— राजकुमार जैन —
के. विक्रम राव मेरे पुरानें वरिष्ठ सोशलिस्ट साथी थे। आंध्र के एक बहुत ही नामवर, ब्यूरोक्रेट, पत्रकारों के परिवार में जन्मे विक्रम राव के पिताजी के. रामा राव लखनऊ से निकलने वाले नेशनल हेराल्ड के संपादक थे। विक्रम राव आदतन सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ ज़हनियत की शख्सियत थे। कांग्रेस से नजदीकी ताल्लुकात रखने वाले परिवार में जन्म लेने के बावजूद वह अपने छात्र जीवन में ही सोशलिस्ट तहरीक में शामिल हो गए। लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में ‘समाजवादी युवजन सभा’ के प्रत्याशी के रूप में महासचिव पद पर विजयी भी रहे। आचार्य नरेंद्र देव, डॉ राममनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाले विक्रम राव सोशलिस्ट पार्टी के द्वारा आयोजित जन संघर्षों में एक लड़ाकू साथी के रूप में शामिल भी रहे।
व्यवसाय के रूप में उन्होंने पत्रकारिता को चुना। अंग्रेजी पत्रकारिता में, देश के धुरंधर पत्रकारों में उनकी गिनती होती थी। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के विशेष प्रतिनिधि, कालमकार भी थे। उनकी प्रतिभा, लडा़कूपन तथा मैनेजमेंट से किसी भी प्रकार से प्रभावित न होने के कारण इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट के वे कई वर्षों से अध्यक्ष भी बने रहे। सोशलिस्ट आयोजनों में उनसे अक्सर भेंट होती थी। आपातकाल में जॉर्ज फर्नांडिस के साथ डायनामाइट केस में वे गिरफ्तार भी हुए। दिल्ली की जेल में वे मेरे सहयात्री भी रहे। उनके लेखों, तथा व्हाट्सएप ग्रुप में लिखे जाने वाले लेखों को मैं बहुत ही चाव से पढ़ता था। हिंदुस्तानी जबान में, इतिहास, साहित्य, संस्कृति राजनीति की अनेकों नज़ीरो, से अपने तर्क को तीखे व्यंग्य और हास्य की चासनी के साथ रोचक अंदाज में वे प्रस्तुत करते थे।
परंतु कुछ सालों से उनका रुझान मोदी, बीजेपी समर्थक हो गया था। जिसके कारण तल्खी भी हुई। इसके बावजूद अगर कहीं लोहिया अथवा सोशलिस्ट तहरीक पर हमला होता तो वे पुराने सोशलिस्ट अंदाज में उसका प्रतिवाद करते थे। कुल मिलाकर उन जैसे माहिर, जानकार, वैचारिक रूप से लैस, विद्रोही तेवर तथा मिलनसार तरबीयत होने के कारण उनके जाने से एक खालीपन का एहसास हो रहा है।
(उनके लिखने के अंदाज को दिखाने के लिए उनके दो लेख, जिनमें एक लेख,’राम भक्त सुन्नी ने पाकिस्तान को हराया’ जो उन्होंने मौत के कुछ घंटे पहले लिखा था तथा लोहिया पर केंद्रित ‘आमजन के राम’ लिखा था, प्रस्तुत कर रहा हूं।
आमजन के राम
राम की कहानी युगों से भारत को संवारने में उत्प्रेरक रही है। इसीलिए राष्ट्र के समक्ष सुरसा के जबड़ों की भांति फैले हुए सद्य संकटों की राम कहानी समझना और उनका मोचन करना इसी से मुमकिन है। शर्त है राम में रमना होगा, क्योंकि वे “जन रंजन भंजन सोक भयं” हैं। बापू का अनुभव था कि जीवन के अँधेरे, निराश क्षणों में रामचरित मानस में उन्हें सुकून मिलता था। राममनोहर लोहिया ने कहा था कि “राम का असर करोड़ों के दिमाग पर इसलिए नहीं है कि वे धर्म से जुड़े हैं, बल्कि इसलिए कि जिंदगी के हरेक पहलू और हरेक कामकाज के सिलसिले में मिसाल की तरह राम आते हैं। आदमी तब उसी मिसाल के अनुसार अपने कदम उठाने लग जाता है।” इन्हीं मिसालों से भरी राम की किताब को एक बार विनोबा भावे ने सिवनी जेल में ब्रिटेन में शिक्षित सत्याग्रही जे. सी. कुमारप्पा को दिया और कहा, “दिस