— डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर —
हिन्दुस्तान था, आज भी है, लेकिन पाकिस्तान नहीं था, वह हिन्दुस्तान में से बना-वह हिन्दुस्तान का ही हिस्सा है। वह जल्दबाजी की देन है। उसकी जरूरत नहीं थी, लेकिन अब तो उसे बने छः दशक से अधिक हो गए और उसमें से भी बंगला देश बन गया और कुल मिलाकर आज अनुभव होने लगा है कि वह मात्र मिथ्या मज्जहबी जुनून का परिणाम था। डॉ. लोहिया उसे समय का दुर्भाग्य मानते थे। यथार्थतः अधैर्य, स्वार्थांधता, लालच और धार्मिक संकीर्णता ने पाकिस्तान चाहने वालों के मंसूबे को पूरा हो जाने दिया। पाकिस्तान बनाने के पीछे उनकी दलील थी, अल्पसंख्यक मुसलमान के हितों की रक्षा।
डॉ. लोहिया ने हिन्दुस्तान के सात-आठ सौ वर्षों के इतिहास का मंथन करते हुए अचरज व्यक्त किया कि इतने लम्बे समय से मुसलमान हिन्दुस्तान के एक बड़े हिस्से पर राज करते रहे। वे अपनी हुकूमत में अल्पसंख्यक होते हुए भी बहुसंख्यक हिन्दुओं पर राज करते रहे। लगातार धर्म परिवर्तन कराते हुए मुट्ठी भर से एक बड़ी संख्या में सामने आने लगे। तब वे पाकिस्तान नहीं बना सकें।
ब्रितानिया हुकूमत ने हिन्दुस्तान पर लगभग पौने दो सौ वर्ष राज किया। डेढ़ सौ वर्ष उनकी हुकूमत धारदार रही और हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ने ब्रितानिया हुकूमत को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने की कोशिश की। यह कोशिश मिलकर हुई। हिन्दुस्तान को आजाद कराने के लिए हुई, न कि पाकिस्तान बनाने के लिए। ध्यातव्य है, लम्बे समय से मुसलमान हिन्दुओं के साथ रहते हुए भारतीय संस्कृति को ओर झुकने लगे। उनमें से वे मुसलमान जो हिन्दुओं में से मुसलमान बनाए गए थे, भारतीय सभ्यता व संस्कृति से अलग नहीं हो सके। उनमें और हिन्दुओं में भाषा, बोली, लोक-संस्कृति, रीति-रिवाज, परम्पराएँ आदि आज तक एक-से-हैं-वे आत्मीय हैं-एक दूसरे के शुभचिन्तक हैं। दरअसल यह कहना मुश्किल है कि वे एक-दूसरे से अलग हैं। आज भी वे एक दूसरे के प्रति लगाव रखते हैं, भाईचारा मानते हैं। मुट्ठी भर कट्टरवादी लोग इस्लाम मजहब को गलत सन्दर्भों में ढालकर ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं जैसे वे एक-दूसरे के जन्मजात शत्रु हों। फिर भी, आम मुसलमान हिन्दुओं से वैर नहीं रखता। वैर हो भी नहीं सकता क्योंकि मजहब तो प्यार बाँटता है, एक-दूसरे को नजदीक लाता है, एक-दूसरे के लिए कुरबानी सिखलाता है। फिर अचानक यह घृणा कहाँ से आई कि सालोसाल साथ रहते हुए एकदम एक-दूसरे को फूटी आँख देखने के लिए तैयार नहीं रहे ?
