— परिचय दास —
जगदीश गुप्त का रचना-संसार प्रचलित मान्यताओं से भिन्न, अंतर्मुखी और गहन मनोवैज्ञानिक धरातलों पर विचरण करता है। वे न तो नागार्जुन की तरह जनपदीय मुखरता के कवि हैं, न अज्ञेय की तरह विचारों के स्थापत्यकार, बल्कि उनकी पहचान एक ऐसे साधक कवि की है, जो जीवन की अनगिन गुत्थियों में उलझे हुए मौन को शब्द देने का प्रयत्न करता है।
जगदीश गुप्त के काव्य में सूक्ष्मता है, पर वह उसमें पूरी तरह समाहित नहीं। वे भाषा को फूल की तरह नहीं, पत्थर की तरह गढ़ते हैं। उनकी कविता में जो सौंदर्य है, वह नीरव नहीं, वह एक ऐसा सौंदर्य है जिसमें विछोह, अनात्मता और पीड़ा की ध्वनियाँ अन्तर्निहित हैं। उनकी कविताएं उनके भीतर के तपस्वी कवि को उजागर करती हैं, जो सांसारिक अनुभूतियों के पार जाकर भी उन्हें त्यागता नहीं। उसमें एक प्रकार की करुणा है, जो नारी, प्रकृति और मनुष्य के अस्तित्वगत संकटों के प्रति सजग है, पर साथ ही एक किस्म का विवेक भी है, जो उसे आत्मदया से अलग करता है।
उनकी कविताएं पाठक को सीधे नहीं पकड़तीं, बल्कि धीरे-धीरे उसकी चेतना में प्रवेश करती हैं। वे अपनी कविताओं में प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से एक आंतरिक जीवन की संरचना करते हैं, जिसमें हर अनुभव अर्धविस्मृत-सा होकर भी गहरा प्रतीत होता है। जगदीश गुप्त की कविता में जो विरलता है, वह रचनात्मक साहस का प्रमाण है—वे उस पथ के राही हैं जो भीड़ से अलग है, जो केवल अपनी यात्रा में ही सार्थकता खोजता है।
उनका गद्य भी उसी ताप से निकला है, जिसमें उनकी कविता तपती है। उनमें एक अंतर्ध्वनि है—सुनने वाला ही उसका मूल्य समझ सकता है। वे जीवन के स्थूल पक्ष को छोड़कर उसकी महीन परतों में उतरते हैं। उनकी भाषा में एक गूढ़, किंतु विलक्षण पारदर्शिता है। वे कभी भी फालतू नहीं बोलते। उनके शब्द, उनके विराम, यहां तक कि उनकी चुप्पियाँ भी अर्थ की तरह होती हैं।
समालोचक जगदीश गुप्त के साहित्य को पढ़ने में अक्सर असहज अनुभव करते हैं क्योंकि उनके यहां प्रत्यक्ष कथन नहीं है, न ही कोई वैचारिक उद् घोष। वे वस्तु को उसकी परछाई से उद् घाटित करते हैं। इसीलिए उनकी कविता को साधारण आलोचना के औज़ारों से नहीं समझा जा सकता। वे न तो यथार्थवाद के सरल वृत्त में आते हैं और न ही प्रतीकवाद की अतिरेकी आभा में। वे कविता को एक ऐसी साधना मानते हैं जो ‘कथ्य’ से अधिक ‘चेत्य’ का आग्रह रखती है।
उनके यहां स्त्री का चित्रण विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। नारी उनके लिए मात्र प्रेम की वस्तु नहीं, एक रहस्य है, एक पीड़ित सत्ता, जिसे वे न तो पूजते हैं और न ही तुच्छ ठहराते हैं। वह नारी शोषण और कामना के पार जाकर एक स्वतंत्र सत्ता बनकर उभरती है। उनका यह दृष्टिकोण उन्हें समकालीनों से भिन्न बनाता है। वे नारी को आत्मा के तल पर पहचानते हैं, न कि सामाजिक पहचान के जरिए। इसी कारण उनकी कविताएं यौन और आत्मा के बीच के उस सूक्ष्म क्षेत्र में विचरण करती हैं जहाँ बहुधा अन्य कवि साहस नहीं करते।
जगदीश गुप्त की भाषा का एक खास रंग है। वह साधारण नहीं, किंतु जटिल भी नहीं। उसमें एक प्रकार का विराग है, एक ठहरी हुई बेचैनी, जो पाठक को भीतर तक आंदोलित करती है। उन्होंने अपनी कविता में जो नैतिक तनाव रचा है, वह किसी धर्मशास्त्रीय आग्रह का परिणाम नहीं, बल्कि उनके आत्मसंघर्ष का निष्कर्ष है। वे अपने भीतर के संशयों को कविता में जीते हैं, और यही उनकी कविता की नैतिक गरिमा है।
वे हिंदी कविता के एकांत साधक हैं, जिन्हें साहित्यिक इतिहास ने उतनी प्रमुखता नहीं दी जितनी उनकी रचनात्मक गरिमा को मिलनी चाहिए थी। परंतु यह भी सही है कि उन्होंने कभी साहित्यिक प्रतिष्ठान में प्रवेश करने की चेष्टा नहीं की। उनका समर्पण केवल रचना के प्रति था, और शायद इसी कारण वे अपनी रचनाओं में इतने सघन, इतने आत्मगत, इतने पारदर्शी हो सके।
जगदीश गुप्त की काव्यदृष्टि मूलतः आत्मकेंद्रित नहीं, आत्म-उद् घाटन की ओर प्रवृत्त है। वे जीवन के अंतिम प्रश्नों से जूझते हैं—‘कौन हूं मैं’, ‘कहाँ से आया’, ‘क्यों जी रहा हूं’—इन प्रश्नों को उन्होंने किसी तात्त्विक भाषा में नहीं, बल्कि कविता की रागात्मक संरचना में पिरोया है।
उनकी कविता में अक्सर एक आत्मालोचनात्मक स्वर रहता है, जैसे वे अपनी ही चेतना के भीतर से गुजरते हुए पाठक को भी उस मार्ग पर आमंत्रित कर रहे हों। उनका ‘मैं’ एक निजी अहं नहीं, बल्कि एक आत्म-प्रश्न है, जो हर जागरूक पाठक के भीतर भी गूंज सकता है। वे आत्मकथा नहीं लिखते, पर उनका सारा लेखन आत्मवृत्त जैसा प्रतीत होता है—एक ऐसा आत्मवृत्त जिसमें कोई स्पष्ट रेखा नहीं, पर बहुत-से धुंधले, चमकते बिंदु हैं, जो मिलकर एक सूक्ष्म दीप्ति रचते हैं।
इस प्रकार जगदीश गुप्त हिन्दी काव्य-परंपरा के उस विरल कवि हैं, जिनकी रचना में गहराई है, संकोच है, किन्तु एक विशेष प्रकार की गरिमा भी है। वे प्रचार और लोकप्रियता के कवि नहीं हैं, वे उस मूक पाठक के कवि हैं जो शब्दों के पीछे की ध्वनि को सुनने का धैर्य रखता है।
