
साथियो, इस साल भागलपुर दंगे को 36 वर्ष पूरे हो रहे हैं। भारत में बँटवारे के दौरान हुए दंगों के बाद भी छोटे-मोटे दंगे होते रहे, जो प्रायः कुछ गली-मोहल्लों तक सीमित रहते थे। लेकिन 24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुआ भागलपुर का दंगा स्वतंत्र भारत का पहला ऐसा बड़ा दंगा था, जिसमें हजारों लोग पारंपरिक हथियार लेकर भागलपुर शहर से लेकर इसके ग्रामीण इलाकों तक अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले करने लगे।
इसका प्रयोग बाद में गुजरात में तेरह साल बाद हुआ — इसी कारण “गुजरात मॉडल” शब्द चलन में आया।
भागलपुर दंगे से पहले भी दंगे हुए थे, किंतु वे अधिकांशतः सीमित क्षेत्र तक ही सिमटे थे। भागलपुर दंगे में लगभग पूरी भागलपुर कमिश्नरी का क्षेत्र शामिल था। पड़ोसी जिले — मुंगेर, गोड्डा, बांका, साहेबगंज और दुमका तक इसकी चपेट में आए।
यह दंगा बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद के प्रारंभिक दौर में योजनाबद्ध ढंग से कराया गया था।
दंगा भड़काने के लिए दो अफवाहों का सहारा लिया गया:
1. यह कि भागलपुर विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले 400 छात्रों को मुस्लिम समुदाय ने मार डाला।
2. यह कि भागलपुर महिला महाविद्यालय की 400 छात्राओं के साथ बलात्कार हुआ।
उस समय सोशल मीडिया नहीं था। अफवाहें फैलाने के लिए मोटरसाइकिलों पर बैठाकर लोगों को भेजा गया। इसी कारण आर.एस.एस. को “रूमर स्प्रेडिंग सोसाइटी” (Rumour Spreading Society) भी कहा गया। इस तकनीक का प्रयोग बाद में “गणपति के दूध पीने” जैसी अफवाहों से और सशक्त हुआ।
गुजरात दंगे में भी इसी पद्धति से 28 फरवरी 2002 को गोधरा कांड के बाद जली हुई लाशों का जुलूस निकाला गया, और फिर मतदाता सूचियों के आधार पर दंगाइयों ने गैस सिलेंडर व अन्य साधनों के साथ योजनाबद्ध तरीके से अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया।cइसी दौरान अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के साथ बलात्कार की संगठित घटनाएँ भी सामने आईं।
इससे पहले, भारतीय जनता पार्टी को सांप्रदायिक आधार देने की शुरुआत 1985–86 में शाहबानो केस के निर्णय से हुई। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में संसद में बदल दिया, और साथ ही बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने का निर्णय लिया।
इन दोनों घटनाओं ने हिंदुत्ववादियों को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का लॉन्चिंग पैड प्रदान किया।cइसी पृष्ठभूमि में, बँटवारे के बाद सिंध से आए लालकृष्ण आडवाणी ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद का उपयोग करते हुए रथयात्रा की शुरुआत की। भागलपुर दंगे का दिन — 24 अक्टूबर 1989 — भी तथाकथित शिला पूजन यात्रा के आयोजन का ही दिन था।
कहा जाता है कि “तातारपुर चौक में इस यात्रा पर पथराव हुआ,” हालांकि उस मार्ग से जुलूस निकालने की अनुमति नहीं थी।
फिर भी जानबूझकर रास्ता बदलकर अल्पसंख्यक बहुल बस्तियों से जुलूस ले जाया गया — यह भी दंगों को फैलाने की योजनाओं में से एक थी।
आज़ादी के बाद लगभग सभी बड़े दंगों में यही पैटर्न देखने को मिला है — बाजे-गाजे के साथ मुस्लिम बहुल इलाकों में जबरदस्ती जुलूस निकालना, मस्जिद में सूअर फेंकना, मंदिर में गोमांस फेंकना या मूर्ति को विकृत करना — ये सभी दंगे भड़काने के सस्ते हथकंडे रहे हैं।
