— परिचय दास —
श्याम बेनेगल भारतीय सिनेमा के उन मील के पत्थरों में से एक हैं जिन्होंने न केवल भारतीय सिनेमा की धारा को नई दिशा दी, बल्कि सिनेमा को समाज का दर्पण भी बनाया। उनकी फिल्मों में कला और विचार का ऐसा संतुलन मिलता है जो दर्शकों को न केवल मोहित करता है बल्कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर सोचने के लिए मजबूर भी करता है।
बेनेगल की पहली फिल्म “अंकुर” से ही यह स्पष्ट हो गया कि वह यथार्थ को अपने सिनेमा का आधार बनाएंगे। उन्होंने उस भारत को दिखाया जिसे अक्सर मुख्यधारा के सिनेमा में अनदेखा किया जाता था। “अंकुर” में ग्रामीण समाज की जटिलताओं और आर्थिक असमानता को इतने प्रभावी ढंग से चित्रित किया गया कि यह फिल्म अपने समय की एक नई लहर बन गई। फिल्म के संवाद, दृश्यों और अभिनय में सादगी के साथ सच्चाई झलकती है जिसने इसे सिनेमा के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया।
बेनेगल अपनी फिल्मों में सामाजिक मुद्दों को गहराई से उठाते थे और उसे प्रभावी कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करते थे। उनकी फिल्म “निशांत” सामंती व्यवस्था की क्रूरता, शक्ति का दुरुपयोग और उसके खिलाफ खड़े होने की मानवतावादी कहानी है। यह फिल्म केवल एक मनोरंजक कथा नहीं बल्कि सत्ता और समाज के बीच के जटिल संबंधों को उजागर करने वाला सशक्त माध्यम है।
उनकी महत्त्वपूर्ण फिल्म “मंथन” सहकारी आंदोलन पर आधारित है। यह फिल्म भारतीय ग्रामीण समाज की सामूहिकता और उसमें संभावित बदलाव की कहानी कहती है। इसके लिए फिल्म की फंडिंग भी जनता के योगदान से हुई थी जो इसे दर्शकों के साथ जोड़ने वाली एक अनूठी उपलब्धि बनाती है। यह फिल्म ग्रामीण जीवन के आर्थिक और सामाजिक पहलुओं पर गहन दृष्टि प्रदान करती है।
श्याम बेनेगल की फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएँ हमेशा बेहद प्रासंगिक और सशक्त रही हैं। “भूमिका” जैसी फिल्म में स्मिता पाटिल ने एक महिला के आंतरिक संघर्ष, उसकी स्वतंत्रता की चाह और उसकी पहचान की तलाश को बखूबी चित्रित किया। यह फिल्म न केवल नारी स्वतंत्रता का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक बंधनों के बीच स्त्री के आत्म-संघर्ष की एक उत्कृष्ट प्रस्तुति है। इसी तरह, “सरदारी बेगम” में एक गायिका की कहानी के माध्यम से उन्होंने कलाकार के जीवन के संघर्ष और उसकी कला की जटिलताओं को सामने रखा। यह फिल्म कला, परिवार और समाज के बीच संतुलन बनाने के प्रयासों का उत्कृष्ट उदाहरण है।
बेनेगल की फिल्मों में भारतीय संस्कृति, समाज और उसकी जटिलताओं को न केवल स्थानीय बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत करने का प्रयास दिखता है। उनकी दृष्टि में समाज का एक गहन विश्लेषण है, जिसमें वह सामाजिक अन्याय, जाति-व्यवस्था और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों को वैश्विक संदर्भ में भी जोड़ते हैं। उनकी कहानियाँ भारतीय परंपराओं की जड़ों को छूती हैं लेकिन उनका संदेश सार्वभौमिक होता है।
श्याम बेनेगल ने समानांतर सिनेमा की उस धारा को पुष्ट दिया जिसने भारतीय सिनेमा में एक नई चेतना का प्रवाह किया। उनकी फिल्में न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफल रहीं, बल्कि आलोचकों की भी सराहना बटोरीं। उन्होंने यह दिखाया कि सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा माध्यम है, जो सामाजिक और व्यक्तिगत मुद्दों पर चर्चा करने का मंच बन सकता है।
