एक युद्ध हो अन्याय और हथियारों के विरुद्ध

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Arun Kumar Tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

क्कीसवीं सदी का चाल चलन बिगड़ गया है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नीतिकारों और रणनीतिकारों ने जो आख्यान रचा है उससे साफ है कि यह सदी किसी महान विचार की नहीं बल्कि अन्याय और हथियारों की सदी होने जा रही है। जाहिर है कि इसे न्याय और शांति की सदी बनाने के लिए नए किस्म के युद्ध की आवश्यकता होगी। हम देखें या न देखें, कहें या न कहें लेकिन पूंजी के वैश्वीकरण को पलटने के नए अभियान के तहत साम्राज्यवाद अब नए रूप में उपस्थित हो रहा है। 1991 में जब वैश्वीकरण और उदारीकरण की लहर चली थी तो कहा जा रहा था कि अब दुनिया की साम्राज्यवादी शक्तियों को किसी देश में सेना भेज कर कब्जा करने की आवश्यकता नहीं है। वे हाल में आजाद हुए एशिया और अफ्रीका के देशों को पूंजी और प्रौद्योगिकी से नियंत्रित करने का नया हथकंडा अपना रहे हैं।

लेकिन अब इस रणनीति ने अपनी सीमाएं पहचान ली हैं। इस बात को कनाडा के दार्शनिक जॉन राल्स्टन सॉल ने दो दशक पहले ही कह दिया था कि वैश्वीकरण का पतन (कोलैप्स आफ ग्लोबलिज्म) हो चुका है। क्योंकि वह अपने वास्तविक पारिभाषिक रूप में लागू नहीं हो पा रहा है। लेकिन तब यह बात उन नीतियों के आलोचक कहते थे और अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश जिन्होंने रीगनामिक्स और थैचरानामिक्स के माध्यम से वह नीतियां चलाई थीं वे उसकी घोषणा नहीं कर रहे थे। लेकिन आज अमेरिका खुले आम वैश्वीकरण को ‘मागा’ अभियान(अमेरिका को फिर से महान बनाओ) से पलटने की घोषणा कर रहा है। उसकी वजह साफ है कि उन नीतियों से एक हद तक एशिया और अफ्रीका के देशों को लाभ हुआ और वे आर्थिक शक्ति बनकर उभरने लगे थे, जबकि अमेरिका और युरोप की आर्थिक शक्तियां क्षीण हुईं।

लेकिन ध्यान रहे कि वित्तीय वैश्वीकरण की समाप्ति की यह घोषणा दुनिया में किसी श्रेष्ठ किस्म के शुद्ध राष्ट्रीयता के उदय का संकेत नहीं है। बल्कि यह भौतिक किस्म के साम्राज्यवाद की फिर से वापसी है। जाहिर है वह साम्राज्यवाद शक्तिशाली देशों के दूर दराज के देशों में फिर से सैनिक अड्डों के निर्माण का होगा और एआई संचालित नए किस्म के हथियारों से संरक्षित होगा। वह तमाम संप्रभु देशों की नीतिगत स्वायत्तता से नाराज महाशक्तियों द्वारा वहां तख्तापलट कर कठपुतली सरकारों की स्थापना का शासन होगा। हथियारों के गौरवगान और उनके परीक्षण का सिलसिला दुनिया में तेज हो चला है। वह अगर युरोप में रूस और उक्रेन के बीच हो रहा है तो पश्चिम एशिया में इजराइल-फिलस्तीन और ईरान के बीच रहा है। दक्षिण एशिया में भारत-पाकिस्तान और चीन के बीच हो रहा है। इन प्रयोगों के दौरान लाखों लोग मारे जा चुके हैं और आगे गंभीर आशंकाएं बनी हुई हैं।

इस माहौल के बीच ऐसे चिंतकों, बौद्धिकों और राजनेताओं की जरूरत है जो अन्याय, हथियार और युद्ध के विरुद्ध अपना अभियान तेज करें। साथ ही उन नेताओं के महत्त्व को समझें जो पिछली सदी में परमाणु बम का विरोध कर रहे थे और युद्ध विरोधी माहौल निर्मित कर रहे थे। यह विडंबना है कि जो लोग आपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान को कोई सबक नहीं सिखा पाए वे अब 1947 के कबाइली हमलों और 1962 के चीन के हमलों में हुए भारत के नुकसान के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को कोस कर अपनी वाहवाही कर रहे हैं। वास्तव में गांधी के सत्याग्रह के माध्यम से आजादी पाने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू एक शांतिप्रिय और परमाणु बम विहीन विश्व की तलाश में थे। अपनी इस सोच के कारण उन्हें भारतीय भूमि की क्षति जरूर उठानी पड़ी लेकिन इसी के नाते वे भारत को आर्थिक विकास के रास्ते पर डाल पाए। आज जब इक्कीसवीं सदी में पलट कर देखते हैं तो लगता है कि दुनिया को हथियारों के विरुद्ध चलाए जाने वाले उस अभियान की कितनी जरूरत है।

