड़ गया था । उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड को न चुन कर जर्मनी को चुना व अपना शोध उस समय के प्रख्यात अर्थशास्त्री बर्नर जोम्बार्ट के निर्देशन में पूरा किया ।उनके शोध का विषय था –धरती का नमक । यह शोध उन्होंने जर्मन भाषा में प्रस्तुत किया ।यही पर उन्हें यह अहसाह हुआ कि ज्ञान और अभिव्यक्ति के लिए मातृभाषा ही सबसे अच्छा माध्यम हो सकती है । जर्मनी प्रवास के दौरान ही उन्होंने मार्क्सवाद का गहरा अध्ययन किया और मार्क्स को आधुनिक युग का द्रष्टा बताया । लेकिन वे मार्क्सवाद को भारतीय परिपेक्ष्य में पूर्णतया उपयुक्त नहीं मानते थे ।
लोहिया पर मार्क्स ,एंजिल, गाँधी ,बुद्ध ,आइन्स्टीन और बर्नाड शा आदि का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । लोहिया समाजवाद को लोकत्रंत्र से जोड़कर देखते हैं और उनके लोकतान्त्रिक समाजवाद में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। लोहिया अपनी पुस्तक ‘ गाँधी , मार्क्स और सोशलिज्म ‘ में गाँधी और मार्क्स दोनों को अपूर्ण मानते हैं और उनके विचारों में भारतीय परिपेक्ष्य के अनुरूप समन्वय करना चाहते हैं । उनका कहना है कि एक समस्या के एक पक्ष को देखता है तो दूसरा, समस्या के दूसरे पक्ष को । वह समाजवाद को परिभाषित करते हुए कहते है, ‘समाजवाद का मतलब है समता और समृद्धि’‘। दूसरे शब्दों में . समाजवाद गरीबी के समान बटवारे का नाम नहीं है बल्कि समृद्धि के अधिकाधिक वितरण का नाम है । बिना समता के समृद्धि असंभव है और बिना समृद्धि के समता व्यर्थ है । (लोहिया रचनावली , पृष्ठ ८४ )
लोहिया के समाजवादी कार्यक्रमों में प्रमुख थे – जाति तोड़ो , दाम बांधो, नर –नारी समानता ,रंगभेद ,वर्ग और वर्ण की समाप्ति . चौखम्भा राज्य , पिछड़ों को विशेष अवसर,अंग्रेजी हटाओ , आर्थिक व सामाजिक गैर बराबरी दूर करना आदि लोहिया यूरोपीय समाजवाद को आभूषण मानते थे ।वे कहते है कि यह सजावट के काम आ सकता है लेकिन इससे भारत में रोटी का काम नहीं लिया जा सकता है ।
लोहिया सत्याग्रह की जगह सिविल नाफ़रमानी शब्द का प्रयोग ज्यादा पसंद करते थे क्योकि उन्हें सत्याग्रह में नैतिकता का अत्याधिक आग्रह लगता था । वे गाँधी जी के ट्रस्टीशिप के साथ सामाजिक स्वामित्व को भी जोड़ना चाहते थे । लोहिया ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए हिंसात्मक क्रांति का विरोध किया ,उनके अनुसार हिंसात्मक क्रांति अनुचित होने के साथ असंभव है । ‘सविनय अवज्ञा ‘ के रूप में अहिंसात्मक क्रांति जनता में शक्ति का संचार करेगी और इससे जनता का नैतिक उत्थान भी होगा । लोहिया,गाँधी के सत्याग्रह और अंहिसा के समर्थक थे, लेकिन गांधीवाद को अधूरा दर्शन मानते थे । लोहिया ने मार्क्सवाद और गांधीवाद दोनों को अधूरा पाया ।लोहिया राष्ट्रवादी थे लेकिन विश्व सरकार का सपना देखते थे ।लोहिया कि दृष्टि में मार्क्स पश्चिम के तथा गाँधी पूर्व के प्रतीक हैं ।लोहिया पूर्व और पश्चिम कि इस खाई को पटना चाहते थे । मानवता की दृष्टि से वे पूर्व –पश्चिम , काले –गोरे , अमीर– गरीब ,छोटे– बड़े और नर– नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे ।