रामचरित मानस ईज बाइबिल एण्ड शेक्सपियर कम्बाइंड।” लेकिन इन दोनों अंग्रेजी कृतियों की तुलना में राम के चरित की कहानी आधुनिक है, क्योंकि हर नयी सदी की रोशनी में वह फिर से सुनी, पढ़ी और विचारित होती है। तरोताजा हो जाती है। गांधी और लोहिया ने सुझाया भी था कि हर धर्म की बातों की युगीय मान्यताओं की कसौटी पर पुनर्समीक्षा होनी चाहिए| गांधीजी ने लिखा था, “कोई भी (धार्मिक) त्रुटि शास्त्रों की दुहाई देकर मात्र अपवाद नहीं करार दी जा सकती है।” (यंग इण्डिया, 26 फरवरी 1925)। बापू ने नए जमाने के मुताबिक कुरान की भी विवेचना का जिक्र किया था। लोहिया तो और आगे बढ़े। उन्होंने मध्यकालीन रचनाकार संत तुलसीदास के आधुनिक आलोचकों को चेताया : “मोती को चुनने के लिये कूड़ा निगलना जरूरी नहीं है, और न कूड़ा साफ़ करते समय मोती को फेंक देना।” रामकथा की उल्लास-भावना से अनुप्राणित होकर लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला की सोची थी। उसके पीछे दो प्रकरण भी थे। कामदगिरी के समीप स्फटिक शिला पर बैठकर एक बार राम ने सुंदर फूल चुनकर काषाय वेशधारिणी सीता को अपने हाथों से सजाया था। (अविवाहित) लोहिया की दृष्टि में यह प्रसंग राम के सौन्दर्यबोध और पत्नीव्रता का परिचायक है, जिसे हर पति को महसूस करना चाहिए। स्वयं लोहिया ने स्फटिक शिला पर से दिल्ली की ओर देखा था। सोचा भी था कि लंका की तरह केंद्र में भी सत्ता परिवर्तन करना होगा। तब नेहरू कांग्रेस का राज था। फिर लोहिया को अपनी असहायता का बोध हुआ था, रावन रथी, विरथ रघुवीरा की भांति। असमान मुकाबला था, हालांकि लोहिया के लोग रथी हुए उनके निधन के बाद।
महात्मा गांधी के बारे में एक अचम्भा अवश्य होता है। द्वारका के निकट सागर किनारे (पोरबंदर) वे पैदा हुए पर जीवनभर सरयूतटी राम के ही उपासक रहे। वे द्वाराकाधीश को मानों भूल ही गये। शायद इसीलिए कि गांधीजी जनता के समक्ष राम के मर्यादित उदहारण को पेश करना चाहते हों। रामराज ही उनके सपनों का भारत था, जहाँ किसी भी प्रकार का ताप नहीं था, शोक न था।
आमजन का राम से रिश्ता दशहरा में नए सिरे से जुड़ता है। रामलीला एक लोकोत्सव है जिसमें राम की जनपक्षधरता अभिव्यक्त होती है। राजा से प्रजा, फिर वे नर से नारायण बन जाते हैं। सीता को चुराकर भागने वाले रावण से शौर्यपूर्वक लड़ने वाले गीध जटायु को अपनी गोद में रखकर राम उसकी सुश्रुषा करते हैं, फिर उसकी अंत्येष्टि करते हैं जैसे वह उनका कुटुम्बीजन हों। रामकथा के टीकाकार जितना भी बालि के वध की व्याख्या करें, वस्तुतः राम का संदेशा, उनकी मिसाल, असरदार है कि न्याय और अन्याय के बीच संघर्ष में तटस्थ रहना अमानवीय है। अपनी समदृष्टि, समभाव के बावजूद राम को वंचित और शोषित सुग्रीव प्यारा है। सत्ता पाकर सुग्रीव पम्पानगर के राज प्रासाद में रहते हैं मगर वनवासी राम किष्किन्धा पर्वत पर कुटी बनाकर रहते हैं। ऐसी गठबंधन की सेना जो न सियासत में, न समरभूमि में कभी दिखी है। विजय के बाद आभार ज्ञापन में वानरों से राम कहते हैं : “तुम्हरे बल मैं रावण मारेव।” वाहवाही लूटने की लेशमात्र भी इच्छा नहीं थी इस महाबली में।
