विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ

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Parichay Das

— परिचय दास —

ज्ञानपीठ सम्मान की घोषणा के बाद विनोद कुमार शुक्ल पर कुछ लोगों द्वारा यह बात उठायी गयी कि वे आदिवासी मुद्दों पर ध्यान नहीं देते, जब कि आदिवासियों के पड़ोस में रहते हैं। कुछ ने उनके लेखन के सामाजिक सरोकारों को लेकर प्रश्न उठाए। क्या वे नक्सल आंदोलन या आदिवासी मुद्दों पर लिखते हैं? विनोद कुमार शुक्ल का लेखन मुख्यतः व्यक्तिगत अनुभवों, मानवीय संबंधों, साधारण जीवन के सौंदर्य और अस्तित्ववादी चिंतन पर केंद्रित रहा है।

वे छत्तीसगढ़ से आते हैं, जहाँ नक्सलवाद और आदिवासी संघर्ष बड़े मुद्दे हैं लेकिन उनका साहित्य इन विषयों पर प्रत्यक्ष राजनीतिक या आंदोलनकारी रुख नहीं लेता। उनकी कहानियों और उपन्यासों में ग़रीब, हाशिए के लोग, किसान, निम्न-मध्यमवर्गीय लोग आते हैं लेकिन वे किसी विचारधारा या आंदोलन का झंडा नहीं उठाते।

कुछ लोग मानते हैं कि एक लेखक के रूप में उन्हें अपने आसपास के सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर अधिक मुखर होना चाहिए था, विशेष रूप से आदिवासी शोषण और नक्सलवाद जैसे विषयों पर। कुछ आलोचकों का कहना है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य से आने के बावजूद वे आदिवासी संघर्षों को अपने साहित्य में केंद्र में नहीं रखते।

किन्तु उनकी साहित्यिक दृष्टि अधिक व्यक्तिगत, दार्शनिक और कल्पनाशील रही है जो सामाजिक-राजनीतिक हस्तक्षेप से बचती है।

क्या उन्हें ‘अ-राजनीतिक’ लेखक माना जाता है?

विनोद कुमार शुक्ल को हिंदी साहित्य में एक अराजनीतिक लेखक के रूप में देखा जाता है, जिनका झुकाव किसी वामपंथी या दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर नहीं रहा। उनकी रचनाएँ किसी भी प्रकार की क्रांतिकारी चेतना या प्रतिरोधी विमर्श को सीधे नहीं अपनातीं। वे किसी आंदोलन या नक्सल विचारधारा का समर्थन नहीं करते, लेकिन वे इसका विरोध भी नहीं करते।

क्या यह आलोचना उचित है? यह बहस हमेशा रही है कि क्या हर लेखक को सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों पर लिखना चाहिए?

कुछ लेखक सीधे सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखते हैं (जैसे महाश्वेता देवी, संजीव, नरेश सक्सेना), तो कुछ लेखक मानवीय अस्तित्व और संवेदना पर ध्यान केंद्रित करते हैं (जैसे निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल)।

विनोद कुमार शुक्ल व्यक्तिगत अनुभवों, छोटे शहरों और आम जीवन की सौंदर्यता पर अधिक ध्यान देते हैं, जिससे वे सामाजिक आंदोलनकारियों की अपेक्षा के केंद्र में नहीं आते।

उन पर यह सीधा आरोप नहीं है कि वे नक्सल या आदिवासी मुद्दों की उपेक्षा करते हैं, लेकिन उनकी साहित्यिक दिशा को लेकर यह सवाल जरूर उठता है कि क्या वे अपने समय के बड़े संघर्षों पर अधिक लिख सकते थे? या क्या उनका लेखन अपनी मौलिक संवेदनशीलता में ही पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है? क्या उनका लेखन सामाजिक सरोकारों से पूरी तरह कटा हुआ है?