लोहिया की दृष्टि में लोकतंत्र व समाजवाद एक दूसरे के पूरक हैं ।लोकतंत्र के बिना समाजवाद अधूरा है । लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद को एक दूसरे के बिरोधी मानते हुए दोनों को एकांकी एवं हेय मानते हैं । इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दिला सकता है ।
कर्म के क्षेत्र में अखंड प्रयोग व विचार क्षेत्र में निरंतर संशोधन द्वारा लोहिया हमेशा नव निर्माण के लिए प्रयत्नशील रहे । जीवन का कोई भी ऐसा पहलू नहीं रहा होगा जिसे उन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा से स्पर्श न किया हो ।
लोहिया कहते थे, ‘धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है, धर्म दीर्घकालिक राजनीति है , राजनीति अल्पकालिक धर्म है । धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है ।‘ (भारत माता धरती माता )
१९३३ में जर्मनी से वापस आने तक लोहिया की समाजवादी दृष्टि निखर चुकी थी । इसी समय कांग्रेस की समझौतावादी प्रवृतियों के कारण देश के अनेक नवयुवक साम्यवादी दल से अलग एक समाजवादी संगठन की आवश्यकता महसूस कर रहे थे । उनमे आचार्य नरेन्द्र देव , जयप्रकाश नारायण , अशोक मेहता, संपूर्णानंद , दामोदर सवरूप सेठ ,कमल देवी चटोपाध्याय ,अच्युतपटवर्धन
युसूफ मेहर अली आदि थे ।1934 में इन्हीं नवयुवकों के साथ लोहिया ने कांग्रेस पार्टी के अंतर्गत ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। उस समय लोहिया की उम्र २४ वर्ष थी व आचार्य नरेन्द्र देव की ४० वर्ष थी । लेकिन यहीं पर दोनों के बीच मैत्री की नींव पड़ी । पार्टी का जो मुख पत्र निकाला गया उसका संपादक डॉ लोहिया को बनाया गया । पार्टी का लक्ष्य पूर्ण स्वराज के साथ समाजवाद भी रखा गया ।
लोहिया ने गाँधी जी के चरखा की तरह समाजवादियोँ के लिए फावड़ा ,वोट , व जेल का दर्शन प्रस्तुत किया । फावड़ा श्रम का ,वोट जनता के निर्णय व संकल्प का और जेल संघर्ष का प्रतीक था । लोहिया ने कहा, ‘समाजवाद केवल पेट की लड़ाई नहीं है , मन की भी लड़ाई है । हिंदुस्तान के लोग दुनिया के सबसे रोगी लोग ही नहीं , उदास लोग भी है । ऐसे समाज की रचना करनी हैं जिसमे लोग समृद्ध भी हो और प्रसन्न भी ।‘’ (लोहिया एक जीवनी – ओमप्रकाश दीपक , पृष्ठ –९८ )
लोहिया को भारतीय संस्कृति से भी अगाध लगाव था । उन्होंने भारतीय संस्कृति को समझने के लिए रामायण , महाभारत और इतिहास का गहन अध्ययन किया और उन्हें लगा कि इन ग्रंथो में भारतीय एकात्मता के सूत्र मौजूद हैं ।उनकी इसी धारणा ने राम,कृष्ण और शिव के बारे में नई दृष्टि प्रदान की। वे कृष्ण को पश्चिम से पूर्व भारत की एकात्मता का प्रतीक मानते थे, तो राम को उत्तर से दक्षिण भारत का । उन्होंने भारत माता से मांग की , ‘हे भारत माता हमें शिव का मष्तिक दो , कृष्णा का ह्रदय दो तथा राम का कर्म और बचन दो । हमें असीम मष्तिक और उन्मुक्त ह्रदय के साथ –साथ जीवन की मर्यादा से रचो ।‘’ (मैनकाइंड , अगस्त , १९५५)