जगदीश गुप्त की प्रमुख कविताओं में जीवन के गूढ़ पक्षों की गहरी पहचान है। उनकी रचनाओं में कोई भी विषय सतही ढंग से नहीं आता। ‘निर्मिति’ कविता एक ओर आत्मविनाश की ओर झुकती हुई चेतना का आभास देती है तो दूसरी ओर उस नश्वरता से उपजे सौंदर्य-बोध को भी मूर्त करती है। यह कविता एक प्रकार की मानसिक यात्रा है—सृष्टि से विसर्जन तक की। उनके लिए कविता एक अनुभवजन्य प्रक्रिया है, जिसमें वस्तु और संवेदना का अद्वैत घटित होता है।
उनकी कविता ‘तपोवन की छाया’ भारतीय मानस की उस स्मृति को पकड़ने का प्रयास है जो सभ्यता और आधुनिकता के दबावों में धुंधला पड़ गया है। इस कविता में वे बाह्य तप से अधिक आंतरिक ताप को महत्व देते हैं। यह ताप कोई धार्मिक औचित्य नहीं, बल्कि एक आत्ममंथन है, जिससे कविता की लय जन्म लेती है। गुप्त यहाँ गहरे सांस्कृतिक बोध के साथ आधुनिक बोध का संश्लेषण करते हैं।
जगदीश गुप्त की भाषा में एक ऐसा संयम है, जो स्वयं को रचते हुए भी अपने स्रोत की ओर सजग बनी रहती है। वे किसी भी प्रतीक या रूपक का अतिरेकी उपयोग नहीं करते। उनकी कविता में प्रयुक्त शब्द शोर नहीं करते, बल्कि धीरे-धीरे पाठक के भीतर उतरते हैं। उदाहरण के लिए, ‘विचलन’, ‘रक्तवृक्ष’, ‘स्पर्श की दूरी’, ‘शून्य की स्त्री’ जैसी कविताओं में शारीरिकता की उपस्थिति होते हुए भी वह केवल शारीरिक नहीं है। यह उनके काव्य का एक विलक्षण गुण है—वे देह को आत्मा से इस तरह जोड़ते हैं कि वह कविता में वस्तु न होकर प्रक्रिया बन जाती है।
गुप्त के गद्य में भी वही आत्मगंभीर लय है, जो उनकी कविता का आधार है। वे अल्पप्रकाशित किन्तु अत्यंत प्रभावशाली कहानियाँ लिखते हैं। ‘अंधेरे के पार’ और ‘विचार-रेखाएं’ जैसी कहानियाँ महज कथा नहीं, बल्कि अनुभव की तरल परिणतियाँ हैं। इन कहानियों में एक विचार है जो जीवन की मूलभूत गुत्थियों से जूझता है, लेकिन बिना किसी वैचारिक घोषणापत्र के। वे पात्रों को परिस्थितियों में नहीं, स्थितियों को पात्रों में खोजते हैं। इसलिए उनका गद्य मनोविश्लेषण की गहराइयों में उतरता है, जहाँ पाठक को अपने भीतर उतरने की चुनौती मिलती है।
गुप्त की आलोचना-संवेदना उनके ही काव्य और गद्य को पढ़ते हुए विकसित होती है। वे आलोचना को मूल्य-निर्धारण नहीं, मूल्य-प्राप्ति की प्रक्रिया मानते हैं। उन्होंने कुछ आत्मकथात्मक टिप्पणियाँ, डायरी-पृष्ठ और लेख लिखे हैं, जो सीधे आलोचना के दायरे में नहीं आते, फिर भी उनमें एक सुसंस्कृत काव्य-बोध विद्यमान है। उनका आलोचना-विवेक रचना के साथ जुड़कर उसका आलोचनात्मक विस्तार करता है। वे किसी वाद या प्रवृत्ति की स्थापनाओं से परे जाकर रचना के सौंदर्य-तत्त्व को पकड़ने की चेष्टा करते हैं।
उदाहरणस्वरूप, गुप्त की आलोचना में मुक्तिबोध की तरह कोई वृहद वैचारिक-संरचना नहीं है, पर उसकी आत्मध्वनि अवश्य है। वे आलोचना में कविता की ही भंगिमा को लाते हैं, इसीलिए उनकी टिप्पणी भी एक तरह की कविता बन जाती है। वे आलोचना को प्रमाण नहीं, प्रत्यय की तरह प्रस्तुत करते हैं। उनके लिए एक कविता को समझने का सबसे ईमानदार तरीका है—उसे बार-बार पढ़ना, उसमें चुप्पी की छाया तक पहुंचना।
गुप्त की कविता में मिथकीय संकेत भी मौजूद हैं, लेकिन वे उसका आख्यान नहीं रचते। उनके लिए राम, शिव, उर्वशी या यक्ष कोई पात्र नहीं, बल्कि चेतना के प्रतीक हैं। वे उन्हें परंपरा से निकालकर वर्तमान में पुनः स्थापित करते हैं। परंतु यह स्थापना यांत्रिक नहीं, एक नई आत्म-संरचना का अंग होती है। उनके मिथक किसी सांस्कृतिक स्मृति का बोझ नहीं, बल्कि स्मृति की पुनर्रचना हैं।
गुप्त के यहां स्त्री की छवि सदा जटिल और बहुवचन में मिलती है। वह वासना का उपकरण नहीं, एक अस्तित्वगत संघर्ष का रूप है। ‘शून्य की स्त्री’ या ‘देह के द्वीप’ जैसी कविताएं इस बात को रेखांकित करती हैं कि गुप्त की कविता नारी को एक औपचारिक उपस्थिति के रूप में नहीं, बल्कि आत्मसंघर्ष की साझेदार के रूप में देखती है। वह देह और आत्मा के बीच उस रहस्यमयी रेखा की कविता है, जो स्त्री को केवल प्रेम-प्रस्ताव नहीं बनाती, बल्कि प्रश्न बना देती है।
जगदीश गुप्त की काव्य-दृष्टि में जो विशेष महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि वे कविता को वस्तु की तरह नहीं, प्रक्रिया की तरह देखते हैं। यह प्रक्रिया संवेदना की उस अन्त:सलिला को छूने का उपक्रम है, जो समय, समाज और यथार्थ से परे चलती रहती है। इसीलिए उनकी कविता कभी अतीत की कथा नहीं बनती, वह वर्तमान का अंधकार बनकर भी भविष्य की आभा लिए चलती है।
उनकी रचना-दृष्टि गहरी नैतिकता से परिपूर्ण है, लेकिन यह नैतिकता कोई घोषणात्मक शुद्धता नहीं, बल्कि अस्तित्व की सच्चाई से उपजी हुई सहजता है। वे न किसी आंदोलन के घोषक हैं, न किसी वाद के उद्घोषक। वे अपने अकेलेपन के सर्जक हैं। और यही अकेलापन उन्हें हिन्दी काव्य के शिखर पर एक विशिष्ट स्थान दिलाता है—उस स्थान पर जहाँ न प्रशंसा की भीड़ है, न विरोध की गूंज—केवल एक ध्वनि है, जो अंतर्मन को छूती है और फिर वहाँ बस जाती है।
जगदीश गुप्त के साहित्य को समकालीन आलोचना में वह स्थान नहीं मिल सका, जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे। इसका एक बड़ा कारण यह रहा कि वे न कभी साहित्यिक जमात का हिस्सा बने और न ही किसी आंदोलन, वाद या गुट के साथ अपनी उपस्थिति को जोड़ा। वे एकांतप्रिय सर्जक थे, जिनके लिए साहित्य एक साधना थी—न कि प्रचार का साधन। यही कारण है कि उनके जीवनकाल में भी, और उनके बाद भी, आलोचना-जगत उनके लेखन को सीमित दायरे में ही पढ़ता रहा। उनका नाम लिया गया, किंतु उनके अनुभव-लोक की तहों तक पहुंचने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई।