डॉ. लोहिया का मानना है कि यदि एक साल आजादी के लिए और इंतजार किया जाता तो हिन्दुस्तान का एक हिस्सा पाकिस्तान नहीं बनता। इसके लिए अंग्रेजों को दोष दिया जाता है कि “फूट डालो और राज करो” की नीति को अपनाते हुए हिन्दुस्तान को ऐसी स्थिति में डालकर आजाद करना चाहते थे कि जिससे वह आजाद होने के कुछ समय बाद ही उनकी ही शरण में जाने की सोचने लगे। यही कारण था कि उसने देसी रियासतों को भी पाकिस्तान बनाने के साथ आजाद कर दिया। परन्तु ऐसा हुआ कुछ नहीं और जो हुआ, ऐसा इससे पहले इतिहास में कभी नहीं हुआ कि आजादी के बाद खून का दरिया बहने लगा हो और करोड़ों-करोड़ धर-बार से वंचित हो गए हों।
आज पाकिस्तान हिन्दुस्तान के विरुद्ध जहर उगलता रहता है। आतंकवादी गतिविधियों को तेज करवा कर हिन्दुस्तान को परेशान बनाए रखना चाहता है क्योंकि वहाँ आज तक लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका। वहाँ की मिलिट्री ने उस पर कब्जा बनाया हुआ है। वहाँ की आम रिआया को सुकून नहीं है, चैन नहीं और वहाँ के आर्थिक हालात भी अनुकूल नहीं हैं। यही कारण है कि वहाँ से मुसलमान हिन्दुस्तान में चोरी-छिपे भी आते रहे और आ रहे हैं। वहाँ से हिन्दू भी आए हैं। बँगला देश से भी लाखों की संख्या में मुसलमान भारत में चुपचाप आ बसे हैं और सारे भारत में छा गए हैं। ताज्जुब तो यह है कि उन्हें राजनीतिक दलों ने अपने वोट बैंक बनाने के लाभ से यहाँ का नागरिक हो जाने दिया। ऐसा क्यों हो रहा है, यह समझना होगा।
यह गुत्थी मनोवैज्ञानिक भी ज्यादा है। डॉ. लोहिया का यह मत है कि “हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के मुसलमान अन्य देशों के लोगों की अपेक्षा, चाहे ये मुसलमान ही हों, हिन्दुओं के ज्यादा नजदीक हैं।”” करीब-करीब यही हालत हिन्दुओं की है। क्यों न हो, हिन्दुस्तान यानी भारत के न केवल हिन्दू-मुसलमान एक हैं अपितु ईसाई, पारसी आदि भी हिन्दुस्तान को अपना वतन समझते हैं। ध्यान रहे, वतन मजहब से नहीं, माटी से बनता है। लोहिया का अभिमत था कि हिन्दू और मुसलमान एक राष्ट्र में ढल गए थे, परन्तु ब्रिटिश राज ने हस्तक्षेप किया दोनों की एकता खण्डित करने का। समूचे हिन्दुस्तान को खण्ड-खण्ड में बाँटने का उनका स्वप्न था। और, उन्हें उसमें सफलता भी मिली। तमाम राष्ट्रीय सोच को लकवा मार गया। भूल गए दिल्ली से दौलताबाद की दर्द भरी कहानी को। मजहब की माँग थी कि मुसलमानों को पाकिस्तान मिले। वे ये भूल गए थे कि पाकिस्तान हिन्दुस्तान में से बन रहा है, आज नहीं तो कल वह एक होगा ही। जब भारत हिन्दुस्तान हो सकता है तब पाकिस्तान हिन्दुस्तान क्यों नहीं हो सकता ?
आजादी से पहले के पचास वर्ष की राष्ट्रीय आन्दोलन की जो गलतियाँ थीं, जिनमें साम्प्रदायिक या प्रान्तीय प्रतिनिधित्व, शक्ति का विभाजन आदि मुख्य थे, उनसे हिन्दुओं और मुसलमानों में गहरी खाई उभरती चली गई। मज्जहब ने सियासत में टांग अड़ाना शुरू कर दिया और कमजोर इच्छाशक्ति, जोखिम उठाने से गुरेज रखने वालों और व्यावहारिक अक्षमता से घिरे लोगों ने उसे सहारा दिया। डॉ. लोहिया ने इस प्रक्रिया पर कई प्रश्न उठाए।
यथा-
(1) राज्य का विभाजन सहज हो सकता है परन्तु लोगों का बाँटना बहुत टेढ़ा और झंझट का काम ही नहीं अपितु बेतुका काम है।
(2) चाहे हिन्दुस्तान का विभाजन हो गया परन्तु राष्ट्र के रूप में उसकी स्थिति अस्थिर है-वे न एक राष्ट्र हैं और न दो। शायद दो की अपेक्षा अधिक हैं।
