— परिचय दास —
।। एक ।।
सुमित्रानंदन पंत की जयंती उन अवसरों में से है, जब हिंदी कविता के एक आत्मविह्वल, सौंदर्यप्रिय और आत्माभिरंजित कवि की उपस्थिति को पुनः स्मरण में लाया जाना मात्र ही नहीं बल्कि उसकी चेतना के धागों को नए आलोक में देखना भी जरूरी हो जाता है। पंत पर विचार करना अकसर उन्हें छायावादी रूमानियत, प्रकृति-सौंदर्य और संस्कृतनिष्ठ शब्दों के आभिजात्य तक सीमित कर देता है किंतु उनकी जयंती का मूल्य तभी है जब हम उस कवि को एक विचारधारा-प्रवण, भाषिक प्रयोगधर्मी, और भीतर तक मनुष्य के प्रश्नों से जूझते आत्मा के रूप में देख सकें, जो समय के प्रवाह के साथ बार-बार स्वयं को बदलता है पर केवल ‘कालजयी’ कहे जाने से तृप्त नहीं होता।
पंत की कविता को देखने की एक नयी दृष्टि यह है कि उसमें समय के साथ एक गहन विचार-परिवर्तन होता रहा पर यह परिवर्तन केवल वादानुकूल परिवर्तन नहीं था। वह अपनी आत्मा की गति को पकड़ने का एक प्रयत्न था। क्या कारण है कि ‘विपथगा’, ‘युगांत’, ‘ग्राम्या’ और ‘लोकायतन’ के कवि का स्वर वैसा नहीं रहता जैसा ‘पल्लव’ या ‘गुंजन’ में था? दरअसल यह वही कवि है जो सौंदर्य से आरंभ करता है, पर जीवन की अनगिनत यंत्रणाओं को झेलता हुआ अंततः तत्त्व-बोध की राह पकड़ता है। यह कोई सरल रूपांतरण नहीं था। यह उस स्वप्नशील आत्मा का शोधन था, जो सौंदर्य के अमूर्त पंखों से उड़कर यथार्थ की कठोर चट्टानों पर आकर टिकती है और फिर वहीं से एक नई काव्य-संभावना जन्म लेती है।
पंत की कविता का यह रूपांतरण हमारे समय के लिए इसीलिए जरूरी है क्योंकि आज जब कवि या तो चमत्कार-प्रधान प्रतीकों की ओट में छिप जाता है या सामाजिक घोषणाओं के ध्वजवाहक में बदल जाता है तब पंत का आत्मसंश्लेषण एक नया विकल्प देता है। वे केवल सौंदर्य के कवि नहीं हैं; वे सौंदर्य में छिपे अश्रु-बिंदु के कवि हैं जो कहता है कि सौंदर्य वह नहीं जो दिखता है, वह है जो आत्मा को आंदोलित करता है और यह सौंदर्य केवल पुष्प, पवन, नभ या चंद्र नहीं, एक किसान की काली पसीने से भीगती देह में भी हो सकता है। ‘ग्राम्या’ और ‘स्वर्ण-किरण’ जैसे संग्रहों में पंत की कविता एक ग्रामीण स्त्री के दुःख, एक शिशु की भूख और श्रमिक की हँसी को भी कविता की विषयवस्तु बनाती है।
पंत की आलोचना यह कहकर की जाती रही है कि वे शुद्धतावादी हैं, लोक और जीवन के कठोर यथार्थ से अपरिचित पर पंत को नए सिरे से पढ़ने पर लगता है कि वे एक प्रकार की काव्यात्मक जिजीविषा के प्रतिनिधि हैं, जो समय की चाल को आत्मा के अनुभव से जोड़कर देखना चाहता है। यही कारण है कि उनका ‘लोकायतन’ उपनिषदों के दर्शन से लेकर मार्क्सवादी यथार्थवाद तक का समन्वय है पर वह एक ऐसे भाषा-संस्कार में रचा गया है जो किसी विचारधारा की नकल नहीं करता बल्कि विचार की तात्त्विकता को अपने शब्दों में पिघलाकर प्रस्तुत करता है।