उनकी कविता और गद्य, दोनों ही, उस सूक्ष्मता से रचे गए हैं, जो प्रचलित आलोचना की सामान्य दृष्टियों को चुनौती देती है। वे न तो सहज सामाजिक आक्रोश के कवि हैं, न ही प्रयोगशीलता के नाम पर भाषा के अराजक उत्सव में शामिल। उनकी कविता एक अंतर्यात्रा है—ऐसी यात्रा, जो किसी लाउड घोषणाओं से नहीं, बल्कि मौन के माध्यम से चलती है। यही मौन उन्हें मुक्तिबोध की परंपरा से जोड़ता है, पर वह भी किसी सीधी तुलना से अधिक एक भाविक अनुराग है—एक गूढ़ संबंध, जो पाठकीय विवेक को अपेक्षित बनाता है।
आलोचकों की दृष्टि में जगदीश गुप्त की उपेक्षा का दूसरा कारण यह है कि वे किसी सत्ता के समीप नहीं थे। न साहित्यिक सत्ता, न अकादमिक सत्ता, और न ही राजनीतिक सत्ता। उनकी रचनाएँ कभी ‘सरकारी कविता’ नहीं बन सकीं। वे पुरस्कारों, आयोजनों और विमोचनों से दूर, अपनी रचना-प्रक्रिया में डूबे रहे। इसीलिए अनेक पाठकों ने उन्हें ‘खोज’ कर पढ़ा, पर आलोचकों ने उन्हें ‘स्थापित’ नहीं किया। यह साहित्य की विडंबना है कि वहाँ आत्मनिर्भर मौन रचनाकार की जगह हमेशा नहीं बनती।
उनकी साहित्यिक उपेक्षा की तीसरी बड़ी वजह यह रही कि वे शैली और संवेदना दोनों में ही पारंपरिक आलोचना के खांचे में फिट नहीं होते। उनके काव्य में कोई स्थूल सामाजिक सरोकार नहीं है, न ही कोई सीधा राजनीतिक नारा। उनकी कविता शरीर, मृत्यु, प्रेम, समय और मौन जैसे विषयों के इर्द-गिर्द घूमती है—लेकिन इन सबको वे अपने विशेष आत्मबोध की भूमि पर स्थापित करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं को पढ़ने के लिए पाठक को तैयार होना पड़ता है, भीतर उतरना पड़ता है। और आलोचना प्रायः उस रचनाकार को अधिक महत्व देती है, जिसे आसानी से उद्धृत किया जा सके, वर्गीकृत किया जा सके, या किसी विचारधारा के खाते में डाला जा सके।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि जगदीश गुप्त को पढ़ने के लिए जिस प्रकार के सौंदर्यबोध और काव्य-शील की आवश्यकता है, वह स्वयं हमारे आलोचना-प्रशिक्षण में कमतर होता जा रहा है। वे प्रतीकों के कवि हैं, पर उनके प्रतीक निजी हैं, दार्शनिक हैं, पारंपरिक या शास्त्रीय प्रतीकों की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ते। यही कारण है कि उनकी ‘अस्मिता’ का पाठ उस तरह नहीं बन सका, जैसा समकालीन विमर्शों के तहत अन्य लेखकों का बनता रहा है।
फिर भी कुछ आलोचकों ने जगदीश गुप्त की रचनात्मकता को गंभीरता से समझने का प्रयत्न किया है। डॉ. नामवर सिंह ने उन्हें ‘प्रतीकों के विरल कवि’ कहा, तो डॉ. केदारनाथ सिंह ने उनकी कविता को ‘अंतरात्मा के एकांत स्वर’ की संज्ञा दी। लेकिन इन टिप्पणियों के बावजूद व्यापक आलोचना-जगत में गुप्त की कविताएँ या कहानियाँ उस तरह से नहीं पहुँचीं, जैसे वे पहुँचना चाहती थीं। इसके लिए स्वयं हिन्दी आलोचना की प्रवृत्तियों पर भी प्रश्नचिह्न लगते हैं, जहाँ संवाद से अधिक संस्थागत समर्थन से लेखक स्थापित होता है।
जगदीश गुप्त की आलोचना-दृष्टि पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उनके लेखन में न केवल काव्य-बोध है, बल्कि आलोचनात्मक सजगता भी है। उनकी कविताएँ केवल अनुभूति का संप्रेषण नहीं, बल्कि विचार का स्थापत्य हैं। वे पाठक को केवल रुलाती या रिझाती नहीं, बल्कि उसे अपनी अनुभूतियों के साथ खड़ा रहने का साहस देती हैं। यही वह स्थल है जहाँ गुप्त व मुक्तिबोध आत्मसंशयी कवियों की श्रेणी में स्वतः आ जाते हैं। फर्क बस इतना है कि उन्होंने अपनी कोई आलोचना-पुस्तक नहीं लिखी, पर उनकी कविता ही उनके काव्य-विवेक की आलोचना है।
इस प्रकार, जगदीश गुप्त की साहित्यिक उपेक्षा न केवल आलोचना की दृष्टिहीनता को उजागर करती है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि हिन्दी साहित्य में मौन साधकों की प्रतिष्ठा के लिए एक नई आलोचना-दृष्टि की आवश्यकता है—एक ऐसी दृष्टि जो वाद से नहीं, संवाद से संचालित हो। गुप्त जैसे कवि का मूल्यांकन तभी संभव है जब हम आलोचना को केवल प्रतिपादन की कला नहीं, प्रत्युत संवेदना की एक आत्मीयता मानें। तभी उनकी कविता की वह धीमी ध्वनि सुनी जा सकेगी, जो आज भी हमारे भीतर गूंज सकती है—यदि हम उस मौन को सुन सकें।
जगदीश गुप्त की काव्य-दृष्टि का यदि समकालीन कवियों से तुलनात्मक अनुशीलन किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि वे हिन्दी कविता की उस सूक्ष्म, दार्शनिक और आत्मसंशयी परंपरा से संबद्ध हैं, जिसे मुक्तिबोध, शमशेर, विष्णु खरे जैसे कवियों ने अपने-अपने ढंग से विस्तार दिया। परंतु इनमें भी जगदीश गुप्त की विशिष्टता उनकी गहराई और मौन की संरचना में है। मुक्तिबोध जहाँ सामाजिक विक्षोभ को आत्मसंघर्ष के माध्यम से व्यक्त करते हैं, वहीं गुप्त का आत्मसंघर्ष अधिक सूक्ष्म, अमूर्तन की ओर प्रवृत्त और जीवन की अंतर्ध्वनियों से भरा हुआ है।
