— चंद्रभूषण —
कोई समय था जब उत्तर प्रदेश का कोई छोटा-मोटा बुद्धिजीवी भी ‘यूपी का बौद्धिक’ जैसी किसी संज्ञा को अपने लिए गाली मानता था। क्या नेहरू जी, इंदिरा जी या गोविंद वल्लभ पंत यूपी के नेता थे? चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, बहुगुणा या वीपी सिंह को यूपी की राजनीति के लिए कौन याद करता है? राहुल सांकृत्यायन की उड़ान को यूपी से क्या लेना? फिराक, मजाज़, कैफी, मजरूह, शहरयार और बशीर बद्र की शायरी को यूपी से जोड़कर भला कौन देखता है? प्रसाद, महादेवी, निराला, पंत क्या यूपी के कवि थे? प्रेमचंद यूपी के कहानीकार, गणेश शंकर विद्यार्थी यूपी के पत्रकार थे?
तात्पर्य यह कि यूपी का लिखा-पढ़ा या किया-धरा जो भी था, देश के लिए था। इस धारणा के साथ समर्पण और अहमन्यता, दोनों जुड़े थे और दोनों के अपने नुकसान थे। इमर्जेंसी के दौरान और उसके बाद राजनीति का छोटापन उजागर होना शुरू हुआ तो जनतांत्रिक मूल्यों के लिए खड़ा होने वाला कोई नेतृत्व यहां नहीं दिखा। 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी ने यूपी में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया, लेकिन यह चमत्कार बगल के बिहार में चले जिस जेपी मूवमेंट के असर में संपन्न हुआ था, उसका वैचारिक प्रभाव इस प्रांत में शून्य के आसपास ही रहा।
राजनीति का किस्सा फिलहाल हम यहीं छोड़ देते हैं क्योंकि यूपी की जारी राजनीतिक वैचारिकता की वकालत में कुछ लोग आज भी लाठी चलाने से बाज नहीं आएंगे। इस चिंतन धारा के अनुसार, कांग्रेसी राष्ट्रवाद से पीछा छुड़ाकर उत्तर प्रदेश की जनता का पूरी तरह हिंदू राष्ट्र के विचार को अंगीकार कर लेना यह बताता है कि जाति और क्षेत्र आधारित संकीर्ण विचारधाराएं इस प्रांत को नहीं लुभा सकतीं। उपधाराओं का नहीं, मुख्यधारा का सोता यहां से फूटता है। जैसे यह राज्य पहले खुद को समूचा भारत मानता था, वैसे ही आज भी मानता है।
बुद्ध, गोरख, कबीर
इस प्रस्थापना को लेकर भी यहां कुछ दिलचस्प बातचीत हो सकती है, लेकिन हल्केपन में गोता लगाकर हाथ-पैर तुड़ा बैठने के भय से फिलहाल इसे छोड़ देना ही मुझे उचित लगता है। मेरी चिंता वास्तविक वैचारिकता से जुड़ी है। यानी वह, जिसके रुख का निर्धारण पहली नजर में आर्थिक और राजनीतिक फायदा देखकर नहीं होता।
भारत में सामाजिक समानता के सबसे बड़े अग्रदूतों, गौतम बुद्ध, गुरु गोरखनाथ और संत कबीर पर बीसवीं सदी में कुछ सबसे गहरे काम उत्तर प्रदेश में ही हुए थे। इनके प्रभाव में या स्वतंत्र रूप से राममनोहर लोहिया की विचारधारा ने भी यहीं आकार लिया था, जिसमें वीडीएन साही और रघुवीर सहाय के जरिए कुछ सांस्कृतिक अग्रगति की उम्मीद सत्तर के दशक तक बनी हुई थी। ये धाराएं किस मरुथल में जाकर बिला गईं?