उन्होंने समाजवाद को यूरोपीय सीमओं और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमओं को तोड़कर एक विश्व दृष्टि प्रदान की। उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय आध्यात्मिकता का सच्चा मेल तभी हो सकता है जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाय कि वे एक – दूसरे के पूरक बनने में समर्थ हो सकें । उनका विचार था कि प्राचीन आदर्श सत्यम, शिवम्, सुन्दरम और आधुनिक विश्व का समाजवाद ,स्वातंत्र्य और अंहिसा का तीन सूत्रीय आदर्श जीवन का सुन्दर सत्य होगा । इस सत्य को जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिए मर्यादा –अमर्यादा ,सीमा –असीमा का ध्यान रखना होगा ।
१९४२ के ‘’ भारत छोड़ों ’’ आन्दोलन के दौरान गिरफ्तार हुए लोहिया को लाहौर जेल में रखा गया था ।१९४६ में जेल से छूटने के बाद लोहिया अपने मित्र डॉ मैन्जिस के निमंत्रण पर गोवा गए, उन्होंने वहां देखा कि नागरिकों को कोई अधिकार नहीं हैं । १० जून, १९४६ को लोहिया ने इसके खिलाफ आन्दोलन प्रारंभ कर दिया और १८ जून को मडगांव में पुर्तगाली सरकार के खिलाफ सत्याग्रह पर बैठ गए ।गाँधी जी ने इस गिरफ्तारी का विरोध किया और ‘हरिजन ‘ में इसके खिलाफ लेख लिखा और लोहिया के साहस की प्रंशसा की। नेहरू इस आन्दोलन के खिलाफ थे। १९ जून , १९४६ को उनके मित्र मैन्जिस और उन्हें रिहा कर दिया गया ।दूसरी बार वे २९ सितम्बर १९४६ को बेलगाँव से गोवा के लिए रवाना हुए, लेकिन कोलोस स्टेशन पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । उनके साथ श्रीमती शांति नाइक,योगेन्द्र सिंह व चित्रकार रवि पंडित भी थे ।इन सबको ३० सितम्बर को रिहा कर कर दिया गया लेकिन लोहिया को ४० दिनों तक जेल में रखा गया और कठोर अमानवीय यातनाएँ दी गई।उन्हें ८ नवम्बर ,१९४६ को भारत की सीमा पर ला कर छोड़ दिया गया । लोहिया गोवा मुक्ति आन्दोलन के प्रथम नायक थे ।
लोहिया १९५० के नेपाली क्रांति में भी शरीक हुए और राणाशाही के खिलाफ आन्दोलन में भाग लिया । रंगभेद के खिलाफ १९६४ में उन्होंने अपनी अमेरिकी प्रवास के दौरान सत्याग्रह किया । लोहिया मानवता के लिए समर्पित व्यक्तित्व थे और अन्याय व शोषण के प्रतिकार के लिए हमेशा संघर्षरत रहे ।
‘लोहिया अनशन को, झूठ और पाखंड को बढ़ावा देने वाला तरीका मानते थे । उनकी राय में अनशन से दोहरा नुकसान होता था । एक तो अनशन सामूहिक आन्दोलन लेकर जन चेतना के विकास को रोकता था ।दूसरा आमरण अनशन की घोषणा करने वाले बीच में अनसन को तोड़कर झूठ और पाखंड को बढ़ावा देते थे ।‘ (लोहिया एक जीवनी –ओमप्रकाश दीपक,पृष्ठ ४६–४७ )
१ जनवरी , १९५६ को लोहिया ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से अलग हैदराबाद में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। उनका अभिमत था कि भारत को प्रगति के रास्ते पर लाने के लिए समाजवाद ही एक मात्र रास्ता है।
लोहिया के समाजवादी चिंतन में गाँधी और मार्क्स दोनों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।लोहिया का समाजवाद भी गाँधी जी के अंतिम जन पर केन्द्रित है । जो सामाजिक दृष्टि से सोपान के अंतिम क्रम में है और जिसे जाति, धर्म, शास्त्र और व्यवस्था ने जकड़ रखा है ।उनके समाजवाद में वर्ग ,वर्ण , के साथ जाति प्रथा की भी समाप्ति जरुरी है । उनकी समाजवादी सोच में जाति उन्मूलन एक आवश्यक तत्व है । वे वर्ग की उत्पत्ति के तीन कारण मानते थे – जाति , सम्पति , और भाषा । लोहिया वर्ग और वर्ण के अंतर –संबंधों को रेखांकित करते हैं ,‘अस्थिर वर्ण को वर्ग कहते है और स्थाई वर्ग वर्ण कहलाते है । हर सभ्यता या समाज में वर्ग वर्ण में या वर्ण वर्ग में बदलते रहते है यही बदलाव सभी अंदरूनी घटनाओं की जड़ में होता है और यह बदलाव हमेशा न्याय और बराबरी की मांग से प्रेरित होता है ।‘’
