— सरला माहेश्वरी —
अंधविश्वास के अंधेरों से बाहर निकलने का आह्वान करने वाले, रवीन्द्रनाथ के शब्दों में भारत पथिक, नवजागरण की ज्योति जलाने के लिये अथक संघर्ष करने वाले, बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न, महिलाओं के अधिकारों, उनकी स्वतंत्रता और समानता के लिये आवाज़ उठाने वाले, सती प्रथा जैसी क्रूर, अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ धार्मिक कट्टरपंथियों से लोहा लेने वाले राममोहन राय को आज जन्मदिन पर सादर नमन। ये राजा राममोहन राय ही थे जिनके अथक प्रयासों से सती प्रथा जैसी क्रूर और अमानवीय प्रथा को रोकने के लिये क़ानून बनाया गया। आज उन्हें याद करते हुए यह कविता जो 1987 में दिवराला में रूपकंवर को सती बनाये जाने के समय लिखी थी :
“यदि मानव जाति किसी के द्वारा थोपे गए विचारों का अनुसरण न करे और अपने तर्क से सत्य का अनुसरण करे, तो उसकी उन्नति को कोई रोक नहीं सकता। प्रत्येक भेदभाव को मिटा कर प्रगति की राह पर अग्रसर हो सकता है।”
“प्रत्येक स्त्री को पुरूषों की तरह अधिकार प्राप्त हो, क्योंकि स्त्री ही पुरूष की जननी है। हमें हर हाल में स्त्री का सम्मान करना चाहिए।”
आज आधुनिक भारत के रचयिता, भारतीय नवजागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय का जन्मदिन है। ये राजा राममोहन राय ही थे जिनके अथक प्रयासों से सती प्रथा जैसी क्रूर और अमानवीय प्रथा को रोकने के लिये क़ानून बनाया गया। आज उन्हें याद करते हुए यह कविता जो 1987 में दिवराला में रूपकंवर को सती बनाये जाने के समय लिखी थी।
उस समय पिता, जनकवि हरीश भादानी यहीं कोलकाता में थे। हालांकि तब कविताएं लिखती नहीं थी। उन्हें जब ये कविता सुनाई तो उन्होंने हँसते हुए माथे पर हाथ रखा और कहा कि इसमें यकीन नहीं होता जानदार है।
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर !
यक़ीन नहीं होता
कैसे बर्दाश्त किया होगा तुमने
आग की उन लपटों को
कैसे बर्दाश्त किया होगा तुमने
सती माँ की जय-जयकार करती
उस उन्मादित भीड़ को
जिसने सुनकर भी अनसुना कर दिया
तुम्हारी चीख़ों-चिल्लाहटों को
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर
कि तुम्हारे रुकते, सहमते
फिर-फिर लौट आते क़दमों को
ज़बरन मौत के मुँह में धकेलती
इस भीड़ को तुमने
जल्लादों के रूप में नहीं देखा होगा
यक़ीन नहीं होती रूपकंवर
कि तुम्हारे रोएँ रोएँ ने
अपनी सम्पूर्ण शक्ति से इन्हें धिक्कारा नहीं होगा
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर
कि इस बर्बर मौत की तरफ़ बढ़ते तुम्हारे क़दमों ने
आगे बढ़ने से इंकार नहीं किया होगा
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर
कि तुम्हें मारकर
तुम्हारा परलोक
और अपना इहलोक सुधारने वाली
कूट स्वार्थों से भरी उन निगाहों को
तुमने पढ़ा नहीं होगा
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर
कि तुमने होशो-हवाश में
चुनी होगी ऐसी मौत
सच बतलाना रूपकंवर
किसने, किसने
तुम्हारे इस सुंदर तन-मन को
आग के सुपुर्द कर दिया
क्या तुम्हें डर था कि
देवी न बनी तो डायन बना दी जाओगी
क्या तुम्हें डर था
अपने उस समाज का
जहाँ विधवा की जिंदगी
काले पानी की सज़ा से कम कठोर नहीं होती
लेकिन फिर भी
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर
कि हिरणी कि तरह चमकती तुम्हारी आँखों ने
यौवन से हुलसते तुम्हारे बदन ने
आग की लपटों में झुलसने से
इंकार नहीं किया होगा
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर
कि मौत से जूझते हुए
तुम्हारी आँखों ने
इंतज़ार नहीं किया होगा किसी और राममोहन राय का
जो बुझा देता उन दहकते अंगारों को
खींच कर ले आता
तुम्हें इस अग्नि ज्वाला से
यक़ीन नहीं होता रूपकंवर
अविरामवार्य एधि !
हे प्रकाश ! हमारे बीच तुम्हारा आविर्भाव परिपूर्ण हो।
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