आपातकाल की व्यथा!

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suresh khairnar

— डॉ. सुरेश खैरनार —

माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी,

मैं गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन और उसके तुरंत बाद बिहार में शुरू हुए संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय भारत के मतदाताओं की न्यूनतम आयु सीमा के अनुसार 21 वर्ष का था तथा राष्ट्र सेवा दल का पूर्णकालिक कार्यकर्ता था। इसी कारण, इन दोनों आंदोलनों से प्रेरित होकर महाराष्ट्र में भी ऐसा ही आंदोलन खड़ा करने का प्रयास करने वालों में मैं भी एक था।

25 जून 1975 की रात जब आपातकाल घोषित किया गया, उस समय मैं महाराष्ट्र से बिहार आंदोलन में शामिल होने के लिए पटना जा रही रेलगाड़ी में सफर कर रहा था। जैसे ही 26 जून की सुबह जबलपुर स्टेशन पहुँचा, तो वहाँ गाड़ी में चढ़ रहे लोगों के मुँह से फुसफुसाते हुए यह सुनने को मिला कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर दिया है और सभी विरोधियों को गिरफ्तार किया जा रहा है। यह सुनते ही मैंने तुरंत अपना सामान उठाया और रेल से उतर गया तथा आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत कार्यों में जुट गया।

आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण जी ने पिपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की घोषणा की थी, जिसके वे स्वयं अध्यक्ष थे और बैरिस्टर वी.एम. तारकुंडे कार्यकारी अध्यक्ष थे। महाराष्ट्र इकाई की स्थापना के लिए मुंबई में गुप्त बैठक आयोजित की गई, जिसमें एस.एम. जोशी जी को अध्यक्ष तथा मुझे सचिव चुना गया।

जनतंत्र का हरण हो चुका था और सेंसरशिप के चलते जनजागरण हेतु गुप्त रूप से साइक्लोस्टाइल पत्रक तथा अन्य साहित्य वितरित किया जाता था। साथ ही, गैर-आरएसएस पृष्ठभूमि के जो लोग गिरफ्तार होकर जेलों में थे, उनके घरों में जाकर उनकी पारिवारिक समस्याओं का अध्ययन कर उनके परिवारों को आर्थिक सहायता पहुँचाने का कार्य भी किया। क्योंकि आरएसएस अपने स्वयं के लोगों के लिए अलग से एक स्वतंत्र व्यवस्था बनाकर यह कार्य पहले से कर रहा था, जबकि गैर-आरएसएस पृष्ठभूमि वाले लोगों के परिवार अत्यंत कठिनाई में थे। यही देखकर महाराष्ट्र पीयूसीएल की ओर से यह पहल की गई थी।

1976 के अक्टूबर के पहले सप्ताह में, शायद 5 या 6 अक्टूबर की शाम चार-पाँच बजे के आसपास, मैं मोर्शी से डॉ. अरुण मालपे की मोटरबाइक पर उनके पीछे बैठकर अमरावती जिला सर्वोदय मंडल के कार्यालय के बाहर पहुँचा। वहाँ उतरने के बाद उन्होंने कहा कि वे अपनी ससुराल वालों से मिलकर आते हैं, तब तक मैं अपना काम निपटाकर तैयार रहूँ ताकि अंधेरा होने से पहले हम मोर्शी लौट सकें। मैं केवल कुछ देर के लिए यह देखने के लिए सर्वोदय कार्यालय पहुँचा था कि कोई पत्राचार आया है या नहीं। तभी अचानक दरवाजा जोर-जोर से खटखटाने की आवाज़ आने लगी। मैंने बालकनी से नीचे देखा तो पाया कि अमरावती-बडनेरा रोड पर पुलिस वैन खड़ी थी।

जिस बिल्डिंग में यह कार्यालय था, उसके आस-पास अन्य मकान न होने से चारों ओर पुलिस का घेरा साफ़ दिखाई दे रहा था। तभी मुझे समझ में आ गया कि मेरे सवा साल के भूमिगत जीवन का अंत आ पहुँचा है।

