— आनंद कुमार —
किसी भी व्यक्ति या समूह के लिए अपने सम्मुख उपस्थित चुनौतियों को जानना-समझना-सुलझाना ही सफलता का रास्ता खोलता है. यह चुनौतियाँ देश-काल-पात्र के सन्दर्भ में बदलती रहती हैं. इसके आधार पर हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक कर्म की दिशा और प्राथमिकताएं तय होती हैं. इन चुनौतियों का सामना करना ही युगधर्म कहलाता है.
आज दुनिया के सामने क्या मुख्य चुनौतियाँ हैं? विश्व के स्तर पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार ‘सतत विकास लक्ष्य’ को २०३० तक प्राप्त करने की चुनौती है. इसमें १७ मुख्य चुनौतियाँ और १६९ लक्ष्य हैं. यह सितम्बर, २०१५ में संयुक्त राष्ट्र महासभा के शिखर सम्मलेन में अपनाया गया. इसे ‘गरीबी के सभी आयामों को समाप्त करने के लिए एक साहसिक और सार्वभौमिक समझौता’ बनाया गया जो व्यक्तियों के लिए, पृथ्वी के लिए, और समृद्धि के लिए एक समान, न्यायपूर्ण, और सरक्षित विश्व को संभव बनाएगा. १. निर्धनता उन्मूलन, २. भुखमरी का खात्मा, ३. सबको स्वस्थ जीवन, ४. समावेशी न्यायसंगत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, ५. लैंगिक समानता व् महिला सशक्तिकरण, ६. सभी के लिए पानी और स्वछता, ७. सभी के लिए किफायती ऊर्जा, ८. सभीके लिए पूर्ण रोजगार और आर्थिक विकास, ९. राष्ट्रों के अन्दर और उनके बीच गैरबराबरी ख़तम करना, और १०. शांतिपूर्ण और समावेशी सामुदायिक जीवन को सभी को न्याय और जवाबदेह संस्थाओं के जरिये संभव बनाना मुख्य लक्ष्य हैं.
क्या इन चुनौतियों को पूंजीवाद या तानाशाही के जरिये हासिल किया जा सकता है? हमारा दावा यह नहीं है कि इन चुनौतियों का समाजवाद से ही सामना हो पायेगा. लेकिन इतना तो कहने का हक़ बनता है कि इनमें से अधिकांश सपनों को समाजवादी दर्शन, सिद्धांत और आन्दोलनों ने ही जनम दिया है. इसलिए समाजवादी विमर्श को महत्व दिए बिना इन लक्ष्यों को समझना और पाना दोनों कठिन होगा. वैसे बहुचर्चित इतिहासकार युवाल नोआह हरारी की ताजा किताब ‘इक्कीसवीं सदी के लिए २१ सबक’ (लन्दन, पेंगुइन, २०१८) के अनुसार तो दुनिया के सामने आज टेक्नोलाजी और राजनीति की दुहरी चुनौती है. टेक्नोलाजी के कारण एक तरफ रोजगार और सुरक्षित जीवन को खतरा है और दूसरी तरफ स्वतंत्रता, न्याय, मानवीयता और समानता का लक्ष्य दूर होता जा रहा है. जबकि राजनीति की नयी करवट से राष्ट्रवाद और धर्म में नया गंठजोड़ हो गया है. आतंकवाद, युद्ध, और असत्य प्रचार इस नयी राजनीतिक संस्कृति के वाहक हैं. आध्यात्मिकता, सहनशीलता और धर्मनिरपेक्षता के प्रति आस्था में कमी आ रही है. लेकिन इस प्रसंग में भी क) व्यक्ति और समाज, तथा ख) राष्ट्र और विश्व की परस्पर निर्भरता के समाजवादी दर्शन से बिना जुड़े आगे बढ़ने की कोई राह नहीं बनायी जा सकती है.
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आज हमारा क्या हाल है? हमारे देश-समाज के सामने विदेशी गुलामी से मुक्ति पाना बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की सबसे बड़ी चुनौती थी. हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ी राज का त्याग, साहस, संगठन और विवेक से लम्बा मुकाबला किया और हम स्वराज के हकदार हुए. इसीके साथ हमारी चुनौतियाँ बदलने लगीं. लेकिन एक नव-स्वाधीन राष्ट्र के रूप में भारत के समक्ष कुछ चुनौतियाँ स्वराज के साथ ही बनी हुई हैं और कई प्रश्न १९४७ और २०१९ के बीच की राजनीति, अर्थनीति और समाजनीति से उत्पन्न हुई हैं.