‘’वर्ग समता की इच्छा की अभिव्यक्ति है तो वर्ण न्याय की कृत्रिम इच्छा है और यह कृत्रिम इच्छा गतिरोध बन जाती है और समाज को गिरावट की ओर ले जाती है ।‘’
लोहे मानते थे – ‘’जाति तोड़े बगैर भारतीय समाज में समता तो दूर की चीज है , अपने विकास के लिए जरुरी उर्जा भी नहीं आ सकती है ।‘’ (लोहिया एक जीवनी –ओमप्रकाश दीपक , पृष्ठ– १२९ }। लोहिया जाति तोड़ो के प्रबल समर्थक थे । वे भारतीय समाज के पिछड़ेपन और बार –बार विदेशियों से हारने का कारण जाति व्यवस्था को मानते थे । उनका मानना था कि समाज व्यवस्था और शासन के संचालन में देश की अधिसंख्य वर्ग की भागीदारी न होने के कारण मुल्क कमजोर बना और भारत बार– बार विदेशियों के हाथों पराजित हुआ । वे मानते थे कि दस– पांच करोड़ लोग सत्ता भोगते हैं और बाकी सारा मुल्क इससे वंचित हैं ।
लोहिया के इस आन्दोलन का यह प्रभाव पड़ा कि उनके राजनारायण जैसे सहयोगियों ने अपने नाम के आगे जाति सूचक उपनाम हटा दिया । उन्होंने अपने इस आन्दोलन में सह– भोज और रोटी– बेटी के रिश्ते की बात भी उठाई ।समाजवादी पार्टी ने जाति तोड़ो कार्यक्रम को एक बड़ा राजनैतिक आन्दोलन बनाया और इसी के तहत पिछडो के लिए विशेष अवसर की मांग उठाई । उन्होंने पिछड़ों के साथ हरिजनों ,मोमिनों और औरतों को विशेष अवसर के लिए योग्य बताया। लोहिया समस्त नारिओं को पिछड़ा मानते थे । इसी विशेष अवसर के लिए उन्होंने अगड़ो को पिछड़ों का खाद बनने के लिए कहा । लोहिया ने अस्पृश्यता की भावना के कुपरिणामों का उल्लेख करते हुआ कहा कि अस्पृश्यता के कारण राष्ट्रीय विघटन और अवनति हुई । इसके लिए उन्होंने हरिजनों में शिक्षा , स्वाभिमान और निर्भयता पर जोर दिया । लोहिया ने हिन्दू – मुस्लिम के बीच बैमनस्य के कारणों व उनके समाधान पर जोर दिया । वे सांप्रदायिक सौहार्द के गहरे हिमायती थे ।
लोहिया नर–नारी की समानता के समर्थक थे । वे मानते थे कि वैदिक काल को छोड़ दे, तो भारत में औरतों की स्थिति गुलामी की रही है ।उन्होंने कहा कि औरतों के यौन सुचिता का प्रश्न बड़ा बना दिया गया जबकि ये पैमाने पुरुषों पर लागु नहीं होते हैं । नचिकेता को यम ने कंचन और कामिनी से मुक्ति का सलाह दिया । लेकिन लोहिया को कामिनी से मुक्ति की सलाह पसंद नहीं थी । कामिनी से मुक्ति की सलाह तो एक तरफा पुरुष दृष्टि की उपज थी । उनका मानना था कि जो चीज नर – नारी दोनों के लिए हो , वही स्वीकृत हो सकती है ।
लोहिया भारतीय समाज में औरतों को पिछड़ा मानते थे इसीलिए पिछड़ों के विशेष अवसर वाले सिद्धांत में उन्हें शामिल करते थे । उनका मानना था कि नारी सहभागिता के बिना समाजवाद कायम नहीं हो सकता है । लोहिया ने औरतो के मुक्ति के लिए पानी , पखाना तथा धुआ रहित चूल्हे के प्रश्न को उठाया । वे बहु– पत्नी , दहेज़ प्रथा व पर्दा प्रथा के विरोधी थे । वे मानते थे कि नारी उतनी ही स्वतन्त्र हो, जितना पुरुष ।