— अरुण कुमार त्रिपाठी —
होली और रमज़ान के मौके पर सरकारों और नफ़रती सांप्रदायिक संगठनों ने देश भर में तनाव पैदा करने की भरपूर कोशिश की। कई स्थानों पर उन्होंने अपने उजबकपन का प्रदर्शन भी किया। लेकिन समाज ने अपनी सैकड़ों साल पुरानी परंपराओं को जिंदा रखते हुए स्थिति को संभाल लिया। संभालने की इस कोशिश में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों का योगदान है। लेकिन स्थिति संभालने से हिंसा तो रुक जाती है और कुछ समय के लिए सांप्रदायिकता की विचारधारा भी कमजोर पड़ जाती है। पर इतने से वह शांत नहीं होती। क्योंकि जब सांप्रदायिकता के बीज राज्य की ओर से ही बोए जाएं तो उसे और कौन रोकेगा। सांप्रदायिकता की विचारधारा सदैव हिंसा के रूप में प्रकट हो यह जरूरी नहीं लेकिन जब जब सांप्रदायिक हिंसा होगी तो उसके पीछे वह विचारधारा विद्यमान रहेगी। इसलिए जो लोग त्योहार और उत्सव के मौके पर होने वाले तनाव को महज कानून और व्यवस्था की समस्या मानते हैं वे या तो बहुत भोले हैं या फिर साजिशकर्ता। राजनीति करने वाले भोले तो हो नहीं सकते। भोलापन अब समाज में भी कम बचा है। इसलिए एक ओर जानबूझकर चीजों को उलझाने का प्रयास है तो दूसरी ओर साजिश दर साजिश से ऐसी स्थिति उत्पन्न करनी है कि बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र पर स्थायी तौर पर कब्जा जमा ले।
सांप्रदायिक तनाव के पीछे एक ऐसी विचारधारा का योगदान है जिसने इतिहास को निरंतर एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। पहले वह उससे हिंदू समाज के उत्पीड़ित होने का अर्थ निकालता है और उसके बाद अपने समुदाय की श्रेष्ठता का बोध निकालता है। उसके बाद शुरू होती है इतिहास से बदला लेने की राजनीति। वह राजनीति महज प्रतीकों और आख्यानों तक नहीं रुकती बल्कि अपने समाज के भीतर ही शत्रु निर्माण और उसके खात्मे या उसके कमतर बनाने की रणनीति का आविष्कार करती है। वैसे तो यह प्रक्रिया वैश्विक है लेकिन भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को इसका विशेष तौर पर श्रेय दिया जाता है। 1931 में कानपुर में भयानक दंगा हुआ था जिसमें पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी ने भगवान दास की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी। उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में न सिर्फ इतिहास में सांप्रदायिकता फैलाने के लिए की जाने वाली साम्राज्यवादी साजिश का विस्तार से वर्णन किया था बल्कि ऐसे कई उपाय भी बताए थे जिनके माध्यम से इस विभाजन को रोका जा सकता है। लेकिन कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं थी और अंग्रेजों के शासन में रहते हुए वह उन उपायों को लागू नहीं कर सकती थी। उन उपायों को लागू न करना विभाजन की एक वजह बना।
लेकिन दिक्कत यह हुई कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में आने के बाद भी उन उपायों को लागू करने और अंग्रेजों के तरीकों को पलटने की जरूरत नहीं समझी। भले ही भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनी पार्टी और सरकार को सांप्रदायिक समस्या की गंभीरता के प्रति सचेत करते रहे लेकिन कांग्रेस के लोग सचेत हुए नहीं। अगर सचेत हुए होते तो कांग्रेसी विधायक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विश्व हिंदू परिषद के सम्मेलन में यह नहीं कहता कि अयोध्या में राममंदिर का मुद्दा उठाया जाना चाहिए और न ही राजीव गांधी 1989 का चुनाव प्रचार अयोध्या से शुरू करते। न ही आज राहुल गांधी को न कहना पड़ता कि कांग्रेस में भाजपा के स्लीपर सेल भरे पड़े हैं। उल्टे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक संगठन इस बारे में निरंतर सचेत होते रहे कि अंग्रेजों ने किस प्रकार भारत को विभाजित करते हुए उस पर शासन किया।