देश की तस्वीर :
हमें इस बात का गर्व है कि भारत विश्व की सबसे बड़ी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था है. ३२ लाख ८७ हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल और १ अरब ३० करोड़ जनसँख्या के साथ यह चीन के बाद सर्वाधिक जनसँख्या वाला देश भी है. २०११ की जनगणना में भारतीयों की औसत जीवन अवधि ६८ वर्ष हो चुकी थी. हमारी जनसँख्या में स्त्री-पुरुष अनुपात ९६० महिला प्रति हजार पुरुष का है. इसी प्रकार भारत के ३१ प्रतिशत स्त्री-पुरुष नगरों में और ६९ प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं. हम २०२५ तक विश्व का सर्वाधिक युवा राष्ट्र होने जा रहे हैं क्योंकि तबतक देश की ६४ प्रतिशत जनसंख्या हमारी श्रमशक्ति का हिस्सा हो जाएगी. आज भी भारत में ४८ करोड़ कामगार हैं. इनमें ९४ प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं. देश की श्रमशक्ति में महिलाओं का ३२ प्रतिशत योगदान है. २१वीं शताब्दी में प्रवेश के बाद से हमारी अर्थव्यवस्था में सकल राष्ट्रीय उत्पाद की दृष्टि से कृषि क्षेत्र का १८ प्रतिशत, उद्योगों का २६ प्रतिशत और सेवाक्षेत्र का ५५ प्रतिशत योगदान रहता है.
लेकिन अभी भी भारत की आबादी का पांचवा भाग असहनीय दरिद्रता के दलदल में फंसा हुआ है. हमारे एक तिहाई बच्चे-बच्चियां खतरनाक हद तक कुपोषण के शिकार हैं. मानवीय विकास के मापदंड के अनुसार संयुक्त राष्ट्रसंघ की गणना में हमारा देश विश्व के १८८ देशों में से १३१ पायदान पर है जो हमारे पडोसी चीन ही नहीं बल्कि बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे है. हमारे देश के शासन-प्रबंध और आर्थिक-राजनीतिक दायरों में काले धन के बढ़ते बल के कारण चौतरफा भ्रष्टाचार का विस्तार जारी है है जिससे १७६ देशों में हम ७६ वें स्थान पर फंसे हुए हैं. देश के गतिशील और पिछड़े हुए प्रदेशों के बीच तीन गुना आर्थिक अंतर है. लेकिन ‘नयी आर्थिक नीतियों’ के पक्षधरों में इस तस्वीर के बारे में असंतोष नहीं है. विकल्प की जरुरत पर चुप्पी है.
पूंजीवादी नीतियों के तीन दशकों का चिंताजनक परिणाम :
यह चिंताजनक सच है कि देश अब तक के सबसे ख़राब दौर से गुज़र रहा है. क्योंकि १९९२ से अबतक के तीन दशकों से जारी निर्बाध पूंजीवादी नीतियों के नतीजे अत्यंत चिंताजनक हो चुके हैं. इन नीतियों को ‘उदारीकरण’ से जोड़ा गया था जिसका अभिप्राय देश के आर्थिक क्षेत्र और लोककल्याण से सरकार की भूमिका को घटाना और निजी पूंजी और बाजार की शक्तियों को बढ़ाना था. १९५५ से चल रही ‘मिश्रित अर्थ-व्यवस्था’ और १९६९ से चल रहे ‘सरकारीकरण (राष्ट्रीयकरण)’ की नियोजन प्रक्रिया को रोककर वैश्विक पूंजीवाद की संस्थाओं जैसे वर्ल्ड बैंक और इन्तरनेशनल मानेटरी फंड के क़र्ज़ से निजीकरण, व्यवसायीकरण और वैश्वीकरण को बढ़ावा देना था. ‘उदारीकरण’ की वकालत करनेवाली देशी-विदेशी कंपनियों और उनसे जुड़े आर्थिक विशेषज्ञों ने तब देश की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के लिए नेहरु-इंदिरा शासन के १९४७-१९९४ की अवधि में अपनाये गए तथाकथित ‘समाजवाद’ को दोषी बताया. बाजारवाद और वैश्विक पूंजीवाद को विकल्प के रूप में प्रचारित किया.
लेकिन नतीजा क्या निकला? देश के मात्र एक प्रतिशत लोग राष्ट्रीय संपत्ति के ६० प्रतिशत के स्वामी हैं. सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी. डी. पी.) में वृद्धि का लाभ जनसाधारण तक पहुँचाने से रोका जा रहा है. हमारी बेरोज़गारी अबतक के ४५ बरसों में अधिकतम दर पर है. नागरिकों की आजीविका की व्यवस्था के लिए संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में स्पष्ट निर्देश के बावजूद बेरोजगारी की बढती समस्या के प्रति उपेक्षा भाव स्पष्ट है क्योंकि अधिकांश उद्योगों में रोजगार-निर्माण नगण्य अथवा नकारात्मक हो गया है. दूसरी तरफ सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में नयी नियुक्तियों पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है. तीन प्रतिशत अनिवार्य वार्षिक पद-समर्पण की नीति जारी है. उद्योगों में छटनी, बैठकी और तालाबंदी की जा रही है. सूचना-टेक्नोलाजी से जुड़े रोजगार अवसरों में भारी कमी होने की भविष्यवाणी ने आग में घी का काम किया है. इसके बावजूद नीति आयोग ने सार्वजनिक क्षेत्र की २४ महत्वपूर्ण इकाइयों के निजीकरण की संस्तुति कर रखी है. इसमें रेलवे स्टेशन से लेकर देश की सुरक्षा के लिए हथियार निर्माण शामिल हैं. ऊर्जा, पेट्रोलियम, टेलीकाम, खनिज, खनन, मशीन निर्माण, भवन, सड़क, हवाई व जल यातायात, गोदी व बंदरगाह जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकार के निजीकरण प्रयासों का आघात झेल रहे हैं.
