— परिचय दास —
भारतीय कला का इतिहास जब अपनी अस्मिता की ओर लौटने का प्रयास करता है तो एक नाम अदृश्य धड़कन की तरह उसमें स्पंदित होता है—नंदलाल बोस। एक चित्रकार लेकिन केवल चित्रकार नहीं। वे एक सांस्कृतिक दृष्टा थे, एक वैचारिक काव्य के प्रणेता थे, जिन्होंने रेखाओं और रंगों में वह संवेदना भर दी जिसे भारतवर्ष ने सदियों से अपने गवाक्षों में बंद कर रखा था। उनके चित्रों में केवल दृश्य नहीं, दृश्य के भीतर छिपा आत्मा का आलोक होता है।
नंदलाल बोस की कला को समझना केवल चित्रों को देखना नहीं है, वह एक यात्रा है—भारतीय आत्मा की ओर, स्मृति की ओर, मौन में गूंजते उस स्वदेश की ओर जहाँ कला जीवन का पर्याय बन जाती है। उनकी रचना में बिंब नहीं, प्रतिबिंब हैं—संस्कृति के, स्वप्न के, संघर्ष के और आध्यात्मिक जिजीविषा के। उन्होंने कला को परंपरा और आधुनिकता के बीच का वह पुल बना दिया, जिससे होकर भारत अपने अतीत को भविष्य की ओर ले जा सके।
उनका ब्रश जब काग़ज़ पर चलता था तो वह केवल दृश्य नहीं बनाता था—वह ध्वनि भी रचता था, रस भी रचता था और कभी-कभी वह शून्य की भी रचना करता था। उस शून्य की जिसमें एक गूढ़ तटस्थता है, एक आत्मिक मौन है, जैसे किसी मंदिर के गर्भगृह में रखा दीपक बिना हवा के भी जलता रहता हो। नंदलाल के चित्रों में यह लौ है—धीमी लेकिन कभी बुझने वाली नहीं।
शांति निकेतन की मिट्टी ने जैसे उनके हाथों को दिशा दी। रवींद्रनाथ ठाकुर की आत्मा उनकी रेखाओं में गूंथ गई लेकिन नंदलाल किसी के शिष्य मात्र नहीं रहे, उन्होंने स्वयं अपनी भाषा गढ़ी, अपनी चित्रात्मक वाणी खोजी। अजंता की गुफाओं में बसी भारतीयता को उन्होंने आधुनिक संवेदना से जोड़ा। उनके लिए कला कोई सौंदर्य की साधारण चेष्टा नहीं थी—वह आत्मा का अनावरण था।
नंदलाल बोस की चित्र- रेखाएँ स्त्री को केवल रूप में नहीं, ऊर्जा में चित्रित करती हैं। नारी उनकी दृष्टि में सौंदर्य का नहीं, शक्ति का पर्याय है। उनकी दुर्गा एक देवी नहीं, एक देश है और शायद इसी कारण उन्होंने गांधी जी के ‘भारत माता’ के विचार को ब्रश से जीवित कर दिया।
कुमार गन्धर्व का गायन, वह स्वतंत्रता संग्राम का एक मौन लेकिन तीव्र घोष बन गया। उसमें न कोई रंग था, न कोई शोर। केवल रेखा थी—लेकिन वह रेखा जैसे पूरे देश की रीढ़ बन गई। उन्होंने दिखाया कि कला केवल दीवार पर टंगी वस्तु नहीं, वह देश की चेतना का दस्तावेज भी हो सकती है।
नंदलाल बोस के चित्रों में जो मौन है, वह शब्द से अधिक मुखर है। वह मौन भारत का मौन है, वह स्त्री का मौन है, वह गांव का मौन है, वह नदी, पहाड़, मिट्टी का मौन है जो बोलता नहीं लेकिन सब कुछ कह देता है। उनकी कला में लोक भी है और ब्रह्म भी। वह बांसुरी भी रचते हैं और तंत्र भी। उनका ‘शिव’ केवल कैलाश का वासी नहीं है—वह मानव का आंतरिक तप है। उनकी ‘सती’ केवल शास्त्र का पात्र नहीं, वह प्रेम की अंतिम सीमा है। नंदलाल के लिए कला किसी विषय की प्रतिनिधि नहीं, वह भावों की पराकाष्ठा है।
