आचार्य नरेन्द्रदेव की वैचारिक विरासत की नयी प्रासंगिकता

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Narendra Dev aacharya
आचार्य नरेंद्रदेव (31अक्टूबर 1889 - 19 फरवरी 1956)

anand kumar

— आनंद कुमार —

राष्ट्रीयता, लोकतंत्र और समाजवाद के महासाधक आचार्य नरेन्द्रदेव (३१ अक्तूबर १८८९, फैज़ाबाद – १९ फरवरी १९५६, इरोड) आधुनिक भारत के राष्ट्र-न्रिर्माताओं में गिने जाते हैं. उनकी यशस्वी जीवन यात्रा महात्मा बुद्ध, महान विचारक कार्ल मार्क्स, लोकमान्य तिलक और अरविन्द घोष से प्रभावित थी. उनका व्यक्तित्व ज्ञान, त्याग और सिद्धांतनिष्ठ समर्पण से प्रकाशित था. वह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की पहली कतार के नायक, समाजवादी आन्दोलन के पितामह, किसान आन्दोलन के मार्गदर्शक, भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ, बौद्ध धर्म दर्शन के मर्मज्ञ और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रवर्तक थे.

आचार्यं नरेन्द्रदेव की जीवन कथा, विचार-भण्डार और स्वप्न-संसार हमारी अनमोल विरासत है. वैसे यह शर्मनाक सच रहा है कि उनके जीवन की संध्याबेला में नवस्वाधीन देश की राजनीति के सूत्रधारों ने और उनके अपने अनुयायियों ने उनकी अनसुनी की. १९४८ में गांधीजी के ह्त्या के बाद कांग्रेस नेतृत्व की हठधर्मिता के कारण कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को कांग्रेस छोडनी पड़ी. इसपर उन्होंने राजनैतिक नैतिकता के आधार पर ११ साथियों के साथ उत्तर प्रदेश विधान सभा के कांग्रेस विधायक दल की सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया और दुबारा जनादेश के लिए जनता के बीच गए. इस उपचुनाव में कांग्रेस के मुकाबले सभी हारे. आचार्यजी तो इस उपचुनाव में एक गेरुवाधारी बाबा द्वारा ‘धर्म बचाओ’ के नारे के जरिये पराजित किये गए. फिर जनतंत्र की स्थापना के बाद १९५२ में सम्पन्न पहले आमचुनाव में उनकी सोशलिस्ट पार्टी को कुल १० प्रतिशत वोट मिले और सोशलिस्ट पार्टी के अधिकाँश प्रत्याशी हारे. फिर १९५३ में उनके सहयोगियों ने बिना उनकी सहमति के सोशलिस्ट पार्टी का एक गैर समाजवादी दल के साथ विलय करके एक नयी पार्टी बना ली. १९५४ में उनकी पीठ पीछे नेहरु – जयप्रकाश वार्ता भी हुई. उनके प्रयासों के बावजूद प्रजा सोशलिस्ट पार्टी १९५५-५६ में ही टूट भी गयी. इस घटनाक्रम से आहत आचार्य नरेन्द्रदेव का स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया और उन्होंने १९ फरवरी १९५६ को अंतिम सांस ली. लेकिन यह संतोष की बात है कि आज भारत की आज़ादी के ७५ साल बाद की चुनौतियों के कारण आचार्य जी की विरासत की नयी प्रासंगिकता है.

यह निर्विवाद तथ्य है कि आचार्य नरेन्द्रदेव विश्व-इतिहास और भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ थे और उन्होंने मानव सभ्यता के सामने मौजूद चुनौतियों को पहचानते हुए स्वतंत्रता, समता और प्रगतिशीलता के आधार पर वसुधैव कुटुम्बकम की रचना में समाधान देखा. उनकी दृष्टि मे भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा तत्व विभिन्न जीवन-प्रणालियों में एकता और जीवन के हर क्षेत्र में समन्वय स्थापित करना रहा है. एक नैतिक व्यवस्था की स्थापना भारतीय संस्कृति की दूसरी विशेषता है. हमारी संस्कृति में वे सभी तत्व मौजूद हैं जिनसे हम नवयुग और नव-मानव का निर्माण कर सकते हैं. इसीलिए हमारे यहाँ कहा गया है कि ‘ आत्मन: प्रतिकूलानी परेषा न समाचरेत’ – यदि हम दूसरों के दोष देखने की आदत छोड़ दें तो हमें अपने दोष दिखाई पड़ने लगेंगे और हम अपना सुधार कर सकेंगे. यह सामाजिकता और मानवता का मूल मन्त्र है. उन्होंने यह भी जोर दिया है कि हमें यह न भूलना चाहिए कि विभिन्न धर्मों के योग से ही विशाल भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है ( नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; १९५३).