शमशेर बहादुर सिंह की तरह जगदीश गुप्त भी भाषा को केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं मानते, वह उनके लिए अनुभूति की गूंज है। किंतु जहाँ शमशेर की कविता में एक चित्रात्मक रचाव है, वहाँ गुप्त की कविता में एक स्पंदित शून्यता है। दोनों ही ध्वनि और मौन के बीच के सूक्ष्म क्षणों को पकड़ने की कोशिश करते हैं, किंतु गुप्त का मौन अधिक निर्व्याज और रहस्यात्मक है। वे शब्दों की अनुपस्थिति में भी भाव की उपस्थिति को पाठक के भीतर प्रतिध्वनित करते हैं।
विष्णु खरे से तुलना करें, तो गुप्त की भाषा अधिक गूढ़ और आत्मवृत्तात्मक प्रतीत होती है। विष्णु खरे जहाँ वक्र, तार्किक और समकालीन इतिहास की आलोचनात्मक दृष्टि से जुड़ते हैं, वहीं गुप्त कालातीत प्रश्नों से जूझते हैं—प्रेम, मृत्यु, आत्मा, प्रतीक्षा और शाश्वत मौन। उनके लिए कविता कोई तात्कालिक उत्तर नहीं, बल्कि एक लंबा मौन प्रश्न है। यह मौन उनकी काव्यात्मक अस्मिता है, जो उन्हें हिंदी की भीड़ से अलग बनाती है। वे विचारधारा का प्रतिपादन नहीं करते, बल्कि अनुभव का एक ऐसा शिल्प रचते हैं, जिसमें पाठक अपने भीतर झांकने लगता है।
यह कहना अनुचित न होगा कि जगदीश गुप्त ने हिंदी कविता में एक ऐसा कक्ष निर्मित किया, जहाँ मौन बोलता है, प्रतीक्षा गूंजती है, और मृत्यु कोई भय नहीं, एक गहन आत्मालोकन बन जाती है। यह वही परंपरा है, जिसे कहीं दूर से अज्ञेय ने छुआ था, लेकिन गुप्त ने उसे और भी सूक्ष्म और एकांत बना दिया।
इस तुलनात्मक विन्यास से यह स्पष्ट होता है कि गुप्त किसी वाद या चलन के नहीं, बल्कि एक अंतर्दृष्टिपरक काव्य-प्रवृत्ति के कवि हैं। उनकी कविता एक ऐसी भूमि है, जहाँ शून्य में अर्थ, मौन में स्वर, और प्रतीक्षा में गति दिखाई देती है। हिन्दी आलोचना यदि इस मौन की व्याख्या करना सीखे, तो गुप्त की कविता केवल ‘बिसरे- कवि’ की नहीं, बल्कि ‘नई आलोचना की चुनौती’ के रूप में सामने आएगी। यही वह भविष्य है, जहाँ जगदीश गुप्त का पुनर्पाठ न केवल जरूरी होगा, बल्कि अनिवार्य भी।
आलोचक के रूप में जगदीश गुप्त का व्यक्तित्व अत्यंत आत्मसंशयी, सौंदर्यदृष्टि-सम्पन्न और रचनात्मकता-निष्ठ रहा है। वे आलोचना को केवल विचार-प्रदर्शन का माध्यम नहीं मानते थे, बल्कि उसे रचना की अंत:प्रक्रिया के रूप में देखते थे—एक ऐसा स्थल जहाँ रचना और विचार, दोनों एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, और प्रकट की बजाय अप्रकट को उद्घाटित करते हैं। उनका आलोचना-विवेक उस पारंपरिक आलोचना से भिन्न है, जो नारे, मूल्य या वादों के इर्द-गिर्द केंद्रित रहती है।
जगदीश गुप्त का आलोचना-कार्य कम परंतु अत्यंत मार्मिक और चयनित रहा है। वे किसी आलोचक की तरह लेख नहीं लिखते थे, बल्कि किसी आत्मीय पाठक की तरह किसी काव्य या रचना की अंतर्यात्रा करते थे। उनका आलोचनात्मक विवेक इस बात में प्रकट होता है कि वे भाषा के गहरे तल में उतरकर, शब्द के भीतर के कंपन को पहचानते थे। वे सौंदर्य, मौन और अनुभूति के आलोचक थे—शब्दों के बाहर जो ध्वनियाँ हैं, वे उन्हें सुनते थे। यही कारण है कि जब वे शमशेर या मुक्तिबोध की बात करते हैं, तो उन्हें किसी विचारधारा के आलोक में नहीं, बल्कि उनकी काव्य-संवेदना की आत्मिक बनावट में देखते हैं।
उनकी आलोचना में आत्मीयता का ऐसा राग है, जो उन्हें ‘अहंकारहीन आलोचक’ बनाता है। वे किसी को खंडित करने या स्थापित करने की लय में नहीं सोचते, बल्कि काव्य में जो अपूर्व और अश्रव्य है, उसे उजागर करने के लिए रुकते हैं, सोचते हैं, मौन साधते हैं। आलोचना उनके लिए रचना के पुनराविष्कार की प्रक्रिया है, और यह पुनराविष्कार किसी घोषणात्मक भाषा में नहीं, बल्कि गहन चिंतन, प्रतीक्षा और संवेदनशील पाठ में संभव होता है।
आलोचना में उनकी भाषा रचनात्मक होती है—न तो अकादमिक शब्दाडंबर से भरी हुई, न ही केवल आत्मप्रशंसा या निषेध से ओतप्रोत। वे आलोचना को उस स्तर तक ले जाते हैं, जहाँ वह दर्शन, कविता और आत्मसाक्षात्कार का संगम बन जाती है। यही कारण है कि आलोचक के रूप में जगदीश गुप्त का स्थान हिन्दी आलोचना के इतिहास में एकांत किन्तु अविस्मरणीय है।
वे आधुनिक हिन्दी आलोचना की उस धारा के प्रतिनिधि हैं, जो संख्या या प्रचार में नहीं, बल्कि मौलिकता और सौंदर्य की परख में विश्वास रखती है। एक आलोचक के रूप में उन्होंने कम कहा, पर जब भी कहा, वह काव्य के मौन, प्रतीक्षा और मृत्युबोध की तरह, देर तक सुनाई देता है।
आलोचक के रूप में जगदीश गुप्त को समझना आसान नहीं है, क्योंकि उनकी आलोचना किसी सैद्धांतिक तर्ज पर विकसित नहीं होती, बल्कि वह एक ‘रचनाकार आलोचना’ की तरह आकार लेती है—जैसे कोई कवि किसी और कवि की कविता के भीतर जाकर उसके मौन से संवाद कर रहा हो। वे ‘रचना के भीतर से आलोचना’ करने वाले लेखक हैं, बाहर से उस पर दृष्टिपात करने वाले विश्लेषक नहीं। उनके लेखन में एक तरह की अंतर्दृष्टिपरक आलोचना की भूमिका दिखाई देती है, जो हिन्दी आलोचना में दुर्लभ है। वे न तो नामवर सिंह की तरह मार्क्सवादी आलोचक हैं, न ही रामचंद्र शुक्ल की तरह इतिहासवादी; न आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की तरह सांस्कृतिक आलोचक और न ही नंदकिशोर नवल जैसे समीक्षा-केंद्रित विश्लेषक। वे इन सबसे भिन्न, एक ऐसे आलोचक हैं जो आलोचना को एक ‘अनुभवात्मक पुनर्पाठ’ के रूप में बरतते हैं।
