— विनोद कोचर —
स्वतंत्रता प्राप्ति के आदर्श के लिए जनशक्ति संगठित करने में लोगों की बुद्धि पर कोई जोर नहीं डालना पड़ता था।उस समय मन की भूख थी, बुद्धि की नहीं।
आज भूख दूसरी है।स्वतंत्रता प्राप्ति के समान, आज की समस्याएं भारतीयों को एक सूत्र में बांधने वाली नहीं हैं।सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विभेद हैं।नए समाज की रूपरेखा के बारे में विभिन्न वर्गों के आदर्श अलग अलग हैं।सामाजिक पुनर्गठन की भूख केवल मन की भूख नहीं है, बुद्धि की भी है।यह दिल और दिमाग का सहयोग चाहती है।
भारतवर्ष में एक रोग है।हमारी सभ्यता इच्छा प्रधान रही है।यहां इच्छा पर अधिक जोर दिया जाता है, उसके फलाफल पर नहीं।इच्छा के साथ साथ अंतिम सत्य पर भी हम लोगों का ध्यान अधिक रहता है।अंतिम सत्य, चाहे किसी भी रूप में लें–ईश्वर, सत्य, ब्रम्ह–अंतिम सत्य पर ध्यान देना एक तरह से अच्छी चीज है किंतु इसमें एक व्याधि है।यदि यह ध्यान ठोस न हुआ तो यह लोगों को ढोंगी बना देता है।सत्य की खोज में एक निरर्थक शब्दजाल बिछाया जाता है।इस रोग से देश की सभी पार्टियां पीड़ित हैं।उदाहरणार्थ–रोटी, कपड़ा, मकान या समानता के नारे को ले लीजिये।देश में कौनसी पार्टी ऐसी है जो इन चीजों को नहीं चाहती?
अंतिम इच्छा सबकी एक होते हुए भी मार्गों में गहरा अंतर होता है।और मार्ग से ही इच्छा में ठोसपन आता है।मार्ग निर्दिष्ट हुए बिना, इच्छा निरर्थक वस्तु है।आज हमारे लोग भी भूल से कह बैठते हैं कि सभी पार्टियों के सिद्धांत एक हैं।इससे प्रचार में ठोसपन नहीं आता।
– लोहिया
(1948में सोशलिस्ट पार्टी के पटना सम्मेलन में )
(डॉ लोहिया द्वारा रखे गए ‘आगे बढ़ो’प्रस्ताव से)