विचारोत्तेजक परिचर्चा और सवाल-जवाब से सजा यादगार पुस्तक विमोचन समारोह

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Randhir K Gautam

— रणधीर गौतम —

डॉ. मनमोहन सिंह ने एक बार एक columnist से बातचीत के दौरान कहा था—
“आप और मुझ में फर्क यह है कि यदि आप कोई गलती करते हैं, तो अगली बार अपने कॉलम में उसे सुधार सकते हैं। लेकिन यदि मैं कोई गलती करूं, तो उसके परिणामस्वरूप करोड़ो लोग प्रभावित हो सकते हैं।”

प्रो. डेविड सी. एंगरमैन द्वारा लिखित पुस्तक ‘Apostles of Development’ अपने आप में एक उत्कृष्ट और विचारोत्तेजक कृति है। यह पुस्तक दक्षिण एशिया के छह प्रमुख अर्थशास्त्रियों की कहानी को प्रस्तुत करती है—अमर्त्य सेन, मनमोहन सिंह, महबूब उल हक, जगदीश भगवती, रहमान सोभान और लाल जयवर्धने। इन अर्थशास्त्रियों ने एक प्रगतिशील और विकासोन्मुख विश्व के निर्माण हेतु वैश्विक विमर्श को समृद्ध किया।

यह विशेष उल्लेखनीय है कि ये सभी छह अर्थशास्त्री कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र रहे थे। पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में भारत के प्रतिष्ठित सार्वजनिक नीति विशेषज्ञ और आर्थिक सिद्धांतों की गहराई को समझने वाले डॉ. मोंटेक सिंह अहलूवालिया (पूर्व उपाध्यक्ष, योजना आयोग), भारत के पूर्व विदेश सचिव एवं रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ राजदूत शिवशंकर मेनन, तथा देश के ख्यातिनाम बौद्धिक श्री सुहास बोरकर (इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से संबद्ध) की गरिमामयी उपस्थिति रही। इसके अतिरिक्त, दिल्ली के कई नामचीन बुद्धिजीवी, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षाविद, और डॉ. मनमोहन सिंह के परिवार के सदस्य—उनकी पत्नी और बेटी—भी समारोह में उपस्थित थे।

प्रो. डेविड सी. एंगरमैन, जो Yale यूनिवर्सिटी में इतिहास और वैश्विक मामलों के प्रोफेसर हैं, ने इस पुस्तक को तैयार करने के लिए देश-विदेश के 100 से अधिक बुद्धिजीवियों से साक्षात्कार किया। अधिकांश साक्षात्कार उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में किए, इसलिए वे इस संस्थान में पुस्तक का विमोचन करना चाहते थे।

यह जानना भी उत्साहवर्धक है कि जिन छह प्रमुख अर्थशास्त्रियों का उल्लेख इस पुस्तक में है, उनमें से चार—अमर्त्य सेन, मनमोहन सिंह, जगदीश भगवती और रहमान सोभान—इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सदस्य रहे हैं। आज जबकि कुछ संकीर्ण मानसिकता वाले लोग इस संस्थान को “खान मार्केट गैंग” कहकर अपमानित करते हैं, ऐसे समय में प्रो. डेविड जैसे सामाजिक वैज्ञानिक अपने शोधकार्य की प्रेरणा के लिए इसी संस्थान को धन्यवाद देते हैं। समारोह में जैसे-जैसे संवाद आगे बढ़ा, वह अपने बौद्धिक तेज़ से सभी को आकर्षित करता गया।

यह पुस्तक शीत युद्ध के बाद के वैश्विक परिदृश्य में दक्षिण एशिया के अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत उस विमर्श को उजागर करती है, जिसमें गरीबी, असमानता और विकास जैसे मुद्दों पर एक नया दृष्टिकोण सामने आता है। यह केवल GDP जैसे सूचकांक पर आधारित विकास की अवधारणा को चुनौती देती है और “लाइव्ड एक्सपीरियंस”, मानव विकास सूचकांक (HDI), और “एक्सेस टू फ्रीडम” व “फ्रीडम ऑफ एजेंसी” जैसे व्यापक आयामों को केंद्र में लाने की वकालत करती है।