आज पंत की जयंती पर उन्हें ‘प्रकृति-कवि’ कह देना केवल उन्हें बौना करना है। हमें देखना होगा कि वह कौन-सा रचनाकार था, जो शब्दों के रंगों से केवल फूलों की पंखुड़ियों को नहीं, बल्कि समय के चेहरे पर झुर्रियों को भी चित्रित कर सकता था। उनकी भाषा में जब ‘प्रभात’ आता है, तो वह केवल एक दिन की शुरुआत नहीं, बल्कि चेतना का उजास होता है। और जब ‘संध्या’ उतरती है तो वह आत्मा की थकन और विचार की निवृत्ति का सूक्ष्म बिंब बन जाती है।
आज के समय में जब कविता की भाषा या तो पत्रकारिता हो गई है या दुरूह तंत्र-शास्त्र, तब पंत की काव्य-भाषा में एक ऐसी स्पष्टता, एक ऐसी पारदर्शिता मिलती है जो भावों को उनकी गहराई में पकड़ती है। उनके यहाँ भावुकता नहीं, भावों का अनुशासन है। उनकी भाषा कड़ी होती है, पर कोमल भी, दार्शनिक होती है पर बोझिल नहीं। यही संतुलन उन्हें एक ऐसा कवि बनाता है जिसे केवल छायावाद का हिस्सा मानना न्याय नहीं होगा। वे उस सांस्कृतिक चेतना के संवाहक हैं, जो संस्कृत की ध्वनियों से लेकर लोकधुनों तक फैली है।
इस जयंती पर यदि हमें पंत को नए आलोक में देखना है तो हमें उनकी कविता में छिपी उस आत्मा की तलाश करनी होगी जो न तो भोग की है, न ही पलायन की, बल्कि वह एक सतत आत्म-विकास की यात्रा है। वे किसी शाश्वत ‘सत्य’ की खोज में नहीं बल्कि अनुभव की बहुविधता को समेटते हुए शब्दों के भीतर छिपे अनकहे को व्यक्त करने के मार्ग पर हैं। यह उन्हें हमारे समय के लिए भी प्रासंगिक बनाता है क्योंकि हमारा समय भी अनेक अन्तर्विरोधों से भरा है—संवेदना की माँग करता हुआ पर सतही भाषा में उलझा हुआ। पंत की कविता उस चुप्पी की भाषा है, जो शोर में नहीं, सुनने में विश्वास रखती है।
इसलिए पंत को अब केवल एक विगत युग के सौंदर्योपासक के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे रचनाकार के रूप में स्मरण किया जाना चाहिए, जो काल की गति के साथ आत्मा की ध्वनि को पकड़ सकता था। वे हमें सिखाते नहीं, वे हमारे भीतर एक जागृति पैदा करते हैं—कि कविता केवल लिखी नहीं जाती, वह आत्मा से उपजती है और आत्मा को ही उद्दीप्त करती है। यही सुमित्रानंदन पंत की जयंती का सही उत्सव होगा—कि हम उनकी कविता को न केवल पढ़ें बल्कि उसकी रोशनी में अपने भीतर उतरने का साहस भी करें।
।। दो ।।
