धर्मवीर भारती : प्रेम, इतिहास और आधुनिक मनुष्य की दुविधा

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Dharmveer Bharati

Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक ।।

र्मवीर भारती की जयंती किसी लेखक की जन्मतिथि भर नहीं है; यह हिंदी साहित्य के उस विवेकपूर्ण, बेचैन और आत्मसंघर्षी मन की स्मृति है, जिसने शब्दों को केवल सौंदर्य का उपकरण नहीं माना, बल्कि उन्हें समय के अंतःकरण से संवाद करने की क्षमता दी। भारती का साहित्य किसी घोषणापत्र की तरह नहीं आता, वह धीरे-धीरे भीतर उतरता है—जैसे सांझ उतरती है, जैसे स्मृति उतरती है, जैसे प्रश्न उतरते हैं। उनकी रचनाओं में जो सबसे पहले दिखाई देता है, वह है मनुष्य—अपने द्वंद्वों, अपने संशयों, अपनी आकांक्षाओं और अपने अकेलेपन के साथ।

धर्मवीर भारती का रचना-संसार किसी एक विधा में बंद नहीं है। कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध, पत्रकारिता—हर जगह उनका स्वर अलग-अलग होकर भी एक ही मूल संवेदना से जुड़ा हुआ है। यह संवेदना मनुष्य की आंतरिक स्वतंत्रता की है। उनकी कविताएँ बाहरी शोर से अधिक भीतरी कंपन को सुनती हैं। वहाँ क्रांति का नारा नहीं, बल्कि क्रांति की पीड़ा है। वहाँ प्रेम का उत्सव नहीं, बल्कि प्रेम की नैतिक जटिलता है। वहाँ इतिहास नहीं, बल्कि इतिहास से प्रश्न करने वाला वर्तमान है।

‘अंधा युग’ को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि भारती का महाभारत केवल पौराणिक कथा नहीं है; वह आधुनिक मनुष्य की नैतिक विफलता का महाकाव्य है। युद्ध के बाद का ध्वस्त संसार, मूल्यहीनता, पश्चाताप, अपराधबोध—ये सब केवल कुरुक्षेत्र के नहीं हैं, ये हर उस समय के हैं जहाँ मनुष्य ने शक्ति को विवेक से ऊपर रखा। भारती यहाँ किसी पात्र का पक्ष नहीं लेते; वे स्थिति की नैतिक जटिलता को सामने रखते हैं। यही उनकी समालोचनात्मक दृष्टि है—निर्णय देने से पहले प्रश्न खड़े करना।

उनकी भाषा में एक अजीब-सी पारदर्शिता है। वह अलंकृत नहीं है, फिर भी उसमें काव्यात्मकता है। वह सरल है, पर सपाट नहीं। उसमें भावुकता है, पर भावुकतावाद नहीं। भारती की भाषा उस मनुष्य की भाषा है जो सोचते हुए बोलता है और बोलते हुए रुक-रुककर अपने शब्दों की जिम्मेदारी जाँचता है। शायद यही कारण है कि उनकी रचनाएँ पाठक से त्वरित ताली नहीं चाहतीं, बल्कि लंबे समय का संवाद चाहती हैं।

‘गुनाहों का देवता’ को केवल एक प्रेमकथा के रूप में पढ़ना, भारती के साथ अन्याय होगा। यह उपन्यास प्रेम और सामाजिक नैतिकता के बीच फँसे उस मनुष्य की कथा है, जो अपने ही बनाए नियमों से घायल होता है। चंदर और सुधा के बीच जो है, वह केवल प्रेम नहीं है; वह त्याग, अपराधबोध, सामाजिक भय और आत्मानुशासन का जाल है। भारती यहाँ प्रेम को आदर्श नहीं बनाते, बल्कि उसे उसकी पूरी मानवीय जटिलता के साथ प्रस्तुत करते हैं। यही उनकी आधुनिकता है—भावनाओं का महिमामंडन नहीं, उनकी पड़ताल।

धर्मवीर भारती की कविता में बार-बार एक बेचैनी लौटती है। यह बेचैनी किसी लक्ष्यहीन विद्रोह की नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व से भरे प्रश्नों की है। उनकी कविताओं में समय एक बोझ की तरह उपस्थित है—इतिहास का बोझ, वर्तमान की थकान और भविष्य की अनिश्चितता। फिर भी वहाँ निराशा का अंतिम शब्द नहीं है। उनकी कविताएँ अंधेरे में दीया जलाने की घोषणा नहीं करतीं, बल्कि अंधेरे में दीये की आवश्यकता को स्वीकार करती हैं।

पत्रकार के रूप में भारती ने ‘धर्मयुग’ को केवल एक पत्रिका नहीं रहने दिया, उसे विचार और संस्कृति का मंच बनाया। यहाँ भी उनका संपादकीय दृष्टिकोण वही रहा—सरल, प्रश्नात्मक और मानवीय। उन्होंने साहित्य को समाज से काटकर नहीं देखा। उनके लिए लेखक का दायित्व केवल सौंदर्य रचना नहीं, बल्कि समय के साथ नैतिक संवाद भी है। यह संवाद उपदेशात्मक नहीं है; यह साझेदारी का है।