यह कृति न केवल इन अर्थशास्त्रियों के विज़न का मूर्त रूप है, बल्कि दक्षिण एशियाई आर्थिक चिंतन को गुणात्मक रूप से रूपांतरित करती है। साथ ही यह भी इंगित करती है कि सामाजिक न्याय की खोज हमेशा से राष्ट्र-निर्माण की एक केंद्रीय धुरी रही है।

प्रोफेसर डेविड सी. एंगरमैन का उद्बोधन: अर्थशास्त्र, विचार और विकास पर एक जीवंत विमर्श प्रोफेसर डेविड ने अपने उद्बोधन की शुरुआत इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और वहां के बुद्धिजीवियों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए की। इसके पश्चात उन्होंने दक्षिण एशिया के छह प्रमुख अर्थशास्त्रियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया और उनके आपसी बौद्धिक संबंधों को रेखांकित किया।
विशेषकर उन्होंने यह बताया कि कैसे कैम्ब्रिज स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से प्रेरित होकर इन अर्थशास्त्रियों ने अपने-अपने देशों में नए आर्थिक विचारों को जन्म दिया, जिनका उद्देश्य था—समाज को प्रगतिशील दिशा में ले जाना।

“They all believed in the power of economics to make a better world.”

उनके वक्तव्य से यह बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई कि किस प्रकार विचार और सत्य के सिद्धांत वैश्विक कल्याण के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं। इन छह अर्थशास्त्रियों ने केवल विकास के सिद्धांतों का प्रतिपादन नहीं किया, बल्कि उन्हें अपने समाज में क्रियान्वित भी किया। धीरे-धीरे उन्होंने अपने वक्तव्य को इन अर्थशास्त्रियों के दृष्टिकोणों और उनके द्वारा अपनी-अपनी राष्ट्रीय नीतियों पर डाले गए प्रभाव की ओर मोड़ा। इसके साथ ही प्रोफेसर डेविड ने वैश्विक व्यापार, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), और विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसे संस्थानों के संदर्भ में अपनी पुस्तक की प्रासंगिकता को भी रेखांकित किया। विशेषकर 1960, 70, 80 और 90 के दशकों में आए आर्थिक सुधारों के ऐतिहासिक संदर्भों को उन्होंने श्रोताओं के सामने रखा।

भारत के संदर्भ में, उन्होंने उस चर्चित वाक्यांश—”A rich country inhabited by poor people”—पर बेहद सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की। उन्होंने बताया कि अर्थशास्त्र का उद्देश्य केवल समृद्धि को बढ़ाना नहीं, बल्कि सार्थक अवसरों का सृजन करना होना चाहिए।राजनीतिक निर्णय समय के साथ सुधारे जा सकते हैं, किंतु एक गलत आर्थिक निर्णय करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकता है, और यही कारण है कि जहां विश्व के सर्वाधिक गरीब लोग रहते हों, वहां आर्थिक नीतियां और अधिक संवेदनशील होनी चाहिए। उन्होने यह भी दिखाया कि इन अर्थशास्त्रियों ने किस प्रकार सरकार को आर्थिक निर्णयों में एक सक्रिय भूमिका में देखा। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि हर आर्थिक नीति का एक सीमित प्रभाव क्षेत्र (limitation) होता है और धीरे-धीरे उन्होंने अपने वक्तव्य को उन आलोचनाओं और समीक्षाओं की ओर मोड़ा, जिनका सामना इन मॉडलों को करना पड़ा।

उन्होंने दो क्रांतिकारी आर्थिक विचारधाराओं—1. Classical Economics और 2. Keynesian Economics—के योगदान को रेखांकित किया और बताया कि इन छह प्रमुख अर्थशास्त्रियों को New-Keynesian Theoretical Framework से जोड़कर देखा जा सकता है।

प्रो. डेविड ने कहा,
“Economics is a kind of argument. Theory was rooted in the efforts of solving practical problems of the world.”

