अकेले ही चले थे
राम-लखन
वन की ओर
भीड़ थी उसके साथ
जो,उठा ले गया था सीता ।
भीड़ थी उनके साथ
जो चीरहरण कर रहे थे।
कृष्ण अकेले ही थे तब-
नारी की अस्मत बचानी थी जब।
कौरवों के पात्रा-प्रवक्ताओं ने,
हजारों रानियों का वास्ता दे
क्या कम किया होगा बदनाम उन्हें तब।
मामा कंस तो हुए बदनाम अब!
कारावास में मारें जा रहे थे बच्चें
तब तो राज कर रहे थे वे!
भीड़ थी तब उनके साथ ।
भीड़ का होता हैं नियम, कायदा-
जिधर होता है दम
उधर होते हैं हम।
बांध नहीं पाता उसे
नैतिकता,मानवता का जाल
भीड़ होती है-
लिजलिजाती, कुलबुलाती,
रीढ़विहीन, दीमकों की
सेना की तरह
भूखी
जो चाट जाती है,
व्यवस्था का ताना-बाना
और ढांचा।
फिर पीटते रहिए आप ढोल
करते रहिए ढोंग
दवा के छिटकाव का।
भीड़ गढ़ चुकी होती है,
तब तक अपना नया भगवान।
आप चाहें या न चाहें,
किस्सा तो यही है-
बनना पड़ता है आप को
इनमें से किसी एक का हिस्सा!
माई बाप
पेट पीठ से चिपक रहा
रोटी दो, रोजगार दो
माई बाप।
मोबाइल नहीं,
पैसें नहीं, सिग्नल नहीं,
नेट नहीं, पढ़ें कैसे?
माई बाप।
ऑक्सीजन नहीं,
दवाईयां नहीं, लकड़ियां नहीं,
श्मशान खाली नहीं,
गंगा में बहा दें !
माई बाप।
कर लेंगे बात जात-पात की
करा देंगे दंगें फसाद
समय और जगह बता दें बस
राशन तो देंगे ना आप !
माई बाप।
दौड़ा दी मशीनें
रौंद डालें सारे आसरे,
भाई देखा ना माई
सुबह देखी ना रात
सबसे बड़ा हुकुम आपका-
माय बाप।
आपने लगा मुझे उधर,
मेरा झोपड़ा उजड़वा दिया इधर
मलबे के ढेर पर खड़ा
पी रहा हूं आंसू आज
कल पिएंगे आप भी
मशीन तो हृदयहीन है।
क्या आप भी मशीन है!
माय बाप।
विपदा के वक्त सरकार
माई-बाप, मैंने बहुत खोजा
आपको
मलबे के पास
चिकित्सालय कैंपों में
मदद मांगते डरे सहमे लोगों में
दवा की दुकानों में
मंदिरों में
लंगरों में
श्मशानों में
आप कहीं भी मिलें नहीं।
मैं डरा सहमा
घबराया-भौचक्का था
मिल जाते आप तो
विश्वास बैठ जाता
मन में।
मालिक मुझे याद है
हर विपदा, दुर्घटना के बाद
विश्वास दिलाते हैं आप
विपदाओं से लेंगे ज्ञान,
संकट में देंगे साथ।
अन्नदाता, सरकार
गुस्ताखी हो माफ
हर बार हमसे ज्यादा
डर जाते हैं आप।
दड़बे में घुस जाते है।
कुर्सी की सुरक्षा कर
कछुए की तरह
बाहर आते हैं आप
वो भी होकर
हवा पर सवार।
तब तक तो जुटा लेते हैं
हम ही अपने में विश्वास।
हजूर आप हैं
जन-गण-मन अधिनायक
भाग्य विधाता
महाराष्ट्र, उड़ीसा, मणिपुर, बिहार
या हो
गुजरात।
माई-बाप, गुस्ताखी हो माफ
जय हो, जय हो, जय हो।
****
फूल और कांटा
मेरी न इच्छा है कि
मैं गुलाब बनूं।
न इच्छा है कि
कांटा बनूं।
मैं, जहां हूं, जैसा हूं
ठीक हूं।
परंतु चाहते हो तुम
कि मैं, और सब वे
जो मेरी तरह है
कांटों की तरह दिखें।
इन कांटों के घेरे में हो
एक मात्र तुम्हारा
नीरस व्यक्तित्व
जो निखर उठें
गुलाब की तरह
ठीक वैसे ही,
जैसें निखरता है
अंधों में काना ।
तुम्हारी
असफलताओं पर
जब होगा
कांटों का पर्दा
तो तुम्हारे अत्याचारों का
प्रतिकार कौन करेगा !
किसी ने हिम्मत की
तो एक कांटा और बढ़ा
घेरे में।
परंतु
याद रखो
कांटा,कांटा होता है
कारपेट नहीं !
विद्रोह करने पर
वह तुम्हारे
उस व्यक्तित्व का
जिसे तुम मानते हो
गुलाब,
छेद-छेद कर
अस्तित्वहीन कर देगा
और ऊंचाई की आशाएं
तुम्हें गहरी, अंधेरी खाई में
मिलेगी नहीं कहीं
इसलिए
अपने गुलाब पन की
चाह के लिए तुम
मत बनाओ
औरों को कांटा
जो जैसा हैं
रहने दो
उसे वैसा ।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