उनके आलोचनात्मक लेखन का स्वर संयमित, विचारशील और आत्मीय होता है। उदाहरणतः जब वे शमशेर बहादुर सिंह की कविता पर लिखते हैं, तो वह विश्लेषण नहीं, एक तरह की सौंदर्यात्मिक सहभागिता बन जाता है। वे शमशेर के रंगों को, ध्वनियों को, मौन को, और कविता के चित्रात्मक अनुशासन को इस प्रकार पकड़ते हैं कि पाठक को कविता के भीतर चल रहे एक अदृश्य संगीत का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार की आलोचना न सिर्फ ज्ञानात्मक है, बल्कि संवेदनात्मक भी—जो हिन्दी आलोचना को एक नयी ऊँचाई प्रदान करती है।
उनकी आलोचना में एक और उल्लेखनीय बात यह है कि वे किसी भी रचनाकार को उसकी लोकप्रियता, वाद या शैली के आधार पर नहीं परखते; वे उसकी रचना में छिपी हुई ‘अनकही बातों’ को पकड़ने की कोशिश करते हैं। यह गहराई उन्हें उन आलोचकों की पंक्ति में खड़ा करती है जो ‘अपूर्व को पहचानने की दृष्टि’ से सम्पन्न होते हैं—जैसे सुबोध घोष बंगला में, या निर्मल वर्मा हिन्दी में। वे उन रचनाओं को चुनते हैं जो स्वयं में जटिल और सूक्ष्म होती हैं, और जिनकी आलोचना करते समय विश्लेषण से अधिक अनुभव जरूरी होता है।
उनकी आलोचना में ‘मृत्यु’ एक केन्द्रीय उपस्थिति के रूप में उभरती है। वे कविता या गद्य को ‘मृत्यु की आहट’ के आलोक में पढ़ते हैं—मृत्यु नकारात्मक अर्थ में नहीं, बल्कि अंतिम सन्नाटे के रूप में, जहाँ भाषा मौन हो जाती है और कविता वहाँ से पुनः जन्म लेती है। इस दृष्टि से उनकी आलोचना हिन्दी की उस परंपरा से जुड़ती है जो कबीर और गोरखनाथ से होते हुए अज्ञेय और मुक्तिबोध तक पहुँचती है—एक ऐसी परंपरा जो ‘बाहर से नहीं’, ‘भीतर से’ रचना को देखती है।
उनका आलोचना-कर्म उस प्रकार का नहीं है जो विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों या संस्थागत विमर्शों के लिए लिखा गया हो। वह उन पाठकों के लिए है जो किसी कविता को पढ़ने के बाद ठहर जाते हैं, और फिर किसी आलोचक की संगत में दोबारा उस कविता को पढ़ना चाहते हैं। जगदीश गुप्त ऐसे आलोचक हैं, जो पाठक को कविता के मौन में ले जाते हैं, और वहाँ एक नया द्वार खोलते हैं—नये अर्थ, नये बिम्ब, और नये संशय के लिए।
इस प्रकार आलोचक के रूप में जगदीश गुप्त हिन्दी साहित्य में ‘अवधारणात्मक आलोचना’ के विरुद्ध ‘अनुभवात्मक आलोचना’ के समर्थक हैं। उन्होंने यह साबित किया कि आलोचना केवल ज्ञान का विस्तार नहीं, अपितु संवेदना का पुनराविष्कार भी हो सकती है। वे आलोचना को सत्ता की भाषा नहीं बनाते, बल्कि उसे प्रेम, प्रतीक्षा और मौन की भाषा बनाते हैं—जो आज के समय में बहुत दुर्लभ है। यही कारण है कि उनकी आलोचना एक प्रकार से कविता की आलोचना नहीं, कविता की संगति बन जाती है—और यही उन्हें विशिष्ट, अप्रतिम और अप्रचलित आलोचक बनाता है।
साहित्यकार के रूप में अप्रतिम विशेषताएँ:
(क) कथ्य की गहराई और अस्तित्व का बोध: जगदीश गुप्त की रचनाएँ प्रायः अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से जुड़ी होती हैं। वे मनुष्य की अस्मिता, अकेलेपन, अजनबीयत और आत्मसंघर्ष को गहराई से उभारते हैं। यह विशेषता उन्हें समकालीन रचनाकारों से अलग बनाती है।
(ख) भाषा की संश्लिष्टता और कलात्मक गद्य: उनकी भाषा अत्यंत सघन, लयात्मक और अर्थगर्भित होती है। प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से वे गूढ़ से गूढ़तर अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं। उनका गद्य-साहित्य भी कविता की कोमलता और संगीतात्मकता लिए हुए है।
(ग) आत्मपरकता और आधुनिक मनुष्य की त्रासदी का चित्रण: जगदीश गुप्त की रचनाओं में आत्मपरकता के साथ आधुनिक जीवन की उलझनों और असंगतियों का विश्लेषण मिलता है। वे जीवन के गूढ़ प्रश्नों के उत्तर तलाशते हैं और पाठक को भीतर से झकझोरते हैं।
(घ) मौन और संवाद का द्वंद्व: उनकी कहानियाँ और कविताएँ एक अनकहे मौन में संवाद करती हैं। यह मौन उनकी रचनात्मकता की पहचान है, जो मनुष्य की आतंरिक बेचैनी और दार्शनिक ऊहापोह का प्रतीक है।
(ङ) लघुता में व्यापकता: चाहे कहानी हो या कविता, जगदीश गुप्त सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरणों के माध्यम से व्यापक मानवीय अनुभव को चित्रित करने में दक्ष थे।
2. ‘नई कविता’ पत्रिका के संपादक रूप में योगदान:
(क) नई कविता आंदोलन के वैचारिक विस्तारक: ‘नई कविता’ पत्रिका के माध्यम से जगदीश गुप्त ने न केवल एक साहित्यिक आंदोलन को दिशा दी, बल्कि उसकी वैचारिक बुनियाद को स्पष्ट किया। उन्होंने कविता में आत्मबोध, आधुनिकता, संशय, संवेदना और व्यक्तिगत अनुभवों की प्रतिष्ठा की।
(ख) नये कवियों को मंच: उन्होंने अनेक उभरते हुए रचनाकारों को पहचान दी। ‘नई कविता’ पत्रिका उन युवाओं के लिए खुला मंच बनी जो पारंपरिक छायावादी काव्य-शैली से अलग अपनी अस्मिता स्थापित करना चाहते थे।
(ग) तटस्थ आलोचना और संपादकीय ईमानदारी: एक संपादक के रूप में वे निष्पक्ष और रचनात्मक आलोचना में विश्वास रखते थे। वे किसी गुट या विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध नहीं थे, बल्कि कविता के शिल्प और संवेदना को ही प्राथमिकता देते थे।
(घ) नये बिम्ब, प्रतीक और कथ्य की पहचान: ‘नई कविता’ के माध्यम से उन्होंने कविता में आये नये बिम्बों, प्रतीकों और कथ्य को चिन्हित किया और उनका सौंदर्यशास्त्र रेखांकित किया। यह उनका साहित्यिक विवेक और संपादकीय कौशल था।