इन प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने विकास-अर्थशास्त्र (Development Economics) को एक वैश्विक विमर्श में स्थापित किया और अपने-अपने देशों की गरीबी और असमानता जैसी समस्याओं से निपटने के लिए व्यावहारिक उपाय किए। इसके बाद उन्होंने सिद्धांत (theory) और व्यवहार (practice) के संबंध को बड़े ही बारीक ढंग से समझाया। जहां सामान्यतः माना जाता है कि सिद्धांत पहले आता है और फिर उसके अनुसार कार्यान्वयन होता है, वहीं प्रो. डेविड का मत था कि कभी-कभी यह प्रक्रिया उलटी भी हो सकती है— “Theory must follow from practice.”

एक अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु उन्होंने यह उठाया कि मानव विकास सूचकांक (HDI) का विचार केवल अमर्त्य सेन और महबूब उल हक की कल्पना नहीं था, बल्कि यह उन व्यावहारिक परिस्थितियों का परिणाम था जिनमें 1980 के दशक में सामाजिक कल्याण के बजट में भारी कटौती की गई थी।

अपने वक्तव्य के अंतिम हिस्से में उन्होंने जोर देकर कहा – “Development didn’t originate from textbooks, but from practical, context-specific efforts to address poverty and inequality.”

प्रो. डेविड ने इन छह प्रमुख अर्थशास्त्रियों के बहुआयामी योगदानों को रेखांकित किया:
प्रो. जगदीश भगवती — राज्य में उदारीकरण के पैरोकार
डॉ. मनमोहन सिंह — नीति सुधार और आर्थिक उदारीकरण के शिल्पी
लाल जयवर्धने — श्रीलंका में व्यापारिक सुधार और संस्थागत नेतृत्व
रहमान सोभान — बांग्लादेश में समानता आधारित नीतियों के निर्माता
महबूब उल हक — मानव विकास सूचकांक की अवधारणा
अमर्त्य सेन — क्षमता और स्वतंत्रता आधारित विकास दृष्टिकोण

अंततः, इन सभी ने मिलकर अर्थशास्त्र में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की और यह सिद्ध किया कि अर्थशास्त्र केवल आंकड़ों की नहीं, बल्कि न्याय, समानता और करुणा की भी भाषा है। यह पुस्तक न केवल इन छह अर्थशास्त्रियों के विचारों और कार्यों का दस्तावेज़ है, बल्कि उनके बीच हुए बौद्धिक संवाद और वैचारिक आदान-प्रदान को भी गहराई से प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक एक कालजयी प्रयास है, जो वैश्विक दक्षिण के आर्थिक चिंतन को नई दिशा देने में समर्थ है।

Small introduction of the 6 economists-

1. Jagdish Bhagwati –
Bombay native Jagdish Bhagwati is a prolific economist of interna-tional trade at Columbia University with a chip permanently implanted on his shoulder. His innovative work on the benefits of interna-tional trade-which led him to become a prominent advocate for globalization-remains a touchstone in international economics. His academic articles and his writings for broader audiences have won him wide recognition, including just about every honor except the one he most covets: the Nobel Prize.

2.Mahbub ul Haq – The ambitious Pakistani Mahbub ul Haq lived two professional lives. In odd-numbered decades (1970s, 1990s), he won international acclaim from liberals and progressives for redefining development at the World Bank (spearheading Basic Human Needs) and the UN (formulating the Human Development Index). But he was excoriated at home for his service to his nation’s military dictatorships in even-numbered decades (19605, 1980s).

3. Lal Jayawardena- a Conversazione Club member at Cambridge, was born to an upwardly mobile Sinhalese family in Ceylon (now Sri Lanka). He served his country as both an economic official and a diplo-mat. He is remembered for establishing a UN development think tank and for being an architect of the modern Sri Lankan economy-an honor that lost some of its luster after the economic meltdown in summer 2022.