वह भारत की आज़ादी के बाद की समस्याओं को चिन्हित करते हुए सत्ता प्राप्ति में आधी-अधूरी सफलता के बाद पूरे देश के ‘भोग-युग’ में प्रवेश से चिंतित थे. उन्होंने ‘पाकिस्तान’ के रूप में देश को खंडित करने को आत्मघाती माना क्योंकि उनकी दृष्टि में धर्म के आधार पर राष्ट्र नहीं बनाये जा सकते और इससे सभी प्रकार के अल्पसंख्यकों में अलगाववाद का दोष स्थायी हो जाएगा. उन्होंने मुस्लिम लीग की दो राष्ट्र की मान्यता को चुनौती देते हुए याद दिलाया कि हिन्दू और मुसलमानों में नस्ल, संस्कृति और भाषाओं की एकता है. देश का बंटवारा करने की बजाय जितने अल्पसंख्यक समुदाय और पिछड़ी जातियों के स्त्री-पुरुष हैं उनके अधिकारों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है और सभी वंचित समुदायों के साथ न्याय ही नहीं वरन उदारता का व्यवहार होना चाहिए ( ‘संघर्ष’, १७ जून १९४०). आचार्य नरेन्द्रदेव ने नव-स्वाधीन भारत के सत्त्धिशों द्वारा एक ‘सुदृढ़ राज्य’ की स्थापना को एक शक्तिशाली सेना और नौकरशाही के संगठन के रूप में परिभाषित करने और ‘लोकतंत्र निर्माण’ को चुनावों में विजय तक सीमित करने और विजय हासिल करने के लिए ‘चुनाव प्रक्रिया’ को अप्रजातांत्रिक बना देने की प्रवृत्ति को खतरनाक बताया. ऐसा ‘सुदृढ़ राज्य’ बिना सत्ता-प्रबंध में महत्वपूर्ण भूमिका वाली लोकतंत्रात्मक संस्थाओं के लोकतंत्र के लिए भारी खतरा साबित होता है. इसी तरह लोकतंत्र को ‘येन केन प्रकारेण’ चुनाव जीतने तक सीमित करने से देश की राजनीति में त्याग और तपस्या का वातावरण नहीं रहेगा और सत्ता के लिए छीना-झपटी शुरू हो जाएगी. उन्होंने भविष्य की ओर देखते हुए यह आशंका प्रकट की थी कि इस रोग के कारण स्वयं कांग्रेस स्वराज रचना, राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र निर्माण के प्रभावशाली वाहन की बजाए एक ‘चुनाव मशीन’ के रूप में विकृत हो जाएगी ( ‘जनवाणी’, अप्रैल १९४७ ).

उन्होंने १९४२ की क्रांति के संकल्प और सन्देश की दिशा में आगे बढ़ने का आवाहन करते हुए सुझाव दिया था कि बिना सामाजिक सौहार्द के सुदृढ़ राज्य का निर्माण नहीं हो सकता और वास्तव में किसान-मजदूर राज की स्थापना ही हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य होना चाहिए. सामाजिक विषमता की समाप्ति लोकतंत्र के विकास के लिए आवश्यक है और भूख और गरीबी की समस्या को हल करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए. उन्होंने दो-टूक शब्दों में लिखा कि ‘यदि हिन्दू-राज्य का नारा कार्यान्वित किया गया तो लोकतंत्र मुरझा जाएगा और हमारी सामाजिक व्यवस्था के वर्तमान दोष स्थायी बन जाएँगे…सार्वभौमिक शिक्षा के बिना लोकतंत्र का निर्माण संभव नहीं है. शिक्षा देने के अतिरिक्त यदि हमें समाज में लोकतंत्रीय पद्धति का प्रसार करना है तो इस कार्य में सहकारी आन्दोलन से बढ़कर दूसरी वस्तु से सहायता नहीं मिल सकती है.’ (‘समाज’, १० जुलाई, १९४७).