भारती का निबंध-लेखन विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके निबंधों में आत्मकथात्मकता और चिंतन का सुंदर मेल मिलता है। वे अपने अनुभवों को सार्वभौमिक प्रश्नों में बदल देते हैं। वहाँ ‘मैं’ बोलता है, पर वह ‘हम’ तक पहुँचता है। यह गुण उन्हें विशिष्ट बनाता है—वे आत्मकेंद्रित नहीं होते, आत्मसजग होते हैं।

उनके साहित्य में स्त्री कोई सजावटी पात्र नहीं है। वह संवेदनशील है, निर्णयक्षम है, और कई बार पुरुष पात्रों से अधिक नैतिक स्पष्टता रखती है। भारती स्त्री को न तो देवी बनाते हैं, न केवल पीड़िता; वे उसे मनुष्य के रूप में देखते हैं—अपनी सीमाओं और संभावनाओं के साथ। यह दृष्टि उनके समय में विशेष महत्व रखती है।

धर्मवीर भारती की आलोचना करते हुए यह भी स्वीकार करना होगा कि उनका साहित्य ऊँचे स्वर में नहीं बोलता। जो पाठक तत्काल वैचारिक नारे या प्रत्यक्ष राजनीतिक हस्तक्षेप चाहता है, उसे भारती कभी-कभी मौन लग सकते हैं। लेकिन यह मौन निष्क्रिय नहीं है। यह वह मौन है जिसमें प्रश्न पकते हैं, जिसमें आत्मा अपने ही उत्तरों से टकराती है। भारती का साहित्य सड़क पर नहीं उतरता, वह मनुष्य के भीतर उतरता है—और शायद यही उसका सबसे गहरा राजनीतिक आशय है।

उनकी जयंती पर उन्हें स्मरण करना केवल अतीत को प्रणाम करना नहीं है। यह अपने समय से प्रश्न पूछने की एक परंपरा को जीवित रखना है। आज जब साहित्य या तो तात्कालिक सनसनी में फँस जाता है या शुद्ध कलावाद में पलायन कर जाता है, तब भारती की रचनाएँ हमें याद दिलाती हैं कि साहित्य का काम मनुष्य को अधिक मनुष्य बनाना है—अधिक संवेदनशील, अधिक जिम्मेदार, अधिक प्रश्नशील।

धर्मवीर भारती का साहित्य किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाता, वह यात्रा में रखता है। उनकी रचनाएँ पढ़कर मन स्थिर नहीं होता, बल्कि थोड़ी देर और अस्थिर हो जाता है—और शायद यही अस्थिरता सोच की शुरुआत है। उनकी स्मृति में यही सबसे बड़ा श्रद्धांजलि है कि हम प्रश्न करना न छोड़ें, संवेदना को बोझ न समझें, और शब्दों की नैतिकता को हल्के में न लें।

धर्मवीर भारती केवल एक साहित्यकार नहीं रह जाते; वे हिंदी साहित्य की उस अंतर्धारा का नाम हो जाते हैं, जो शोर से दूर बहती है, पर जीवन को गहराई देती है। उनकी जयंती उसी अंतर्धारा को सुनने का दिन है—अपने भीतर, अपने समय के विरुद्ध और मनुष्य के पक्ष में।

।। दो ।।

धर्मवीर भारती की स्मृति में ठहरते हुए यह भी महसूस होता है कि उनका साहित्य किसी सुविधा में लिखा गया साहित्य नहीं है। उसमें निरंतर एक आत्मसंघर्ष है—लेखक और समय के बीच, लेखक और समाज के बीच, लेखक और स्वयं के बीच। यह संघर्ष कभी खुलकर नहीं चीखता, लेकिन हर पंक्ति में एक धीमी-सी कसक की तरह मौजूद रहता है। शायद इसी कारण भारती को पढ़ते हुए पाठक को यह भ्रम नहीं होता कि वह किसी महान लेखक के सामने खड़ा है; उसे यह अनुभव होता है कि वह किसी ऐसे मनुष्य से बात कर रहा है, जो उसकी ही तरह उलझा हुआ है, डरा हुआ है, पर फिर भी प्रश्न करने से पीछे नहीं हटता।

भारती की रचनाओं में नैतिकता कोई कठोर सिद्धांत नहीं है। वह बहस करती है, डगमगाती है, कई बार हारती भी है। ‘अंधा युग’ के पात्र हों या ‘गुनाहों का देवता’ के—वे आदर्श नहीं हैं। वे गलतियाँ करते हैं, और उन्हीं गलतियों में मनुष्य होने का प्रमाण देते हैं। भारती मनुष्य को दोषमुक्त नहीं करते, पर उसे दोषों के साथ समझने की कोशिश करते हैं। यही दृष्टि उन्हें नैतिक उपदेशकों से अलग करती है और सच्चे साहित्यकारों की पंक्ति में खड़ा करती है।