4. Amartya Sen, also a Conversazione Club member, is one of very few in the uniquely Indian category of “VVIPs” when he returns home-but more regularly commutes between Harvard and Cambridge universities. His work reorienting welfare economics won him a Nobel Prize in Economics, the first recipient born outside North America or Europe. He has consistently engaged, even shaped, the issues of his age. Given his self-described “skepticism about what could be achieved by activism,” he usually addressed social issues from the confines of his study.7

5. Manmohan Singh, born in a poor village in what is now Pakistan, be-came a bureaucrat’s bureaucrat, a role that suited his retiring demeanor. Over the course of his long career, he held all the leading economic posts in the Indian government, serving unobtrusively but effectively. He then entered the limelight in 1991 for spearheading economic re-forms that reversed more than a generation of Indian economic policy. A dozen years later, he became Prime Minister, among India’s longest serving.

6. Rehman Sobhan, born to the English-speaking upper crust of Ben-gali society, became an “ideological Bengali,” devoting himself to East Bengal, a place he had rarely visited with a language he didn’t speak. During his decade-plus at Dhaka University, he joined the movement that earned Bangladesh’s independence from Pakistan. After stints in the Bangladesh government, he served, and indeed still serves, as a figure of great national interest.
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राजदूत शिवशंकर मेनन का वक्तव्य: विचारधारा, अर्थशास्त्र और राजनीति के संबंध पर दृष्टि –
राजदूत शिवशंकर मेनन ने कहा कि यह पुस्तक दक्षिण एशिया के प्रमुख बुद्धिजीवियों की एक प्रेरणादायक कहानी है, जिन्होंने अपने-अपने देशों में नीतिगत और बौद्धिक नेतृत्व की भूमिका निभाई। यह कृति केवल व्यक्तिगत जीवनी नहीं है, बल्कि इतिहास को समझने की एक अद्भुत प्रक्रिया भी है। उन्होंने कहा कि “डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स” एक नया अनुशासन है, जिसे इन विद्वानों ने गढ़ा और आगे बढ़ाया। इसके माध्यम से दक्षिण एशिया की महत्वपूर्ण आर्थिक समस्याओं का समाधान संभव हो सका।

पुस्तक में आर्थिक विचारों का इतिहास, विकास की अवधारणा का इतिहास, और ग्लोबल साउथ की भूमिका को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसके पश्चात, राजदूत मेनन ने इस पुस्तक को पढ़ते समय अपने मन में उठे अनुभवों और विचारों को साझा किया।

उन्होंने एक गहरी बात कही—
“हर बुद्धिजीवी को, जो राष्ट्र के कल्याण में योगदान देना चाहता है, कभी-न-कभी राजनीति के क्षेत्र में अपने हाथ गंदे करने पड़ते हैं।”
इस संदर्भ में उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह का उल्लेख करते हुए कहा कि किस प्रकार उन्होंने कठिन राजनीतिक परिस्थितियों में भी मजबूत नैतिक और बौद्धिक दृष्टिकोण बनाए रखा। उन्होने कहा कि इन छह प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने शुद्ध अकादमिक योगदान को राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से समाज के विकास से जोड़ा।

उनके अनुसार:
> “Politics is a dirty business and it is a hard business to work in.”
फिर भी, इन सभी ने दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ों से जुड़कर वैश्विक दृष्टिकोण अपनाया और cosmopolitan बुद्धिजीवी के रूप में समाज के उत्थान के लिए अपने intellectual power का उपयोग किया।

उन्होंने जोर देकर कहा:
> “Ideas matter. Knowledge matters. This book is a brilliant introduction to a time of hope.”
अंत में, उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह से जुड़ी कुछ व्यक्तिगत स्मृतियों को साझा किया और कहा कि उनके प्रति सम्मान और अधिक गहरा हुआ।