1970 के दशक में महाराष्ट्र के जलगांव और भिवंडी दंगों की जांच हेतु गठित जस्टिस मादान आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था:
> “प्रत्यक्ष दंगों में संघ के लोग थे या नहीं, यह अलग विषय है; लेकिन दंगे के लिए लोगों की मानसिकता तैयार करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी दैनिक शाखाओं के माध्यम से अल्पसंख्यकों के विरुद्ध गलतफहमियाँ फैलाकर करता है। इसी कारण बड़ी संख्या में लोग दंगों में भाग लेते हैं।”
भागलपुर दंगा इसकी जीवित मिसाल है। मैं उस समय कोलकाता में था। कोलकाता से भागलपुर की दूरी लगभग 400 किलोमीटर है। भागलपुर कभी बंगाल प्रांत का हिस्सा था; राज्य पुनर्गठन के बाद यह बिहार में आया। यहाँ बंगाली जनसंख्या भी पर्याप्त है। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की ननिहाल यहीं थी। उनका उपन्यास श्रीकांत भागलपुर-कोलकाता की गंगा यात्रा पर आधारित है। बंगाली लेखक बनफूल, प्रसिद्ध विचारक आशिष नंदी, फिल्म निर्माता तपन सिन्हा और चरित्र अभिनेता अशोक कुमार — ये सभी भागलपुर से जुड़े रहे हैं।
भागलपुर महाभारत कालीन नगर है। इसके समीप स्थित चंपानगर प्राचीन अंगप्रदेश की राजधानी था — वही प्रदेश जहाँ महान योद्धा और उदारहृदय कर्ण का राज्य था। इस कारण यहाँ की स्थानीय बोली अंगिका कहलाती है। गंगा के किनारे बसा यह नगर भौगोलिक रूप से भी विशिष्ट है — यहीं गंगा 90 डिग्री मुड़कर बंगाल की ओर जाती है। यहाँ डॉल्फ़िन मछलियों की भरमार है, और रात में उनकी उछलकूद मन मोह लेती है।
2011 की जनगणना के अनुसार भागलपुर की जनसंख्या लगभग चार लाख है; 1989 में यह ढाई-तीन लाख के आसपास रही होगी। मुस्लिम जनसंख्या लगभग 29% और हिंदू 70% थी — जो भारत की समग्र जनसंख्या अनुपात के समान है। तातारपुर और चंपानगर मुस्लिम बहुल इलाके हैं। उनका मुख्य व्यवसाय भागलपुर का प्रसिद्ध रेशम-बुनाई उद्योग है, जो भारत से अधिक विदेशों में प्रसिद्ध है। ज्यादातर करघा मालिक हिंदू मारवाड़ी थे, लेकिन मेहनत और हुनर के कारण कुछ मुस्लिमों ने भी अपने करघे स्थापित कर लिए थे — जिन्हें दंगे में चुन-चुनकर जलाया गया।
गंगा किनारे बसा सुजलाम-सुफलाम भागलपुर
गंगा नदी के किनारे बसे इस नगर की मिट्टी हजारों वर्षों से उपजाऊ रही है। गंगा की गाद से बनी इस भूमि के आस-पास खेती भी खूब होती है — जिसमें चावल, दलहन और जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में पैदा होती हैं। सब्ज़ियों में परवल, खीरा और अन्य पत्तेदार सब्जियाँ प्रचुर हैं। फलों में आम, केला और कुछ हद तक लीची भी होती है। एक तरह से यह इलाका सुजलाम-सुफलाम है — बारहों महीने हरियाली से आच्छादित रहता है।
भागलपुर के अधिकांश मुसलमान बुनकर समुदाय से आते हैं। उनसे संबंधित अन्य व्यवसाय — जैसे धागा, मशीन, मशीनरी के पुर्ज़े, मरम्मत का काम, और बुने हुए कपड़ों की खरीद-फरोख्त — भी इन्हीं के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं। हालाँकि, इस उद्योग में सबसे अधिक दखलंदाज़ी मारवाड़ी व्यापारियों की है, क्योंकि पूँजी और निवेश की दृष्टि से वे अधिक संपन्न हैं। इसी कारण करघा मालिकों में अधिकतर मारवाड़ी हैं; मुस्लिम बुनकरों में इक्का-दुक्का ही मालिक बन पाए हैं।