मैंने दरवाजा खोला तो एक पुलिस अफसर कई अन्य पुलिसवालों के साथ खड़ा था। उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया और तुरंत ही कार्यालय की ताले लगी आलमारियों की चाबियाँ माँगी। मैंने बताया कि चाबियाँ सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष के पास हैं जो बाहरगाँव गए हुए हैं। इसके बाद पुलिस ने सभी ताले तोड़ डाले और अंदर रखी फाइलें व अन्य सामग्री पूरे कमरे में फैला दी। तलाशी के बाद वे मुझे राजापेठ पुलिस स्टेशन ले गए। वहाँ हवालात पहले से ही गिरफ्तार अन्य कैदियों से खचाखच भरी हुई थी। उन्होंने मुझे भी उसी में ठूंस दिया। वहाँ भयंकर बदबू थी और दस बाय दस के कमरे में लगभग 20-25 लोग ऐसे चिपककर बैठे थे जैसे मुंबई की लोकल ट्रेन में सुबह-शाम भीड़ होती है।

रात को आधी पकी हुई रोटी और कद्दू की सब्जी खाने के लिए दी गई। लेकिन सोना कैसे, यह सभी की समस्या थी। बातचीत से पता चला कि मैं छोड़कर बाकी सभी कैदी जेबकतरों या अन्य छोटे-मोटे अपराधों में पकड़े गए थे। शायद मैं अकेला ही था जो आपातकाल में अपनी सक्रियता के कारण गिरफ्तार हुआ था।

रात करीब बारह बजे के बाद मुझे हवालात से निकालकर एक दूसरे कमरे में ले जाया गया। मुझे लगा कि राजनीतिक कैदी होने के कारण मुझे अलग रखा जाएगा। लेकिन वहाँ देखा कि दस बाय दस के कमरे में सौ वॉट का बल्ब जल रहा था, खिड़की-दरवाजे बंद थे और सीआईडी के इंस्पेक्टर मेज के पीछे बैठे थे। उन्होंने मुझे सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा और बड़े ही विनम्र स्वर में पूछा, “तुम अमरावती से इस-इस दिन, इस-इस रेलगाड़ी से मुंबई बड़ौदा डायनामाइट की बैठक के लिए गए थे। उस बैठक में और कौन-कौन शामिल था? उनके नाम बताओ।” मैंने दृढ़ता से कहा, “मैं मुंबई गया ही नहीं, तो वहाँ कौन था, यह मैं कैसे बता सकता हूँ?”

(हालांकि अंदर से मैं हिल गया था क्योंकि इंस्पेक्टर की मेरे मुंबई जाने की बात सही थी। वह बैठक दादर स्टेशन से पैदल दूरी पर रुइया कॉलेज के पास प्रो. पुष्पा भावे और अनंत भावे के फ्लैट में सुबह छह बजे से शाम अंधेरा होने तक चली थी। पुष्पाताई और अनंतराव पूरा फ्लैट हमें सौंपकर बाहर चले गए थे। वहाँ जॉर्ज फर्नांडिस, मृणाल गोरे, बबन डिसूजा, दिनकर साक्रिकर व अन्य लोग थे। मेरे अलावा किसी ने अपना परिचय नहीं दिया — शायद गोपनीयता के कारण। बैठक में बड़ौदा डायनामाइट से 1942 की तर्ज पर पोस्ट ऑफिस, रेलवे पुल आदि सरकारी संस्थानों में बिना जनहानि विस्फोट की योजना पर चर्चा हुई। मैं उस बैठक में सबसे कम उम्र का था, लेकिन लातिन अमेरिका के चिली-क्यूबा में फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा तथा वियतनाम में हो ची मिन्ह और चीन में माओ के गुरिल्ला संघर्षों पर मेरा ताज़ा अध्ययन और राष्ट्र सेवा दल में हुए प्रशिक्षण के कारण मैं दिन भर उस योजना का विरोध करता रहा। मैंने कहा कि मैं आपातकाल के खिलाफ हूँ, लेकिन भारत में 42 जैसी कार्रवाई व्यावहारिक नहीं है।