यह कहना गलत होगा कि विनोद कुमार शुक्ल का लेखन सामाजिक मुद्दों से पूरी तरह कटा हुआ है। उनके उपन्यास “नौकर की कमीज”, “दीवार में एक खिड़की रहती थी”, और “हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौने बाज़ारों के असफल विज्ञापन” में निम्न-मध्यमवर्गीय जीवन, बेरोज़गारी, संघर्ष, और व्यवस्था की उदासीनता झलकती है।

उनका लेखन ‘क्रांति’ या ‘प्रतिरोध’ का नारा भले न दे, लेकिन वह शोषण, हाशिए के जीवन, और गरीबी के सौंदर्यबोध को सामने लाने का काम करता है।

क्या आदिवासी या नक्सली विमर्श के बिना साहित्य कमजोर होता है? यह विचारधारा पर निर्भर करता है। हिंदी साहित्य में दो धाराएँ स्पष्ट रूप से दिखती हैं:

एक धारा यह मानती है कि साहित्य को प्रतिरोध का माध्यम होना चाहिए, जिसमें लेखक राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर सक्रियता से लिखें (जैसे महाश्वेता देवी, संजीव आदि )।

दूसरी धारा यह मानती है कि साहित्य का कार्य केवल विचारधारा तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि मनुष्य के अनुभवों, भावनाओं, और अस्तित्व की गहराई को व्यक्त करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है (जैसे निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल)।

विनोद कुमार शुक्ल दूसरे प्रकार के लेखक हैं। वे नक्सलवाद, आदिवासी शोषण या किसी भी राजनीतिक आंदोलन पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं लिखते, लेकिन उनके लेखन में हाशिए के लोगों का जीवन, उनकी छोटी-छोटी इच्छाएँ, उनकी दुनिया का सूक्ष्म चित्रण होता है।

क्या उन्हें ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ का लेखक माना जाता है? उनके लेखन की भाषा सरल होते हुए भी अलंकृत और दार्शनिक होती है जो साधारण पाठक के लिए कठिन लग सकती है।

वे सीधे तौर पर सामाजिक आंदोलनों से जुड़े नहीं हैं, इसलिए उन्हें ‘बुद्धिजीवी’ या ‘अंतरंगता के लेखक’ के रूप में देखा जाता है, जो समाज की गहराई को समझते तो हैं, लेकिन उसका प्रत्यक्ष राजनीतिक बयान नहीं देते। इसलिए वे महाश्वेता देवी जैसे लेखक नहीं हैं जो आदिवासी संघर्षों या सामाजिक आंदोलनों को केंद्र में रखते हैं।

नक्सलवाद और आदिवासी प्रश्नों पर उनकी स्थिति क्या है ?

उन्होंने कभी इन मुद्दों पर खुलकर कोई राजनीतिक या साहित्यिक स्टैंड नहीं लिया। यह कहना मुश्किल है कि वे इन विषयों पर लिखना चाहते थे लेकिन लिख नहीं पाए या फिर वे सचमुच इस दिशा में रुचि नहीं रखते थे। उनके लेखन की प्राथमिकता सामाजिक आंदोलन नहीं बल्कि व्यक्ति की आंतरिक दुनिया और उसकी सरलता में छिपे जटिल सौंदर्य को पकड़ना है।

विनोद कुमार शुक्ल पर यह सीधा आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने नक्सल या आदिवासी मुद्दों को ‘अनदेखा’ किया, क्योंकि हर लेखक का अपना दृष्टिकोण और प्राथमिकता होती है लेकिन यह सवाल उठ सकता है कि क्या छत्तीसगढ़ के परिवेश में रहते हुए वे इन संघर्षों को अपने लेखन में अधिक स्थान दे सकते थे?

उनके साहित्य की अपनी अलग जगह है जो समाज की हलचल से उतनी प्रभावित नहीं दिखती लेकिन वह व्यक्तिगत जीवन की गहराइयों और अस्तित्व की सूक्ष्मताओं को उजागर करने में अद्वितीय है।

साहित्य से क्या अपेक्षा रखते हैं ?

यदि हमें लगता है कि साहित्य का कार्य सिर्फ सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना है तो विनोद कुमार शुक्ल का लेखन इस दृष्टिकोण से अलग दिख सकता है लेकिन अगर साहित्य को व्यक्ति की गहरी संवेदनाओं, जीवन की लय और सौंदर्य की खोज के रूप में देखें तो वे हिंदी के खास लेखकों में गिने जाएंगे।

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