यदि कोई पूछे कि भारतीयता रंगों में कैसी दिखती है तो हम नंदलाल के चित्रों की ओर इशारा कर सकते हैं। उनकी कला में वाद नहीं है, संवाद है। वह पश्चिम से आंख नहीं चुराते लेकिन पूर्व की आत्मा से भी मुंह नहीं मोड़ते। वह परंपरा से लज्जित नहीं बल्कि उसमें गर्व महसूस करते हैं। उनके लिए कला वह है, जिसमें एक कालजयी मौलिकता हो।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कलाकारों की भूमिका अकसर गौण मानी गई लेकिन नंदलाल बोस जैसे चित्रकारों ने यह सिद्ध किया कि स्वतंत्रता केवल राजनीति से नहीं आती, वह संस्कृति से भी जन्मती है। उन्होंने स्वतंत्र भारत के संविधान की मूल प्रति को सजाया। उन्होंने उसमें कला के माध्यम से एक संकल्प गूंथा जो शब्दों से भी अधिक स्थायी है।
उनकी कला में वृक्ष भी जीवित प्रतीत होते हैं जैसे उनके भीतर भी प्राचीन ऋषियों की चेतना समाई हो। उनकी रेखाओं में ऐसा संतुलन है जो सहजता से अनायास लगता है लेकिन वह अनायास नहीं, वह एक साधना का परिणाम है। उनके चित्रों में प्रकृति कभी दर्शनीय वस्तु नहीं बनती, वह स्वयं एक पात्र होती है—गांव, नदी, वृक्ष, चूल्हा, स्त्री, तुलसी का चौरा—सभी जैसे किसी शांत संगीत में बंधे हों।
नंदलाल बोस केवल एक चित्रकार नहीं थे, वह एक साधक थे। उनकी साधना में संकल्प भी था और समर्पण भी। उन्होंने चित्र बनाना सीखा नहीं, उन्होंने चित्रों में जीना सीखा। उन्होंने ब्रश को जैसे एक मंत्र बना दिया—हर रेखा एक उच्चारित छंद थी।
उनकी कला में कहीं-कहीं जो रिक्त स्थान हैं, वे दरअसल सबसे भरे हुए हैं। वह रिक्तता जिसे हम पश्चिमी सौंदर्यशास्त्र में ‘नेगेटिव स्पेस’ कहते हैं, नंदलाल के लिए वह आत्मा का स्पंदन है। वह विराम जो शब्दों के बीच होता है। वह मौन जो वाणी की भूमि तैयार करता है।
भारत में कला को बहुत बार केवल अलंकरण समझा गया। लेकिन नंदलाल ने उसे साधना में रूपांतरित किया। उनकी कला में कोई प्रदर्शन नहीं है, वहाँ केवल समर्पण है। जैसे एक साधु अपने भिक्षापात्र में फूल रखकर संसार को देखता हो—नंदलाल उसी निगाह से रंगों को देखते हैं।
उनका जीवन भी एक चित्र था—सरल, सौम्य, आत्मलीन और विराट्। उन्होंने कभी प्रसिद्धि के लिए चित्र नहीं बनाए, न किसी पुरस्कार की लालसा में रेखाएं खींचीं। उन्होंने रेखाओं को जीवन का पर्याय बनाया।
उनके चित्रों को देखना एक गहरी साँस लेने जैसा है—जिसमें अतीत की गंध हो, वर्तमान की आहट हो और भविष्य की संभावना हो।
नंदलाल बोस की कला भारतीय कला-जगत में केवल एक नाम नहीं, एक अनुभव है। वह रंगों से संवाद करना सिखाते हैं, मौन में सुनना सिखाते हैं और सबसे बढ़कर—अपने देश को देखना सिखाते हैं। वे भारत की चित्रात्मक आत्मा हैं, जिन्हें देखकर हम यह कह सकते हैं कि कला जब साधना बन जाती है, तब वह नंदलाल बनती है।