(3) अपने आप को कायम रखने के लिए पाकिस्तान को वह क्रम बनाए रखना होगा जिसमें उसका जन्म हुआ है। अर्थात् हिन्दुओं और मुसलमानों की दूरी को अधिक से अधिक बढ़ाते जाना होगा। इतना अधिक कि ये कभी एक राज्य न बन सकें।
(4) विभाजन द्वारा जिस समस्या का समाधान करना था, वह आज तक यथावत् है। विभाजन यह मानकर स्वीकारा गया था कि बिना खून-खराबे के एक देश दो देशों में बँट जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। उलटे भयावह रक्तपात हुआ-छह लाख के करीब लोग मार गए और दो करोड़ से अधिक लोग घर से बेघर हुए।
(5) जो भारतीय पाकिस्तान में रह रहे हैं और जो मुसलमान हिन्दुस्तान में रह रहे हैं, यदि इनमें से किसी एक की सुरक्षा को ख़तरा हुआ तो दोनों के बीच बर्बरतापूर्ण कार्यों का सिलसिला शुरू हो जाएगा। यह ख़तरा राज्य के अस्तित्व के लिए भी हो सकता है।
(6) यह कहना अनुचित है कि हिन्दुस्तान में जो होता है या पाकिस्तान में जो घट रहा है, उससे एक-दूसरे का कोई सम्बन्ध नहीं है। यथार्थतः उनका एक-दूसरे से गहरा सम्बन्ध है और हमेशा रहेगा।
(7) अल्पसंख्यकों का दमन मानवीय सभ्यता पर एक आक्रमण है। फलतः हिन्दुस्तान अपने अल्पसंख्यकों के साथ उचित व्यवहार करे, यह देखना पाकिस्तान का काम भी है और पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा ही करे, यह देखना हिन्दुस्तान का भी काम है। यदि दोनों में से कोई भी अल्पसंख्यकों पर अन्याय और अत्याचार करे तो दूसरे को भी हक़ जाता है कि वह अपने यहाँ के अल्पसंख्यकों पर अन्याय और अत्याचार करे या उस देश पर पलटन भेजे और दोषी राज्य को सबक सिखलाए। यह युद्ध उतना ही न्यायपूर्ण होगा, जितना कोई युद्ध हो सकता है अपने अस्तित्व की रक्षार्थ।
(8) हत्या, लूट, आगजनी के अतिरिक्त भी ऐसे तरीके हो सकते हैं, जिनसे अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बनी रहे, जैसे सामाजिक तथा आर्थिक बहिष्कार या शोषण।
(9) पाकिस्तान जिस आधार पर बना, उसके तहत और अपना वजूद बनाए रखने के लिए उसको यह जरूरी हो जाता है कि वह वो सब कुछ निडर होकर करे, जिससे अल्पसंख्यक हिन्दू अपना बोरिया-बिस्तर लेकर वहाँ से कूच कर दें और ऐसा ही वह कर भी रहा है। इससे कट्टरपंथी मुसलमान खुश हैं पर यह है ग़लत। डॉ. लोहिया का सुझाव है कि हिन्दुस्तान पाकिस्तान पर दबाव बनाकर यह प्रयत्न बराबर करता रहे कि पाकिस्तान अल्पसंख्यक हिन्दुओं के प्रति अमानवीय रुख में परिवर्तन लाने के लिए बाध्य हो सके।
(10) पाकिस्तान का हिन्दुस्तान से एकमात्र झगड़ा अब सिर्फ़ कश्मीर को लेकर है जिसे बहुत पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने माना था कि कश्मीर हिन्दुस्तान का हिस्सा है और पाकिस्तान ने बेशर्मी से उस पर हमला किया है।
(11) पाकिस्तान की निगाह कश्मीर पर लगी रहने का प्रमुख कारण यही है कि कश्मीर में मुसलमानों की संख्या अधिक है और यदि वह हिन्दुस्तान में बना रहता है तो पाकिस्तान के बनाने का आधार ही झुठला जाता है और दूसरे उसे डर है कि इस तरफ कहीं वहाँ के मुसलमान सारे हिन्दुस्तानियों को एक राष्ट्र बनाने में कंधे से कंधा मिलाकर मदद नहीं करने लगें जैसा वे कर भी रहे हैं।
(12) सह सोचना गलत होगा कि कभी रूस अटलांटिक गुट हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान के झगड़े का प्रयोग अपने हित में करना छोड़ सकेगा।
(13) सम्मानपूर्ण एकता दोनों देशों में कायम हो इसके लिए हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की विदेश नीति को एक-दूसरे के निकट आने की बहुत आवश्यकता है।