भारत क्यूबा, चिली या बांग्लादेश से कहीं बड़ा देश है। यहाँ दादर में कुछ भी हुआ तो इंदिरा गांधी की सेंसरशिप के चलते खबर बाहर जा ही नहीं सकती। हमारी ताकत यूँ ही बर्बाद होगी। जॉर्ज कई बार समझाने की कोशिश करते रहे लेकिन मैं अपने मत पर अडिग रहा। बैठक के बाद अंधेरा होते ही मैं वापस अमरावती लौटकर पीयूसीएल के लिए गिरफ्तार कैदियों के परिवारों की आर्थिक मदद और भूमिगत पर्चे बांटने के काम में लग गया।)

मुझे लगता है सीआईडी को मेरे मुंबई पहुँचने की खबर तो थी, लेकिन वहां मैंने कहाँ-कहाँ डेरा बदला, यह पता नहीं चला, इसलिए वे मुझे बैठक की पूरी जानकारी नहीं दे पाए। यही वजह रही कि गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने दस दिनों तक मुझे पुलिस कस्टडी में रखकर रोज रात को पूछताछ के लिए बुलाया। बार-बार वही सवाल — “मुंबई की बैठक में कौन-कौन थे?”

हालांकि उन्होंने मुझ पर कोई शारीरिक ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की। परंतु गिरफ्तारी के बाद हाथों में हथकड़ी लगी रहती थी, यहाँ तक कि बाथरूम जाते समय भी हथकड़ी नहीं खोलते थे। हथकड़ी में बंधी लंबी रस्सी को बाहर से पुलिसवाला पकड़े रहता था और दरवाजा बंद भी नहीं करने देते थे। शुरू में यह बहुत अपमानजनक लगा, लेकिन दो दिन में इसकी आदत पड़ गई।

खाने को हर समय वही अधपकी रोटियाँ और कद्दू की सब्जी मिलती थी जिससे जी मिचलाने लगा। जीवन में पहली बार मुझे एसिडिटी की तकलीफ हुई जो बाद में गैस्ट्रो इसोफेगल डिजीज (GERD) में बदल गई। दो बार एंजियोग्राफी करवाई, कुछ नहीं निकला, फिर एंडोस्कोपी में यह रोग पता चला। तब से रोज़ सुबह नेक्सप्रो-40 खाली पेट लेनी पड़ती है और तेल-मसालेदार भोजन से परहेज़ करना पड़ रहा है।

दस दिन बाद, जब कोर्ट ने मुझे मॅजेस्ट्रेट कस्टडी में अमरावती के सेंट्रल जेल में शिफ्ट करने का आदेश दिया, तो मुझे सीधे अमरावती जेल में ले जाया गया। जेल में प्रवेश करते ही जेलर ने एक फॉर्म भरते हुए मुझसे जाति और धर्म पूछा। मैंने कहा कि मैं जाति और धर्म को नहीं मानता, इसलिए मैं इनका उत्तर नहीं दूँगा। यह सुनते ही वह आगबबूला होकर चिल्लाया और बोला, “यह जेल है, यहाँ तुम्हारी अकड़ नहीं चलेगी।” लेकिन मैं अडिग रहा, तो उसने गुस्से में वॉर्डर से कहा कि मुझे गुनाह खाने में बंद कर दो, एक दिन में इसकी अकड़ निकल जाएगी। गुनाह खाना, यानी जेल के अंदर वह विशेष स्थान जहां अपराधी बंद होते हैं। मेरे सारे कपड़े उतारकर मेरे शरीर पर कोई चिन्ह है या नहीं, यह जांच कर फॉर्म में नोट किया गया। इसके बाद मुझे ढीले-ढाले मटमैले कपड़े और दो कांटों जैसे चुभने वाले कंबल थमाए गए। साथ ही एक जर्मन का मग और थाली दी गई।

पूरे जेल का दौरा करते हुए मुझे रात के अंधेरे में फांसीघर और गुनाह खाना में एक दस फीट ऊँची और दस बाय दस साइज की सेल में बंद कर दिया गया। लेकिन मुझे वह कस्टडी ठीक लगी, क्योंकि पिछले दस दिन से मैं इतने छोटे और भरे हुए स्थान में था। यह अकेले बंद होने के बावजूद भी आरामदायक था। सेल के कोने में टट्टी और पेशाब के लिए एक ड्रम रखा हुआ था, जो ऊपर से कार्डबोर्ड से ढका हुआ था और पीने के पानी के लिए एक मटका था।