बेनेगल की फिल्मों में यह खूबी है कि वे समाज के प्रत्येक वर्ग को खुद से जोड़ती हैं। उनकी कहानियाँ केवल समाज का चित्रण नहीं करतीं बल्कि उसे बदलने की प्रेरणा भी देती हैं। “मंथन” जैसी फिल्मों ने दर्शकों को सहकारी आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया, जबकि “निशांत” ने सामाजिक अन्याय और सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज़ उठाने की प्रेरणा दी। उनकी फिल्मों में सादगी और गहराई का अनोखा संतुलन मिलता है। संवाद, पात्र और दृश्य इतने स्वाभाविक होते हैं कि दर्शक खुद को उन कहानियों का हिस्सा महसूस करते हैं। उनकी कहानियों में नाटकीयता कम और यथार्थवाद अधिक होता है जो उनके सिनेमा को और अधिक प्रभावी बनाता है।
समानांतर सिनेमा से जुड़े श्याम बेनेगल को किसी एक वाद की देन मानना एकायामी दृष्टिकोण होगा। यह सच है कि समानांतर सिनेमा में सामाजिक अन्याय, आर्थिक विषमता और वर्ग-संघर्ष जैसे विषयों को प्रमुखता दी गई है लेकिन इसे सिर्फ एक वाद तक सीमित कर देना इस धारा की बहुआयामी प्रकृति को अनदेखा करना होगा। यथार्थ का प्रभाव समानांतर सिनेमा पर किसी एक वाद से अधिक यथार्थवाद का प्रभाव देखा जा सकता है। यह धारा उस सच्चाई को दिखाने का प्रयास करती है जिसे मुख्यधारा का सिनेमा अक्सर अनदेखा कर देता है। सामाजिक संरचनाओं, जातिगत भेदभाव, लैंगिक असमानता और ग्रामीण-शहरी विभाजन जैसे मुद्दों पर आधारित इसकी कहानियाँ यथार्थमय दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। समानांतर सिनेमा वर्ग विश्लेषण व संघर्ष तक सीमित नहीं है; यह व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक संघर्षों को गहराई से दिखाता है। अन्त:सत्य भी। श्याम बेनेगल की “भूमिका” और सत्यजित राय की “चारुलता” जैसी फिल्में इस बात का प्रमाण हैं कि समानांतर सिनेमा मानवीय संबंधों और आंतरिक संघर्षों पर भी केंद्रित है।
समानांतर सिनेमा भारतीय समाज की जटिलताओं और विविधताओं से प्रेरित है। इसमें जातिगत भेदभाव, ग्रामीण जीवन और स्थानीय परंपराओं का चित्रण प्रमुख रूप से देखा जा सकता है। यह सिनेमा भारतीय समाज को उसके मूल रूप में दिखाने का प्रयास करता है, जो इसे केवल एक विचारधारा से अलग करता है।
समानांतर सिनेमा पर भारतीय और विश्व साहित्य का गहरा प्रभाव है। यह धारा रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद और अन्य साहित्यकारों की रचनाओं से प्रेरणा लेती है। ‘अर्धसत्य’ फिल्म ( निर्देशक: गोविंद निहलानी ) में दिलीप चित्रे जैसे प्रख्यात कवि की कविता है। वे किसी विचारधारा से बँधे नहीं थे । साथ ही, यह विश्व सिनेमा में इतालवी नवयथार्थवाद (Italian Neorealism) आदि आंदोलनों से भी प्रभावित है जो समाज की सच्चाई और मानवीय संघर्षों पर केंद्रित था। समानांतर सिनेमा मुख्यधारा के व्यावसायिक सिनेमा की चमक-धमक और भारी बजट से हटकर एक सरल, कम बजट और अधिक वास्तविकता आधारित फिल्म निर्माण पर केंद्रित है। यह आर्थिक दृष्टिकोण से समाज के कमजोर वर्गों और उनके संघर्ष को सामने लाने का माध्यम बना।
समानांतर सिनेमा को केवल एक विचारधारा की देन कहना इसके व्यापक स्वरूप को सीमित कर देगा। यह सिनेमा कई दृष्टिकोणों का संगम है—सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक और यथार्थवादी। यह समाज के विभिन्न पहलुओं को चित्रित करने का एक माध्यम है जो न केवल वर्ग संघर्ष बल्कि मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित करता है।