इस संबंध में लोहिया को अर्धनारीश्वर की कल्पना पसंद थी । लोहिया को तुलसीदास जी की यह चौपाई बहुत पसंद थी – कत बिधि सृजी नारी जग माहीं ,पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। लोहिया के लिए द्रोपदी आदर्श नारी थी क्योकि वह बड़े – से– बड़े, से शास्त्रार्थ कर सकती थी , न कि पति कि हर आदर्श मानाने व वाली सीता और सावित्री ।उनके लिए वर्ण , स्त्री ,संपति और सहनशीलता के प्रश्न को हल किये बिना इस देश का कल्याण संभव नहीं था ।स्त्रियों के प्रति विशेष आदर व स्नेह का भाव होने के कारण वे मानते थे कि हर स्त्री सुन्दर होती है , कुछ कम या ज्यादा और सौन्दर्य का चमड़ी के रंग से कोई संबंध नहीं होता है ।
लोहिया के अनुसार समाजवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधन राष्ट्र की संपति होंगे । वे पूंजी को कुछ लोगों तक रखने के विरोधी थे । वे सबके लिए सामान शिक्षा व्यवस्था चाहते थे ।
लोहिया का मत था कि वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्रयोग करके छोटी मशीनों के द्वारा औद्योगीकरण किया जाए ।इसका यह फायदा होगा कि आर्थिक सत्ता का विकेन्द्रीयकरण , जिससे अधिक से अधिक लोगों को रोजगार प्राप्त होगा लोहिया बड़े उद्योगों में बिजली , लोहा और इस्पात आदि को सम्मिलित करना चाहते थे ।उन्होंने आय विषमता कम करने पर जोर दिया । लोहिया ग्रामीण अर्थ– व्यवस्था को सुदृढ़ कारण चाहते थे व देश की उन्नति के लिए कृषि के उत्थान को महत्वपूर्ण मानते थे ।
लोहिया ने आर्थिक विषमता दूर करने के लिए ‘’दाम बांधो ‘’ की नीति को प्रतिपादित किया । वे मानते थे कि आर्थिक विषमता का दूसरा पहलू है –दामों की लूट । वे कहते थे कि दो फसलों के बीच दामों का घटना – बढ़ना २० % से अधिक न हो। वे दामों के अंतरराष्ट्रीय लूट के खिलाफ थे ।
लोहिया ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए ‘’चौखम्बा राज्य ‘’की अभिधारणा प्रस्तुत किया । वे राज्य की शक्ति को तोड़कर केंद्र , प्रान्त के अलावा जिले और गॉव में बाँट देने के पक्षधर थे । जैसे –पलटन केंद्र में ,हथियार बंद पुलिस प्रान्त में ,पुलिस जिले में और सारे विकास कार्य गॉंव में । वे चाहते थे कि राष्ट्रों के बीच समता , विश्व बंधुत्व व सभ्यता के लिए पाचवां खम्भा बालिग मताधिकार पर चुनी गई विश्व पंचायत का हो । मानवीय करुणा के साथ – साथ संतुलित कर्म के लिए लोहिया ने सत्याग्रह को सिविल नाफ़रमानी के रूप में अपनाया ।
लोहिया ने रामायण मेले की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए १९६१ में इसका आयोजन चित्रकूट में कराया और इसे गैर राजनीतिक व धार्मिक आयोजन बताया । उन्होंने इस आयोजन के चार उद्देश्य बताये – १ –आंनद, २ –दृष्टि , ३ –रस संचार ,४ –हिंदुस्तान को बढ़ावा ।
लोहिया ने दुनिया के स्तरपर शांति तथा न्याय पूर्ण व्यवस्था के लिए सप्त क्रांति को जरुरी बताया तथा इन क्रांतियो को अपने चिंतन के आधार पर सूत्रबद्ध किया ।बाद में जय प्रकाश जी ने भी इन क्रांतियो को समावेशित करके सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया । ये क्रान्तियां थी –१ –नर –नारी क की समानता ,२ –रंगभेद या चमड़ी के आधार पर भेद का विरोध ,३–जन्म और जाति के आधार पर विषमता की समाप्ति, ४ –औपनिवेशिक शासन का विरोध, ५ –पूंजी आधारित (आर्थिक ) विषमता का विरोध और योजनाओ के जरिए उत्पादन क्रांति ,६ –व्यक्तिगत जीवन में दखल का विरोध ,७–हथियारों का विरोध और सत्याग्रह की आजादी । इन क्रांतियो को मूर्त रूप देने के लिए वे आजीवन करते रहे । वे कहते थे – ‘’लोग एक दिन मेरी बात सुनेंगे, लेकिन मेरे मरने के बाद ।‘’