राष्ट्रीय एकता में दरारें :
संवैधानिक संकल्प और दिशानिर्देश की सरकारी उपेक्षा के कारण नागरिकों में बंधुत्व का भाव खतरे में है. न्याय और अवसर की समानता बढ़ानेवाली प्रगति के जरिये राष्ट्र-निर्माण की बजाय राष्ट्रीय एकता में दरारें बढ़ाई जा रही हैं. धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय, जातीय और वर्गीय विविधता के खिलाफ हिंसा और ‘भीड़ द्वारा हत्या’ की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं. नागरिक एकता और सामाजिक सद्भाव पर आघात की प्रवृत्ति निरंकुश हो रही है. बच्चों और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामलों में निरंत्तर वृद्धि हो रही है.
विभिन्न धर्मों, जातियों, वर्गों और क्षेत्रों के बीच परस्पर संदेह, भय और हिंसा में बढ़ोतरी से कुछ राजनीतिक दलों और सांप्रदायिक जमातों की ताकत जरूर बढ़ रही है. लेकिन देश की एकता और अखंडता की अपार क्षति हो रही है.
उत्पादक वर्गों की बेहाली :
देश का जन-साधारण, विशेषकर श्रमिक व किसान वर्ग सरकार की जनविरोधी नीतियों का आघात सह रहा है. सरकार की मुट्ठीभर कार्पोरेट घरानों के अंध-समर्थन और १ प्रतिशत अतिसंपन्न वर्ग को प्रोत्साहन की नीति का सबसे ख़राब असर श्रमजीवी समाज, किसानों और वंचित वर्ग के भारतीयों पर पड़ रहा है. सरकार ने ४४ केन्द्रीय श्रम कानूनों को समाप्त करके ४ नयी कामगार एवं जनविरोधी श्रम-संहिता बनाने का निर्णय ले लिया है. कुछ राज्य-सरकारों ने कई मूलभूत श्रम कानूनों जैसे कारखाना कानून, औद्योगिक विवाद अधिनियम, ठेका कामगार कानून आदि को संशोधित कर दिया है.
कृषि की उपज के दामों की लूट और किसानों की कर्जदारी बढ़ी है. विगत दो दशकों में ३.५ लाख कृषकों ने आत्महत्या की है. देश के करोणों खेतिहर मजदूर दयनीय स्थिति में काम कर रहे है. उनको असीमित घंटे काम करना पड़ता है. कोई कार्य सुरक्षा नहीं है और प्राय: न्यूनतम वेतन से कम पारिश्रमिक मिलता है. (‘समाजवादी घोषणापत्र’ (ड्राफ्ट) (नई दिल्ली, सोशलिस्ट मेनिफेस्टो ग्रूप, २०१८) से)
मुट्ठीभर कारपोरेट घरानों के अलावा समूचा भारतीय उद्योग-जगत इस आर्थिक व्यवस्था में विवशता का शिकार है. देशी बाज़ार पर चीनी, अमरीकी और यूरोपीय कंपनियों का प्रभुत्व हो गया है. बैंक-व्यवस्था को लंगोटिया पूंजीपतियों ने राजनीतिक संरक्षण के बलपर दिवालिया होने के कगार पर पहुंचा दिया है. मुद्रा और टैक्स सम्बन्धी नए नियमों ने मंझोले और लघु उद्योगों को बेहद नुक्सान पहुँचाया है. राष्ट्रीय सकल उत्पाद दर और औद्यगिक उत्पादन दर में खतरनाक कमी आई है.
स्वराज की समग्रता की चुनौती :
वस्तुत: जब भारत को ब्रिटिश राज से १९४७ में आज़ादी मिली तो महात्मा गांधी ने देश को सचेत किया था कि देश को अभी सिर्फ राजनीतिक आज़ादी मिली है. हमारे सामने आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वराज की रचना की चुनौती बाकी है. लेकिन राजनीतिक स्वराज के ५ महीने के अन्दर ही साम्प्रदायिक ताकतों ने गांधीजी की ३० जनवरी, ’४८ को हत्या कर दी और हम कर्मयुग से भोगयुग की ओर फिसल गए. यह चिंता की बात है कि समग्र स्वराज की रचना के बारे में गांधी की चेतावनी उनके जनम के १५०वे बरस में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है.