श्याम बेनेगल का योगदान भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमूल्य है। उन्होंने सिनेमा को केवल मनोरंजन के साधन से ऊपर उठाकर एक विचारशील माध्यम बनाया। उनकी फिल्मों ने दर्शकों को न केवल सोचने पर मजबूर किया बल्कि समाज को नए नजरिए से देखने और उसे समझने का रास्ता भी दिखाया। उनकी रचनात्मकता, सामाजिक दृष्टिकोण और कहानी कहने की कला ने भारतीय सिनेमा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। श्याम बेनेगल की सिनेमा-यात्रा न केवल प्रेरणादायक है बल्कि सिनेमा के माध्यम से समाज और कला के बीच के गहरे संबंध को भी उजागर करती है। उनकी फिल्मों का महत्त्व समय के साथ बढ़ता गया है। श्याम बेनेगल ने सिनेमा को केवल एक मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि सामाजिक संवाद और परिवर्तन का माध्यम बनाया। उनकी फिल्मों ने दर्शकों को सोचने, समझने और समाज में सक्रिय भूमिका निभाने की प्रेरणा दी।
महिलाओं की भूमिकाओं पर विशेष जोर दिया गया है। यह दिखाया गया है कि उनकी फिल्मों में महिला पात्र न केवल सामाजिक दबावों से संघर्ष करती हैं बल्कि वे अपनी पहचान और स्वतंत्रता की तलाश में भी जुटी रहती हैं। यह नारीवाद के दृष्टिकोण से उनकी फिल्मों का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।
बेनेगल की फिल्मों में भारतीय संस्कृति और समाज की जटिलताओं को वैश्विक मंच पर पेश करने की उनकी क्षमता को रेखांकित किया गया है। उनके विषय भले ही स्थानीय हों लेकिन उनका दृष्टिकोण और संदेश सार्वभौमिक होता है।
यह नया विचार उभरता है कि बेनेगल की फिल्मों में सादगी और गहराई का अद्भुत तालमेल है। उनके पात्र और संवाद स्वाभाविक और वास्तविक जीवन के करीब होते हैं, जो दर्शकों को उनकी कहानियों से जोड़ते हैं।
बेनेगल को समानांतर सिनेमा के जनक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने इस धारा को स्थापित कर भारतीय सिनेमा में एक नई लहर की शुरुआत की। इस पर जोर दिया गया है कि समानांतर सिनेमा ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाई बल्कि इसे आलोचकों और बुद्धिजीवियों की भी सराहना मिली।
बेनेगल की फिल्मों में जाति व्यवस्था, लैंगिक असमानता और ग्रामीण शोषण जैसे मुद्दों पर विस्तृत चर्चा की गई है। यह उनके सिनेमा की प्रासंगिकता को और अधिक गहराई से समझने का अवसर देता है।
उनकी फिल्में केवल सामाजिक मुद्दों को चित्रित करने तक सीमित नहीं रहीं बल्कि उन्होंने दर्शकों को प्रेरित भी किया। उदाहरण के लिए, “मंथन” ने सहकारी आंदोलन को बढ़ावा दिया और लोगों को सामूहिक प्रयास के महत्त्व को समझने के लिए प्रेरित किया।
बेनेगल की रचनात्मकता और उनकी फिल्मों की गहराई को भारतीय सिनेमा के संदर्भ में ऐतिहासिक महत्व दिया गया है। उनके काम ने यह दिखाया कि सिनेमा को गहराई और संवेदनशीलता के साथ भी बनाया जा सकता है।
श्याम बेनेगल का सिनेमा में महत्त्व उनकी फिल्मों के निर्मिति- समय तक सीमित नहीं बल्कि यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इस तरह के विचार न केवल सिनेमा प्रेमियों के लिए उपयोगी हैं बल्कि सामाजिकता, नारीजन्यता और यथार्थमय कला के शोधकर्ताओं के लिए भी महत्त्वपूर्ण हैं और समाज के लिये जरूरी भी।