(ङ) प्रयोगशीलता को प्रश्रय: वे कविता में भाषा, शिल्प और संरचना के नये प्रयोगों के समर्थक थे। उनकी पत्रिका नयी कविता के विभिन्न प्रयोगधर्मी रूपों की प्रयोगशाला बनी।
जगदीश गुप्त ने हिन्दी साहित्य को जिस संवेदनशीलता, आत्मबोध और सौंदर्यात्मक गहराई से समृद्ध किया, वह उन्हें समकालीनों में विशिष्ट बनाता है। साहित्यकार और संपादक—दोनों भूमिकाओं में उनका योगदान गंभीर, मौलिक और दूरगामी प्रभाव वाला रहा है। ‘नई कविता’ पत्रिका उनके रचनात्मक व्यक्तित्व का विस्तार थी, जो आज भी समकालीन कविता के इतिहास में एक आदर्श के रूप में मानी जाती है।
जगदीश गुप्त हिन्दी साहित्य के ऐसे आलोचक और साहित्यकार थे, जिन्होंने सैद्धांतिक गहराई और कलात्मक सूक्ष्मता—दोनों को साधा। वे केवल कहानीकार नहीं थे, बल्कि हिन्दी आलोचना के ऐसे रचनात्मक स्तंभ भी थे, जिनकी दृष्टि साहित्य को केवल विचारधारा या यथार्थ के धरातल पर ही नहीं आंकती थी, बल्कि सौंदर्य, भाषा और अंतर्वस्तु की संश्लिष्ट जटिलताओं के भीतर प्रवेश करती थी।
परिमल जैसी संस्था के संस्थापक के रूप में उनका योगदान विशुद्ध बौद्धिकता और कला-दृष्टि के संतुलन का उदाहरण था। परिमल कोई परंपरागत साहित्य मंडली नहीं थी; वह एक बौद्धिक प्रयोगशाला थी, जहाँ आधुनिकता, भारतीयता और कलात्मकता के मूल्यों को नए सिरे से गढ़ा जा रहा था। जगदीश गुप्त वहाँ एक ऐसा स्वर थे, जो साहित्यिक रचना में जीवन की दार्शनिकता, स्मृति की गहराई, और आत्म-चिंतन के प्रति आग्रह लेकर उपस्थित थे।
उनका आलोचनात्मक लेखन यंत्रवत मार्क्सवादी ढाँचे से परे जाता है। वे विचारधारा को स्वीकार करते हुए भी रचना की आत्मा को उसकी भाषिक और संरचनात्मक शक्ति में पहचानते हैं। उन्होंने छायावाद को केवल भावुकता नहीं माना, बल्कि उसमें रचनात्मक एकांत, व्यक्ति की आत्मचेतना और सौंदर्य की शुद्ध आकांक्षा के बीज देखे। उनका दृष्टिकोण यह था कि कोई भी साहित्यिक आंदोलन केवल सामाजिक परिस्थिति से नहीं, बल्कि सर्जनात्मक आत्मा की बेचैनी से भी उत्पन्न होता है।
जगदीश गुप्त के निबंधों और आलोचनात्मक टिप्पणियों में यह विशेषता रही कि वे भाषा की सूक्ष्मता, रूपकों की गहराई, और छवियों की अर्थवत्ता को समझते थे। वे शैली के प्रति जितने सजग थे, उतने ही गहरे पाठ के स्तर पर उतरने में भी सक्षम थे। वह आलोचना को केवल मूल्यांकन नहीं मानते थे, बल्कि उसे एक प्रकार की ‘आत्मीय रचना’ मानते थे, जहाँ आलोचक लेखक के साथ संवाद करता है—उसे काटता-छाँटता नहीं, बल्कि उसका आंतरिक संगीत सुनने की चेष्टा करता है।
आज जब हिन्दी आलोचना में या तो विचारधारात्मक कठोरता दिखाई देती है या फिर व्यक्तिगत राग-द्वेष की आक्रामकता, वहाँ जगदीश गुप्त की आलोचना शैली एक संयमित, बौद्धिक और सौंदर्यग्राही परंपरा की याद दिलाती है। वे आलोचक होकर भी रचनाकार की स्वतंत्रता को सम्मान देते हैं, और भाषा के प्रति उनका अनुराग आलोचना को एक सर्जनात्मक विधा में बदल देता है।
जगदीश गुप्त पर विचार करना केवल एक व्यक्ति या संस्था का मूल्यांकन नहीं है, बल्कि यह उस समय का पुनर्पाठ है जब हिन्दी साहित्य में ‘परिमल’ जैसी संस्थाएँ विचारधाराओं के समन्वय से एक समकालीन चेतना गढ़ रही थीं। आज जब हम साहित्य की नई व्याख्याएँ खोज रहे हैं, तब जगदीश गुप्त की यह शैली, यह संतुलन और यह अंतर्यात्रा फिर से प्रासंगिक होती जा रही है। वे हमें आलोचना की उस परंपरा से जोड़ते हैं, जो गहराई, गरिमा और कलात्मक सजगता से भरी हुई है।
जगदीश गुप्त पर विचार करते समय “संग्राम” केवल सामाजिक या राजनीतिक संघर्ष का पर्याय नहीं है, बल्कि वह उनके भीतर घटित उस गहरे बौद्धिक और आत्मिक संघर्ष का बिम्ब बन जाता है, जिसे उन्होंने एक रचनाकार, आलोचक और साहित्यिक कर्मयोगी के रूप में जिया। हिन्दी साहित्य में जहाँ अधिकतर लेखकों ने विचारधारात्मक स्पष्टता या किसी स्थापित पंथ के साथ अपने को जोड़कर एक स्वीकृत ‘स्थान’ प्राप्त किया, वहीं जगदीश गुप्त ने लगातार स्वतंत्र और सजग आत्मा के संघर्षशील स्वरूप को अपनी पहचान बनाया।
उनका संग्राम एक रचनात्मक मूल्यबोध को लेकर था। वे छायावादी नहीं थे, पर छायावाद के आत्मबोध को अस्वीकार नहीं करते; वे प्रगतिशील नहीं थे, फिर भी सामाजिक यथार्थ के सच्चे और गहरे चित्रकार थे। वे आधुनिक थे, पर पाश्चात्य आधुनिकता के अंध अनुकरण से दूर रहते थे। यह संघर्ष उन्हें द्वंद्वात्मक बनाता है—पर वह द्वंद्व विघटनकारी नहीं, बल्कि सर्जनात्मक है।
‘परिमल’ समूह का उनका निर्माण और नेतृत्व भी एक प्रकार का बौद्धिक संग्राम था—एक ओर लंपट भावुकता से साहित्य को बचाने का प्रयास, दूसरी ओर विचारधारा के नाम पर कला-विरोधी कट्टरता से टकराने की प्रतिबद्धता। उन्होंने आलोचना को न शुष्क विवेचना माना, न एकतरफा प्रचार का उपकरण—बल्कि उसे एक सजग और सजीव पाठ-प्रक्रिया का नाम दिया।
इस नए दृष्टिकोण से देखा जाए तो जगदीश गुप्त की आलोचना अपने भीतर वह “शब्द-संग्राम” है, जो भाषा, शिल्प, दृष्टि और मूल्य—इन सबके बीच संतुलन की लड़ाई लड़ती है। वे किसी सिद्धांत के प्रति अंध समर्पण में नहीं जाते, बल्कि हर रचना को उसकी विशिष्टता में समझने का जोखिम उठाते हैं।
