
धूमिल हिंदी साठोत्तरी कविता के एक अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं । उनका जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी जिले के ख़ेवली गांव में हुआ था। धूमिल का काव्य, आजादी के बाद हुए मोह भंग, निराशा की पीड़ा से उपजे आक्रोश की अभिव्यक्ति है। धूमिल ने अपने समय के यथार्थ को गहरी शिद्दत से महसूस किया और वे उस भोगे हुए यथार्थ को सहभोक्ता के रूप में कविता के माध्यम से व्यक्त किया । उनकी कविता में आम आदमी के स्वप्न भंग, निराशा, पीड़ा का स्वर है । उन्होंने जन कवि के रूप में समाज की विसंगतियों पर करारा प्रहार करके जन चेतना को जाग्रत करने का काम किया। साठोत्तरी कविता में अनेक बड़े कवि मुक्तिबोध ,रघुवीर सहाय , नागार्जुन आदि भी यह काम कर रहे थे, लेकिन धूमिल की कविता में जो देशज, भदेसपन और गंवईपन है, वह उनके परिवेश की देन है। धूमिल स्वयं खेती और किसानी करते हुए कविता का सृजन कर रहे थे । इसलिए वे अपनी देशज भाषा और शिल्प से नए- नए बिंब गढ़ते हैं । वे भाषा के नए मुहावरे गढ़ते है जिसकी मारक क्षमता घातक होती है। वे व्यंग्य के माध्यम से व्यवस्था का माखौल उड़ाते है। धूमिल परंपरा , शालीनता, सुरुचिपूर्ण और शासन व्यवस्था के पाखंडों का मजाक उड़ाते है1 क्योंकि इन्हीं के आड़ में सारी विसंगतियों पनपती है। उनकी भाषा में आक्रामकता है , लेकिन यह आक्रामकता उन्हें जीवन सत्य को काव्य सत्य में लाने में मदद करती है। वे कहते हैं, “कविता भाषा में आदमी होने के तमीज है।”और वे फिर कहते है कि “सही कविता पहले एक सार्थक व्यक्तव्य होती है।”
धूमिल की कविता अनुभव की आंच से तपकर निकलती है। उनकी ” मोचीराम “कविता में यह व्यंग्य द्रष्टव्य है-
बाबू जी सच कहूं- मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर कोई एक जोड़ी जूता है। जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।
आजकल कोई जूते के नाप से बड़ा नहीं है। धूमिल अपनी कविताओं के माध्यम से उन तमाम शोषित और वंचितों को आवाज देते है जो अपने को इस जनतंत्र में ठगा महसूस करते है-
ठीक है और कुछ नहीं तो विद्रोह ही सही
हंसमुख बनिए ने कहा
मेरे पास उसका भी बाजार है
मगर आज दुकान बंद है,
कल आना
आज इतवार है मैं ले लूंगा ।
धूमिल भाषा के स्तर पर देशज शब्दों के प्रयोग के माध्यम से करारा व्यंग्य करते है – “संसद तेल की वह घानी है जिसमें आधा तेल और आधा पानी है।” इसी तरह राजनीतिज्ञों पर करारा प्रहार करते है-
“राजनीतिज्ञों की आत्माएं वीडियों की तरह मरी पड़ी है।”
धूमिल अपनी नक्सलबाड़ी कविता में दूसरे लोकतंत्र की तलाश करते है ,इसलिए वो कहते हैं-
यहां ऐसा एक जनतंत्र है /जिसमें जिंदा रहने के लिए घोड़े और घास को /एक साथ रहना पड़ता है/ कैसा झूठ है/ दरअसल अपने यहां जनता एक तमाशा है/जिसकी जान एक मदारी की भाषा है।
वे गरीबी को अपने व्यंग्य के माध्यम से परिभाषित करते है जिसमें उनकी पीड़ा झलकती है । वे आम आदमी के भूख और शोषण से द्रवित है और उसकी प्रतिध्वनि उनकी कविता में सुनाई देती है, वे कहते है-
गरीबी एक खुली हुई किताब है
जो हर समझदार
और मूर्ख आदमी के हाथ में दे दी गई है।
कुछ उसे पढ़ते है
कुछ उसके चित्र देख
उलट पलट रख देते
नीचे शो केश में।
धूमिल की कविता में जो भदेशपन है वह उनके परिवेश के अनुभव की आंच में तपकर निकला है। वे कहते है-
हां मैं कवि हूं/ कवि याने भाषा में भदेश हूं/
इस तरह कायर हूं कि उत्तर प्रदेश हूं।
उनकी भाषा का एक तेवर और दृष्टिगत है-
करछुल
बटलोही से बतियाती है और तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता।
चुपचाप जलता है और जलता रहता है।
धूमिल अपनी लंबी कविता ‘पटकथा’ में व्यवस्था के खोखलेपन और राजनेताओं के झूठे वादों और आश्वासनों पर करारा व्यंग्य करते है-
मैने इंतजार किया
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
वे पंडित नेहरू पर कटाक्ष करते है और कहते हैं कि जनता उन्हें बार – बार चुनती है और वे जनता के हर शंका और सवाल का जवाब अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों से देते है। इस प्रकार जनता हमेशा अपनी को ठगा महसूस करती है-
मैं अपने सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका
एक ही जवाब था
वह हमें विश्व शांति और पंचशील
के सिद्धांत समझाता रहा।
धूमिल एक जन कवि थे उनकी कविता का स्वर जन्मोमुखी है। उनके यहां जनता के सुख -दुख और आजादी के बाद हुए स्वप्न भंग की पीड़ा आक्रोश बनकर उभरती है। यह आक्रोश व्यवस्था के प्रति आम आदमी की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। वे आम आदमी के शोषण और शोषित वर्ग के पाखंडों का पर्दाफाश करते है। वे लोकतंत्र के नाम पर होने वाले झूठ और पाखंड की भी पड़ताल करते है और दूसरे लोकतंत्र की तलाश करने की बात करते है। उनकी भाषा आम जन की भाषा है जिसमें वे नए मुहावरे और बिंब गढ़ते है जिससे व्यंग्य की धार बड़ी मारक होती है। धूमिल सच्चे अर्थों में एक क्रांतिधर्मी चेतना और समतावादी वैचारिकी के कवि थे । उनकी कविता हर तरह के शोषण, अन्याय ,लोकतंत्र के नाम पर होने वाले तमाशा और राजनीतिज्ञों के पाखंडों से मुठभेड़ करती है और उन्हें साठोत्तरी कविता के एक बड़े कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
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