गांधीजी ने संसदीय प्रणाली के बारे में भी समझाया था कि हमारे देश के लोगों में यह सम्मोहक भ्रम फैला हुआ है कि किसी भी देश-समाज में सत्ता का स्त्रोत विधानमंडल होते हैं. ब्रिटिश इतिहास का सतही अध्ययन भी यह आभास देता है कि जनता की सभी शक्ति संसद के जरिये है. जबकि वास्तव में शक्ति का स्रोत जनता है और जनतंत्र में जनसाधारण एक सीमित समय के लिए अपनी ताकत चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को सौंपा करती है. किसी संसद का जनता से अलग कोई अस्तित्व या ताकत नहीं है. वस्तुत: जन- शक्ति का भंडारघर सिविल-नाफ़रमानी होती है और इसकी अभिव्यक्ति जनता द्वारा सत्याग्रह के जरिये अनेकों कष्ट सहते हुए भी संसद के कानूनों को अस्वीकारने के मौकों पर दीखती है. वस्तुत: जनसाधारण में निहित इस शक्ति से समूचा राज्य-प्रबंध ठप्प हो सकता है. (‘रचनात्मक कार्यक्रम’ (अहमदाबाद, नवजीवन पब्लिकेशंस, २०१८) पृष्ठ ९
इसी प्रकार हमारे संविधान निर्माताओं ने २६ नवम्बर, १९४९ को नवीन संविधान को अंगीकृत और आत्मार्पित करते हुए स्वीकारा था कि हम भारत के लोगों के सामने अपने नव-स्वाधीन राष्ट्र को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की जिम्मेदारी है जिससे समस्त नागरिकों को, बिना लिंग, भाषा, धर्म, क्षेत्र, जाति, वर्ग और आयु के भेदभाव के :-
क) सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय;
ख) विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता;
ग) प्रतिष्ठा और अवसर की समता; और
घ) व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए दृढसंकल्प के साथ आगे बढ़ें.
भारतीय संविधान सभा की बताई सजगता आज फिर से हमारे लिए नयी प्रासंगिकता के साथ याद रखने लायक है. (‘भारत का संविधान’ ‘उद्देशिका’ (नई दिल्ली, भारत सरकार, २०११)
इस प्रसंग में संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबासाहब डा. भीमराव आम्बेडकर की हिदायत थी कि चूँकि भारतीय समाजव्यवस्था मूलत: जातिव्यवस्था पर आधारित है इसलिए हमारे देश में जनतांत्रिक मूल्यों और बंधुत्व की बुनियाद मजबूत करने के लिए सिर्फ राजनीतिक जनतंत्र अपर्याप्त होगा. बिना शीघ्र सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र को स्थापित किये राजनीतिक जनतंत्र की जड़ें टिकाऊ नहीं होंगी. इसके साथ संविधान सभा के अध्यक्ष और प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान समर्पण के अवसर पर यह चेतावनी थी कि हमारी स्वाराज रचना की जिम्मेदारी उठाने के लिए निष्ठावान राष्ट्रसेवकों की जरुरत होगी. अन्यथा अनैतिक लोगों के हाथों में शासन आने पर अच्छे से अच्छे संविधान को दुरुपयोग से नहीं बचाया जा सकेगा.
पूंजीवाद से संघर्ष की जिम्मेदारी :
आज़ादी के एक दशक बाद भारतीय समाजवादी आन्दोलन के संस्थापक-मार्गदर्शक और स्वतंत्रता आन्दोलन के श्रेष्ठ नायक आचार्य नरेन्द्रदेव ने समाजवादी पत्रिका ‘संघर्ष’ के पुन:प्रकाशन पर सन्देश में कहा कि “ शुभ और अशुभ जीवन का ताना-बाना है. प्रकृति ने ऐसा ही जीवन हमें प्रदत्त किया है. और इस ताने-बाने के द्वारा इतिहास का कार्य संपन्न होता है. शुभ और अशुभ के बीच संघर्ष चलता रहता है. इस संघर्ष में शुभ की विजय, संस्कृति और शालीनता की विजय है. ज्यों-ज्यों शुभ की वृद्धि और अशुभ की हानि होती है, त्यों-त्यों सभ्यता की उन्नति होती है. मानव के आत्म-विकास में भी यह संघर्ष सहायक होता है….शुभ कर्म के लिए अदम्य उत्साह का होना, जुल्म, अन्याय, दारिद्र्य के विरुद्ध अनवरत युद्ध करना – एक विकसित व्यक्तित्व का कार्य है…खेद है कि साधनों के विपुल होते हुए भी दारिद्र्य और विषमता का अंत नहीं होता.”
आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार, “पूंजीवादी समाज साधनों पर अपने लाभ के लिए प्रभुत्व कायम रखना चाहता है और अपने हितों पर समाज के कल्याण को निछावर करता है. शोषित किसान और मजलूम इस अन्याय को रोकने में अपने को असमर्थ पाते हैं, उनमें शिक्षा और धन की कमी है. उनका संगठन दुर्बल है….वर्ग-संगठन के द्वारा यह वर्ग शिक्षित और संगठित होते हैं. यही इनकी पाठशाला है….यही कारण है कि एक समाजवादी के लिए संघर्ष आन्दोलन का प्राण है. पूंजीवाद का अंत होने पर जब बहुजन हित-सुख की व्यवस्था होगी तब समाज के अन्याय, युद्ध और शोषण का अंत होगा.” (आचार्य नरेन्द्रदेव वांग्मय, खंड ३ (नई दिल्ली, नेहरु स्मृति पुस्तकालय व संग्रहालय, २००४) पृष्ठ ४२३
भारत में लोकतान्त्रिक नवनिर्माण – सगुण और निर्गुण :
आजादी के शुरू के शासन से पैदा मोहभंग और चुनौतियों के सबसे सशक्त प्रवक्ता समाजवादी चिन्तक और आन्दोलनकारी डा. राममनोहर लोहिया ने स्वाधीनोत्तर भारत की सबसे बड़ी चुनौती को ‘सगुण बनाम निर्गुण’ के रूप में रखा – “निर्गुण है आदर्श या सपना, सगुण है उसके अनुरूप मनुष्य या घटना, दोनों अलग हैं. दोनों को अलग रहना चाहिए. किन्तु दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं और एक-दूसरे के साथ सब कोर जुड़े हुए हैं. दिमाग में दोनों के खाने अलग-अलग रहने चाहिए, लेकिन दोनों में निरंतर आवागमन होना चाहिए. किसी भी सिद्धांत को गेंद की तरह सगुन और निर्गुण दोनों दिमागी खानों में लगातार फेंकते रहने से ही एक सजीव आदर्श गढा जाता है. पूरा अलगाव करने से पाखंड और असचता की सृष्टि होती है. पूरा एकत्व कर देने से क्रूरता और बेमतलब की दौड की सृष्टि होती है. सिर्फ सगुण में फंस जाने से आदमी दकियानूसी हो जाता है. सगुन को पूरी तरह निर्गुण मान लेने से आदमी के क्रूर होने की सम्भावना है. केवल निर्गुण में फंसे रहने से आदमी के निष्क्रिय होने की सम्भावना है. निर्गुण को पूरी तरह और एकदम सगुन बनाने का प्रयत्न पागल कर सकता है. देश और काल को भुला देनेवाली आदर्शवादिता पागलपन है. देश और काल में फंसी व्यावहारिकता तेली का बैल है…. सपने को देश-काल के चौखट के बाहर कभी नहीं गढ़ना चाहिए. दिमाग में आदर्श और असलियत के दोनों खानों के बीच में लगातार आवागमन होते रहना चाहिए और एक को दुसरे की कसौटी पर कसते रहना चाहिए. आदर्श की कसौटी है असलियत और असलियत की कसौटी है आदर्श. लेकिन दोनों को एक करने में भी उतना ही खतरा है, जितना दोनों को बिन-सम्बन्ध अल्लग कर देने में.” (‘सगुण और निर्गुण’, राममनोहर लोहिया रचनावली से. भाषण, हैदराबाद, १९५५)
डा. लोहिया के अनुसार आज़ादी के बाद से हिन्दुस्तान की ज़िन्दगी के सबसे बड़े पांच मकसद या चुनौतियाँ हैं – १. बराबरी, २. जनतंत्र, ३. विकेन्द्रीकरण, ४. अहिंसा, और ५. समाजवाद. इसके लिए लोहिया ने वोट या लोकतान्त्रिक चुनाव, फावड़ा अर्थात रचनात्मक कार्य, और जेल यानी सत्याग्रह और सिविलनाफ़रमानी का तीन आयामी रास्ता बताया.