आज जब हिन्दी आलोचना या साहित्य-चर्चा दो खांचों में बँट चुकी है—एक ओर संस्थागत वर्चस्व की राजनीति, दूसरी ओर आत्मकेंद्रित आत्मालोचना की विघटनकारी प्रवृत्ति—तब जगदीश गुप्त की यह उपस्थिति हमें एक तीसरे मार्ग की ओर संकेत करती है, जहाँ लेखन एक जागरूक तपस्या है, और आलोचना एक संग्राम के भीतर से उठी हुई अंतरंग दृष्टि।
इस तरह, जगदीश गुप्त पर आलोक- विचार करना उनके समूचे लेखन को एक नए स्तर पर समझने का अवसर देता है—जहाँ लेखक की असहमति, संशय और आत्म-संघर्ष उसकी शक्ति बन जाते हैं, न कि दुर्बलता। यही वह नया दृष्टिकोण है, जो न केवल उनके कृतित्व को पुनर्पाठ की माँग करता है, बल्कि हिन्दी साहित्य के भविष्य के लिए भी एक जरूरी बौद्धिक आह्वान है।
जगदीश गुप्त का साहित्यिक जीवन केवल लेखन का नहीं, बल्कि विचार, संवेदना और मूल्य-बोध के स्तर पर निरंतर संग्राम का जीवन रहा है। यह संग्राम केवल बाह्य सामाजिक या वैचारिक टकराव का नहीं, बल्कि भीतरी सजगता, आत्म-संदेह और सतत आत्म-समालोचना का भी था। वे उन गिने-चुने आलोचकों में हैं जिनके लिए आलोचना, रचना से भिन्न कोई न्यूनतर विधा नहीं थी, बल्कि एक ‘दूसरी रचना’ थी—जिसमें विचार की वही आग, वही कलात्मकता और वही अन्वेषणशीलता उपस्थित थी जो एक सशक्त कविता या कहानी में होती है।
जगदीश गुप्त पर “नई दृष्टि” से विचार करते हुए सबसे पहले हमें उनकी ‘मनोवैज्ञानिक आलोचना’ की समझ को पहचानना होगा। वे रचना के भीतर उतरने के लिए केवल सामाजिक या ऐतिहासिक संदर्भों का सहारा नहीं लेते, बल्कि रचना के अन्तःप्रवाह, उसके छिपे हुए अर्थ-स्तरों, और लेखक की अनकही मनोदशाओं तक पहुँचने की चेष्टा करते हैं। उनका आलोचक मन रचना को केवल समझता नहीं, वह उससे जूझता है, उसे टटोलता है, उससे सवाल करता है और फिर धीरे-धीरे उसमें अंतर्निहित सत्य को उजागर करता है। यह शैली आलोचना को किसी निष्कर्ष या अंतिम निर्णय पर नहीं पहुँचाती, बल्कि उसे एक सतत संघर्षशील प्रक्रिया बनाती है—यही ‘संग्राम’ है।
उनका यह बौद्धिक संग्राम, 1950 और 60 के दशक की उस साहित्यिक परिस्थिति में और भी महत्वपूर्ण हो उठता है जब हिन्दी आलोचना या तो प्रगतिवादी खेमे की विचारधारात्मक जकड़ में थी या काव्यात्मक सौंदर्यवाद में। जगदीश गुप्त ने इन दोनों के बीच से एक ऐसी आलोचना-दृष्टि विकसित की जो अंतःप्रज्ञा और सार्थक असहमति की जमीन पर खड़ी थी। वे न तो वामपंथी लेखकों के अंधविरोधी थे, न ही छायावादी कवियों के प्रति पूर्वग्रह से ग्रस्त; उनकी आलोचना दोनों में से श्रेष्ठ को बचाने और असत को उजागर करने का प्रयास करती है।
उनकी भाषा का विशेष उल्लेख आवश्यक है। आलोचना में उनकी शैली कहीं भी उग्र, आक्रामक या प्रचारात्मक नहीं होती। वह विचार को गरिमा के साथ प्रस्तुत करती है—एक प्रकार की लयात्मक निबंधात्मकता के साथ, जो आलोचना को गद्यात्मक न होकर ‘ललित आलोचना’ की ओर ले जाती है। उनकी आलोचना में वाक्य संरचना, उपमा, प्रतीक और चिंतनशील वाक्यांशों का ऐसा सम्मिलन है, जो आलोचना को काव्यात्मक गहराई देता है।
‘परिमल’ संस्था के संदर्भ में भी उनका संग्राम विचारणीय है। उस दौर में जब साहित्यिक संगठन जातिवादी, राजनीतिक या वाम/दक्षिण खेमेबंदी का अड्डा बन रहे थे, परिमल ने शुद्ध साहित्यिक बौद्धिकता की भूमि तैयार की। जगदीश गुप्त, साही राम स्वरूप आदि विचारक जहाँ अपने-अपने ढंग से साहित्यिक मूल्यों की लड़ाई लड़ रहे थे, वहाँ गुप्त जी ने शोर-शराबे से दूर एक शांत लेकिन गहरी आवाज के साथ साहित्य के भीतर सौंदर्य और विचार का सधा हुआ संगम रचा।
आज जब साहित्य में ‘विचारधारा’ के नाम पर एक नए किस्म की ‘निषेध-प्रवृत्ति’ उभर रही है—जहाँ लेखक या कृति को खेमों में बाँटकर देखा जा रहा है, वहाँ जगदीश गुप्त की आलोचना हमें यह सिखाती है कि एक सच्चा आलोचक न पंथ से चलता है, न आदेश से, वह केवल कला और विचार की संयमित आग से संचालित होता है।
इस नई दृष्टि से जगदीश गुप्त केवल एक आलोचक नहीं, बल्कि एक ऐसे साहित्यिक साधक के रूप में सामने आते हैं, जिनका लेखन हमें यह सिखाता है कि आलोचना भी एक अनुशासित संघर्ष है—जहाँ रचना की स्वतंत्रता, आलोचक की आत्मा और पाठक की चेतना—तीनों की गरिमा बनी रहे। यह संतुलन बनाना ही उनका सबसे बड़ा ‘संग्राम’ था—और सबसे बड़ी उपलब्धि भी।
जगदीश गुप्त को केवल एक आलोचक या साहित्य-चिंतक के रूप में सीमित करना उनके रचनात्मक व्यक्तित्व की विराटता को सीमित करना होगा। वे मूलतः एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनमें कलाकार और कला-आलोचक—दोनों एक साथ उपस्थित थे। उनके भीतर का रचनाकार अपने समय की व्याकुलता, संशय, और वैचारिक द्वंद्व को आत्मसात करता है, तो भीतर का आलोचक उसी को रूप, संरचना और मूल्य-बोध में ढालता है। यही द्वंद्वात्मक समरसता उन्हें हिन्दी आलोचना की मुख्यधारा से अलग, लेकिन बहुत ज़्यादा जरूरी आलोचक बना देती है।
कलाकार के रूप में वे शब्दों के भीतर छिपी हुई संवेदना को पहचानते हैं। वे कविता नहीं लिखते, लेकिन उनके निबंधों और आलोचनात्मक गद्य में एक कविकर्म की आभा है। वह भाषा को सूचना या निर्णय के लिए नहीं, बल्कि अंतःसंवाद के लिए बरतते हैं। उनका गद्य अपनी लय, प्रवाह, प्रतीकात्मकता और भावबोध के कारण साहित्यिक गद्य की श्रेणी में आता है। वे जब किसी कविता या काव्य-प्रवृत्ति की चर्चा करते हैं, तो वहाँ केवल बौद्धिक विवेचन नहीं होता, वहाँ एक कलाकार की तटस्थ करुणा और राग भी होता है—जो शब्दों की तान को सुन सकता है।