ध्यान रहे, बीसवीं सदी शुरू होने के तीन दशक पहले और बाद, यानी 1870 ई. से लेकर 1930 तक जिन इलाकों में प्राचीन बौद्धस्थलों की खुदाइयां हुई थीं, उनका फैलाव उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल की तराई में लगभग बराबर ही था। बिहार में बोधगया के वज्रासन पर काबिज हिंदू महंथ के कब्जे से एक हिस्सा बौद्धों को दिलाने का प्रस्ताव कांग्रेस की बिहार कमेटी ने पारित कर रखा था, जिसके लिए उसके एक प्रतिनिधिमंडल ने महंत बातचीत भी की और लाठियां भी खाईं।
यूपी में सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती और अहिच्छत्र जैसी महत्वपूर्ण जगहें बिना झगड़े के निकल आई थीं, लिहाजा यहां राजनीतिक मामला नहीं बना। लेकिन ज्यादा बड़ी बात यह हुई कि यहां राहुल सांकृत्यायन और आनंद कोसल्यायन जैसे खोजी बौद्ध चिंतक खड़े हुए। आचार्य नरेंद्रदेव जैसे बड़े राजनेता ने महायान में मौलिक काम बाकायदा बौद्ध प्रतिबद्धता के साथ किए। प्रसाद और महादेवी जैसे कवियों के काम पर बौद्ध दर्शन का प्रभाव दिखा और बौद्ध आयोजनों में उनकी भौतिक उपस्थिति भी दिखती थी।
आजादी के दस साल बीतते न बीतते अकेले भदंत आनंद कोसल्यायन को छोड़कर इस समूचे सिलसिले का ही मुरझा जाना, कालातीत हो जाना अजीब लगता है। इसका एक कारण यह समझ में आता है कि तीस का दशक बीतने से पहले ही उत्तर प्रदेश प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन का गढ़ बन गया था। फिर सांप्रदायिक बंटवारे का असर भी यहां बाकी देश से थोड़ा पहले ही दिखाई पड़ने लगा था। ऐसे में बुद्ध के प्रति उमड़ा नया-नया आकर्षण इस ताप में टिक नहीं पाया होगा।
प्रगतिशील आंदोलन, बंटवारा और इकहरापन
प्रगतिशील विचारधारा ने अपनी शक्ति भर सांप्रदायिक विचारधारा का विरोध किया, लेकिन भविष्य के लिए याद करने और सीखने लायक मिसालें शायद अभी आर्काइव्स में खोजी जानी बाकी हैं। राही मासूम रज़ा ‘आधा गांव’ में, कुर्रतुल ऐन हैदर ‘टेढ़ी लकीरें’ में और पाकिस्तान गए इंतज़ार हुसैन ‘बस्ती’ में जो तकलीफ लेकर आते हैं, वह प्रगतिशील आंदोलन की धुरी इस राज्य में ही स्थित होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में इसकी संस्थाओं और बौद्धिकों का आम मिजाज़ नहीं बनी।
बहुत जल्दी देश की धुरी होने के झूठे गौरव ने इसकी एकेडिमिया को घेर लिया। करियर की किचकिच और जाति की जकड़ इसी का दूसरा पहलू थी। कुछ विरले अपवाद छोड़ दें तो प्रगतिशील बौद्धिक खुद को इस दलदल से बाहर नहीं रख पाए और सामाजिक दुख की चमक उन्हें छोड़कर हवा में गुम हो गई। उनके इस बदलाव का ख़ाका फ़िराक़ के विमर्शों में दिखाई देता है, जिन्हें सामासिक संस्कृति के एक प्रतीक के रूप में अलग-थलग करने के प्रयास सबसे ज्यादा इलाहाबादी समाजवादियों में दिखते हैं।
बुद्ध के प्रति वैचारिक रुझान का कोई अर्थ निकालना कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट, दोनों धाराओं के लिए बहुत कठिन रहा होगा, क्योंकि इतना खुला जेहन ही उनके पास नहीं था। राहुल सांकृत्यायन ने इसी दौरान बुद्धिज्म से कम्युनिज्म में पैर रखा, हालांकि यहां अपनी पिछली विचारणा को जारी रखने का कोई यत्न उनमें नहीं दिखता। बीच में कई साल वे दुनिया की सैर पर रहे और द्वितीय विश्ववयुद्ध के दौरान कुछ साल उन्हें रूस में बिताने पड़े। उन्हें पढ़ते हुए सैलानियों जैसा सतही इकहरापन ही उनमें दिखता है, किसी बड़े वैचारिक द्वंद्व का अंदाजा नहीं मिलता।