हमारे देश और समाज पर उनके ऋण की चर्चा करते हुए प्रो. मुकुटबिहारी लाल रचित ‘आचार्य नरेन्द्रदेव : युग और नेतृत्व’ की भूमिका में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९६९ में लिखा था कि ‘आचार्य नरेन्द्रदेव के विचारों तथा जीवन के सम्बन्ध में जितनी भी जानकारी सर्वसाधारण, विशेषकर युवकों को दी जा सके, देश ले लिए उतना ही लाभकारी होगा. सार्वजनिक जीवन की जो आज दुर्दशा है तथा युवक जिस प्रकार दिग्भ्रमित हो रहे हैं, उस परिस्थिति में आचार्य जी से सम्बंधित साहीत्य जनमानस पर, विशेषकर शिक्षक, विद्यार्थी तथा सार्वजनिक कार्यकर्ताओं के मानस पर स्वस्थ प्रभाव डाल सकता है. वैसे तो सारे देश में सार्वजनिक जीवन का स्तर गिरता जा रहा है और विद्यार्थी समाज दिशाहीन और नकारात्मक बनता जा रहा है. परन्तु इन दोनों दृष्टियों से उत्तर प्रदेश और बिहार आदि राज्यों की दशा और भी चिंतनीय है. आचार्य जी यूँ तो सारे भारत के थे, परन्तु इन राज्यों से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था.इसलिए नरेन्द्रदेव साहित्य इन राज्यों के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगा.’ जे. पी. ने आगे लिखा कि ‘नरेन्द्रदेव जी का हमलोगों के ऊपर बड़ा भारी ऋण है. ऋण है उनके अपूर्व व्यक्तित्व का, उनके सौजन्य और स्नेह का, उनके बौद्धिक दान का, उनके नेतृत्व का और सबसे अधिक उनके निश्छल, निस्पृह और भावुक चरित्र का, उनके त्याग और तप का. हम जो इन सब का भरपूर लाभ उठा चुके हैं, इस ऋण से कभी उऋण नहीं होंगे और नरेन्द्रदेव जी का स्मरण हमारे हृदयों को सदा निर्मल करता रहेगा. परन्तु हम नालायक साबित होंगे अगर जो कुछ हमने और हमारी पीढ़ी ने आचार्य जी से पाया है, उसमें से जितना भी संभव हो उतना आगे की पीढ़ियों के लिए न छोड़ जाएँ.’ ( प्राक्कथन, ‘आचार्य नरेन्द्रदेव : युग और नेतृत्व’ (१९७०) ( आचार्य नरेन्द्रदेव समाजवादी संस्थान, वाराणसी). इस अर्थ में आज आचार्य नरेन्द्रदेव की विरासत की नयी प्रासंगिकता की चर्चा का विनम्र प्रयास लोकनायक जयप्रकाश के निर्देशों का भी पालन करने जैसा है.

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फैजाबाद के एक प्रभावशाली, विद्या-सम्पन्न परिवार में ३१ अक्तूबर १८८९ को जन्में नरेन्द्रदेव जी ने वाराणसी से भारतीय संस्कृति और और साहित्य की और इलाहाबाद से कानून की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी. उन्होंने संस्कृत में एम्.ए. और विधि शास्त्र में एल.एल.बी. किया था. वह हिंदी, उर्दू, संस्कृत, पाली, फारसी, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओँ के जानकार थे. उनके पिता श्री बलदेव प्रसाद उच्चशिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे जो सफल वकील के साथ ही स्वाध्याय और लेखन के प्रति रुझान रखते थे. वह हिंदी, अंग्रेजी और फारसी में बाल-साहित्य के रचयिता थे. उनका घर विद्या-साधकों और समाज-सुधारकों की अतिथिशाला जैसा था. वह कांग्रेस की गतिविधियों से भी जुड़े थे. नरेन्द्रदेव जी मात्र दस बरस की आयु में पिताजी के साथ लखनऊ में संपन्न कांग्रेस अधिवेशन में गये थे. किसी सभा-सम्मेलन में जाने का यह उनका पहला मौका था. उन्होंने बचपन में ही रामचरितमानस, गीता, महाभारत, लघु सिद्धांत कौमुदी आदि का अध्ययन कर लिया था. बचपन से विद्यार्थी जीवन के बीच बाल गगाधर तिलक, मदनमोहन मालवीय, स्वामी रामतीर्थ, माधव प्रसाद मिश्र, गंगानाथ झा जैसी अनेकों विभूतियों से परिचित हुए. शचीन्द्रनाथ सान्याल के माध्यम से कई क्रांतिकारियों के संपर्क में आये. तरुणाई में वह अरविन्द घोष की पत्रिका ‘वन्दे मातरम’ के नियमित पाठक थे और उनके कई लेखों का अनुवाद करके ‘जातीयता’ नामक पुस्तक का सम्पादन -प्रकाशन कर चुके थे. विद्यार्थी जीवन से ही वह कांग्रेस के कार्यक्रमों की तरफ आकर्षित थे. १९१६ में उन्होंने फैजाबाद में एनी बेसेंट द्वारा संचालित ‘होमरूल लीग’ की शाखा स्थापित की और तिलक और अरविन्द के प्रभाव के कारण उनका रुझ्हान कांग्रेस की ‘गरम दल’ की धारा की तरफ रहा.