तीन प्रकार के समाजवाद और राजशक्ति-लोकशक्ति की समान महत्ता :
इसके बाद की परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए समाजवाद के जरिये पूंजीवाद से मुक्ति की चुनौती के बारे में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ’६० के दशक में लिखा कि “ समाजवाद की तीन परिभाषाएं की जा सकती हैं: १. जो समाजवाद हिंसा से, बलपूर्वक स्थापित किया गया हो, वह तामसिक समाजवाद यानी ‘साम्यवाद’ है. २. जो समाजवाद कानून से राज्य-शक्ति द्वारा स्थापित किया गया हो, वह राजसिक यानी ‘लोकतान्त्रिक समाजवाद’ है. ३. और जो समाजवाद स्वेच्छापूर्वक जनता के विचारों और व्यवहारों में परिवर्तन लाकर स्थापित होता है, वह ‘सात्विक समाजवाद’ यानी ‘सर्वोदय’ है. यद्यपि जैसे मनुष्य में उपर्युक्त तीनों गुणों का सम्मिश्रण होता है, उसी प्रकार इसमें भी होता है. किन्त व्यवहार में जो गुण अधिक दीखता है, उसके आधार पर यह कहा जाता है कि वह अमुक प्रकार का है.” ( ‘मेरी विचार-यात्रा’ (वाराणसी, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, २०१०) पृष्ठ ७३
नक्सलवाद से ‘आमने-सामने’ होने पर जे. पी. ने आगे १९७० में बताया कि “ यदि लोकशाही अक्षम सिद्ध होती है और हिंसा से भी कोई समाधान नहीं निकलता है तो फिर रास्ता क्या होगा? रास्ता पाने के लिये हमें गांधी की ओर लौटना होगा. तब हमलोग देखेंगे कि गांधीजी पहले से ही हिंसा की व्यर्थता और लोकतांत्रिक राज्य की स्वभावगत सीमाओं से परिचित थे. अन्य राष्ट्रीय नेता जहां राष्ट्र-निर्माण के कार्यों की सफलता के लिए केवल राज्य-शक्ति पर ही भरोसा करते थे, वहां गांधीजी के दिमाग में यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि उनके सपनों का भारत बनाने के लिए राज्य ही एकमात्र औजार नहीं हो सकता. इतना निश्चित है कि राज्य के काम के महत्त्व को वे कम नहीं आंकते थे और वह समुचित एवं प्रभावकारी ढंग से कार्य करे, इसमें उनकी दिलचस्पी समाप्त नहीं हो गयी थी. वास्तव में वे इस बात के लिए चिंतित थे की राज्य यथासंभव सर्वोत्तम लोगों के हाथों में रहे और वह उचित नीतियों, कार्यक्रमों और योजनाओं का अनुसरण करे.फिर भी उनको यह स्पष्ट दीखता था कि चाहे कितनी ही अच्छी नीतियां हों और कितने ही अच्छे लोगों के हाथों में शासन सूत्र हो, राज्य स्वत: अभीष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता. इसलिए उनकी योजना राज्य-शक्ति के साथ-साथ लोक-शक्ति के निर्माण की थी.” (‘आमने-सामने’ (वाराणसी, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, २०१३) पृष्ठ ३७
आज़ादी के दशकों बाद, विशेषकर स्वतंत्रता और गणतंत्र की अर्धशताब्दी पूरी होने पर, १९९७ – २००० के दौरान देश की चुनौतियों की सम्पूर्ण समीक्षाएं फिर से सामने आयीं. इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय सर्वेक्षण विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन व् ज्यां द्रेज़ का माना जाता है – अन अनसर्टेन ग्लोरी : इण्डिया एंड हर कन्त्राडिक्सन (नई दिल्ली, एलेन लेन, २०१३). इनके अनुसार भारत की राष्ट्रनिर्माण प्रक्रिय में प्रगति और विकास की एकजुटता नहीं हो पाई है. शिक्षा और स्वास्थ्य के पैमाने पर गरीबी और विषमता या गैरबराबरी की निरतरता कम नही की जा सकी है. जवाबदेही का अभाव और भ्रष्टाचार का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. दुनिया के मापदंड पर भारत को अपना सम्मानजनक स्थान पाने के लिए अधीरता की जरुरत है. जिससे भारतीय लोकतंत्र में विषमता को घटाने की जरूरत को प्रबलता से क्रियान्वित किया जाये.
आजकी सात चुनौतियाँ :
वस्तुत: हमारा देश इस समय सात मुख्य चुनौतियों से जूझ रहा है –
१. विकास का अधूरापन,
२. सुशासन का अभाव,
३. सत्ताव्यवस्था का घटता सम्मान,
४. लोकतांत्रिकता का अवमूल्यन,
५. राष्ट्रनिर्माण का संकट,
६. नागरिकता-निर्माण में अवरोध, और
७. पर्यावरण विनाश.
इन सातों मोर्चों पर ‘नई आर्थिक नीतियों’ के जरिये फैले लंगोटिया पूंजीवाद, भ्रष्टाचार, केन्द्रीयकरण और जातिवाद-साम्प्रदायिकता ने नई जटिलतायें पैदा की हैं. इनके स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आयाम हैं. इनका समाधान पूंजीवाद के दायरे में नहीं हो पा रहा है. पहले डा. मनमोहन सिंह और अब श्री नरेन्द्र मोदी के पास कृषि संकट, उद्योग संकट और रोजगार अभाव के बारे में कोई उत्तर नहीं है. देश की संसद दिशाहीन है. राज्य सरकारों के प्रयोगों से भी दिशाबोध नहीं हो रहा है. इसलिए समाजवादियों को आत्मचिंतन करके देशवासियों के सामने उपयोगी सुझावों को लेकर आने की जिम्मेदारी आ गयी है.
तीन प्रासंगिक प्रश्न :
इस सन्दर्भ में तीन प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक हैं:
१. हम समाजवादी किसे मानें?