१९६३ के उपचुनाव के माध्यम से लोहिया फरुखाबाद से सांसद चुने गए । संसद में पहुचने के चार दिन बाद ही २१ अगस्त , १९६३ को समाजवादी समूह की ओर से आचार्य कृपलानी ने संसद में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया । इस प्रस्ताव पर बोलते हुए डॉ लोहिया ने देश की बदहाली,विषमता और पंडित नेहरू पर होने वाले खर्चे पर सवाल उठाया ।लोहिया ने भारत के औसत आदमी की आमदनी तीन आने बताया और कहा कि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर रोज तीन रुपये व प्रधानमंत्री का खर्च २५००० रुपये है ।
भारतीय संसद में यह बहस इतनी जोरदार हुई कि इसकी अनुगूँज पुरे देश में सुनाई दी ।नेहरू ने इसे १५ आना बताया । लोहिया ने इस बहस को खर्च की सीमा से जोड़ा और कहा कि एक और दस के अनुपात में खर्च की सीमा रहे । लोहिया ने अपने चार साल के अल्पकालीन संसदीय जीवन में संसद को झझकोर कर रख दिया । वे दोबारा कनौज से चुनकर १९६७ मे संसद में पहुचे थे ।उन्होंने भाषा ,औरत, शुद्र जाति प्रथा , भुखमरी ,रिक्शावाले ,विधवाओं व वेश्याओं की समस्याओ को संसद में आवाज दी ।उन्होंने संसद और संसद के बाहर दोनों स्तरों पर समाजवादी समाज के लिए आजीवन संघर्ष किया ।वे कहते थे , ‘’जिन्दा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती हैं ।‘’
भाषा के स्तर पर डॉ लोहिया औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी के सरकारी कामकाज में प्रयोग के खिलाफ थे । लेकिन वे अंग्रेजी भाषा पढ़ने के खिलाफ नहीं थे ।वे कहते थे , ‘’लोकराज, लोकभाषा में ही चलता है , किसी विदेशी भाषा में नहीं अंग्रेजी एक विदेशी और सामंती भाषा है। यह गुलामी का प्रतीक है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी गुलामी बनी रहें , यह कौन पसंद कर सकता है ।‘’ उन्होंने अंग्रेजी हटाने के लिए आन्दोलन चलाया । वे अंग्रेजी भाषा को गैर बराबरी व शोषण का औजार मानते थे । लोहिया ने कभी भी संसद के अन्दर अंग्रेजी में नहीं बोला और उनके अनुयायी भी इसका अनुपालन करते थे ।
लोहिया एक मौलिक चिन्तक व विचारक थे ।उनका समाजवादी दर्शन पश्चिम का अँधा–अनुकरण नहीं था ।उन्होंने भारतीय परिपेक्ष्य में समाजवाद की नई परिकल्पना प्रस्तुत की, जिसमे अंहिंसा और लोकतंत्र आवश्यक तत्व हैं । वे समता और समृद्धि को प्राप्त करने के लिए अहिंसा को क्रन्तिकारी कदम मानते थे । उनके समाजवादी सोच में करुणा का भी स्थान है ।उन्होंने मार्क्स के क्रांति सम्बन्धी विचारों को सविनय अवज्ञा के साथ जोड़ा । वे सत्याग्रह की जगह सविनय अवज्ञा (सिविल नाफ़रमानी ) का प्रयोग करना ज्यादा पसंद करते थे ।लोहिया वास्तव मे एक मानवतावादी विचारक थे जिनका मानव की गरिमा में पूर्ण विश्वास था । वे एक सच्चे समाजवादी नेता व विचारक थे। जिसने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपर्ण भूमिका निभाई व समाजवाद का अपना मौलिक चिंतन प्रदान किया ।