आदमी को पहले अभाव में रखा जाता है, फिर उसका मनोबल कैसा हो जाता है, यह बहुत दिलचस्प होता है। शायद यह सेटअप सत्ताधारी लोगों ने पहले से ही तैयार किया था। जेल में कंबल बिछाकर जब मैंने सिरहाने तकिया रखा, तो मुझे मेरी प्रिय मोटी फाउंटेन पेन और अन्य सामान की याद आई, जो जेल में घुसते समय ले लिया गया था।

तभी मेरी सेल के सामने से जोर-जोर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। रात को काफी देर तक यह आवाजें आती रही, जिससे मुझे नींद नहीं आ रही थी। फिर थकावट के कारण मैं कब सो गया, पता नहीं चला। सुबह, जैसे ही मेरे सेल का ताला खोला गया, मैंने देखा कि मेरे लिए कांजी (मोटे पिसे हुए गेहूँ का पतला पदार्थ) रखा गया था। मुझे भूख तो लगी थी, और यह कांजी भी मुझे अच्छा लगा क्योंकि पुलिस कस्टडी में आधी कच्ची रोटियाँ और कद्दू की सब्जी के मुकाबले कांजी बेहतर थी। रोज सुबह कांजी कभी नमकीन तो कभी गुड़ डालकर मीठी दी जाती थी, और मुझे दोनों ही स्वाद अच्छे लगते थे।

दोपहर में ज्वार की मोटी रोटी और दाल या कभी छप्पन पत्तियों वाली सब्जी दी जाती थी। जेल में जो भी खाना दिया जाता था, वह मेरी आवश्यकता से अधिक था, इसलिये मैं कभी पूरा खाना नहीं खा पाता था। कुछ घंटे बाद, जब गुनाह खाने के ताले खोले गए, तो मेरे सेल के सामने कुछ अन्य कैदी आए। उनमें से जो और खाना चाहते थे, उन्हें मैंने अपना बचा हुआ खाना दे दिया। इन कैदियों में एक रिवा नाम का व्यक्ति था, जो वित्तीय हेराफेरी में माहिर था। एक लक्ष्मण सिंह नाम का था, जो माल ढुलाई करने वाली रेलगाड़ी के वैगन में लूटमार करता था। एक महाजन नाम का कैदी अपनी पत्नी के चरित्र पर शक करके हत्या कर चुका था। वह जेल में रहते हुए पछताता रहता था, और मेरे सेल में आने पर खुद को कोसता था।

जेल म्यूजियम जैसे लग रहा था। मैं पुलिस स्टेशन के मुकाबले जेल में अधिक सुकून महसूस कर रहा था, हालांकि बाथरूम की स्थिति बहुत खराब थी। खुले में सिमेंट का पानी का हौद था, और नहाने के लिए उसी से पानी लाकर खुले में नहाना पड़ता था। शौचालयों में दरवाजा नहीं था, और दूसरों के सामने शौच करना पड़ता था। धीरे-धीरे सभी को यह पता चल गया था कि मैं सिर्फ आपातकाल के खिलाफ होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया हूँ, इसलिये मुझे सभी कैदी इज्जत देने लगे थे।

एक दिन एक चार-चार फिट ऊँचाई वाला, 56 इंच के छाती वाले, मुंडे सिर वाले मोटे शरीर का एक अजिबो गरीब कैदी मेरे सेल के सामने आया और कहा कि उसने मुझे मिलने के लिए आकर कहा कि वह दिवदमन का रहने वाला है और उसका नाम सुकूर नारायण बखिया है। उसे एक तस्कर के रूप में जेल में रखा गया था। यह अनुभव ही था जो मुझे अमरावती जेल को म्यूजियम की तरह महसूस करवा रहा था। अमरावती जेल को ‘काला टोपी वाला जेल’ कहा जाता था। इसलिए जब मैं जेल में प्रवेश कर रहा था, उस समय ड्यूटी पर जो जेलर था, वह शायद मुझे भी ‘कॅफेफोसा’ वाला (यानी खतरनाक अपराधी) समझकर मेरे साथ इतनी कड़ाई से पेश आया होगा। लेकिन वहीं एक अन्य जेलर, जिनका नाम देशमुख था, मेरे साथ पुत्रवत व्यवहार करते थे, क्योंकि उस समय मेरी उम्र केवल 23 वर्ष थी।

इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल उनका स्वयं का निर्णय था। वह भी अपने पद की मर्यादा में धोखे में आकर ऐसा निर्णय कर बैठी थीं। उनके दल की स्थिति भाजपा जैसी नहीं थी, जो आरएसएस के कैडर से निकली हो। यही कारण था कि शासन व्यवस्था में संघ के स्वयंसेवकों की भरमार थी। इस वजह से आपातकाल के दौरान कई जगह ढिलाई भी देखने को मिलती थी।

सरकार अपनी जगह होती है, लेकिन उसके मातहत काम करने वाले लोगों में तरह-तरह के स्वभाव के लोग होते हैं। यह मुझे भूमिगत रहते हुए और बाद में गिरफ्तारी के बाद विशेष रूप से देखने को मिला।

इसीलिए मैं उस समय आरएसएस के लोगों से कहा करता था कि “इंदिरा गांधी का आपातकाल तो ढीला-ढाला है। लेकिन जब कभी भविष्य में आप लोग भारत के सत्ताधारी बनेंगे, तब बिना आपातकाल घोषित किए ही लोगों का जीना हराम कर दोगे।”
आज पिछले ग्यारह वर्षों से हम यही भुगत रहे हैं। बिना आपातकाल और सेंसरशिप की आधिकारिक घोषणा के ही अखबारों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया पर सत्ताधारी दल तथा विशेष रूप से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के फोटो और वक्तव्य जिस तरह से प्रचारित किए जा रहे हैं, वह मेरे जैसे व्यक्ति को, जिसने पचास साल पहले आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी और जेल गया, बहुत बुरा लग रहा है।

जिस प्रकार यहूदियों ने सौ साल पहले हिटलर और मुसोलिनी के अत्याचारों को भुगता, फिर भी वही यहूदी आज फिलिस्तीनी लोगों पर उससे भी अधिक अत्याचार कर रहे हैं, गाज़ा में पिछले दो वर्षों से जो हो रहा है, वह इसका प्रमाण है।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी, आप पचास वर्ष पहले के आपातकाल और सेंसरशिप को लेकर हर साल 25-26 जून को संविधान हत्या दिवस मनाने के लिए लोगों को उकसाते हैं। लेकिन पिछले ग्यारह वर्षों से आपके शासनकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर नागरिक अधिकारों के कितने उल्लंघन हुए हैं? कितने निर्दोष लोगों को बिना कोई आरोपपत्र दाखिल किए जेलों में बंद कर दिया गया है? और यह सब करने के बाद भी आप इंदिरा गांधी पर संविधान की हत्या का आरोप लगाकर लोगों को भड़काते रहते हैं।

जबकि सत्ता में आने से पहले आपने भी संविधान की शपथ ली थी। फिर भी अब आप स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे मूल्यों की बात करते हुए, पचास साल पुराने आपातकाल का उल्लेख करते हैं।

अब आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, जो भविष्य में मोहन भागवत के बाद संघ के प्रमुख बनने वाले हैं, वे और हमारे देश के उपराष्ट्रपति माननीय जगदीप धनखड़ जैसे संवैधानिक पदाधिकारी सेक्युलर और समाजवादी शब्दों को संविधान से हटाने की बात कर रहे हैं।

कितना बड़ा विरोधाभास है यह!

यह सब देखने के बाद तो लगता है कि कम-से-कम श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल और सेंसरशिप की विधिवत घोषणा की थी। लेकिन आपने तो बिना किसी सेंसरशिप की औपचारिक घोषणा किए ही पूरे मीडिया को सिर्फ आपकी ही डफली बजाने में लगा दिया। हमारे संसद, न्यायालय, चुनाव आयोग, सभी जांच एजेंसियों से लेकर पुलिस और देश की सुरक्षा के लिए तैनात बलों तक का आप अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए उपयोग कर रहे हैं। क्या यह अघोषित आपातकाल नहीं चल रहा है?

