स्व.डॉक्टर मंगल मेहता की कविताएं

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देश चर्या

रंगें बातें,
रोपें ड़र
निहाल-
गेंडा

इत्ता भर याद रखना

मेरे दुलारे
मन दर्पण में सपने
हजार हजार देखना,
पर इन तंग गलियों,
माटी की दीवारों की छुवन याद रखना।
आकांक्षाओं की चहकन,फुदकन
बावला बना बहका देगी तुम्हें,
धरती की गंध का एहसास बरकरार रखना।
इंद्रधनुष रंग-रंग का बुनना,
यश वैभव अपार-अपार जुटाना,
पर मां-बहिन, काका-ताऊ
पड़ोस का नेह सहेजें रहना।
अपना हिस्सा भर लेना,
दूसरों का हंसते-हंसते देना,
‘शॉर्टकट’ ईमान खाता है
-याद इत्ता भर रखना।
सपन पंछी बहको
चाहे चाहेनाऐं सजाओ
अपनी सफलता के द्वार,
इंद्रधनुष महको बारबार
इतना भर याद रखना मेरे दुलारे!

माघ छटी की चांदनी

थिरा रही चांदनी
ऊंघ रहा चनरमा।
भूली याद-गांव का सूनापन
असफल नाटक के कलाकार समेटते टीमटाम
गहराती सिसियाती रात
खीजते उनींदे मन
पूरे भभक उजासे जलती गैसबत्ती
एक ध्वनि, वही ध्वनि…
ध्वनि हवा बन, बन शीत की छुवन
हताशमन को सिहरादे, ड़रा दे
कुछ, कुछ यही लगा
यह चनरमा,यह रात
लंगड़ाते माघ की छटी की यह चांदनी।

ढपोरशंख गाथा

ऐसा भी होता है कभी
डींग हटाने वाला मिल जाता है
पथ का साथी।
आगे-पीछा नहीं देखता वह,
सच झूठ की परवाह नहीं पालता
उसे नशा चढ़ा होता है
उड़ता है हवा में।
पल-पल आप उससे कटते जाते हैं
विरक्ति; एक निस्संग विरक्ति
आप पर छाई चलती है।
ऐसा ही, किसी देश का भाग्य
बन जाग पड़े
तो क्या कहिए उस विडम्बना को
‘प्लासी’ ‘बक्सर’ का इतिहास
अपनी हवा बांधता दीखता है
सब जीते होते हैं भयावह विरक्ति!

गोबरधन उठाई

केंद्र बन आया है व्यक्ति,
समाज पै छा आया है व्यक्ति,
अभिसंधियों की रेंगन,
चुभन, कंटको का रचाव,
भुगतता है समाज, उद्वेलन
प्रतिक्रिया गहरे से उभरती है-
मानव की पीड़ा-गाथा,
कि पराभाव व्यथा,
दर्प की फुत्कार,
चुनौती से अलगाव,
पलायन,
कायरता तो अंकुआनें को आकुल?
टीस ‘कर्तापन’ को तो हवा नहीं दे रही?
‘मैं’ लील तो नहीं रहा मनतंत्र, जनतंत्र?
समाज काज एक हाथ से नहीं सधते,
चाहिए उसे समाज संकल्प,
सह पूजा-कर्म, एक श्रद्धा,
एक उमंग-सभी मन,
तब गोबरधन उठ आता है।

किला और इतिहास

वहां किला है
किले का होता है इतिहास-धारणा है यह
बनाने से लेकर दीवार बुर्ज गिरने तक
पूछते हैं किले का इतिहास,अतीत
धोखा जो है!
गाता हूं गाथा, हर गाथा आदमी
के दंभ की खाई में जा गिरती है
हैरानी है-किले का इतिहास कहां है?
वहां तालाब है
तालाब की गाथा कोई नहीं पूछता
तालाब श्रम सींचता है
सींचे खेत
पेट को भाड़ा देते हैं
पीढ़ियां दर पीढ़ियां
चूल्हे चक्की का इतिहास
नहीं होता किसी देश में
दर्द होता है,
तालाब का ढलान उसी ओर जाता है
इतिहास नहीं पूछते वे जो
भैंस चराते,फारिग होते हैं उसमें
थोड़ी सी जगह गंदगी से बचा
कबड्डी खेलते हैं
आज में जीते हैं, मेरे ज्ञान का
सिक्का नहीं जमा इन पै
इसीलिए खुशामद के
बहाने मुझे बेवकूफी
के घेरे नहीं घेरते।