२. समाजवादियों की एकता की आधारशिला क्या हो? तथा
३. देश की दशा सुधारने के लिए हम तात्कालिक तौर पर राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर किन प्रश्नों को प्राथमिकता दें? इसमें किन सहमना जमातों, संगठनों और अभियानों से संपर्क करें और सहयोग लें?
इन प्रश्नों का सतोषजनक समाधान करने के बाद यह भी सोचना होगा कि हम समाजवादियों की पहल को असरदार बनाने के लिए क. विचार-प्रवाह, ख. परस्पर समन्वय, ग. कार्यक्रम सञ्चालन, घ. कार्यकर्ता प्रशिक्षण और च. कोष व्यवस्था के लिए क्या क्या करें?
असल में समाजवाद के अर्थ से ही समाजवादी की परिभाषा और पहचान की जा सकती है. सैद्धान्तिक दृष्टि से १. संपत्ति का सामाजिक स्वामित्व, २. गरीबी और गैरबराबरी को समाप्त करना, और ३. आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से सबसे अधिक वंचित और दलित लोगों के हकों के लिए संघर्ष करना ही कल का समाजवाद था और आज का समाजवाद है. इसलिए समाजवादी होने के लिए समाजवाद के परिवर्तनकारी आदर्शों और क्रान्तिकारी लक्ष्यों में सक्रिय आस्था होनी जरुरी कसौटी है. जो गरीबी और गैरबराबरी के अभियानों और संघर्षों से एकजुटता और प्रतिबद्धता नहीं रखते उनको समाजवादी क्यों मानना चाहिए? सिर्फ अतीत के समाजवादी संगठनों, आन्दोलनों, कार्यक्रमों और नेताओं से संबंधों के आधार पर वर्तमान में दावेदारी समाजवादी आन्दोलन के अगले कदमों में साधक की बजाय बाधक होगी.
समाजवादियों की एकता का आधार मूलत: हमारा ‘सोशलिस्ट घोषणापत्र’ होना चाहिए. इसके साथ:
क) भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत, और
ख) भारतीय संविधान के बुनियादी मूल्य भी हमारी एकता के दो मजबूत स्तम्भ हैं.
हरेक समाजवादी के लिए यह सच गर्व के की बात है कि भारतीय समाजवादी आन्दोलन का जन्म १९३० के संघर्षपूर्ण दशक के दौरान १९३४ में राष्ट्रीय आन्दोलन की कोख से हुआ है. हमने मार्क्स और गांधी दोनों की वैचारिक पूंजी से अपना चिंतन और कर्म समृद्ध किया है. हम राजनीतिक स्वतंत्रता, सामजिक समानता और आर्थिक प्रगति की त्रिवेणी के असीम स्त्रोत भारतीय संविधान की १९४६-’४९ में रचना करनेवाले और १९७५-’७७ में रक्षा करनेवाले राष्ट्रभक्तों के प्रति श्रद्धा रखनेवाले लोग हैं.
आगे का रास्ता :
हम यह जानते हैं कि हमारे महान देश की दशा को राजनीति ने पूंजीवादी शक्तियों और सांप्रदायिक-जातिवादी जमातों ने अलग अलग और मिलकर बिगाड़ा है. लेकिन इसको बचाना-बनाना हमारी जिम्मेदारी है.
इसलिए कम से कम निम्नलिखित छ: कार्य असरदार तरीके से तत्काल शुरू करने चाहिए:
१. समाजवादियों को राजनीतिक सुधार और भ्रष्टाचार निर्मूलन के लिए जनमत निर्माण की जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए. यह १९७४ से जारी ऐतिहासिक जन-अभियान का तकाजा है. बिना चुनाव सुधार व दल-व्यवस्था में सुधार के हमारा जनतंत्र धनतंत्र के रूप में विकृत होने को अभिशप्त है.
२. किसानों और श्रमजीवियों की समस्याओं को समाजवादियों ने सदैव प्राथमिकता दी है. आज भी किसान आन्दोलन और श्रमिक संगठनों के साथ सक्रिय सहयोग हमारी बुनियादी जिम्मेदारी होनी चाहिए.
३. बेरोजगार श्रमशक्ति राष्ट्रनिर्माण की राह में सबसे बड़ी चुनौती है. हर वयस्क स्त्री-पुरुष के रोजगार के अधिकार को समर्थन देना समाजवादियों का सैद्धांतिक दायित्व है.
४. देश की शिक्षा, स्वास्थ्य-व्यवस्था, और आवास-व्यवस्था तीनों को पूंजीवादी व्यवस्था ने तहस नहस कर रखा है. अब बिना देर किये देश के विराट बहुमत अर्थात जनसाधारण के लिए सहज सुलभ शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की मानवीय ज़रूरत पूरी करने के लिए समयबद्ध कार्य-योजनाओं की जरुरत है.