निष्णातों के आकलन में भारत को राष्ट्र का आकर राम ने दिया। सुदूर दक्षिण के सागरतट पर शिवलिंग की स्थापना की और निर्दिष्ट किया कि गंगा जल से जो व्यक्ति रामेश्वरम के इस लिंग का अभिषेक करेगा उसे मुक्ति मिलेगी। अब हिन्दुओं में मोक्ष प्राप्ति की होड़ लग गई, मगर इससे हिमालय तथा सागरतट तक भौगोलिक सीमायें तय हो मगर भारतीय संविधान बनने के सदियों पूर्व, (तब वोट बैंक भी नहीं होते थे) वनवासी राम ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को अपना कामरेड बनाया, मसलन निषादराज गुह और भीलनी शबरी। आज के अमरीका से काफी मिलती जुलती अमीरों वाली लंका पर रीछ-वानरों द्वारा हमला करना और विजय पाना इक्कीसवीं सदी के मुहावरे में पूंजीवाद पर सर्वहारा की फतह कहलाएगी। सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों का लेखाजोखा सर्वप्रथम परशुराम की कुल्हाड़ी (वन उपज पर अवलम्बित समाज) फिर धनुषधारी राम (तीर द्वारा व्यवस्थित समाज) और हल लिये बलराम (कृषि युग का प्रारंभ) से निरूपित होता है।
राम को आधुनिकता के प्रिज्म में देखकर कहानीकार कमलेश्वर ने कहा था कि रामायण ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई है। (राही मासूम रजा पर गोष्ठी 20 अगस्त 2003 : जोकहरा गाँव, आजमगढ़)| यह निखालिस विकृत सोच है। यह उपमा कुछ वैसे ही है कि रावण और राम मूलतः पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे तो यह पूरब-पश्चिम की जंग थी। रावण के पिता विश्वेश्रवा गाजियाबाद में दूधेश्वरनाथ मंदिर क्षेत्र के निवासी थे। आजकल नोयडा प्रशासन इसपर शोध भी करा रहा है। भला हुआ कि अवध के राम और गाजियाबाद के रावण अब उत्तर प्रदेश में नहीं हैं, वर्ना राज्य के विभाजन के आन्दोलन का दोनों आधार बन जाते। कमलेश्वर और उनके हमख्याल वाले भूल गए कि राम का आयाम उनके नीले वर्ण की भांति था। आसमान का रंग नीला होता है। उसी की तरह राम भी अगाध, अनन्त, असीम हैं। इसीलिए आमजन के प्रिय हैं।…
रामभक्त सुन्नी ने पाकिस्तान को हराया !
इस्लामी पाकिस्तान की जबरदस्त शिकस्त के मुख्य कारक भारतीय सेना से कहीं अधिक एक तमिलभाषी, गीतापाठी, रामभक्त, वीणावादक अब्दुल कलाम हैं। भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति (2002) के निर्वाचन में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी, विपक्ष की कांग्रेस, समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने आपसी वैमनस्य को दरकिनार कर सुदूर दक्षिण के गैरराजनैतिक विज्ञानशास्त्री डा. आबुल पाकिर जैनुलआबिदीन अब्दुल कलाम को प्रत्याशी बनाया था। गणतंत्रीय भारत के इस तीसरे मुसलमान राष्ट्रपति का दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने जमकर विरोध किया था और कानपुरवासी नब्बे-वर्षीया कैप्टन लक्ष्मी सहल को अपना उम्मींदवार बताया था। मतदान इकतरफा था मगर वामपंथियों ने द्वन्द्वात्मक शैली में कलाम के खिलाफ तर्क दिये थे। यूं तो वामपंथी हमेशा क्रांति के हरावल दस्ते में रहते हैं। मगर इस बार वे आत्मघातियों के रास्ते पर चले।
इस मिसाइल मैन द्वारा बनाए प्रक्षेपास्त्रों ने पाकिस्तान का शायद ही कोई शहर छोड़ा हो या उस पर हमला न किया हो। अब्दुल कलाम को आज खासकर याद करेंगे। पाकिस्तान को बड़ा घमंड था कि मिसाइल में वह भारत से ज्यादा मजबूत है इसीलिए नाम भी उसने भारत पर हमला करने वाले लुटेरों के नाम पर रखा। जैसे मोहम्मद गौरी, जहीरूद्दीन बाबर, मोहम्मद अब्दाली लेकिन इन सबके सामने इस दक्षिण भारतीय मुसलमान द्वारा निर्मित मिसाइल ज्यादा कारगर रहे।