सुमित्रानंदन पंत के रचनात्मक व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष वह है जहाँ उनकी कविता सौंदर्य और अनुभूति की सीमाओं को पार कर बौद्धिकता और विचार की चुनौती से जूझने लगती है। वे जिस युग में सक्रिय थे, वह युग केवल राष्ट्रवादी उत्साह का नहीं बल्कि गहरे सामाजिक संघर्षों, सांस्कृतिक आत्ममंथन और विचारों के द्वंद्व का युग था। पंत की कविता, विशेषकर ‘युगांत’, ‘ग्राम्या’ और ‘लोकायतन’ में, इस बौद्धिक संघर्ष का एक काव्यात्मक रूपांतरण बन जाती है। यहाँ सौंदर्यबोध एक नैतिक जिज्ञासा में बदलता है और कविता एक आत्मसंशोधन की प्रक्रिया में।
पंत के लिए कविता कोई विलास नहीं बल्कि एक अनिवार्य तपश्चर्या है। वे ‘कवि’ को केवल सौंदर्य का साधक नहीं, ‘मानवता का पथप्रदर्शक’ मानते हैं—पर यह पथप्रदर्शन किसी वाग्जाल या नारे के द्वारा नहीं होता। यह एक धीमा, गहन, अनुभव-संपन्न मार्ग है, जहाँ प्रत्येक शब्द एक मूल्य बनकर उतरता है। उनके ‘लोकायतन’ में जब वे श्रमिक, किसान और आम जनजीवन के दृश्य खींचते हैं तो वे उनके प्रति करुणा या दया से नहीं बल्कि सह-अस्तित्व और नैतिक समानता की चेतना से भरे होते हैं।
पंत की भाषा-चेतना इस अर्थ में भी महत्त्वपूर्ण है कि वे लगातार संस्कृतनिष्ठता से जनभाषा की ओर और फिर एक नई आधुनिक संवेदना की ओर अग्रसर होते हैं। यह भाषा केवल माध्यम नहीं, विचार की गति है। वे छंद से छंदमुक्ति की ओर आते हैं लेकिन यह छंदमुक्ति किसी आधुनिकता की नकल नहीं बल्कि एक आंतरिक लय की खोज है, जहाँ भाषा जीवन की तरह बहती है—कभी सुव्यवस्थित, कभी विखंडित। उनकी कविता में प्रयुक्त उपमान भी इसी बदलाव को दर्शाते हैं—‘चांदनी’ के बजाय ‘भट्ठी की ज्वाला’, ‘गुलाब’ की जगह ‘मजदूर का हथौड़ा’। यह रूपक-परिवर्तन केवल विषय का परिवर्तन नहीं है, यह संवेदना की दिशा का परिवर्तन है।
समय के साथ पंत के भीतर एक दार्शनिक व्यग्रता जन्म लेती है। उनके लिए अब कविता जीवन के रहस्यों को टटोलने का माध्यम बनती है। यह रहस्यधर्मिता किसी रहस्यवाद की छाया नहीं है बल्कि अस्तित्व की जटिलता को समझने की एक मानवीय बेचैनी है। वे मृत्यु, अनंत, आत्मा और पुनर्जन्म जैसे विषयों को एक आस्थावान और संशयशील दोनों दृष्टियों से देखते हैं। उनके यहाँ प्रश्न हैं, उत्तर नहीं; और यही आधुनिकता का सबसे प्रामाणिक लक्षण है। यह लक्षण पंत को तुलसी, कबीर और बुद्ध की परंपरा से जोड़ता है लेकिन एक नए भाषिक और भावबोध के धरातल पर।
पंत को यदि केवल ‘छायावादी’ कहा जाए तो यह उनकी कविता के व्यापक फलक को सीमित करने जैसा होगा। वे छायावाद के कवि हैं पर उससे आगे बढ़कर वे भारतीय आधुनिक कविता के पहले गंभीर पुनर्विचारक भी हैं। निराला, मैथिलीशरण गुप्त और महादेवी के बीच खड़े पंत की विशेषता यह है कि वे आत्मसंशोधन की प्रक्रिया को अपने काव्य-जीवन का केन्द्रीय भाव बनाते हैं। वे स्थिर नहीं रहते और यही उनकी सबसे बड़ी कविता है—कि वे स्वयं कविता बन जाते हैं।