उनकी काव्यात्मक दृष्टि में एक खास किस्म का शोक है—जीवन के अधूरेपन का शोक। यह शोक मृत्यु का नहीं, अपूर्ण संभावनाओं का है। जैसे कुछ होना चाहिए था, पर हो नहीं पाया। यह भाव उनकी कविताओं और गद्य—दोनों में बहता है। वहाँ उल्लास की जगह एक संयमित करुणा है। वह करुणा जो स्वयं पर तरस नहीं खाती, बल्कि समय की विफलताओं को चुपचाप दर्ज करती है।

धर्मवीर भारती का समकालीन महत्व आज और अधिक स्पष्ट होता है। आज का समय तीव्र प्रतिक्रियाओं, त्वरित निष्कर्षों और शोर भरे मतों का समय है। ऐसे समय में भारती का साहित्य ठहरने को कहता है। वह कहता है—सोचो, संशय करो, स्वयं से असहमत होने का साहस रखो। यह साहस आज दुर्लभ होता जा रहा है। भारती हमें यह याद दिलाते हैं कि साहित्य का सबसे बड़ा काम किसी पक्ष को मजबूत करना नहीं, बल्कि मनुष्य की आंतरिक जटिलता को स्वीकार करना है।

उनके यहाँ राष्ट्र, समाज और इतिहास भी हैं, लेकिन वे नारे की तरह नहीं आते। वे मनुष्य की पीड़ा और दुविधा के माध्यम से आते हैं। ‘अंधा युग’ का युद्धोत्तर संसार आज के बाद-युद्ध संसार जैसा ही लगता है—जहाँ विजय का उत्सव नहीं, बल्कि पराजय का आत्मबोध है। भारती इतिहास को गौरवगान के लिए नहीं, आत्मालोचना के लिए उपयोग में लाते हैं। यह दृष्टि उन्हें भीड़ से अलग करती है।

भारती के लेखन में मौन की बड़ी भूमिका है। कई बार जो नहीं कहा गया है, वही सबसे अधिक बोलता है। यह मौन पाठक को जिम्मेदारी सौंपता है—अर्थ गढ़ने की, प्रश्न उठाने की, खाली जगहों को भरने की। इस तरह उनका साहित्य पाठक को निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं रहने देता, बल्कि सहयात्री बना देता है। यह सहयात्रा आसान नहीं है, लेकिन अर्थपूर्ण है।

उनकी जयंती पर उन्हें पढ़ना, दरअसल अपने भीतर के शोर को थोड़ा कम करना है। उनके साथ बैठकर यह स्वीकार करना है कि जीवन सरल नहीं है, प्रेम निष्कलुष नहीं है, नैतिकता स्पष्ट नहीं है—और फिर भी मनुष्य होना एक मूल्य है। भारती का साहित्य इसी मूल्य को बचाए रखने की जिद है।

आज जब साहित्यिक संसार में अक्सर तेज़ी, प्रचार और तात्कालिकता का बोलबाला है, धर्मवीर भारती की रचनाएँ एक धीमी, गंभीर और जिम्मेदार परंपरा की याद दिलाती हैं। वह परंपरा जो शब्दों को हल्के में नहीं लेती, जो भावनाओं को बेचती नहीं, और जो मनुष्य की पीड़ा को सौंदर्य में बदलने से पहले कई बार सोचती है।

इसलिए धर्मवीर भारती को याद करना केवल साहित्यिक कर्मकांड नहीं है। यह अपने समय के प्रति सजग रहने का एक तरीका है। उनकी रचनाएँ हमें यह नहीं बतातीं कि क्या सोचना चाहिए; वे हमें यह साहस देती हैं कि हम सोचें। शायद यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, और यही कारण है कि उनकी उपस्थिति आज भी हिंदी साहित्य में एक शांत, लेकिन गहरी रोशनी की तरह बनी हुई है।

।। तीन ।।

धर्मवीर भारती की कविता की गहराई किसी एक भाव, किसी एक शिल्प या किसी एक विचार में सीमित नहीं है। वह एक ऐसे मानसिक विस्तार का नाम है, जहाँ संवेदना, विवेक और आत्मसंघर्ष एक-दूसरे में घुलते रहते हैं। उनकी कविता बाहर की दुनिया का वर्णन कम और भीतर की दुनिया की थरथराहट अधिक है। यह थरथराहट किसी भय से पैदा नहीं होती, बल्कि उस ईमानदार आत्मालोचन से जन्म लेती है, जिसमें कवि स्वयं को भी कठघरे में खड़ा करता है। भारती की कविता में जो गहराई है, वह इसी आत्मपरीक्षण से आती है—वह गहराई जो ऊँची आवाज़ से नहीं, बल्कि धीमी, स्थिर और लगातार पड़ने वाली चोटों से बनती है।