इस परिवेश के संस्कारों के कारण उनके जीवन में दो प्रवृत्तियों की प्रधानता रही – एक पढने-लिखने की और दूसरी सक्रिय राजनीति में योगदान की. उन्होंने १९२१ में गांधीजी और कांग्रेस के आवाहन पर वकालत का त्याग करके असहयोग आन्दोलन के जरिये राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में प्रवेश किया और देश के आज़ाद होने तक कई बार जेल गए. भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा के विशिष्ट केंद्र काशी विद्यापीठ का भारतरत्न डा. भगवानदास के साथ नेतृत्व किया. वह लखनऊ विश्वविद्यालय और काशी विश्वविद्यालय के भी कुलपति रहे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संगठन में जवाहरलाल नेहरु के साथ उत्तरप्रदेश कांग्रेस समिति से लेकर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति तक विशिष्ट योगदान किया. आचार्य कृपालानी, सरदार पटेल, सुभाष बोस, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आज़ाद, खान अब्दुल गफ्फार खान, पुरुषोत्तम दास टंडन, चंद्रभानु गुप्त और रफ़ी अहमद किदवई उनके सहकर्मियों में थे. उनकी कर्मठता और क्षमता से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने १९४६ में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया था. वह १९३४ में कान्ग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना से १९५६ में अंतिम सांस तक भारतीय समाजवादी आन्दोलन के मार्गदर्शक रहे. १९३६ में उन्होंने किसान नेता स्वामी सहजानंद के निमंत्रण पर अखिल भारतीय किसान सभा के स्थापना सम्मेलन का उद्घाटन भाषण दिया था. वह १९३७ से १९४८ तक संयुक्त प्रान्त (अब उत्त्तर प्रदेश) की विधान सभा और १९५२ से १९५६ तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे.

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आचार्य नरेन्द्रदेव जी स्वभावत: पठन-पाठन में तल्लीन और आत्म-प्रचार से दूर रहनेवाले व्यक्ति थे. यह अविश्वसनीय सच है कि महात्मा गांधी के आवाहन पर उन्होंने १९२१ में वकालत त्यागकर जेलयात्रा की और १९२५ से काशी विद्यापीठ में शिक्षक के रूप में जुड़ भी गए. लेकिन वह गांधीजी से १९३४ तक मिले भी नहीं थे. अपनी संक्षिप्त आत्मकथा ‘मेरे संस्मरण’ में उन्होंने लिखा है कि पढने-लिखने और राजनीतिक सक्रियता में परस्पर संघर्ष रहता है. दोनों में समन्वय दुर्लभ होता है. लेकिन काशी विद्यापीठ ने उन्हें यह सुविधा दी. इस कारण काशी विद्यापीठ की सेवा में व्यतीत हुआ काल (१९२५ से १९५१ के बीच के २६ बरस) उनके जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा था. उन्होंने उसे अपना ‘कुटुंब’ माना.

यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि व्यक्तिगत स्तर पर आचार्य नरेन्द्रदेव जी हमारे पितृ-पक्ष और मातृ-पक्ष दोनों के ही कुलगुरु जैसे थे और मैं उनके ‘विद्यापीठ परिवार’ की चौथी पीढ़ी का एक विनम्र सदस्य हूँ. काशी विद्यापीठ परिसर में उनके पड़ोस में ही हमारे परिवार का आवास था. मेरी परदादी और आचार्यजी की धर्मपत्नी में बहुत घनिष्ठता थी. उनके बीच पारिवारिक दुःख-सुख की हिस्सेदारी थी. हमारे बाबा विश्वनाथ शर्मा जी काशी विद्यापीठ के उनके पूरे कार्यकाल में निकटतम सहयोगियों में गिने जाते थे. आचार्यजी हमारे बाबा के लिए सदैव स्मरणीय और पूजनीय रहे. उनके भरोसे का एक उदाहरण यह भी था कि आचार्य जी के कनिष्ठ पुत्र का ‘लल्लू’ से ‘हर्षवर्धन’ नामकरण और प्राथमिक शिक्षा के लिए कृष्णमूर्ति जी के कशी में गंगातट पर स्थापित विद्यालय में नाम लिखाने का दायित्व विश्वनाथ जी ने ही निभाया था. क्योंकि तब आचार्य जी ‘भारत छोडो आन्दोलन’ के सिलसिले में अहमदनगर किले में लम्बे समय के लिए राजबंदी थे. हमारे पिता जयनाथ जी समेत, बाबा की पाँचों संतानों को आचार्य जी से स्नेह संरक्षण प्राप्त हुआ. वह हम भाई-बहनों के लिए ‘कॉफ़ी वाले बाबा’ थे. हमारे पित्तामह आचार्य जी की कांग्रेस सोशलिस्ट टीम के वाराणसी में मुखिया थे. इसमें १९३७ में आचार्य जी की संयुक्त प्रांत की विधानसभा की उम्मीदवारी से लेकर उनके अध्ययन, लेखन और परिवार प्रबंधन तक में विश्वासनीय सहायक रहे. हमारे ताऊजी श्री श्रीनाथ और पिता श्री जयनाथ १९४८ के चुनाव में स्वयंसेवक थे. उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय का कुलपति बनने पर हमारे चाचा रंगनाथ जी को लखनऊ विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र के उच्च अध्ययन के लिए प्रेरित किया. छोटे चाचा कृष्णनाथ उनसे मिले संस्कारों के कारण समाजवादी आन्दोलन और बौद्ध-विमर्श से जुड़े और यशस्वी बने.