अगर अंग्रेजों ने हिंदू और मुस्लिम त्योहारों के मौके पर दोनों समुदायों को लड़ाने और फिर पंचायत करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे तो आज की सरकारें भी पहले यह प्रचार करती हैं कि हिंदू और मुस्लिम एक दूसरे के रक्त के प्यासे हैं और अगर त्योहार पर उनकी प्रार्थना सभाएं या धार्मिक जुलूस एक दूसरे के आमने सामने हो गए तो हिंसा होगी। इसलिए जरूरी है कि मस्जिदों को परदे से ढक दिया जाए। यह एक बेहद फूहड़ किस्म के राजनीतिक सोच का प्रदर्शन था जो कहीं कुछ अफसरों के बयानों तो कहीं शासनाध्यक्षों के मुंह से प्रकट हो रहा था। यह बात ध्यान देने की है कि हमारी संविधान सभा में जब प्रस्तावना में ‘फ्रैटर्निटी’ या बंधुत्व शब्द शामिल किया जा रहा था तो बहुत सारे सदस्यों को इस बात पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि यह शब्द संविधान के उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव में दिया नहीं गया था। इसलिए अगर इसे शामिल किया गया तो यह संविधान की मूल भावना का उल्लंघन होगा। लेकिन बाद में डॉ आंबेडकर के प्रयासों से इसे शामिल किया गया।
लेकिन एच.एम सीरवई जैसे संविधान के कई विद्वानों का मत है कि बंधुत्व या भाईचारा संवैधानिक प्रावधानों में शामिल करने से कोई मकसद हल नहीं होगा। यह काम तो कार्यपालिका के हाथों में छोड़ दिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के आरंभिक फैसलों में तो उद्देशिका को संविधान का हिस्सा भी मानने से इंकार कर दिया गया। बाद में रुख बदला और बंधुत्व शब्द का महत्त्व न्यायालय के कई निर्णयों में अहम बनकर उभरा। लेकिन यह जानना रोचक है कि धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय विभाजन के पार जाकर बंधुत्व को बढ़ाना देने को नागरिकों के कर्तव्य के तौर पर आपातकाल के दौरान यानी 1976 को संविधान के अनुच्छेद 51(ए)(ई) में संविधान संशोधन के माध्यम से शामिल किया गया। लेकिन बंधुत्व का यह भाव कितना आवश्यक है और इसके लिए क्या क्या उपाय किए जाने चाहिए इस बारे में न तो राज्य की ओर से कार्यक्रम चलाए जाते हैं और न ही राजनीतिक दलों की ओर से। उल्टे संभल जैसे शहरों के पहलवान पुलिस अधिकारी हैं जो अपने बयानों से दुर्भावना पैदा करने से बाज नहीं आते।
हालांकि डॉ आंबेडकर तो फ्रैटर्निटी शब्द को भी अपर्याप्त मानते थे और कहते थे कि इस ईसाई शास्त्रों और धार्मिक यात्राओं से निकला यह शब्द भारत की बौद्ध् परंपरा के मैत्री के दर्शन से बहुत हल्का है। इसलिए वे बाद में मैत्री पर ही जोर देने लगे थे। मैत्री को पालि में मेत्ता कहते हैं। विभाजन के समय तैयार किए गए संविधान में उन्हें उस शब्द को शामिल करना बहुत जरूरी लगा था और बाद में वे उसे लागू होते देखना चाहते थे। क्योंकि उनका मानना था कि समता और स्वतंत्रता ऐसे मूल्य हैं जो बंधुत्व के अभाव में एक दूसरे को खारिज कर देंगे। लेकिन जब उन्होंने अपने समाज में कोई विशेष परिवर्तन नहीं देखा और जातिगत और सांप्रदायिक विभाजन में कमी नहीं देखी तो बहुत दुखी हुए और 1953 में तो संविधान को जलाने तक की बात कर डाली
राजनीतिक दलों के दो वर्ग इस देश में निर्मित हो चुके हैं। एक वे जो निरंतर धार्मिक ध्रुवीकरण करने में लगे रहते हैं और चुनाव जीतने में इस प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हैं। दूसरे वे हैं जो इस ध्रुवीकरण से भयभीत समाज का वोट हासिल करने की ताक में बैठे रहते हैं। वे कभी कभार अपने बयानों से इसका विरोध करते हैं लेकिन मोर्च पर डटकर सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं करते। उनके पास ऐसा कोई सकारात्मक कार्यक्रम नहीं है कि वे इस विषैली विचारधारा की जगह पर सकारात्मक विचार का विकास कर सकें। राज्य और राजनीतिक व्यवस्था की ओर से चल रही इस साजिश में आर्थिक शक्तियों के केंद्र भी शामिल हैं। वे चाहते हैं कि यह ध्रुवीकरण बना रहे और वे संसाधनों को लूटते रहें।
लेकिन समाज ऐसा नहीं है। उसके पास रसखान और नजीर अकबराबादी जैसे कृष्ण भक्तों और मुस्लिम कवियों की लंबी परंपरा है। उसके पास देवा शरीफ और निजामुद्दीन के दरगाह पर होली खेलने की लंबी विरासत है जहां आज भी हिंदू और मुस्लिम नहीं बंटे हैं। भारतीय समाज में प्रेम और अहिंसा समाप्त हो गई है ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन नफ़रत फैलाने वाले बढ़े हैं और परिणामस्वरूप नफ़रत भी बढ़ी है यह तो सच्चाई है। बल्कि वे लोग सत्ता में पहुंचे हैं यह ज्यादा बड़ी सच्चाई है।
प्रेम और अहिंसा महज अपनी उपस्थिति से नफ़रत का तब तक मुकाबला नहीं कर सकते जब तक वे अभय न हों। गांधी का सत्य और अहिंसा का दर्शन इसलिए काम कर गया कि उन्होंने लोगों को अभय बनाया था और वे स्वयं अभय थे। लेकिन जब समाज भयभीत और अविश्वासी बना तो गांधी की अहिंसा विफल हो गई। आइए त्योहारों को प्रेम और अहिंसा की नज़र से देखें। तनाव का सोच और तनाव फैलाने वाले हारते दिखेंगे।