उनकी कविताओं में प्रतीक कभी सजावटी नहीं होते। वे अनुभव की अनिवार्यता से पैदा होते हैं। रात, अँधेरा, युद्ध, मौन, अकेलापन, स्मृति—ये सब केवल दृश्य नहीं हैं, बल्कि मानसिक अवस्थाएँ हैं। भारती के यहाँ अँधेरा केवल प्रकाश का अभाव नहीं, बल्कि नैतिक भ्रम की स्थिति है। मौन केवल चुप्पी नहीं, बल्कि वह क्षण है जहाँ शब्द असमर्थ हो जाते हैं और मनुष्य अपने ही प्रश्नों से आमने-सामने खड़ा होता है। यही कारण है कि उनकी कविता पढ़ते हुए पाठक किसी भावुक प्रवाह में बहता नहीं, बल्कि ठहर-ठहरकर अपने भीतर झाँकता है।

भारती की काव्यात्मकता में एक विशेष किस्म की दार्शनिक उदासी है, जो निराशा में नहीं बदलती। यह उदासी जीवन की सीमाओं को पहचानने से उपजती है। वहाँ आकांक्षा है, लेकिन अतिरेक नहीं; पीड़ा है, लेकिन आत्मदया नहीं। उनकी कविता मनुष्य को टूटते हुए दिखाती है, पर उसे पूरी तरह बिखरने नहीं देती। यही संतुलन उनकी कविता की सबसे बड़ी शक्ति है। वे मनुष्य की कमजोरी को उजागर करते हैं, पर उसे व्यर्थ घोषित नहीं करते।

उनकी कविता का शिल्प भी इसी गहराई का सहचर है। वह न तो पूरी तरह छंदबद्ध है, न पूरी तरह बिखरा हुआ। उसमें एक आंतरिक लय है—ऐसी लय जो पाठक की साँसों के साथ चलती है। शब्द चयन में अतिरिक्त सजावट नहीं है, लेकिन हर शब्द अपने अर्थ का पूरा भार लेकर आता है। इस संक्षिप्तता में ही उनकी कविता का विस्तार छिपा है। कम कहकर अधिक छोड़ देना—यह भारती की काव्य-नीति है।

धर्मवीर भारती की कविता को केवल उनके समय तक सीमित करना संभव नहीं है। उसका सरोकार किसी एक राजनीतिक या सामाजिक घटना से नहीं, बल्कि मनुष्य की स्थायी दुविधाओं से है। इसलिए उनकी कविताएँ आज भी वैसी ही अर्थवत्ता रखती हैं। आज के अस्थिर, तेज़ और शोर भरे समय में उनकी कविता एक प्रकार का नैतिक विराम है—एक ऐसा क्षण जहाँ मनुष्य स्वयं से प्रश्न कर सकता है, बिना डर के, बिना जल्दबाज़ी के।

उपसंहार के रूप में कहा जा सकता है कि धर्मवीर भारती की कविता हिंदी कविता की उस परंपरा का विस्तार है, जहाँ कवि अपने समय का साक्षी ही नहीं, अपनी आत्मा का भी साक्षी होता है। उनकी कविता हमें यह याद दिलाती है कि साहित्य का मूल्य उसकी ऊँची घोषणा में नहीं, बल्कि उसकी गहरी चुप्पी में भी होता है। वे कविता को समाधान नहीं बनाते, बल्कि उसे प्रश्न का रूप देते हैं—और यही प्रश्न मनुष्य को जीवित रखते हैं।

धर्मवीर भारती की कविता हमें किसी निष्कर्ष तक नहीं ले जाती, बल्कि हमें अधिक जागरूक, अधिक संवेदनशील और अधिक ईमानदार बना कर छोड़ती है। यही उसका अंतिम प्रभाव है, और यही उसका सबसे बड़ा अर्थ।

कनुप्रिया धर्मवीर भारती की एक ऐसी काव्य-रचना है, जहाँ प्रेम कथा इतिहास या पुराण की नहीं रह जाती, बल्कि आत्मा की अंतर्यात्रा बन जाती है। यह रचना राधा–कृष्ण की कथा को पुनः कहने का उपक्रम नहीं है, बल्कि उस कथा के भीतर छिपी स्त्री-चेतना, प्रतीक्षा और वंचना को स्वर देने का प्रयास है। यहाँ कृष्ण केंद्र में नहीं हैं; केंद्र में है राधा—या कहें, कनुप्रिया—जो प्रेम का अनुभव करती है, भोगती है और उसे अपने अस्तित्व की नियति बना लेती है।

इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रेम यहाँ मिलन का उत्सव नहीं, बल्कि विरह का आत्मबोध है। कनुप्रिया का प्रेम किसी सामाजिक स्वीकृति या दैवी महिमा की आकांक्षा नहीं करता। वह प्रेम के भीतर रहने की पीड़ा को स्वीकार करती है। कृष्ण उसके लिए ईश्वर नहीं, एक स्मृति हैं—ऐसी स्मृति जो उपस्थित न होकर भी पूरी तरह अनुपस्थित नहीं होती। इस तरह कृष्ण एक व्यक्ति से अधिक एक रिक्त स्थान बन जाते हैं, जिसे कनुप्रिया अपने अनुभवों से भरती रहती है।