सरकार को गिराने के गुप्त षड्यंत्र के आरोप में गिरफ्तार होने तक मैं इन्हीं कार्यों में लगा हुआ था। और इस आरोप को साबित करने के लिए मेरे खिलाफ कोर्ट में जो साहित्य पेश किया गया, उसमें ‘हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ और ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आ रही है’ — रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता की पंक्तियों से लिखे हुए कपड़े के दो बैनर, साथ ही साने गुरुजी द्वारा शुरू की गई मराठी साप्ताहिक पत्रिका साधना तथा टाइम्स ऑफ इंडिया की हिंदी पत्रिका दिनमान की प्रतियां शामिल थीं।

यह सब देख कर न्यायाधीश महोदय ने कहा,

> “ऐसे लाखों बैनर बनाने से भी कोई सरकार उखाड़ी नहीं जा सकती। और ये दोनों पत्रिकाएं आपातकाल तथा सेंसरशिप लागू होने से पहले की हैं, इसलिए इन्हें सबूत के तौर पर पेश करने का कोई मतलब नहीं है।”

इसके बाद न्यायाधीश ने मुझे रिहा करने का आदेश दे दिया। लेकिन हमारे वकील साहब ने बताया कि चूंकि तुम्हें डीआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया था, इसलिए कोर्ट में सुनवाई हुई। अब जैसे ही तुम जेल से बाहर निकलोगे, तुम्हें मीसा के तहत फिर गिरफ्तार कर लिया जाएगा।

यह जानकर हमारे शुभचिंतकों ने पहले ही जेल के गेट पर एक माल ढुलाई का ट्रक खड़ा कर दिया था। जैसे ही मैं जेल से बाहर निकला, उन्होंने मुझे उस ट्रक में बैठाया और महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश की सीमा पर संतरे के बाग़ों में छुपाकर रखा।

लेकिन दो महीने के भीतर ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा कर दी। चुनाव आयोग ने पूरी निष्पक्षता से चुनाव कराए, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई और स्वयं इंदिरा गांधी व संजय गांधी भी चुनाव हार गए। यह केवल निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया के कारण ही संभव हुआ था।

प्रधानमंत्री जी, आपके द्वारा आपातकाल के अनुभव साझा करने की अपील देखकर ही मैंने यह पत्र लिखना शुरू किया है। पचास वर्ष पहले के आपातकाल का सामना करने के बाद मैं आज भी यही चाहता हूँ कि चाहे हमारे देश में किसी भी दल की सरकार बने, लेकिन भविष्य में कभी दोबारा आपातकाल जैसी स्थिति न आए। इसी वजह से मैंने आज तक किसी भी राजनीतिक दल की सदस्यता स्वीकार नहीं की है।

हमारे संविधान की प्रस्तावना में अंकित वह महान उद्घोषणा आज भी मेरे जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा है:

> “हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए; तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधान सभा में इस छब्बीस नवम्बर, 1949 को यह संविधान अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

इस उद्घोषणा के अनुरूप मैं पिछले पचास वर्षों से सक्रिय और कृतिशील हूँ। इसीलिए जब आप गुजरात के मुख्यमंत्री बने और उसके केवल सवा सौ दिन बाद, 28 फरवरी 2002 से शुरू हुए साम्प्रदायिक दंगों के समय, मैंने बिहार के भागलपुर दंगों (जो इससे तेरह वर्ष पहले हुए थे) के अनुभव के आधार पर दोनों ही स्थानों पर शांति और सद्भावना के कार्य एनजीओ बनाए बिना स्वयं किया।

इसके अलावा, नांदेड में 6 अप्रैल 2006, मालेगाँव में 2006 तथा 2008 में हुए दोनों विस्फोटों तथा 1 जून 2006 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुराने मुख्यालय पर 300 किलोग्राम आरडीएक्स लेकर आए तथाकथित पाकिस्तानी चार फिदायीनों के हमले की भी जाँच मेरी पहल पर ही की गई।

सितंबर 2008 में खैरलांजी दलित अत्याचार की घटना और 26/11 के मुंबई हमलों के बाद भी मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार मुंबई और खैरलांजी जाकर स्थिति की जाँच करने का प्रयास करता रहा।

गुजरात दंगों की जाँच के लिए आपने जो मेहता आयोग और बाद में नानावटी आयोग गठित किया था, उसकी कार्यवाही में भी मैंने पाँच बार अपने मित्र एडवोकेट मुकुल सिन्हा के साथ उपस्थित होकर भाग लिया।