आज के समय में जब कवियों के लिए विचारधारा के झंडे उठाना आसान है पर भाषा में आत्मा की रोशनी भरना कठिन तब पंत की कविता हमें यह सिखाती है कि कैसे विचार और भाव, सौंदर्य और संघर्ष, आत्मा और समाज—इन सबके बीच एक संतुलन संभव है। पंत की कविता आत्ममुग्ध नहीं है; वह आत्मा के भीतर के ध्वनि-प्रकाश की खोज करती है।
अब पन्त के साहित्य के पुनर्पाठ की आवश्यकता है- ऐसा पुनर्पाठ जो उन्हें रूढ़ छवियों से मुक्त करके एक जीवंत चेतना के रूप में देखे। वे बीते हुए कल के नहीं बल्कि उस भविष्य के कवि हैं जिसकी ज़मीन आज तैयार हो रही है—संघर्ष, जटिलता, आत्मसंशय और गहराई से भरे इस समय में।
।। तीन ।।
सुमित्रानंदन पंत की कविता का पुनर्पाठ केवल एक साहित्यिक कृतज्ञता का अभ्यास नहीं बल्कि समकालीनता की खोज है। जिस सहजता से उन्होंने प्रकृति के सौंदर्य को आत्मा का विस्तार बनाया, उसी गहराई से वे युगीन द्वंद्व, सामाजिक विषमता और अस्तित्व की जटिलताओं में उतरते हैं। यह यात्रा एक व्यक्ति की नहीं, भारतीय आधुनिकता की काव्य-यात्रा है, जिसमें पंत एक पुल की तरह खड़े हैं—आध्यात्मिक रागात्मकता और सामाजिक आत्मबोध के बीच।
पंत की सबसे बड़ी विशेषता यही रही कि उन्होंने कविता को समय का सौंदर्यबोध बनाया। वे सौंदर्य के पुजारी कहे गए, पर उन्होंने सौंदर्य को पलायन नहीं, संघर्ष और करुणा का एक आयाम बना दिया। ‘पुष्प से भारती’ की यह यात्रा ‘जन से भारत’ तक पहुँची और वहाँ एक नवीन नीतिकाव्य का रूप लेती है। वे सत्ता से आकर्षित नहीं हुए, अपितु सत्ता के भीतर की संवेदना को टटोलने की कोशिश करते हैं। उनके यहाँ गांधी भी हैं, मार्क्स भी, और बुद्ध भी—पर सबसे प्रमुख है एक अनन्त प्रश्न : मनुष्य क्या है?
आज के समय में जब कविता अक्सर शोर में डूब जाती है, पंत की कविता हमें मौन की शक्ति का स्मरण कराती है। उनके शब्दों में संगीत था, लेकिन वह संगीत आत्मा का था—किसी सभा या पुरस्कार मंच का नहीं। वे आत्मलीन होते हुए भी सामाजिक हैं और सामाजिक होते हुए भी दार्शनिक। यह संतुलन ही उनकी कविता को एक प्रासंगिक नाद बनाता है।
पंत को पढ़ना अपने समय से भिन्न होकर भी उससे अधिक गहराई से जुड़ना है। उनका काव्य हमें एक ऐसी दृष्टि देता है जो वस्तुओं में आत्मा, शब्दों में मौन और सौंदर्य में संघर्ष देख सकती है। इसीलिए पंत आज केवल स्मरण के नहीं, संवाद के कवि हैं—संवाद आत्मा से, प्रकृति से, भाषा से और अंततः उस अदृश्य सत्य से जो कविता का अंतिम आधार होता है।
उनकी जयंती पर हम उन्हें नमन करते हुए दरअसल कविता को, उसकी मूल गहराई को प्रणाम कर रहे होते हैं। पंत अब एक नाम नहीं, एक दृष्टि हैं—और यह दृष्टि भविष्य की ओर देखती है, जहाँ कविता फिर से मनुष्य बनने की यात्रा तय करेगी।