इसीलिए इस युद्ध में कौन जीता कौन हारा पर बहस हो सकती है। पर नेक अकीदतमंद सच्चे मुसलमान अब्दुल कलाम पर शक या संदेह नहीं हो सकता। अतः आश्चर्य होता है कि प्रधानमंत्री मोदी, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और किसी ने भी भारत की जीत के लिए अब्दुल कलाम का आभार व्यक्त नहीं किया।
कम्युनिस्टों द्वारा अपने अभियान (2002) में यदि कलाम की युक्तिपूर्ण मुखालफत करनी थी तो वे मुल्लाओं को उकसा सकते थे कि अकीदतमन्दों को वे बताया जाय कि 77-वर्षीय अब्दुल कलाम मुसलमान नहीं हैं, क्योंकि उन्हें उर्दू नहीं आती। हालांकि बहुतेरे तमिल मुसलमानों ने कभी उर्दू सीखी ही नहीं। ये वामपंथी प्रचार कर सकते थे कि अब्दुल कलाम दही-चावल और अचार ही खातें है। मांसाहारी कदापि नहीं हैं। रक्षा मंत्रालय में अपनी पहली नौकरी सम्भालने के पूर्व उन्होंने ऋषिकेश में स्वामी शिवानन्द से आशीर्वाद लिया था। अपने पिता जैनुल आबिदीन के परम सखा और रामेश्वरम शिव मंदिर के प्रधान पुजारी पंडित पक्षी लक्ष्मण शास्त्री से धर्म की गूढ़ता में तरूण अब्दुल ने रूचि ली थी। वे संत कवि त्यागराज के रामभक्त के सूत्र गनुगुनाते हैं। नमाज के साथ वे रुद्र वीणा भी बजाते सुब्बुलक्ष्मी के भजन को चाव से सुनते हैं, जबकि उनके मजहब में संगीत वर्जित होता है।
कुल मिलाकर प्रचार का बिन्दु हो सकता था कि अब्दुल कलाम बिना जनेऊ वाले बाह्ममण है। उत्तर भारत के मुसलमानों को ये वामपंथी भड़का सकते थे यह कह कर अब्दुल कलाम के पुरखों ने इस्लाम स्वीकार किया शान्तिवादी प्रचारकों से जो अरब व्यापारियों के साथ दक्षिण सागर तट पर आये थे। अतः वह उत्तर भारतीय मुसलमानों से जुदा है जिनसे गाजी मोहम्मदबिन कासिम की सेना ने बदलौते-शमशीर हिन्दू धर्म छुड़वाया था। कलमा पढ़वाया था। यह मिलती जुलती बात हो जाती जो किसान नेता मौलाना भाशानी ने ढाका में कही थी कि ”ये पश्चिम पाकिस्तानी मुसलमान हम पूर्वी पाकिस्तानी (बंगला देशी) मुसलमानों को इस्लामी मानते ही नहीं। तो क्या मुसलमान होने का सबूत देने के लिये हमें लुंगी उठानी पड़ेगी ?“
अब्दुल कलाम के विरोधी इसी तरह हिन्दुओं को भी बहका सकते हैं कि अब्दुल कलाम की माँ ने शैशवास्था से उन्हें सिखाया था कि दिन में पांच बार नमाज अदा करो। मगरीब में मक्का की ओर सिर करो। अर्थात पूर्व में अपने देश की ओर मत देखो। उनके पिता जैनुल आबिदीन ने उन्हें सिखाया कि हर कार्य के बिस्मिल्ला पर अल्लाह की प्रार्थना करो। मगर सबसे मजबूत तर्क यह हो सकता था कि हिन्दू-बहुल भारत का राष्ट्रपति एक सुन्नी मुसलमान कैसे हो? अमीर तथा नवधनाढ़यजन केवटपुत्र और अखबारी हाॅकर रह चुके अब्दुल कलाम को राष्ट्र का प्रथम नागरिक बनने की राह में नापंसदगी पैदा कर सकते थे। वे यह कहते कि एक युवक जिसने पहली सरकारी नौकरी 250 सौ रूपये माहवार से शुरू की थी आज उसे 50,000 रूपये माहवार करमुक्त वेतन की राष्ट्रपतिवाली नौकरी क्यों मिले? सत्ता खुर्रांट दलाल अभियान चला सकते थे कि राजनीति की दुनिया अन्तरिक्ष विज्ञान के इस निष्णात के लिये समझ से परे है।
इस युद्ध में तय हो गया कि पाकिस्तानी प्रक्षेपास्त्र (महमूद) गज़नवी, (मुहम्मद) गौरी और (अहमदशाह) अब्दाली का मुकाबला करने में भारतीय प्रक्षेपास्त्रों (अग्नि, त्रिशूल, नाग) से भी अधिक यह मिसालइलमैन अब्दुल कलाम सर्वाधिक कारगर रहा। द्वितीय पोखरण विस्फोट के इस शिल्पी मतदात में तीसरा विस्फोट प्रभावी किया था राष्ट्रपति बन कर किया। हरिद्वार के स्वामी शिवानंद के इस शिष्य अब्दुल कलाम का भारत कृतज्ञ रहेगा। शरीफ के पाकिस्तान को शिकस्त देने में।