नहीं तोड़ती कमर निराशा

बहलाते हैं शोखरंग
सहलाते हैं मुॅह दिखे बैन
बिलमाने वाले लमहे
हिम्मत के भ्रम, चुपड़ी बातें
ढूलमिल शब्दों सजी दुआ
सपनों को सहलाती
बहलाती आशा
न जाने कब तान ले शर?
इतिहास बताता
अग्र पंक्ति के ये हाथी
कारण बने पराजय के
ऐसे ही आशा के हाथी हमने पाले
तो है गौरव के लाले, जीवन का पाला
पर नहीं हम शबनमी रंगों गये फुलाये
बहकाने को ये संध्या के बादल
झूठी आभा के रंगों हम हारे
तो तुम ही कहो, कब कैसे संभले?
दंभ भरी उक्ति
हम सूरज को न्योत रहे
सूरज की तो बात बड़ी
माटी के दीपक क्यों तोड़ रहे?
विडंबना- गुण सागर को
पांव तले रौंदे, गंग जमन को
ओछें मन गंदलाये,
मक्कारी के गिरि को छल से नापे
तो, तो क्यों दंभ उगले?
आशा के नहीं स्वर ये
नहीं प्रेरणा के स्रोत
बहलाने को शब्द खिलौने
मदहोश बनाने का आसव जल
-क्यों हम पीते, रीते रीते?
द्रव का लहराता सागर
सपनों से कोई कब जीते?
नहीं तोड़ती कमर निराशा
मदहोश बनाती आशा
न जाने कब ले तान शर?
अचींन्ही हार मनुज की यह
बहुत बड़ी है भाई, बहुत बड़ी।
भरवाने वाले आशा के रंग धोओ
सच, तथ्यों को जीवन में बोओ
डरो नहीं सच की आंच न जीवन झुलसाती
इसमें तो जलते अनीति के सरकंडे धू-धू।
जीवन राधा का द्वार-चार हो
कटुता का नून धरा पर छिड़काओ
मेहनत का अर्धा चढ़े
अभिषेक करो दृष्टि शुंभा का
उच्चारो मंगल मंत्र
करो स्वस्ति कर्म
धरती अकाश का नील नेह
स्तब आशीष
मंदिर सी शांति अमल
पा जाए जीवन
प्यारा जीवन।

बिरला मंदिर की पहाड़ी पर संवाद

भरे भरे काले बादल
झुके पड़ते थे
जानते थे बरसेंगे
पर दम घुटा जाता था
निकल पड़े हम,
निकल पड़े।
समय जीतने को चढ़े
पहाड़ी, हांपते
बरस पड़े बादल धार धार
बेबस से हम हंस पड़े
जानते बुझते भींग चले हम
भींग चले।
भीगने की खीज-रीझ थी
गिरस्त हो उठे हम
डर था सर्दी जुकाम का
किसी चीज के बिगड़ने का
पूछा- ‘पकड़ लूं हाथ?’
‘अपनी संभालो, चलो आगे’
धार धार बरसते पानी में
गुस्से की चोट बह गई कहां
हैरान थे हम
हैरान थे।
छांह पा ठहर गये
निचोड़ते कपड़े
कांपते-हंसते रहे
न निचुड़ रहा था मन
न निचोड़ रही थी यादें
धरती पर पड़ी बूंद सी
कुछ पसरती रही
पसीजते रहे हम
पसीजते रहे।
‘अच्छा हुआ
मैला हुआ होगा तन
बरस कर धो गये बादल’- कहा मैंने
‘अच्छा हुआ
मैला हुआ हो मन
धोका लो देव देहरी
उजले चाहे न, कुछ विमलेगा’
-हंस कहा उसने।
‘अपनी बात करो’
‘और अपनी’
‘वही क्यों बोलती हो’
‘बरस गये कि बादल
ध्वनि तुम्हारी ही गूंजती
वही होती प्रतिध्वनि’
निथार में डूब चले हम
डूब चले।

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