इसी तरह, 2018 में पहली जनवरी को भिमा-कोरेगाँव दंगे की जाँच मैंने राष्ट्र सेवा दल के अध्यक्ष रहते हुए अपने सहयोगी साथियों के साथ मिलकर की। महाराष्ट्र सरकार द्वारा इस दंगे की जाँच के लिए गठित जस्टिस जे.एन. पटेल आयोग को पुणे में हुई बैठक में रिपोर्ट भी सौंपी।

इसके अलावा पृथ्वी के बढ़ते तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) को देखते हुए जल, जंगल और ज़मीन बचाने के लिए चल रहे आंदोलनों में भी मैं सक्रिय रूप से शामिल रहा हूँ।

शायद इन्हीं कारणों से आपने हमारे जैसे लोगों को “आंदोलनजीवी” कहा होगा। इस पर मैंने पहले भी आपके लिए “हाँ, मैं आंदोलनजीवी हूँ” शीर्षक से एक खुला पत्र लिखा था, जैसा कि आज फिर लिख रहा हूँ।

माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी,

मैंने पहले ही आपातकाल के दौरान अपने अनुभव आपको बता दिए हैं। लेकिन एक बात आप और मुझे दोनों को खुले दिल से स्वीकार करनी चाहिए कि घोषित आपातकाल और सेंसरशिप 19 महीनों के बाद समाप्त कर दी गई थी।

लेकिन 2014 के इसी महीने से शुरू हुआ अघोषित आपातकाल और सेंसरशिप, इसी महीने में 132 महीने पूरे कर चुका है। क्या उस घोषित आपातकाल के दौरान धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने का प्रयास हुआ था? उल्टा, उस समय नक्सलियों के साथ-साथ आरएसएस और मुस्लिम जमाते इस्लामी जैसे संगठनों को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था और उनके कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया था।

आज स्वतंत्रता के 78 सालों मे पहली बार गत चालिस सालो से शनैः शनैः सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढाने का काम किया जा रहा है. जो आज परम स्थिति में दिखाई दे रहा है. और मुझे लग रहा है कि आप और हम भी बटवारे को लेकर बहुत दुखी हैं. लेकिन बटवारा क्यों हुआ ? यह आप शांत चित्त होकर सोचेंगे. तो आज 1946 – 47 के समय से ज्यादा ध्रुवीकरण की स्थिति में देश दिखाई दे रही है. और इसलिए मुझे भय लगता है, कि ऐसी स्थिति से कहीं देश दोबारा बटवारे की स्थिति में तो नहीं चला जा रहा ? क्योंकि आप को मुझे मुस्लिम समुदाय के लोग अच्छे लगे या ना लगे लेकिन 25 करोड के आसपास की जनसंख्या को कितना भी भागलपुर – गुजरात कर लिजिए आप और मैं खत्म नही कर सकते. उनके साथ जीने की आदत हमे आपकों डालनी पडेगी लेकिन नहीं उन्हें असुरक्षित मानसिकता मे डालकर यह काम होगा उसके लिए देश में रह रहे सभी अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भी प्रेम करते हूऐ उनको यह देश हम सभी का है यह अहसास होना चाहिए. न कि गोलवलकर गुरूजी के “अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक समुदाय की सदाशयता पर रहने की आदत डालने वाली सूचना से”. और इसिलिये हमारे संविधान निर्माताओं ने सेक्युलर,( SOCIALIST SECULAR AND DEMOCRATIC REPUBLIC) जनतंत्र,( DEMOCRACY) न्याय,(JUSTICE) आजादी((LIBERTY) हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा था . लेकिन आप ने तो समाजवादी और

सेक्युलर शब्दों को हटाकर पूरी दुनिया को क्या संदेश दिया है ?

आज़ादी के 78 सालों में पहली बार, गत चालीस वर्षों से शनैः-शनैः जिस तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाया गया, वह अब अपनी चरम अवस्था पर पहुँच चुका है। मुझे लगता है कि आप भी और हम भी, दोनों, देश के बँटवारे को लेकर दुःखी हैं। लेकिन ज़रा शांत चित्त से सोचिए — बँटवारा हुआ क्यों था? अगर आप सोचेंगे, तो पाएँगे कि आज देश 1946-47 के समय से भी अधिक ध्रुवीकृत स्थिति में पहुँच गया है।

इसीलिए मुझे भय लगता है कि कहीं देश दोबारा बँटवारे की ओर तो नहीं बढ़ रहा?