मातृपक्ष में हमारे नाना राजबंशी राय जी उनके अनुयायी समाजवादी किसान नेताओं में अग्रणी थे. उनके निमंत्रण पर आचार्य जी एक किसान सम्मलेन और ग्रामोद्योग प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए कुशीनगर जिले में स्थित हमारे ननिहाल के गाँव पटखौली भी पधारे थे. वह १९५२ के चुनाव में आचार्य जी की सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से विधायक भी चुने गये. आचार्य जी ने हमारे मामा रामायण राय को उग्रपंथी राजनीति से समाजवादी आन्दोलन की तरफ उन्मुख किया जिससे वह ६ साल का बंदी-जीवन बिताने के बाद काशी विश्वविद्यालय में विद्यार्थी बने और मनोविज्ञान तथा कानून की उच्च शिक्षा पूरी करके प्रभावशाली समाजवादी समाजसेवक बन सके. विधायक (१९५७, १९६२, १९६९, १९७४ ), सांसद (१९८०-८४) और मंत्री के रूप में एक सफल जीवनयात्रा संपन्न की. समाजवादी आन्दोलन के दुखड़ा विभाजन के दौरान हमारे बाबा, नानाजी और मामा आचार्य जी के साथ रहे जबकि पिता और दोनों चाचा डा. लोहिया के अनुयायी बने.

आज यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात है कि मै उनकी पुन्य-स्मृति में परिवारजनों द्वारा संयोजित इस व्याख्यानमाला में ‘आचार्य नरेन्द्रदेव की विरासत की नयी प्रासंगिकता’ के बारे में आचार्यजी के परिवार की तीसरी पीढ़ी के सौजन्य से सुधीजनों से संवाद के लिए सुदूर गोवा से पहुंचा हूँ. इससे पहले आचार्य जी की जन्मशताब्दी वर्ष में आचार्यजी के अनुयायी श्री चंद्रशेखर के मार्गदर्शन में कई युवा समूहों की तरह हमने भी पदयात्रा के जरिये आचार्य नरेन्द्रदेव के विचारों को जनसाधारण तक पहुंचाने के अभियान में हिस्सा लिया. हमारी पदयात्रा सारनाथ से मिर्जापुर, रींवा और सतना होते हुए भारत के भौगोलिक केंद्र करौंदी गाँव (जबलपुर) तक की थी. हमें उनकी पत्रिका ‘यंग इंडियन’ के आचार्य नरेन्द्रदेव शताब्दी विशेषांक के सम्पादन का सुअवसर मिला था जिसका लोकार्पण सारनाथ के विराट उत्सव में आचार्य जी के अनन्य शिष्य कमलापति त्रिपाठी और मार्क्सवादी जननेता ई. एम्. एस. नम्बूदिरिपाद ने किया था. आज के इस सराहनीय कार्यक्रम में भी स्वयं के साथ ही, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन, सम्पूर्ण समाजवादी परिवार और काशी विद्यापीठ कुटुंब के देश और दुनिया भर में फैले हुए सभी सदस्यों की शुभकामनाओं को भी शामिल मानता हूँ.

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आचार्य नरेन्द्रदेव जी की कर्म और चिंतन में व्यक्तिगत नैतिकता, राष्ट्रीय सरोकारों और मानवीय आदर्शों का अनुकरणीय समन्वय था. उनके जीवन में राष्ट्रीय स्वतंत्रता, लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण और समाजवादी विश्व-संस्कृति की त्रिवेणी का संगम था. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की राजनीति में राष्ट्रीयता और समाजवाद के बीच एक सकारात्मक संतुलन स्थापित किया. वह बुद्धविचार की आत्मचेतना और सार्वभौमिकता, मार्क्स की वर्ग-चेतना और क्रांतिकार्रिता और गांधी की सत्याग्रह के जरिये मानवहित साधना के प्रति आकर्षित थे और इन तीन की शिक्षाओं के अनुकरण को भारत के नवोत्थान और मानवता के नव-निर्माण के लिए जरुरी मानते थे.