नेहरू अणुबम विरोधी अभियान में किस तरह लगे थे इसका जिक्र स्वयं उनके राजनीतिक विरोधी डॉ राम मनोहर लोहिया ने किया था। नेहरू ने लगभग लोहिया की बातों को नए संदर्भ में रखते हुए कहा था, कि हां नेता तो समझौता करता है, झुकता है, मिलावट करता है, पैगंबर को कोई जरूरत नहीं होती है झुकने झुकाने की। वह तो अपने आदर्शो को लेकर आगे बढ़ता रहता है।

………अपने जमाने में एक ही आदमी हुआ है जिसने नेतागीरी और पैगंबरी दोनों को मिलाकर काम-काज किया और वह थे महात्मा गांधी। जो कोई देश अपनी तरफ से आगे बढ़कर एकतरफा हथियार खत्म कर देगा वह कभी हारेगा नहीं, उसकी ताकत और छाती बढ़ेगी, पर इस काम को कराए कौन? यह तो वही करा सकता है जो सिर्फ नेता नहीं पैगंबर भी है, महात्मा करा सकते हैं और महात्मा गांधी कहां से लाएं?

दरअसल नेहरू अणुबम विरोधी उस अभियान से जुड़े थे जिसे मशहूर बौद्धिक बर्टेंड रसेल और अल्बर्ट आइंस्टीन ने 1955 में शुरू किया था। उसे रसेल-आइंस्टीन घोषणा पत्र के नाम से जाना जाता है। इस घोषणा पत्र में दुनिया के नेताओं को परमाणु हथियारों के खिलाफ चेतावनी दी थी और समस्याओं के शांतिपूर्ण हल की बात की गई थी।

दिक्कत यह है कि आज दुनिया ने परमाणु हथियार को ही शांति की कसौटी बना दिया है। तर्क यही है कि जिन देशों के पास परमाणु हथियार हैं उनके बीच खुले आम युद्ध कभी नहीं होगा क्योंकि दोनों देश महाविनाश को बचाना चाहेंगे। इसी सिद्धांत को विस्तार देते हुए परमाणु प्रसार संधि(एनपीटी) और व्यापक परमाणु परीक्षण विरोधी संधियां की गई हैं जिनमें दुनिया के तकरीबन 190 देश भागीदार हैं। लेकिन यह संधियां एक ओर तो पक्षपाती हैं और दूसरी ओर इनका असर भी आधा अधूरा है। अगर परमाणु प्रसार न हुआ होता तो न तो पाकिस्तान परमाणु बम बना पाता और न ही इजराइल। परीक्षण के लिए प्रयोगशाला की पद्धति भले ही चालू हो गई हो लेकिन चीन पर पिछली सदी में कई परीक्षण किए जाने का संदेह व्यक्त किया गया था।

लेकिन असली सवाल यह है कि दुनिया में विकसित एटमी हथियारों को नियंत्रित करने का प्रणाली होने के बावजूद क्यों इराक पर परमाणु हथियार रखने का फर्जी आरोप लगाकर उसे तबाह कर दिया गया और ईरान पर यूरेनियम संवर्धन के बहाने हमला किया गया। वास्तव में परमाणु हथियारों से तबाही जब होगी तब होगी लेकिन उससे पहले मिसाइलों और ड्रोन से होने वाली लड़ाइयों ने दुनिया में लाखों लोगों की बलि ले ली है। रूस और उक्रेन युद्ध में होने वाली मौतों के आंकड़े दो लाख पार कर रहे हैं। जबकि इजराइल ने गाजा में 60-70 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया है। बल्कि गाज़ा के हमले को नरसंहार की संज्ञा देना कहीं से अतिश्योक्ति नहीं है।

ऐसे में डॉ लोहिया का वह सैद्धांतीकरण जिसमें वे केवल परमाणु हथियार नहीं बल्कि सभी किस्म के हथियारों को खत्म करने की बात करते हैं। डॉ लोहिया 23 जून 1962 को नैनीताल में दिए गए अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘निराशा के कर्तव्य’ में कहते हैं कि ‘असल में इन छोटे हथियारों को या जो परंपरागत हथियार हैं उनको भी तो खत्म करने का सवाल है। मेरे दिमाग में कोई शक नहीं है कि हथियारों के खात्मे का मतलब खाली अणुबम का खात्मा नहीं होता है, बल्कि इन परंपरागत हथियारों के खात्मे का मामला आ जाता है। ये कैसे खत्म होंगे? इतनी अच्छी दुनिया कब बनेगी कि बंदूक और लाठी की जरूरत न रहे।’