उन्होंने डॉ. सिंह के वह शब्द उद्धृत किए, जो आज भी उनके मन में गूंजते हैं—
> “History will be kinder to me.”
डॉ. मोंटेक सिंह अहलूवालिया का वक्तव्य: आर्थिक विचारों की बुनावट पर चिंतन-
डॉ. मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने बहुत ही सूक्ष्मता से पुस्तक में निहित बौद्धिक योगदान को रेखांकित किया। उन्होंने कहा:
> “This book is quite a rich tapestry of how economic ideas evolve in specific contexts.”
उन्होंने पी. वी. नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल के दौरान लिए गए कुछ दिलचस्प आर्थिक निर्णयों की भी चर्चा की, जिससे यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक विचार केवल अकादमिक विमर्श नहीं हैं, बल्कि वे वास्तविक नीतिगत बदलावों का आधार भी बन सकते हैं।

इसके बाद उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा किए गए आर्थिक सुधारों की महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की। 1980 और 1990 के दशकों में अहलूवालिया जी ने स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यों को बहुत करीब से देखा है। यह पुस्तक अहलूवालिया जी को भी यह जानकारी देती है कि 1970 के दशक में मनमोहन सिंह क्या कर रहे थे। इस दृष्टि से यह पुस्तक कई मायनों में एक “रिवीलिंग” यानी उद्घाटन करने वाली पुस्तक सिद्ध होती है। जो भी विद्यार्थी या शोधार्थी भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की कहानी जानना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक एक मार्गदर्शक सिद्ध होगी।

इसके पश्चात, उन्होंने गरीबी के विमर्श को दादाभाई नौरोजी से लेकर योजना आयोग और तत्कालीन परिस्थितियों तक बहुत गंभीरता से प्रस्तुत किया। ‘मेक मारा’ से लेकर ‘मो. हक’ जैसे विद्वानों के सैद्धांतिक ढांचे (theoretical framework) के माध्यम से पूंजीवाद के संदर्भ में गरीबी उन्मूलन की राजनीति की चर्चा की। आय वितरण (income distribution) की नीति की समीक्षा करते हुए उन्होंने विभिन्न आयोगों की सिफारिशों के आलोक में कुछ सुझाव भी रेखांकित किए।

गरीबी उन्मूलन के प्रयासों में ‘वेल्थ डिस्ट्रीब्यूशन’ के स्थान पर ‘प्रोडक्शन’ को महत्व देना भारतीय योजना प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा, जिसका लाभ तत्कालीन समाज में देखा जा सकता है। हालांकि, समाज के निचले 20% लोग आज भी गरीबी रेखा से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इसके साथ ही उन्होंने Indian Growth Model की चर्चा को सामने रखा।

अमेरिकी अर्थशास्त्री हॉलिस चेनरी द्वारा लिखित पुस्तक “Redistribution with Growth: Policies to Improve Income Distribution in Developing Countries in the Context of Economic Growth” के विमर्शों को भी उन्होंने विश्लेषण में सम्मिलित किया। इसके बाद उन्होंने भारत के पड़ोसी देशों के आर्थिक विकास की भी समीक्षा प्रस्तुत की। यह बात हर भारतीय को जानकर गर्व होगा कि 1991 के बाद से अब तक हमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के पास नहीं जाना पड़ा है।

यूं तो हम लोग वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) की आलोचना के दृष्टिकोण को सामने रखकर आज तक भारतीय अर्थव्यवस्था की आलोचना में ही लगे रहे हैं और आलोचना की राजनीति भी करते रहे हैं—चाहे वह समाजवादी मंच हो या स्वदेशी आंदोलन—लेकिन एक समाजविज्ञान के विद्यार्थी के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था के कुछ गुणात्मक, रचनात्मक और क्रांतिकारी प्रयासों को समझना मेरे लिए अत्यंत ज्ञानवर्धक (insightful) अनुभव रहा।

शेष समीक्षा पुस्तक को पूरी तरह पढ़ने के बाद प्रस्तुत करूंगा।

In Apostles of Development, David C. Engerman uncovers the untold stories of six economists who shaped the destinies of nations and redefined global growth.

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