उनकी दृष्टि में भारतीय समाज की अवरुद्ध जीवन-शक्ति मुक्ति पाकर वेगवती होने को प्रस्तुत है. हमें स्वतंत्रता, समता और मानवता के अधर पर नवनिर्माण के सपने को साकार करने का सुयोग प्रस्तुत है. लेकिन पुरानी परम्पराओं और रीति-नीति से हम आजकी समस्याओं को हल नहीं कर सकते. अब एक ऐसी जीवनदृष्टि की आवश्यकता है जो हमें अज्ञान, मोह, भय, कुसंस्कार और दूसरों पर निर्भरता से मुक्त कर सके. जन-साधारण में आत्मबल और आत्मसम्मान के बोध का संचार कर सके. संक्षेप में, स्वराज के आगे के दौर के देश-समाज में मानवता, समानता और स्वतंत्रता पर आधारित एक सबल संस्कृति की रचना उनका सपना था.

वह जीवन में शुभ और सभ्यता के उपासक थे. उनकी मान्यता थी कि शुभ और अशुभ जीवन का ताना-बाना है जिसके जरिए इतिहास-कार्य सम्पन्न होता है. शुभ और अशुभ के बीच संघर्ष चलता रहता है और मानव के आत्म-विकास में यह संघर्ष सहायक होता है. निरंतर संघर्ष करके ही मानव पाशविक जीवन से ऊपर उठा है और उसने नवीन मानवीय मूल्यों की सृष्टि की है. इस संघर्ष में शुभ की विजय संस्कृति और शालीनता की विजय है. यह खेद की बात है कि विपुल साधनों के होते हुए भी समाज में दारिद्र्य, विषमता, अन्यायों और जुल्म का अंत नहीं होता. पूंजीवादी ताकतें समाज के कल्याण की उपेक्षा करते हुए साधनों पर अपने लाभ के लिए प्रभुत्व कायम रखना चाहती हैं. दूसरी तरफ, शोषित किसान और मजदूर शिक्षा और साधनों की कमी और कमजोर संगठन के कारण इस अन्याय को रोकने में अपने को असमर्थ पाते हैं. वर्ग-संघर्ष के द्वारा इनका शिक्षण और संगठन होता है. यही इनकी पाठशाला है. उनका निष्कर्ष था कि शुभ कर्म के लिए अदम्य उत्साह का होना और जुल्म, अन्याय और दारिद्र्य के विरुद्ध अनवरत युद्ध करना एक विकसित व्यक्तित्व का कार्य है.

आचार्य नरेन्द्रदेव के लिए समाजवाद ही पूर्ण जनतंत्र है और समाजवाद का मूलाधार मानवता ही हो सकती है. उन्होंने भारतीय संस्कृति में प्रतिपादित ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के आदर्श को समाजवाद के विमर्श में प्रासंगिक माना: अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम. उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम (अर्थात यह मेरा है, यह पराया है, यह विचार लघु चित्त के लोगों का होता है किन्तु जो उदारचरित हैं वे सकल जगत को कुटूम्बवत मानते हैं.). यह भी याद दिलाया है कि इतिहास बताता है कि मानव का विकास इसी दिशा में हो रहा है. कबीले, बिरादरी, जाति और धर्म और राष्ट्र के स्तरों से गुज़रकर अंतर्राष्ट्रीय समाज के युग में हम प्रवेश कर रहे हैं. उनका सुझाव था कि समाजवाद के उच्च आदर्शों के जरिये प्रचलित समाज व्यवस्था का इस प्रकार पुनर्गठन किया जाए कि वह सहयोग के आधार पर संगठित स्त्री-पुरुषों का ऐसा समूह बन जाए जिसमें एक सदस्य की उन्नति का अर्थ स्वभावतः दूसरे सदस्य की नन्ति हो और सभी मिलकर सामूहिक रूप से परस्पर उन्नति करते हुए समता और बंधुत्व से परिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें. परस्पर-विरोधी स्वार्थों वाले शोषक और शोषित, उत्पीड़क और उत्पीडित वर्गों का अंत हो जाए. इसके लिए उत्पादन, विनिमय और वितरण पर पूंजी के स्वामियों के नियंत्रण से पैदा असमानताओं और विसंगतियों को दूर करना होगा. आर्थिक प्रक्रियाओं पर समाज का ही अधिकार होने से राज्यसत्ता की भी शासक वर्ग द्वारा शेष समाज के दमन के अस्त्र के रूप में भूमिका समाप्त हो जाएगी.