कनुप्रिया का स्वर शिकायत का नहीं है। वहाँ आक्रोश नहीं, बल्कि गहरी, संयमित पीड़ा है। वह प्रश्न करती है, लेकिन उत्तर की माँग नहीं करती। उसका मौन भी एक प्रकार का संवाद है। यह मौन उस स्त्री का मौन है जो प्रेम में समर्पित है, पर आत्म-विलोप नहीं चाहती। वह जानती है कि कृष्ण का जाना तय था, फिर भी वह प्रेम को असत्य नहीं मानती। यही बिंदु इस रचना को साधारण विरह-काव्य से अलग करता है।

धर्मवीर भारती ने इस रचना में भाषा को अत्यंत संक्षिप्त और पारदर्शी रखा है। कोई अलंकारिक भार नहीं, कोई काव्यात्मक प्रदर्शन नहीं। शब्द जैसे सीधे हृदय से निकलकर हृदय तक पहुँचते हैं। इस सादगी में ही रचना की गहराई छिपी है। कनुप्रिया का हर कथन आत्मालाप जैसा है—मानो वह स्वयं से, अपनी स्मृतियों से बात कर रही हो।

यह रचना स्त्री को प्रतीक्षा की मूर्ति भर नहीं बनाती, बल्कि उसे अनुभव की स्वायत्त सत्ता देती है। कनुप्रिया प्रेम में रहती है, लेकिन प्रेम से परिभाषित नहीं होती। वह जानती है कि कृष्ण के बिना भी उसका अस्तित्व है, पर यह अस्तित्व प्रेम से रिक्त नहीं है। यहाँ स्त्री प्रेम की वस्तु नहीं, उसकी चेतना है।
कनुप्रिया का अंत किसी समाधान पर नहीं पहुँचता। वहाँ न मिलन है, न पूर्ण विरक्ति। अंत में जो बचता है, वह स्मृति है—और उसी स्मृति में प्रेम की सच्चाई। यही अधूरापन इस रचना की पूर्णता है। कनुप्रिया प्रेम को उपलब्धि नहीं, अनुभव मानती है—और यही धर्मवीर भारती की सबसे सूक्ष्म और गहन काव्यात्मक उपलब्धि है।

।। चार।।

धर्मवीर भारती की रचनाओं को यदि वैश्विक बौद्धिक परंपराओं, आधुनिक चिंतन-पद्धतियों और दार्शनिक दृष्टियों के आलोक में देखा जाए, तो उनका साहित्य और अधिक बहुस्तरीय तथा जटिल दिखाई देता है। वे केवल भारतीय संदर्भों तक सीमित लेखक नहीं हैं; उनके यहाँ मनुष्य की जो स्थिति है, वह सार्वकालिक है—अकेलापन, नैतिक दुविधा, इतिहास का बोझ, प्रेम और सत्ता के बीच फँसी चेतना, तथा अर्थ की खोज। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ आधुनिक मनुष्य की बौद्धिक और अस्तित्वगत समस्याओं के साथ गहरे संवाद में दिखाई देती हैं।

धर्मवीर भारती का साहित्य मूलतः अस्तित्व की चिंता से संचालित है। उनके पात्र किसी बाहरी संघर्ष से अधिक अपने भीतर के द्वंद्वों से जूझते हैं। ‘अंधा युग’ के पात्र युद्ध के बाद की उस मानसिक स्थिति में हैं, जहाँ कर्म हो चुका है, लेकिन उसका नैतिक अर्थ अभी भी अनिर्णीत है। यह स्थिति उस विचार-परंपरा से मेल खाती है, जहाँ मनुष्य को एक ऐसे प्राणी के रूप में देखा जाता है जो अर्थहीनता के बीच अर्थ गढ़ने की कोशिश करता है। युद्ध यहाँ केवल ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि मनुष्य की नैतिक विफलता का प्रतीक बन जाता है। भारती का कुरुक्षेत्र एक ऐसी मानसिक भूमि है, जहाँ मूल्य ढह चुके हैं, लेकिन प्रश्न अभी जीवित हैं।

उनके यहाँ इतिहास का पुनर्पाठ किसी गौरवगान के लिए नहीं, बल्कि आत्मालोचना के लिए है। ‘अंधा युग’ में महाभारत का चयन इस बात का संकेत है कि भारती इतिहास को स्थिर सत्य नहीं मानते। वे उसे पुनः पढ़ते हैं, पुनः प्रश्नांकित करते हैं। यह दृष्टि इतिहास को सत्ता के आख्यान से मुक्त कर मानवीय अनुभव का क्षेत्र बना देती है। युद्ध के विजेता और पराजित—दोनों समान रूप से अपराधबोध से ग्रस्त हैं। यहाँ इतिहास न्याय नहीं देता; वह केवल घाव खोलता है। यह दृष्टिकोण आधुनिक इतिहास-बोध से गहरे स्तर पर जुड़ता है, जहाँ अतीत को निरपेक्ष नहीं, बल्कि प्रश्नों के माध्यम से समझा जाता है।

धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ केवल भावुक प्रेमकथा नहीं है। उसे यदि आधुनिक नैतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए, तो यह सामाजिक संरचनाओं द्वारा निर्मित आत्मसंयम और दमन की कथा बन जाता है। चंदर का त्याग किसी महान नैतिक निर्णय की तरह नहीं, बल्कि एक आंतरिक मजबूरी की तरह उभरता है। वह सामाजिक नैतिकता को तोड़ने का साहस नहीं जुटा पाता, लेकिन उसी नैतिकता के भीतर घुटता रहता है। यहाँ प्रेम स्वायत्त नहीं है; वह सामाजिक नियंत्रणों से घिरा हुआ है। यह स्थिति आधुनिक मनुष्य की उस त्रासदी से मेल खाती है, जहाँ व्यक्ति स्वतंत्रता की आकांक्षा रखता है, लेकिन सामाजिक संरचनाएँ उसे लगातार सीमित करती हैं।

भारती की कविता में अर्थ का संकट बहुत गहराई से मौजूद है। उनकी कविताएँ किसी सुनिश्चित दर्शन का प्रतिपादन नहीं करतीं। वहाँ ईश्वर, व्यवस्था या इतिहास—कोई भी अंतिम उत्तर के रूप में उपस्थित नहीं है। कविता एक ऐसे स्थान की तरह है, जहाँ प्रश्न ही सबसे बड़ा सत्य है। यह काव्यात्मक दृष्टि उस आधुनिक संवेदना से जुड़ती है, जिसमें भाषा को भी पूर्ण अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं माना जाता। भारती के यहाँ मौन, रिक्तता और अपूर्ण वाक्य विशेष अर्थ ग्रहण करते हैं। जो कहा नहीं गया है, वही सबसे अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है।

उनकी भाषा पर भी यदि गंभीर दृष्टि से विचार किया जाए, तो वह पारदर्शी होते हुए भी सरल नहीं है। उसमें अर्थ की कई परतें हैं। शब्द अपने सीधे अर्थ के साथ-साथ सांकेतिक अर्थ भी रचते हैं। यह भाषा किसी निश्चित वैचारिक निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाती, बल्कि पाठक को अर्थ-निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करती है। पाठक यहाँ निष्क्रिय ग्रहणकर्ता नहीं, बल्कि सह-निर्माता बन जाता है। यह गुण भारती के साहित्य को आधुनिक आलोचनात्मक परंपराओं के निकट ले जाता है, जहाँ पाठ का अर्थ एक स्थिर इकाई नहीं, बल्कि संवाद का परिणाम माना जाता है।

धर्मवीर भारती के यहाँ नैतिकता एक समस्या है, समाधान नहीं। उनकी रचनाओं में नैतिक निर्णय हमेशा संदिग्ध रहते हैं। ‘अंधा युग’ में कोई भी पात्र पूरी तरह सही नहीं है। ‘गुनाहों का देवता’ में त्याग भी पूरी तरह पवित्र नहीं है। यह नैतिक अनिश्चितता उनके साहित्य को गहरे स्तर पर आधुनिक बनाती है। वे मनुष्य को अच्छे–बुरे के स्पष्ट खाँचों में नहीं बाँटते, बल्कि उसे नैतिक धुँधलके में खड़ा करते हैं। यही धुँधलका आधुनिक चेतना का मूल अनुभव है।

स्त्री पात्रों के संदर्भ में भी भारती की रचनाएँ गहन व्याख्या की माँग करती हैं। उनकी स्त्रियाँ केवल भावुक या त्यागमयी आकृतियाँ नहीं हैं; वे निर्णय की पीड़ा झेलती हुई चेतनाएँ हैं। सुधा का मौन, गांधारी का विलाप, उर्वशी की उपस्थिति—ये सब स्त्री अनुभव के अलग-अलग स्तर हैं। यहाँ स्त्री केवल पुरुष की कथा का हिस्सा नहीं, बल्कि नैतिक प्रश्नों की वाहक बन जाती है। हालाँकि यह दृष्टि पूरी तरह मुक्त नहीं है, फिर भी यह अपने समय की सीमाओं को तोड़ती दिखाई देती है।

धर्मवीर भारती के साहित्य को इस व्यापक बौद्धिक संदर्भ में देखने पर यह स्पष्ट होता है कि वे केवल भावनात्मक लेखक नहीं हैं। उनका भावबोध गहरे वैचारिक तनाव से पैदा होता है। वे मनुष्य को एक ऐसे प्राणी के रूप में देखते हैं जो अर्थ की तलाश में है, लेकिन पूर्ण अर्थ कभी प्राप्त नहीं कर पाता। यही तलाश उनके साहित्य की केंद्रीय ऊर्जा है।

धर्मवीर भारती की रचनाएँ हिंदी साहित्य को एक ऐसे बौद्धिक क्षितिज से जोड़ती हैं, जहाँ मनुष्य, इतिहास, भाषा और नैतिकता—सब प्रश्न के रूप में उपस्थित हैं, उत्तर के रूप में नहीं। उनकी गंभीरता इसी में है कि वे पाठक को आश्वस्त नहीं करते, बल्कि बेचैन करते हैं। यही बेचैनी उनके साहित्य को आज भी प्रासंगिक, विचारोत्तेजक और गहराई से मानवीय बनाए रखती है।