आपको या मुझे मुस्लिम समुदाय के लोग अच्छे लगें या न लगें, परंतु लगभग 25 करोड़ की जनसंख्या को कितना भी भागलपुर, गुजरात कर लीजिए, आप या मैं उन्हें ख़त्म नहीं कर सकते। हमें उनके साथ जीने की आदत डालनी ही पड़ेगी।

लेकिन यह काम उन्हें असुरक्षित मानसिकता में डालकर नहीं होगा। देश में रह रहे सभी अल्पसंख्यकों को यह महसूस कराना होगा कि यह देश उनका भी उतना ही है जितना हमारा।

ना कि गोलवलकर गुरुजी के उस कथन के अनुसार — “अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक समुदाय की सदाशयता पर निर्भर रहना सीखना चाहिए।” इसीलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा:

समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य (SOCIALIST SECULAR AND DEMOCRATIC REPUBLIC), न्याय (JUSTICE), स्वतंत्रता (LIBERTY)। लेकिन आपने समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाकर पूरी दुनिया को क्या संदेश दिया है?

आप संविधान के उल्लंघन को लेकर कांग्रेस की आलोचना करते हैं। लेकिन क्या आपको याद है?

जब आपने 10 अक्टूबर 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और उसके महज़ 107 दिनों बाद, 27 फरवरी को गोधरा कांड हुआ और उसके बाद गुजरात में भीषण दंगे हुए। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने दंगा-पीड़ित गुजरात का दौरा करने के बाद आपसे क्या कहा था?

“राजधर्म का पालन कीजिए।”
अर्थात संविधान का पालन कीजिए।

तो फिर संविधान हत्या दिवस के रूप में हमें और कौन-कौन सी तारीखें मनानी चाहिए?

क्या 30 जनवरी 1948 को, जब आज़ादी के छह महीने के भीतर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई?

क्या 6 दिसंबर 1992 को, जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त की गई?

या फिर भागलपुर, गुजरात, मेरठ, मलियाना, मुजफ्फरनगर के दंगे?

1984 में दिल्ली में हुआ सिखों का नरसंहार?

और 2014 के जून के बाद गोहत्या के नाम पर शुरू की गई मॉब लिंचिंग की घटनाएँ?

क्या अभिनव भारत द्वारा वर्तमान संविधान को हटाकर नया संविधान बनाने की माँग तथा भारतीय संविधान निर्माता बाबा साहब आंबेडकर द्वारा 26 नवंबर 1949 को दिए गए संविधान की घोषणा के बाद, 30 नवंबर 1949 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में तत्कालीन संघ प्रमुख श्री माधव सदाशिव गोलवलकर गुरुजी द्वारा संविधान को ठुकराते हुए लिखा गया यह वक्तव्य भूलना चाहिए?

> “हमारा संविधान तो बस पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों से जुटाए गए अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम मिश्रण है। इसमें अपना कुछ भी मौलिक नहीं है। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में कहीं भी उल्लेख है कि हमारे राष्ट्रीय जीवन का उद्देश्य क्या है?
हमारे प्राचीन भारत में मनु के कानून लिकर्गस या सोलन से भी पहले बने। आज तक उनकी व्यवस्थाएँ दुनिया में प्रशासन को प्रेरित करती हैं और स्वाभाविक रूप से पालन कराई जाती हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ ही नहीं।”

यह वही भूमिका है जो संघ के तीस वर्षों तक प्रमुख रहे गोलवलकर गुरुजी ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स में लिखी।

इसी सोच के कारण अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनते ही संविधान समीक्षा के नाम पर एक समिति गठित की थी।
भाजपा के कई राष्ट्रीय नेताओं ने भी चुनाव प्रचार में लोगों से अपील की कि हमें संविधान बदलने के लिए संसद में 400 सीटें दीजिए।

तो नरेंद्र मोदी जी, बताइए — हमें 25-26 जून को किस संविधान की हत्या दिवस मनाना चाहिए?

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