आचार्य नरेन्द्रदेव स्वप्नजीवी सिद्धांतकार नहीं थे. इसलिए उन्होंने माना कि यह कार्य अति दुष्कर है. वैसे भी प्राय: सामान्यजन किसी महान परिवर्तन से घबराते हैं. इसलिए दनिया में वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श को अपनाने के लिए उन्होंने नवनिर्माण उन्मुख शिक्षा, संगठन और ज्ञान-विज्ञान के सदुपयोग पर बल दिया. उनके शब्दों में, “इस नए समाज का उपक्रम करने वाले विद्याचरण संपन्न होंगे, उनमें कुशलोत्साह् होगा, मानवमात्र के प्रति उनका स्नेह होगा. वह प्रत्येक मानव के व्यक्तित्व के लिए आदर भाव रखेंगे. भवभूति के इस वाक्य को वह सार्थक करेंगे –

‘गुणा पूजास्थानाम गुणिषु न च लिंगम न च वय: .’

उनका प्रयत्न होगा कि प्रत्येक मनुष्य को आत्मविकास का पूरा अवसर मिले. समाज से शोषण का तथा युद्ध का अंत हो.’.

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आचार्य नरेन्द्रदेव का आवाहन था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए जीवन के अर्थ, उद्देश्य और महत्व को अवश्य जानना चाहिए. उसे पारंपरिक मूल्यों को बिना विवेचन किए नहीं स्वीकार करना चाहिए क्योकि हमारा जीवन सदा परिवर्तनशील है और परिवर्तनों से प्रभावित होता रहता है. यदि हम चाहते हैं कि जीवन सुखकर हो और कष्ट व् पीड़ा कम हो तो हमें अपने समय की चुनौती का सामना करने के लिए सामाजिक मूल्यों को नया मापदंड देना होगा. हमें स्वयं जीवन में अपने लिए स्थान बनाना होगा और अपने प्रिय कार्य को ढूँढना होगा. यदि हम ऐसा समाज चाहते हैं जो न्याय-आधारित और मानवीयता से ओत-प्रोत हो तो हमें स्वार्थ से ऊपर उठकर होड़ और अलगाव का त्याग करना होगा. वर्तमान सामजिक व्यवस्था ने मनुष्य को एक विशेष दिशा में मोड़कर शक्तिहीन और व्यक्तित्वहीन बना दिया है. इसके द्वारा उसके मन में सामाजिक समस्याओं के प्रति निराशा, उदासीनता और उपेक्षा की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है. हम निस्सहायता की अवस्था में पुराने धर्मों में ही सांत्वना ढूँढ़ते हैं. जबकि वह वर्तमान परिवेश में अपना महत्व खो चुके हैं. भूतकाल में मुंह छिपाने और निराशावाद और कुटिलता से जीवन ऊपर नहीं उठेगा. इसके लिए वैज्ञानिक ढंग से सामाजिक विश्लेषण को महत्व देना होगा.

वह मनीषी और तपस्वी दोनों ही थे. उन्होंने एक निष्काम कर्मयोगी की तरह देश की स्वराज यात्रा में स्वयं कष्ट सहते हुए सत्याग्रही, जननेता, विचारक और शिक्षक के रूप में बहुआयामी योगदान किया और अनगिनत स्त्री-पुरुषों को शिक्षित-प्रशिक्षित करके राष्ट्रीयता और समाजवाद की रचना के ऐतिहासिक कार्य से जोड़ा. उनके शिक्षा-सहयोगियों में आचार्य कृपालानी, डा. संपूर्णानंद, श्री श्रीप्रकाश, मुंशी प्रेमचंद, आचार्य बीरबल सिंह, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, प्रो. डी. पी. मुखर्जी और प्रो. राजाराम शास्त्री शामिल थे. इनमें से कई मनीषियों ने मिलकर ‘नव-संस्कृति संघ’ की स्थापना की थी. उनके शिष्यों में अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद से लेकर लाल बहादुर शास्त्री (प्रधान मंत्री), भोला पासवान शास्त्री (कई बार बिहार के मुख्यमंत्री ) और रामकृष्ण हेगड़े (मुख्यमंत्री, कर्नाटक) तक की एक शानदार श्रृंखला थी. इन सबने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे मंचों का नेत्तृत्व किया. जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, राहुल सांस्कृत्यायन, कमला देवी चट्टोपाध्याय, अरुणा आसफ अली, युसूफ मेहर अली, फरीदुल हक अंसारी से लेकर राजनारायण, श्रीधर महादेव जोशी, नारायण गणेश गोरे, मधु लिमये, बी. पी. कोइराला, चंद्रशेखर और रामधन उनके उल्लेखनीय अनुयायियों में थे. सभी ने आचार्य जी के मार्गदर्शन में किसानों और श्रमिकों में राजनीतिक चेतना का संचार और जन-संगठनों का निर्माण किया.