यह कोई मामूली सवाल नहीं है और इसका उत्तर देते समय बड़े बड़े दार्शनिकों का दिमाग भी चकरा सकता है। लेकिन अच्छी बात है कि लोहिया और बीसवीं सदी के दार्शनिकों के दिमाग में यह सवाल आता था और वे उसका उत्तर ढूंढने की कोशिश करते थे। जबकि इक्कीसवीं के दिमागों खासकर राजनेताओं के मस्तिष्क में यह सवाल आता ही नहीं।

डॉ लोहिया इन सवालों पर मंथन करते हैं। इसी मंथन के दौरान वे हथियार की परिभाषा भी गढ़ते हैं। वे कहते हैं, “ असल में हथियार माने अन्याय। हथियार या तो अन्याय को मिटाने का जरिया होता है या उसे कम करने का जरिया है। कभी किसी तरह से अगर समाज में अन्याय खत्म किया जा सकता है तो फिर हथियारों की जरूरत रह नहीं जाती है। हथियारों की जरूरत अन्याय के साथ चिपकी हुई है।” उनकी इस परिभाषा में यह बात अंतर्निहित है कि हथियार अन्याय के उपकरण भी हैं। अगर हथियार न हों तो एक व्यक्ति दूसरे पर उतना अधिक अन्याय नहीं कर पाएगा, या एक देश दूसरे देश पर वैसा वर्चस्व नहीं बना पाएगा जैसा आज बना हुआ है। इसलिए जब हथियार नहीं रहेंगे तो अन्याय खत्म हो जाएगा, इसके बदले वे कहते हैं कि जब दुनिया से अन्याय समाप्त हो जाएगा तो हथियारों की जरूरत भी समाप्त हो जाएगी। फिर तो लाठी डंडे रहेंगे और उनका प्रयोग भी कम से कम होगा।
यानी अन्याय के विरुद्ध संघर्ष हथियारों को खत्म करने का एक उपाय है। लोहिया बीसवीं सदी को बड़ी बेरहम सदी कहते थे लेकिन उसी के साथ वे यह भी मानते थे कि इस सदी में हर देश में अन्याय के विरुद्ध किसी न किसी किस्म का संघर्ष चल रहा है। इंसान अलग-अलग अन्यायों के खिलाफ एक साथ लड़ रहा है। उन्हें यह आशा थी कि अगर यह संघर्ष सफल हो गए तो बीसवीं सदी के अंत तक एक अन्याय- शून्य दुनिया बन जाएगी। फिर वे अपनी एक और मुश्किल पेश करते हैं। “एक तरफ तो अन्याय के खिलाफ लड़ाई और दूसरी तरफ हथियारों को मिटाने वाली लड़ाई, इन दोनों में इतना ज्यादा साम्य, खास तौर से समय का साम्य है कि यह सोचना मुश्किल हो गया है कि एक वक्त में यह दोनों लड़ाइयां इस तरह से चलती रहेंगी कि उन दोनों में आगे पीछे वाला मामला नहीं होगा।”

सचमुच यह सोचना और कहना मुश्किल है कि पहले हथियार खत्म करने की लड़ाई लड़ी जाए या पहले अन्याय मिटाने की। संभवतः यह लड़ाई एकतरफा हो नहीं सकती बल्कि एकसाथ ही होनी चाहिए। पर इक्कीसवीं सदी में इस मसले पर सोचने और समझने वाले राजनेताओं का अकाल है। नोबेल शांति का पुरस्कार पहले भी पाखंडी तरीके से उन्हें दिया जा रहा था जो कहीं न कहीं युद्ध और नरसंहार में शामिल रहे हैं। इस बार तो डोनाल्ड ट्रंप के नाम का प्रस्ताव करने वालों में एक राजनेता पर नरसंहार के आरोप के तहत अंतरराष्ट्रीय संस्था का वारंट जारी है तो दूसरे सैनिक अधिकारी को आतंकवाद के संचालन में महारथ हासिल है। हथियार और अन्याय के साथ युरोप और अमेरिका का यह पाखंड इस सदी का बड़ा संकट है और इसीलिए इससे उबरने के उपाय होने चाहिए। तभी हथियार और अन्याय मुक्त विश्व की कल्पना की जा सकती है।

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