अधिकांश मारवाड़ी व्यापारी प्रारंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के सदस्य रहे हैं — वस्तुतः भागलपुर में संघ की जड़ें भी इन्हीं के कारण गहरी हुईं। यही प्रवृत्ति कम-अधिक मात्रा में पूरे भारत में देखी जा सकती है। सभी साधन-संपन्न, ऊँची जाति के व्यापारी वर्ग के लोग सामान्यतः संघ के समर्थक होते हैं, क्योंकि यथास्थिति को बनाए रखना ही संघ का मूल उद्देश्य है। इसलिए पूँजीवादी वर्ग संघ का स्वाभाविक सहायक बन गया है।
दंगों के समय पिछड़ी, दलित और आदिवासी जातियों को बहकाकर अल्पसंख्यकों पर हमले करवाना बहुत आसान होता है।
भागलपुर से लेकर गुजरात तक दंगों का यही पैटर्न देखने को मिला है।
अविभाजित भारत में भी लगभग यही चरित्र रहा है। एक खास बात यह है कि दंगे को पर्दे के पीछे से हवा तो आर.एस.एस. ने दी, लेकिन प्रत्यक्ष हिंसक कार्रवाई में मंडल श्रेणी (OBC) के लोग अधिक शामिल पाए गए।
तेरह वर्ष बाद हुए गुजरात दंगे का भी स्वरूप लगभग यही था। 27 फरवरी 2002 से आरंभ हुआ यह भारत के इतिहास का पहला ऐसा दंगा था जो राज्य प्रायोजित था। वर्तमान प्रधानमंत्री उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे और इस दंगे के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी भी। यह केवल मेरा मत नहीं — तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी अहमदाबाद में मोदीजी की उपस्थिति में कहा था,
मुख्यमंत्री ने राजधर्म का पालन नहीं किया
भागलपुर दंगे के बाद मेरा आकलन रहा है कि आने वाले पचास वर्षों तक भारतीय राजनीति का केंद्र केवल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण रहेगा — और आज वही सच्चाई सबके सामने है। इसी कारण गंगा, साबरमती और देश की अन्य नदियों से इतना पानी बह जाने के बाद भी हमें “भारत जोड़ो, नफ़रत छोड़ो” जैसे अभियान चलाने पड़ रहे हैं।
मेरे विचार से पिछड़ी जातियों की कुंठा को भुनाने का यह सिलसिला पचास वर्ष से अधिक पुराना है। बहुत ही चतुराई से इन जातियों को “हरावल दस्ते” के रूप में आगे किया गया है। योजना के तहत तथाकथित पिछड़ी जातियों के लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल कर, उनके माध्यम से दंगे-फसाद, मॉब लिंचिंग तथा “गौ-रक्षा” के नाम पर अल्पसंख्यकों पर हमले करवाए जा रहे हैं। और नरेंद्र मोदी इस प्रवृत्ति का सबसे बड़ा उदाहरण हैं।
महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हमारे प्रगतिशील मित्र पानी पी-पीकर कोसते हैं, परंतु हक़ीक़त यह है कि खैरलांजी से लेकर भागलपुर और गुजरात तक अधिकांश दंगों में प्रत्यक्ष भागीदारी शोषित जातियों की रही है। जब तक जाति-उन्मूलन के समर्थक इस सच्चाई को नहीं समझते, तब तक दंगे करने की परंपरा जारी रहेगी।
महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले द्वारा आरंभ की गई जाति-उन्मूलन की मुहिम को दो सौ वर्ष से अधिक हो चुके हैं,
फिर भी वर्तमान समय में ओबीसी समाज का एक बड़ा वर्ग सांप्रदायिक और जातिवादी दलों में शामिल होकर अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हरावल दस्ते की भूमिका निभा रहा है।
दंगे के बाद मैं और हमारे शांतिनिकेतन के मित्र — वीणा आलासे, श्यामली खस्तगीर, बाणी सिन्हा, मनीषा बनर्जी, मंदिरा चटर्जी जैसी विद्यार्थिनियाँ — भागलपुर के पास बाबुपुर नामक जगह पर पहुँचे। मैं और मनीषा, उसके चप्पल खो जाने के कारण पीछे रह गए थे। उसी समय बाबुपुर के एक दरिद्र लेकिन दरियादिल व्यक्ति ने हमें रोककर पूछा,
> “आप लोग कौन हैं? कहाँ से आए हैं? और क्यों आए हैं?”