उनकी उपस्थिति भारतीय चित्रकला में वैसी ही है, जैसे किसी पुराने राग में धीरे-धीरे खुलती कोई विलंबित आलाप—जिसे सुनने के लिए धैर्य चाहिए, श्रद्धा चाहिए और सबसे बढ़कर—हृदय चाहिए क्योंकि नंदलाल बोस को केवल आँखों से नहीं देखा जा सकता, उन्हें तो हृदय से महसूस करना होता है। यही है उनकी कला की पराकाष्ठा—जहाँ रेखा भी काव्य हो जाती है, रंग भी स्मृति बन जाते हैं और मौन भी गीत गाने लगता है।
नंदलाल बोस की कला का दूसरा स्वरूप उस सूक्ष्म दृष्टि में परिलक्षित होता है जो उन्होंने जीवन की मामूली चीजों को चित्रण के योग्य समझा। उनकी कलम कभी नगर के भव्य द्वारों पर नहीं अटकती, वह गांव की कच्ची गलियों में बहती है। उनकी रेखाएं उन स्त्रियों के पांव की बिंदी से जन्म लेती हैं जो प्रतिदिन तुलसी को जल देती हैं। उनका सौंदर्यबोध शृंगार में नहीं, श्रम में है। और यही उन्हें यूरोपीय आधुनिकता से अलग करता है। उन्होंने कभी भारत को पश्चिम के आईने में देखने की कोशिश नहीं की बल्कि उन्होंने भारतीय आईने को ही रंगों से इतना स्वच्छ और आंतरिक बना दिया कि उसमें सम्पूर्ण भारत स्वयं को पहचान सके।
नंदलाल के चित्रों में जो भारतीयता है, वह केवल विषयों में नहीं, तकनीक में भी है। उन्होंने ‘वॉश पेंटिंग’ की तकनीक को नए अर्थों में पुनःपरिभाषित किया। पारंपरिक तकनीकों को आधुनिक दृष्टिकोण से जोड़कर उन्होंने एक ऐसा चित्रशिल्प गढ़ा जो न परंपरा से कटता है, न समय से। उनका काम एक पुल की तरह है—वह इतिहास और वर्तमान के बीच फैला हुआ है और उससे होकर भविष्य भी गुजरता है।
उनकी कला में सबसे बड़ी बात यह है कि वह देखने वाले की चेतना को शुद्ध करती है। वह केवल आनंद नहीं देती, वह साधना के लिए आमंत्रित करती है। नंदलाल बोस को देखकर हम महसूस करते हैं कि कला केवल दिखाने की नहीं, बदलने की चीज है। वे अपने दर्शकों को बाहर से भीतर की यात्रा की ओर ले जाते हैं। यह यात्रा धीरे-धीरे होती है, बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी मंदिर में प्रवेश करते हुए देह से पहले मन झुकता है।
उनकी चित्रों में पात्र कभी केवल दृश्य नहीं होते, वे आस्तिक भावों के संवाहक होते हैं। कला में विशिष्ट प्रसंगों को उठाना शक्ति का नहीं, सहृदयता का परिचायक बन जाता है। ऐसे क्षणों को पकड़ना किसी चित्रकार के लिए केवल कारीगरी नहीं—यह तपस्या है।
नंदलाल के चित्रों में प्रकृति कभी स्थिर नहीं दिखती। वह बहती है, वह साँस लेती है, वह चुपचाप संवाद करती है। उनकी एक नदी में जब आप देखते हैं तो आपको उसमें महाभारत की गति भी दिख सकती है और किसी अनाम स्त्री की स्मृति भी। उनकी वृक्षावलियाँ केवल हरियाली नहीं हैं, वे एक रक्षक की भाँति चित्र के पात्रों को घेरे रहती हैं।