गोरख का ऐसा हाल
धार्मिक महापुरुषों की भी प्रगतिशील जीवन मूल्यों की दृष्टि से कोई महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, ऐसी प्रस्थापना हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को लेकर दी, जिसे उनके शिष्य नामवर सिंह ने आगे बढ़ाया और जैसे-तैसे यह सुनिश्चित किया कि कबीर को आगे भी हिंदी की बौद्धिक चेतना से कभी पूरी तरह बाहर नहीं किया जा सकेगा। लोक चेतना में कबीर हमेशा बने रहे लेकिन लिखाई-पढ़ाई और अकादमिक शोध के दायरे में उनके प्रवेश से नामदेव, दादू, रैदास, नानक, रज्जब, धन्ना, पीपा, वाजिद और बहुतों के आने और बने रहने का रास्ता साफ हो गया।
वैचारिक आंदोलनों के लिए आगे का रास्ता लोक में कबीर की उपस्थिति को गहरा करने का हो सकता था, जो नहीं हो पाया। सबसे बड़ी दुर्गति हुई गुरु गोरखनाथ और समूचे नाथपंथ की। कुछ भीतरी समस्याओं के चलते यह पहले ही सिर के बल खड़ा होने की स्थिति में आ गया था। गोरखपुर से गोरखनाथ का कोई भौगोलिक रिश्ता होने का प्रमाण नहीं मिलता। यहां से ज्यादा उनके किस्से बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र में मिलते हैं। लेकिन हिंदीभाषी क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा मठ यहां था, जो 1920 दशक के सांप्रदायिक माहौल में एक संदेहास्पद प्रक्रिया के तहत विवादित और बाहरी पृष्ठभूमि वाले लोगों के हाथ में चला गया।
जात-पांत और कर्मकांड को खारिज करने वाले, शरीर से बाहर किसी ईश्वरीय तत्व के लिए कोई जगह न देखने वाले, आधे हिंदू और आधे मुसलमान अनुयायियों वाले इस पंथ को टंट-घंट का नमूना इसके इन नए वारिसों ने बना डाला। उनके नेतृत्व में बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में पहले गुरु गोरख के मुख्य स्थान जैसी मान्यता गोरखपुर की धूनी के साथ जोड़ी गई, फिर अवध के नवाब द्वारा दी गई जमीन पर बना यह धर्मस्थल अपने ही अवर्ण-मुस्लिम इतिहास को खारिज करते हुए सावरकरी हिंदुत्व का और उसमें भी क्षत्रिय वर्चस्व का गढ़ बन गया।
फिसलपट्टी से नीचे
इमर्जेंसी और फिर जनता सरकार का प्रयोग विफल होने के बाद वैचारिक मूल्यों की गिरावट पूरे देश में ही देखी गई लेकिन यूपी में इसका असर अन्य हिंदी प्रांतों से भी ज्यादा देखने को मिला। कमाल यह कि ऐसा तब हुआ जब लोहिया और आंबेडकर की विचारधाराओं से अपना नाम जोड़ने वाली पार्टियों ने यहां साथ मिलकर और अलग-अलग भी राज चलाया और बातें ऐसी कीं, जैसे सामाजिक परिवर्तन के बिना उनका खाना ही नहीं पचता हो।
तुलना करके देखें तो बिहार में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट जैसे कुछ शोध संस्थान और जेपी-लोहिया के असर वाली छिटपुट संस्थाएं आज भी हैं जहां छूटती हुई चीजों पर बीच-बीच में कुछ बात हो जाती है। शिक्षण संस्थाओं का दिवाला वहां पहले ही पिट चुका है लेकिन बाहर खोजबीन की गुंजाइश बिल्कुल खत्म नहीं हुई है। यूपी में हालत बहुत ही बुरी है। समतापूर्ण समाज से जुड़ी अपनी समूची विरासत को तिलांजलि देकर, उनके जिक्र तक से पीछा छुड़ाकर हिंदुत्व की सांप्रदायिक विचारधारा को राजनीति से पहले यहां विचार के क्षेत्र में वॉकओवर दिया गया है।