५. निर्बल समूहों के आर्थिक, सामजिक, राजनीतिक अधिकारों की हर लड़ाई विषमता के खिलाफ और समता के हक़ में एक पहल होती है. इसलिए महिलाओं, आदिवासियों, अनुसूचित जातियों, पिछडे वर्गों, अल्पसंख्यकों और अन्य सभी वंचित जमातों के साथ एकजुटता के विशेष कार्य हमारी प्राथमिकता में स्थान रखते हैं. बिना हिंसामुक्त और सम्मानयुक्त जीवन अवसर के महिलाओं, आदिवासियों, अनुसूचित जातियों, पिछड़े और निर्बल वर्गों, अल्पसंख्यकों, और अन्य सभी वंचित जमातों के लिए स्वराज निरर्थक है. इसके अभाव में अधिकाँश भारतीयों की नागरिकता अधूरी है और लोकतंत्र ढोंग है.
६. बिना पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त किये बाकी सभी अभियान आधे-अधूरे हो जायेंगे. इसलिए निर्मल जल और शुद्ध वायु को संविधान द्वारा संरक्षित नया नागरिक अधिकार बनाना कल्याणकारी राज्य का दायित्व हो चुका है. पर्यावरण सरक्षण व संवर्धन की जरुरत को पूरा करना हमारे समाजवादी भविष्य की आधारशिला है. इसलिए पर्यावरण के सरोकार समाजवादियों के सरोकार होने चाहिए.
हम क्या करें? :
अब इन सवालों को देश की जनता के साथ मिलकर उठाने के लिए स्थानीय दशा को प्राथमिकता देनी होगी. इसी आधार पर कम-से-कम तीन कदम सामने हैं:
सबसे पहले देशभर में फैले हुए समाजवादियों के बीच (अतीत की समस्याओं को भुलाकर), स्वत:स्फूर्त संवाद और सहयोग का ताना-बाना बनाना होगा – इसे नगर व जिले से शुरू करके प्रदेश और देश के दायरे तक समयबद्ध चरणों में पूरा करना चाहिए. इसीके समान्तर वैचारिक ताज़गी और संगठनात्मक चुस्ती के लिए शोध और प्रशिक्षण का देशव्यापी क्रम आरम्भ किया जाना है. इसमें प्रखंड और जिले के समाजवादियों व समर्थकों के नियमित मित्र-मिलन, विशेषकर विचारगोष्ठियों का प्राथमिक महत्त्व है. देशी भाषाओँ में समाजवादी पत्र-पत्रिका प्रकाशन व साहित्य वितरण वैचारिक ऊर्जा के लिए अनिवार्य है. तभी २६ जनवरी, १७ मई, ९-१५ अगस्त, २-११-१२ अक्टूबर, व २६ नवम्बर की ऐतिहासिक तिथियों पर जन-साधारण को जोड़नेवाले वार्षिक कार्यक्रमों का आयोजन भी आसान होगा. परस्पर सहमति और आर्थिक सहयोग से इसमें से कोई न कोई जिम्मेदारी उठाना अगले तीन वर्षों तक हमारा अनिवार्य कर्तव्य है. बिना व्यक्तिगत जीवन में से कुछ समय और साधन का योगदान किये हमारी भूमिका सगुण नहीं हो सकेगी.
फिर सभी प्रासंगिक समूहों और अभियानों को हमें नीति और कार्यक्रमों के बारे में संवाद के दायरे में लाना चाहिए. संवाद के संतोषजनक अनुभव के आधार पर शांतिपूर्ण कार्यक्रमों में सहयोग के प्रयोग किये जाएँ. इसमें शिखर और शाखा दोनों स्तर पर पहल का समय आ गया है. इसके लिए जिला स्तरीय संवाद व सहयोग समिति भी चाहिए.
हमारी यह विशेष कोशिश होनी चाहिये कि राजनीति के हाशिये के समूहों और संगठनों को अपने प्रयासों के दायरे में लाने के लिए ध्यान दिया जाये. उनके मुद्दों से जुड़ना और उनकी रूचि के तरीकों से मेल-जोल बढ़ाना इसमें सहायता करेगा. इससे हमारे राजनीतिक समुदाय का विस्तार होगा. भारतीय लोकतंत्र का सामाजिक आधार विस्तृत होगा.
और अंत में ……
समाजवादियों ने स्वराज की लड़ाई को अपना सब कुछ दिया था. अब भारतीय स्वराज के अधूरेपन और देश के लोकतंत्र के महादोषों को दूर करने की लड़ाई चल रही है. इसमें सफलता का रास्ता पूंजीवाद ने अवरुद्ध कर रखा है. इसमें विजय के लिए तन-मन-धन से समाजवादी विकल्प को साकार करने की जिम्मेदारी पूरा करने की चुनौती ही हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक पथ-प्रदर्शक होनी चाहिए.
जय हिन्द.
जय जगत.
जय समाजवाद.
इन्कलाब जिंदाबाद!