।। पाँच।।

धर्मवीर भारती की रचनाओं को यदि वैश्विक बौद्धिक परंपराओं, आधुनिक चिंतन-पद्धतियों और दार्शनिक दृष्टियों के आलोक में देखा जाए, तो उनका साहित्य और अधिक बहुस्तरीय तथा जटिल दिखाई देता है। वे केवल भारतीय संदर्भों तक सीमित लेखक नहीं हैं; उनके यहाँ मनुष्य की जो स्थिति है, वह सार्वकालिक है—अकेलापन, नैतिक दुविधा, इतिहास का बोझ, प्रेम और सत्ता के बीच फँसी चेतना, तथा अर्थ की खोज। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ आधुनिक मनुष्य की बौद्धिक और अस्तित्वगत समस्याओं के साथ गहरे संवाद में दिखाई देती हैं।

धर्मवीर भारती का साहित्य मूलतः अस्तित्व की चिंता से संचालित है। उनके पात्र किसी बाहरी संघर्ष से अधिक अपने भीतर के द्वंद्वों से जूझते हैं। ‘अंधा युग’ के पात्र युद्ध के बाद की उस मानसिक स्थिति में हैं, जहाँ कर्म हो चुका है, लेकिन उसका नैतिक अर्थ अभी भी अनिर्णीत है। यह स्थिति उस विचार-परंपरा से मेल खाती है, जहाँ मनुष्य को एक ऐसे प्राणी के रूप में देखा जाता है जो अर्थहीनता के बीच अर्थ गढ़ने की कोशिश करता है। युद्ध यहाँ केवल ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि मनुष्य की नैतिक विफलता का प्रतीक बन जाता है। भारती का कुरुक्षेत्र एक ऐसी मानसिक भूमि है, जहाँ मूल्य ढह चुके हैं, लेकिन प्रश्न अभी जीवित हैं।

उनके यहाँ इतिहास का पुनर्पाठ किसी गौरवगान के लिए नहीं, बल्कि आत्मालोचना के लिए है। ‘अंधा युग’ में महाभारत का चयन इस बात का संकेत है कि भारती इतिहास को स्थिर सत्य नहीं मानते। वे उसे पुनः पढ़ते हैं, पुनः प्रश्नांकित करते हैं। यह दृष्टि इतिहास को सत्ता के आख्यान से मुक्त कर मानवीय अनुभव का क्षेत्र बना देती है। युद्ध के विजेता और पराजित—दोनों समान रूप से अपराधबोध से ग्रस्त हैं। यहाँ इतिहास न्याय नहीं देता; वह केवल घाव खोलता है। यह दृष्टिकोण आधुनिक इतिहास-बोध से गहरे स्तर पर जुड़ता है, जहाँ अतीत को निरपेक्ष नहीं, बल्कि प्रश्नों के माध्यम से समझा जाता है।

धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ केवल भावुक प्रेमकथा नहीं है। उसे यदि आधुनिक नैतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए, तो यह सामाजिक संरचनाओं द्वारा निर्मित आत्मसंयम और दमन की कथा बन जाता है। चंदर का त्याग किसी महान नैतिक निर्णय की तरह नहीं, बल्कि एक आंतरिक मजबूरी की तरह उभरता है। वह सामाजिक नैतिकता को तोड़ने का साहस नहीं जुटा पाता, लेकिन उसी नैतिकता के भीतर घुटता रहता है। यहाँ प्रेम स्वायत्त नहीं है; वह सामाजिक नियंत्रणों से घिरा हुआ है। यह स्थिति आधुनिक मनुष्य की उस त्रासदी से मेल खाती है, जहाँ व्यक्ति स्वतंत्रता की आकांक्षा रखता है, लेकिन सामाजिक संरचनाएँ उसे लगातार सीमित करती हैं।

भारती की कविता में अर्थ का संकट बहुत गहराई से मौजूद है। उनकी कविताएँ किसी सुनिश्चित दर्शन का प्रतिपादन नहीं करतीं। वहाँ ईश्वर, व्यवस्था या इतिहास—कोई भी अंतिम उत्तर के रूप में उपस्थित नहीं है। कविता एक ऐसे स्थान की तरह है, जहाँ प्रश्न ही सबसे बड़ा सत्य है। यह काव्यात्मक दृष्टि उस आधुनिक संवेदना से जुड़ती है, जिसमें भाषा को भी पूर्ण अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं माना जाता। भारती के यहाँ मौन, रिक्तता और अपूर्ण वाक्य विशेष अर्थ ग्रहण करते हैं। जो कहा नहीं गया है, वही सबसे अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है।

उनकी भाषा पर भी यदि गंभीर दृष्टि से विचार किया जाए, तो वह पारदर्शी होते हुए भी सरल नहीं है। उसमें अर्थ की कई परतें हैं। शब्द अपने सीधे अर्थ के साथ-साथ सांकेतिक अर्थ भी रचते हैं। यह भाषा किसी निश्चित वैचारिक निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाती, बल्कि पाठक को अर्थ-निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करती है। पाठक यहाँ निष्क्रिय ग्रहणकर्ता नहीं, बल्कि सह-निर्माता बन जाता है। यह गुण भारती के साहित्य को आधुनिक आलोचनात्मक परंपराओं के निकट ले जाता है, जहाँ पाठ का अर्थ एक स्थिर इकाई नहीं, बल्कि संवाद का परिणाम माना जाता है।