इस सबसे डॉ. लोहिया इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि अचानक एक राष्ट्र को दो राष्ट्रों में अधिक समय तक विभाजित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वहाँ पर अन्तर्राष्ट्रीय पृष्ठभूमि नहीं है जिसके आधार पर अलग-अलग उनका अस्तित्व बना रह सके। पाकिस्तान कदाचित इस इच्छाशक्ति को अपने मन में सँजाए रखे कि उसे मिस्र से लेकर इण्डोनेशिया तक फैले मुस्लिम राष्ट्र का निर्माण करना है तो यह ऐसा शेखचिल्लीपन होगा जिसकी कोई बुनियाद नहीं होगी। आस्ट्रिया तभी तक जर्मनी से अलग रह सका जब तक पूर्वी यूरोप में उसका बहुत बड़ा साम्राज्य था। इसके अलावा पाकिस्तान की यह रणनीति हमेशा ग़लत साबित होती रही है कि हिन्दुस्तान में मुसलमानों के साथ जुर्म हो रहे हैं। हिन्दुस्तान में मुसलमान हिन्दुओं से कम सुरक्षित नहीं हैं जबकि पाकिस्तान हिन्दुस्तान में आंतकवादियों का प्रवेश कराकर हिन्दुस्तान की धर्मनिरपेक्ष नींव हिलाने की जी तोड़ परन्तु असफल कोशिश करता रहा है और अब भी कर रहा है। वह यह समझता है कि उसका यह क़दम पाकिस्तानियों को, उन पाकिस्तानियों को जो कट्टरपंथी हैं, अधिक समय तक खुश रख सकेगा और अपने को बचाए रखने में कामयाब हो सकेगा, गलत है। दरअसल उसका यह साँप-छछूदर का खेल उसके गले का फंदा बनता जा रहा है और वह वहाँ की जनता को मुगालते में बनाए रखने की नाकामयाब कोशिश कर रहा है।
डॉ. लोहिया का यह मानना था कि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के अस्वाभाविक मेल की ख़तरनाक संभावनाएँ तो हैं ही बल्कि पस्ताँ इलाकों को पाकिस्तान में सम्मिलित करना भी कम खतरनाक नहीं है। पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर बंगला देश बन चुका है। पाकिस्तान में इलाक़ों का अनमेल इतना अधिक है कि वह किसी भी समय ताश के महल की तरह गिर सकता है। लेकिन ऐसा होने से पहले मुमकिन है कि वह हिन्दुस्तान को दोष देकर दंगों और युद्ध की नीति पर चलकर अपने ऐतिहासिक भविष्य से बचना चाहे।’ वास्तव में हिन्दुस्तान में जितनी खुशहाली होगी, पाकिस्तान के लोगों में आर्थिक सड़क पर उतनी ही नाराजगी होगी। और हो सकता है कि पाकिस्तान को देश के विभाजन पर खेद भी हो। कारण, पाकिस्तान की यह चेष्टा बराबर रहती है कि वह हिन्दुस्तान से खुशहाल, शक्तिशाली और लोकप्रिय हो ताकि पाकिस्तान बनाने के पीछे जो साजिश काम कर रही थी, वह अपने को उपयुक्त सिद्ध कर सके।
कोरिया के प्रश्न पर संयुक्त राष्ट्र ने फुर्ती से निर्णय लिया था, परन्तु कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण पर कोई निर्णय नहीं हो सका। यह भी साजिश है। यदि हिन्दुस्तान में मुसलमान खुशहाल हैं और पाकिस्तान के मुसलमान बदहाल हैं, जैसा आज है भी, तो यह बात पाकिस्तान के शासकों के दिमाग़ खराब कर देगी। कहीं पाकिस्तान की प्रजा हिन्दुस्तान में मिलने के लिए जोरदार प्रदर्शन आन्दोलन आदि खड़े न कर दे। लोहिया ने भारत-पाक विभाजन के कुछ माह बाद कहा था कि निम्नलिखित एक या तीन तरीक़ों से पाकिस्तान का अंत होगा-
(1) बातचीत के माध्यम से संघीय एकता।
(2) भारतवर्ष में समाजवादी क्रान्ति।
(3) पाकिस्तान का भारत पर हमला करने पर हिन्दुस्तान का जवाबी हमला।