‘राष्ट्रीयता और समाजवाद’ और ‘बौद्ध धर्म दर्शन’ उनकी कालजयी रचनाएं हैं. उन्होंने ‘भारत छोडो आन्दोलन’ में गिरफ्तारी के दौरान बौद्ध दर्शन के महान ग्रन्थ ‘अभिधर्मकोश’ का फेंच से हिंदी में अनुवाद भी किया. उनके विपुल लेखन और भाषणों को कई खण्डों में जन्मशताब्दी के दौरान हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया है. उनके व्यक्तित्व और विचार को प्रो. मुकुटबिहारी लाल, श्री सत्यप्रकाश मित्तल और प्रो. ओमप्रकाश सिंह ने आकर्षक किताबों के जरिए प्रस्तुत किया है. इधर २०२३ में भी आचार्य नरेन्द्रदेव के विचारों पर आधारित हिंदी कवि राजेन्द्र राजन द्वारा संपादित एक महत्वपूर्ण संचयिता सेतु प्रकाशन के सौजन्य से सामने आई है. स्वाधीनता, लोकतंत्र और समाजवाद के लिए जागरण, संगठन और आन्दोलन उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न थे. इसीके समांतर उन्होंने धर्म दर्शन, समाज, संस्कृति, साहित्य और शिक्षा के बारे में चिन्तन और लेखन किया. वह मानव सभ्यता की विकास यात्रा और भारतीय समाज और संस्कृति की बनावट के अनूठे व्याख्याकार थे. क्योंकि उनके विश्लेषण में दार्शनिक की व्यापकता, इतिहासकार की गहराई, समाजशास्त्री की स्पष्टता और राजनीतिशास्त्री की तात्कालिकता का आकर्षक संतुलन था. इसीलिए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के अवसर पर दिया गया अध्यक्षीय भाषण (पटना), अखिल भारतीय किसान सभा के शुभारम्भ के मौके पर दिया गया उद्घाटन भाषण (गया) और समाजवादी प्रशिक्षण शिविर की व्याख्यानमाला (लखनऊ) समाजवाद की समझ के बारे में उनकी वैचारिक विरासत का स्थायी पक्ष हैं. मानव के जीवन के मुख्य प्रश्नों के बारे में बुद्ध की शिक्षा, मार्क्सवादी धारा की वैचारिकी और गांधी के बनाये मार्ग के बारे में उनके विश्लेषण से १९३० से १९५० के बीच की समूची पीढियां प्रभावित हुईं. उन्होंने सरोकारी और सक्रिय व्यक्तियों के लिए अनेकों लेखों के जरिए स्वतंत्रता के संघर्ष और स्वाधिनोत्तर नव-निर्माण में किसानों, श्रमिकों, विद्यार्थियों, साहित्यकारों और शिक्षित वर्ग के योगदान और महत्व को हर कोण से स्पष्ट किया. वह स्वाधीनता के बाद राष्ट्रीय एकता के निर्माण में शिक्षा, भाषा, धर्म, आर्थिकी और राजनीति की बदलती भूमिका के प्रश्नों पर बार-बार लौटे.

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आज भारत लोकतंत्र को प्राणवान बनाए रखने के लिए चिंताग्रस्त है. राजनीति सत्ता की सौदागरी बनती जा रही है. दलों में विचार-शून्यता और व्यक्ति पूजा का रोग फ़ैल चुका है. जातिवाद और साम्प्रदायिकता वोट जुटाने के स्वीकार्य सूत्र हो चुके हैं. पूंजीवाद का विश्व-विस्तार विकल्पहीन माना जाने लगा है. संकीर्ण राष्ट्रवाद और युद्ध की वापसी स्पष्ट है. लोकतंत्र रचना चुनाव तक सिमट रही है. दूसरी तरफ समाज में स्वतंत्रता और न्याय की भूख बढ़ी है. स्त्री-समाज, वंचित समुदाय और सरोकारी नागरिकों की आवाज़ की अनसुनी करना असंभव होता जा रहा है. पूरी दुनिया दरिद्रता, बेरोजगारी, निरक्षरता, सामाजिक हिंसा और पर्यावरण विनाश के खिलाफ एकजुट हो रही है. ऐसे ही परिवेश में आचार्य नारेद्र्देव जैसे युगांतरकारी मार्गदर्शकों की बताई राह को फिर से याद करने से आशा बनती है. आइये आचार्य नरेन्द्रदेव की विरासत की नयी प्रासंगिकता को जाने, जांचे और अपनाएँ.

आचार्य नरेन्द्रदेव अमर रहें.

समाजवाद ज़िंदाबाद..

जय हिन्द, जय जगत.

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