उनकी आलोचना ‘कला की आलोचना’ है, न कि ‘कला पर आलोचना’। वे रचना को बाहर से नहीं देखते, उसके भीतर जाकर उसे अनुभव करते हैं। यह विशेषता केवल उन्हीं आलोचकों में होती है जिनमें स्वयं भी एक रचनात्मक चेतना होती है। उनके भीतर का कलाकार रचना को महसूस करता है, और भीतर का आलोचक उसे विचार में रूपांतरित करता है।
‘कलावाद’ शब्द को वे कभी लंपट सौंदर्यवाद नहीं बनने देते, न ही ‘लोकवाद’ को भावना की सस्ती राजनीति बनने देते हैं। उनके लिए कला एक आंतरिक अनुशासन है, और आलोचना उसका संयमित विस्तार। वे न किसी रचना को सिर चढ़ाते हैं, न किसी को पूरी तरह खारिज करते हैं। उनके निर्णय हमेशा एक लंबी प्रक्रिया के बाद आते हैं—इसलिए उनमें एक प्रकार का कलात्मक संतुलन है।
वे आलोचना में उन दुर्लभ लोगों में हैं जो रचना को आत्मा की तरह पढ़ते हैं, शरीर की तरह नहीं। रचना का भूगोल, इतिहास, भाषा और सामाजिक संदर्भ उन्हें दिखाई पड़ता है, लेकिन वे केवल उस सतह से संतुष्ट नहीं होते। वे रचना के भीतर की जलवायु को पहचानते हैं। यह दृष्टि किसी आलोचनात्मक प्रशिक्षण से नहीं आती, यह आती है एक कलाकार की ‘दृष्टि-संपन्नता’ से।
यही कारण है कि जब वे मुक्तिबोध पर लिखते हैं तो वह लेख केवल आलोचना नहीं रह जाता, एक रचनात्मक पुनर्पाठ बन जाता है। जब वे अज्ञेय पर लिखते हैं, तो वहाँ अज्ञेय के आत्मसंघर्ष का कलात्मक स्वरूप पूरी गरिमा के साथ सामने आता है।
आज की आलोचना-परंपरा जहाँ या तो बेहद राजनीतिक हो चली है या अकादमिक सूचना-प्रधान, वहाँ जगदीश गुप्त की उपस्थिति उस कलात्मक मध्यता की याद दिलाती है, जहाँ आलोचना एक कलाकार के अंतःकरण से निकलती है—ना तो प्रचार से, ना ही पूर्वग्रह से।
इस दृष्टि से वे तुलनात्मक रूप से शिवदान सिंह चौहान और रामविलास शर्मा के बीच की एक अनूठी कड़ी बनते हैं—जिनके पास चौहान की कलात्मकता भी है, और शर्मा की वैचारिक गंभीरता भी; लेकिन वे दोनों की तरह किसी एक दिशा में नहीं झुकते। उनका संतुलन, उनका संयम, और उनकी अंतर्मुखता उन्हें विशिष्ट बना देती है।
इसलिए जगदीश गुप्त को एक कलाकार आलोचक कहना न केवल न्यायसंगत है, बल्कि अनिवार्य भी—क्योंकि वे आलोचना को रचना की ही एक दूसरी आवाज़ मानते हैं। उनका लिखा हुआ आलोचनात्मक गद्य न केवल विचार देता है, बल्कि रस भी उत्पन्न करता है। यही वह विशेषता है जो उन्हें समकालीन आलोचना में एक जरूरी, लेकिन अक्सर उपेक्षित, कलात्मक स्वरूप प्रदान करती है।
जगदीश गुप्त का साहित्य में हस्तक्षेप एक आलोचक की सामान्य भूमिका से बहुत आगे जाकर देखा जाना चाहिए। उन्होंने केवल कृतियों पर टिप्पणी नहीं की, बल्कि साहित्यिक मूल्यों, सौंदर्य दृष्टियों और पाठकीय चेतना को गहराई से प्रभावित किया। उनका हस्तक्षेप ‘प्रवृत्तियों’ के भीतर था—वे किसी भी आंदोलन या परंपरा के बाह्य शिल्प पर नहीं रुकते, बल्कि उसके ‘आत्म-तत्त्व’ को पहचानते हैं।
वे उस पीढ़ी के आलोचक हैं जिसने न केवल आधुनिकता को आत्मसात किया, बल्कि उसकी सीमाओं और संकटों की पहचान भी गहराई से की। उन्होंने साहित्यिक विमर्शों को किसी विचारधारा के प्रचार या खंडन तक सीमित नहीं होने दिया। वे न तो किसी विचारधारा के प्रचारक बने और न ही किसी शैली के अंध समर्थक। उनका आलोचना-कर्म एक तरह से बौद्धिक तपस्या था—जिसमें वस्तुनिष्ठता, अंतःप्रज्ञा और कलात्मक संतुलन की त्रयी साथ-साथ चलती है।
जगदीश गुप्त का सबसे अद्वितीय हस्तक्षेप यह है कि उन्होंने कविता, आलोचना और पाठक के बीच एक ऐसा संबंध निर्मित किया जिसमें आलोचक ‘मध्यस्थ’ नहीं, बल्कि संवादी साक्षी के रूप में उपस्थित रहता है। उनका हस्तक्षेप भाषा में नहीं, अर्थ की तहों में था। वे किसी कविता की संरचना को पढ़ते हुए उसके पीछे छिपे मानसिक, दार्शनिक और आत्मिक द्वंद्व को उजागर कर देते हैं। यही उन्हें एक खास तरह का “मनोवैज्ञानिक समालोचक” बनाता है—जिसने हिन्दी आलोचना में एक दुर्लभ गहराई जोड़ी।
उन्होंने परिमल जैसे साहित्यिक समूह के माध्यम से भी साहित्य में हस्तक्षेप किया, जहाँ वाद-विवाद की परंपरा को एक सौंदर्यबोधात्मक गरिमा दी। परिमल उनके लिए न विचारधारा का मंच था, न अकादमिक अभिव्यक्ति का संगठन, बल्कि साहित्य को गंभीरता से समझने और साझा करने की प्रयोगशाला था। उन्होंने वहाँ युवा आलोचकों और कवियों के साथ संवाद के माध्यम से आलोचना को ‘तर्क’ के बजाय ‘संवेदनशील समझ’ की दिशा दी।
उनका हस्तक्षेप केवल लेखन में नहीं, पाठकीय दृष्टिकोण में बदलाव लाने में भी था। उन्होंने पाठक को तैयार किया कि वह कविता को केवल भावनात्मक या वैचारिक स्तर पर न पढ़े, बल्कि उसकी गूढ़ संरचना, अंतर्विरोध और चुप्पियों को भी समझे।
जगदीश गुप्त की सबसे मौलिक विशेषता यही थी कि वे शोरगुल के युग में मौन की आवाज बने। उनका हस्तक्षेप कभी प्रत्यक्ष नहीं था, लेकिन उसकी गहराई और निरंतरता आज भी हिन्दी आलोचना की सबसे जरूरी धारा को समृद्ध करती है।
वे साहित्य में विवेक और विनम्रता के प्रतिनिधि आलोचक थे—और यही उनका अद्वितीय हस्तक्षेप है—एक ऐसी उपस्थिति जो दिखती कम है, पर मार्गदर्शित निरंतर करती है।