इन तीनों में से तीसरे बिन्दु वाली बात भारत और पाकिस्तान को एक छाते के नीचे खड़ा कर सकती है। लेकिन युद्ध की विभीषिका से जब वे बच निकले थे तब भी उनके हाथ कुछ नहीं लगा था। होता भी क्या जब मन में खोट हो और तानाशाह बनने की मन में जबर्दस्त ख्वाहिश हो ? तब कुछ लोग अपने ही देश को रौंदने में लगे रहते हैं। गरीब मुल्क हो और मजहबी जुनून हो तो भी युद्ध की दलदल में कोई अपनी जनता को नहीं झोंकेगा।
लेकिन सत्ता पर बने रहने के सपने के साथ जिन्दा रहने वाले किसी की परवाह नहीं करते-न अपने देश की, न रिआया की और न दूसरे देश से अपने सम्बन्धों की। इतिहास का सच यह है कि मुसलमान शासक बाहर से आए, उन्होंने हिन्दुओं को आठ सौ साल तक रौंदा उनके मन्दिर तोडे, उनके गाँव के गाँव को मुसलमान बनाया शक्ति के बल पर, उनके प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों पर बने जगविख्यात मंदिर के पास मस्जिदें बनवाई, उनकी बहू-बेटियों की अस्मत से खेले, उनकी दौलत को लूटा आदि। इसके बावजूद भी हिन्दुओं में उनके प्रति नफ़रत पैदा नहीं हुई बल्कि उनके साथ भाईचारा बनाया, आत्मीयता जताई, उनके सुख-दुःख में आधी रात काम आए। यह सब इसलिए हुआ कि भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि वह गैर को अपनाती जाती है-विनम्रता उसकी ओजस्विता है, करुणा उसकी सौजन्यता है. असहिष्णुता उसकी अंतर्दृष्टि है, अहिंसा उसका हथियार है, प्यार उसका हृदय है और सत्य उसका शिवमय व सुंदरतम धर्म है। आश्चर्य, उसने अपने धर्मवालों के प्रति बहुत अन्याय किए, अत्याचार किए, उत्पीड़न किए और उनके हृदय-मन को पदाक्रांत किया। धर्म या मजहब जिस राज्य के अस्तित्व का आधार होगा, वहाँ न मात्र घृणा, उपेक्षा, हिंसा, बैर, कट्टरता, अंधता आदि का साम्राज्य होगा बल्कि एक ही मज्जहब वालों ने जबर्दस्त दूरियाँ होंगी, घृणा होगी और हिंसा फैलाकर दबोचने की कोशिशें होंगी, जैसी आज हैं।
धर्म के आधार को त्यागकर चलने वाले राज्य ही मानवीय हो सकते हैं। धर्म व्यक्तिगत है, राज्य समष्टिगत। धर्म की कोई सीमा नहीं है, राज्य की सीमा है। धर्म हृदय का विषय है, राज्य मन, बुद्धि का। धर्म का आधार अनुग्रह है, राज्य का कानून और आदेश। राज्य के कानून तोड़ने वाले को सजा मिलती है और धर्म के पालन करने में कोताही बरतने वाले को क्षमा। राज्य से भय विस्तार पाता है, धर्म से व्यक्ति निडर होता है। यदि धर्म अपने वर्चस्व को बनाने में प्यार का आधार अपनाता है, किसी से घृणा नहीं करता और किसी के प्रति हिंसा नहीं दिखाता तो हरएक के मन में उसके प्रति सम्मान होगा और व्यक्ति के निर्माण, विकास और प्रगति में भी उसकी भूमिका का आदर के साथ उल्लेख होगा। इसके लिए डॉ. लोहिया समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव करते हैं और अपने 1948 के इस कथन की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान का सृजन किस कट्टरता को ध्यान में रखकर हुआ था, वह स्वतः उलटने लगेगा, क्योंकि वहाँ मजहब का इस्तेमाल हुआ है अपने स्वार्थ की रक्षार्थ। इसी कारण हिन्दुस्तान ब्रिटिश राष्ट्र मंडल में रहा है ताकि वह पाकिस्तान के बारे में ब्रिटेन की नैतिक चेतना को जगाता रहे। यह नीति सफल रही, लेकिन ब्रिटेन जो काम नहीं कर सका, उसे अमेरिका ने कर दिखलाया।
