— डा० रामविलास शर्मा —
नाथूराम शंकर शर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, गयाप्रसाद शुक्ल , इन तीन कवियों ने आधुनिक पद्य-भाषा को संवारा है। मैथिलीशरण गुप्त को द्विवेदी युग का प्रतिनिधि कवि मान कर आलोचक शंकर और सनेही के योगदान को अक्सर भूल जाते हैं। द्विवेदी युग के काव्य को इतिवृत्तात्मक कहने से हिन्दी-कविता के विकास की व्याख्या नहीं की जा सकती। विकास को प्रारम्भिक मंजिल में शंकर- सनेही-मैथिलीशरण का वही महत्व है, जो अगले चरण में पंत-प्रसाद-निराला का है।
कवि शंकर भारतेन्दु-युग की छाया में अपना साहित्यिक जीवन आरम्भ करते हैं, द्विवेदी-युग में उनका विकास होता है, छायावाद के अभ्युदयकाल काल में वे निराला के वरिष्ठ सहयोगी के रूप में दिखायी देते हैं। आर्यसमाज के प्रसार के साथ जिस तार्किक विवेकशीलता ने बुद्धिजीवियों को प्रभावित किया, उसके वे प्रतिनिधि कवि हैं। सामाजिक रूड़ियों के विरोध के साथ नवीन देश-भक्ति की भावना उनके काव्य में प्रतिविम्बित हुई है। व्यंग्य के अस्त्र का उपयोग उन्होंने बड़े कारगर ढंग से किया है। नागरिक परिष्कार की चिन्ता न करके वे अपनी रचनाओं को लोक-संस्कृति के बहुत नजदीक रखते हैं। वे ब्रज जनपद में उस क्षेत्र के कवि है, जिससे खड़ीबोली की लोक कविता चारों दिशाओं में फैली थी।
शंकर-सनेही-मैथिलीशरण ने खड़ी बोली को काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण उसका कार्य है कि उन्होंने हिन्दी कविता को रीतिवाद के दायरे से बाहर निकाला। जहाँ तहाँ संग पर रीतिवादी प्रभाव देखा जा सकता है पर उनके काव्य की मूल दिशा रीतिविरोधी है। छायावाद से उनके आन्तरिक सम्बन्ध का यही कारण है। तत्लाम शब्दावली से अलंकृत, माणिक शैली में अपनी पहचान करानेवाली कविता एकमात्र छायावादी कविता नहीं है। निराला की पंक्ति ‘जब कड़ी मारें पड़ी बिल हिल गया’ सीधे शंकर-सनेही टकसाल से निकली हुई पंक्ति है। कविता की भाषा और विषयवस्तु की यवार्य संसार से जोड़कर कवि शंकर ने हिन्दी साहित्य के विकास का मार्ग प्रशस्त किया- ऐतिहासिक महत्व का यह कार्य अविस्मरणीय है।
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