कभी-कभी लगता है कि नंदलाल ने रंगों से कम, रिक्तियों से अधिक रचना की है। उन्होंने रेखाओं के बीच जो अंतराल छोड़े, वे ही तो हमारे मन को भर देते हैं। उनकी कला की यह मौलिकता है—वह जितना कहती है, उससे अधिक छिपा लेती है और यही छिपा हुआ रस उनकी रचना को गहराई देता है।
नंदलाल बोस की कला केवल चित्रकला नहीं, वह एक सांस्कृतिक घोषणा है—एक सुसंस्कृत हृदय की पुकार जो यह बताती है कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ सौंदर्य केवल रूप में नहीं, रूपांतरण में है। जहाँ कला केवल दीवारों पर नहीं रहती, वह वाणी, व्यवहार और विचार में भी बसती है।
कला का यह शुद्ध, आंतरिक, निर्लेप रूप आज के समय में दुर्लभ है। नंदलाल बोस की विरासत को आज फिर से पढ़ने, समझने और आत्मसात करने की आवश्यकता है। उन्होंने अपनी कला में जो मौन रचा, वह इस कोलाहल भरे युग में एक ध्यानस्थ अंतराल की तरह हमें रोकता है, ठहराता है और भीतर की ओर मोड़ता है।
उनकी कृतियों के सामने खड़ा होना एक दर्शक होने की प्रक्रिया नहीं, एक सहभागी बनने की प्रक्रिया है। नंदलाल अपने दर्शकों को केवल देखने की अनुमति नहीं देते, वे उन्हें चित्र में प्रवेश करने का निमंत्रण देते हैं। यह प्रवेश कोई स्थूल प्रवेश नहीं—यह अंतःप्रवेश है। जैसे कोई पुराना राग भीतर कहीं गूंज जाए और फिर वह गूंज वर्षों तक मौन में बनी रहे।
आज जब कला बाज़ार के हाथों में है, जब सौंदर्य की परिभाषाएं सतही हो गई हैं, नंदलाल बोस हमें याद दिलाते हैं कि कला आत्मा की भाषा है। वह तभी जन्म लेती है जब हृदय, मस्तिष्क और हाथ त्रिकालज्ञ ब्रह्मा की तरह एक हो जाएँ।
उनकी पेंटिंग्स देखने के बाद, आदमी पहले जैसा नहीं रह सकता। वह अपने भीतर कुछ महसूस करता है—कोई पुराना गीत, कोई भूली-बिसरी स्मृति, कोई गंध, कोई अश्रु… और शायद यही नंदलाल की कला का चमत्कार है कि वह आपको बाहर से भीतर तक बदल देती है—बिना किसी शोर, बिना किसी प्रचार, केवल मौन, केवल सौंदर्य, केवल करुणा के सहारे।
नंदलाल बोस की कला में करुणा है—पराजित के लिए, श्रमिक के लिए, स्त्री के लिए, प्रकृति के लिए, राष्ट्र के लिए। यह करुणा उन्हें महान बनाती है। उनकी महानता किसी पद या पुरस्कार में नहीं, इस करुणा की निर्मलता में है। वह एक ऐसे ऋषि थे जिनका आश्रम कैनवास पर बना था, और जिनका मंत्र था—रेखा, रंग, मौन।
कभी जब भारतीय कला को उसकी आत्मा में देखा जाएगा, तो वह नंदलाल के चित्रों के बिना अधूरी लगेगी। वे केवल एक युग के चित्रकार नहीं थे, वे एक युगद्रष्टा थे—जिनकी आँखों से हम अपने देश को भी, अपने भीतर को भी और अपनी विरासत को भी देख सकते हैं।
नंदलाल बोस, एक नाम नहीं—एक तीर्थ। एक ऐसा तीर्थ जहाँ हर बार जाना, अपने को लौटाना है। और शायद यही कला का सबसे पवित्र उद्देश्य भी है—मनुष्य को मनुष्य के निकट लाना। और नंदलाल इस उद्देश्य के सबसे मौन, सबसे श्रेष्ठ पुजारी हैं।