यह हो नहीं सकता कि हिन्दुस्तान खण्डित बना रहे। डॉ. लोहिया कहते हैं कि अगर कुछ हिन्दुओं की समझ में और कोई दलील न आए तो उन्हें जल्दी से जल्दी यह बात समझा देनी चाहिए कि पाकिस्तान के विरोध के लिए जरूरी है कि वे मुसलमानों के दोस्त हों। उसी तरह, जो मुसलमानों का विरोधी है, वह जरूरी तौर पर पाकिस्तान का दोस्त या एजेन्ट है। मुसलमानों का विरोध करना और उन्हें दबाना दो राष्ट्रों के सिद्धान्त का समर्थन, करना है और इसलिए पाकिस्तान को इससे ताक़त मिलती है।… पाकिस्तान के साथ हिन्दुस्तान की नीति दलगत राजनीति से ऊपर होनी चाहिए। क्योंकि किसी भी तरह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के जोड़ने का क्रम प्रारम्भ करना होगा। वह यह मानकर नहीं चलते थे कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का विभाजन एक बार हो चुका है, वह सदैव के लिए हो गया। माना कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की सरकारों का आज यह धन्धा हो गया है कि वे एक-दूसरे की सरकार को बुरा कहें। साथ ही दोनों सरकारें अपने-अपने देश में दूसरे देश के प्रति नफ़रत फैलाएँ। ऐसे नाजुक समय में जब दोनों के पास खतरनाक हथियार हैं और कोई भी कुछ कर सकता है सत्ता के जुनून में। ऐसी स्थिति में जागरूक जनता को पहल करनी होगी और उसे निर्णय लेने तक ही नहीं, निर्णय की कार्यान्विति तक जाना होगा।
अंततः डॉ. लोहिया महासंघ का सुझाव देते हैं। उससे आगे की स्थिति यह है कि हिन्दू-मुसलमान ही क्यों सभी धर्मवाले यहाँ हिन्दुस्तान में रहें, सारे भेदभाव भुलाकर और जागरूक नागरिक होने का फ़र्ज बखूबी निभाते हुए। पाकिस्तान काल्पनिक विभाजन जैसा है। जब यह विभाजन समाप्त हो जाएगा तब सब शान्ति व सुख से रहेंगे, साथ-साथ और उन्नत तथा महान हिन्दुस्तान की सम्पूर्ण स्वरूप-संरचना को आत्मसात् कर सकेंगे, सोल्लास और सानंद। देश मजहब से नहीं उसके रहने वालों के निर्मल मन, त्याग की भावना, सत्कर्म तथा सह-अस्तित्व की सहज आस्था से बनता है और वही सच्चे भारत का अखण्डित स्वरूप है।
दरअसल अभी किसी के गले यह बात नहीं उतर रही है क्योंकि सत्ता पर क्राबिज़ बने रहने की कवायद से न पाकिस्तान को फुर्सत है और न हिन्दुस्तान को। इसी तरह बंगला देश भी पिस रहा है। हिन्दुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से बंगला देश का अलग हो जाना तब तक सुकून की साँस नहीं लेने देगा, जब तक वह अखण्ड हिन्दुस्तान का दर्जा न पा जाए। धर्म के कट्टरपंथी किसी के लिए वरदान नहीं होते। धर्म पर टिके राज्य या देश मानवतावादी दृष्टिकोण का चरित्र नहीं बनने देते। डॉ. लोहिया हिन्दुस्तान को भी यही सलाह देते हैं कि मुसलमान हों या दूसरे मजहब के मानने वाले, उन्हें पहले की तरह अपनाते जाओ। परन्तु यहाँ समस्या यह पैदा होती है कि कब तक ? क्या तब तक जब तक हिन्दुस्तान में मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं के आसपास न आ जाए और वे एक और पाकिस्तान की माँग शुरू न कर दें? हिन्दुओं के मन में यही डर है कि वे हिन्दुस्तान में रहते हुए भी उस सुकून से वंचित बने हुए हैं जिसके वे हक़दार हैं। कट्टरपंथी तो हर एक धर्म में हैं। वे हिन्दुओं को भी बरगलाते हैं। सियासी रंग जब खुदगर्जी का पल्ला पकड़ लेता है तब रिआया को उनकी काली करतूतों का अभिशाप भोगना पड़ता है। जब तक एक-दूसरे के प्रति शंका, भय, घृणा आदि की दीवारें नहीं गिरेंगी तब तक पाकिस्तान का वजूद भी रहेगा और हिन्दुस्तान का भी। दोनों ही नहीं, आज तो तीनों का एक होकर अखंड भारत या अखंड हिन्दुस्तान के रूप में सामने आना बहुत जरूरी है ताकि जनता निडर होकर मुक्त आकाश के नीचे, खुली हवा में एकसाथ बैठकर अपने होने के अस्तित्व का सके और आपसी सम्बन्धों की ऊष्मा से जुड़ सके।
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