उसके प्रश्नों की झड़ी लग गई। मैंने उत्तर दिया, “मैं कोलकाता से हूँ, और यह लड़की शांतिनिकेतन से है। आगे जो लोग निकले हैं, वे भी शांतिनिकेतन के ही हैं।”
उसने फिर पूछा, “यहाँ काहे को आए हो?”
मैंने कहा, “यह जो दंगे में चुन-चुनकर मुसलमानों के मकान जलाए और उजाड़े गए हैं, उन्हें देखने आए हैं।”
वह तुरंत बोला, “बहुत अच्छा हुआ!”
मैंने पूछा, “कैसा अच्छा हुआ?”
वह बोला, “हमारे रामजी के मंदिर का मियाँ लोग विरोध कर रहे थे, इसलिए उनके सब मकान तोड़ दिए गए।”
तब तक वहाँ अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठा हो गई थी।
मैंने उसके अधनंगे शरीर की ओर इशारा करते हुए पूछा,
> “अगर मंदिर बनने से तुम्हारे शरीर पर नया कपड़ा आ जाएगा, और”—मैंने बगल की टूटी-फूटी झोपड़ी की ओर इशारा किया—“अगर यह झोपड़ी पक्की हो जाएगी, और तुम्हें खाने-पीने का सामान अपने आप मिलने लगेगा, तो हम सब मिलकर दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर बनाने में लग जाएंगे।”
वह बोला, “ऐसे कैसे होगा?”
मैंने कहा, “अगर तुम्हारी हालत में और जिनके मकान तोड़े गए हैं उनकी हालत में कोई फर्क नहीं पड़ता, तो फिर मंदिर-मस्जिद के झगड़ों को तूल देना कहाँ तक सही है?”
भीड़ में से कोई बोला,
> “ऐसे बात करने वाले आप पहले लोग आए हैं। अब तक तो मंदिर-मस्जिद की बात करने वाले ही आते रहे हैं। क्या आप लोग फिर से नहीं आओगे?”
बाबुपुर के उस फटेहाल सज्जन ने हमें रोककर हमारे भागलपुर के भविष्य के काम की दिशा तय कर दी। शायद आज, छत्तीस साल बाद भी, भागलपुर आते रहने की प्रेरणा मुझे उसी एक सवाल से मिली है —
> “क्या आप लोग फिर से नहीं आओगे?”
वापसी के सफर में हम सब — कोलकाता और शांतिनिकेतन के साथी — रातभर ट्रेन में जागते रहे। हमने निश्चय किया कि भविष्य में भी भागलपुर लौटेंगे। आज, छत्तीस वर्ष बाद, हम उस संकल्प पर कायम हैं।
हमारे शांतिनिकेतन के साथियों और कुछ स्थानीय मित्रों की मदद से भागलपुर में शांति और सद्भावना का काम बदस्तूर जारी है।
अब तो परिधि और गंगा मुक्ति आंदोलन, झुग्गी-झोपड़ी संघर्ष समिति, राष्ट्र सेवा दल, तथा जेपी आंदोलन से जुड़े साथियों — रामशरण, उदय, ललन, डॉ. योगेंद्र, रामपूजन, सार्थक भारत के अनिरुद्ध, रिज़वान, हुदा साहब, संगीता, राहुल और उनकी पत्नी सुष्मा** — के साथ-साथ कला केंद्र के विद्यार्थियों की मदद से यह काम लगातार चल रहा है।
शांतिनिकेतन से मनीषा बनर्जी और उनके साथी भी इस अभियान से लगातार जुड़े हुए हैं।
साथियो, कुछ साथी अवश्य इस कार्य में लगे रहे हैं, परंतु 145 करोड़ की आबादी वाले देश में यह प्रयास अब भी अधूरा है।
इसके विपरीत, आर.एस.एस. के लगभग 2 करोड़ से अधिक सदस्य, सवा लाख से ज्यादा शाखाएँ, सैकड़ों सरस्वती शिशु मंदिर और वनवासी सेवा आश्रम आज समाज के हर क्षेत्र में अपनी गहरी पैठ बना चुके हैं। इस तुलना में उनके विरोध में काम करने वालों की संख्या बहुत बिखरी और नगण्य है और अब तो वे सत्ता में भी हैं।
समय की नज़ाकत को देखते हुए, जब भागलपुर दंगे को 36 वर्ष पूरे हो रहे हैं, मैंने यह मुक्त चिंतन आप सबके साथ साझा किया है।
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