धर्मवीर भारती के यहाँ नैतिकता एक समस्या है, समाधान नहीं। उनकी रचनाओं में नैतिक निर्णय हमेशा संदिग्ध रहते हैं। ‘अंधा युग’ में कोई भी पात्र पूरी तरह सही नहीं है। ‘गुनाहों का देवता’ में त्याग भी पूरी तरह पवित्र नहीं है। यह नैतिक अनिश्चितता उनके साहित्य को गहरे स्तर पर आधुनिक बनाती है। वे मनुष्य को अच्छे–बुरे के स्पष्ट खाँचों में नहीं बाँटते, बल्कि उसे नैतिक धुँधलके में खड़ा करते हैं। यही धुँधलका आधुनिक चेतना का मूल अनुभव है।

स्त्री पात्रों के संदर्भ में भी भारती की रचनाएँ गहन व्याख्या की माँग करती हैं। उनकी स्त्रियाँ केवल भावुक या त्यागमयी आकृतियाँ नहीं हैं; वे निर्णय की पीड़ा झेलती हुई चेतनाएँ हैं। सुधा का मौन, गांधारी का विलाप, उर्वशी की उपस्थिति—ये सब स्त्री अनुभव के अलग-अलग स्तर हैं। यहाँ स्त्री केवल पुरुष की कथा का हिस्सा नहीं, बल्कि नैतिक प्रश्नों की वाहक बन जाती है। हालाँकि यह दृष्टि पूरी तरह मुक्त नहीं है, फिर भी यह अपने समय की सीमाओं को तोड़ती दिखाई देती है।

धर्मवीर भारती के साहित्य को इस व्यापक बौद्धिक संदर्भ में देखने पर यह स्पष्ट होता है कि वे केवल भावनात्मक लेखक नहीं हैं। उनका भावबोध गहरे वैचारिक तनाव से पैदा होता है। वे मनुष्य को एक ऐसे प्राणी के रूप में देखते हैं जो अर्थ की तलाश में है, लेकिन पूर्ण अर्थ कभी प्राप्त नहीं कर पाता। यही तलाश उनके साहित्य की केंद्रीय ऊर्जा है।

धर्मवीर भारती की रचनाएँ हिंदी साहित्य को एक ऐसे बौद्धिक क्षितिज से जोड़ती हैं, जहाँ मनुष्य, इतिहास, भाषा और नैतिकता—सब प्रश्न के रूप में उपस्थित हैं, उत्तर के रूप में नहीं। उनकी गंभीरता इसी में है कि वे पाठक को आश्वस्त नहीं करते, बल्कि बेचैन करते हैं। यही बेचैनी उनके साहित्य को आज भी प्रासंगिक, विचारोत्तेजक और गहराई से मानवीय बनाए रखती है।

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धर्मवीर भारती के साहित्य को स्मरण करते हुए अंत में जो भाव सबसे गहराई से उभरता है, वह है अपूर्णता का स्वीकार। उनका लेखन किसी पूर्ण सत्य, अंतिम उत्तर या स्थायी निष्कर्ष का दावा नहीं करता। वह जीवन को उसकी खंडित, उलझी हुई और लगातार प्रश्नाकुल अवस्था में स्वीकार करता है। यही स्वीकार उनके साहित्य को नैतिक बनाता है, और यही उसे आज भी जीवित रखता है। भारती के यहाँ उपसंहार भी किसी दरवाज़े को बंद करने जैसा नहीं, बल्कि एक ऐसे मोड़ की तरह है जहाँ से रास्ते और अधिक स्पष्ट हो जाते हैं—हालाँकि मंज़िल फिर भी अनिश्चित बनी रहती है।

धर्मवीर भारती का रचनात्मक अवदान हमें यह समझने में सहायता देता है कि साहित्य का काम समाधान देना नहीं, बल्कि मनुष्य को उसकी जटिलता में देखना है। उनके पात्र, उनके वक्ता, उनकी काव्यात्मक आवाज़—सब किसी न किसी रूप में असमाप्त हैं। वे अधूरे निर्णयों, टूटे विश्वासों और अधूरी आकांक्षाओं के बीच खड़े हैं। यही अधूरापन भारती की रचनाओं को मानवीय बनाता है। वे मनुष्य को आदर्शों के बोझ से मुक्त करते हैं, लेकिन उसे उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं करते। यह संतुलन अत्यंत दुर्लभ है।

उनके साहित्य में जो नैतिक चेतना दिखाई देती है, वह उपदेश से नहीं, आत्मसंघर्ष से पैदा होती है। भारती नैतिकता को बाहर से आरोपित नहीं करते, बल्कि उसे भीतर से उगने देते हैं। उनकी रचनाओं में नैतिक प्रश्नों का कोई एक उत्तर नहीं मिलता; बल्कि हर उत्तर के भीतर एक नया प्रश्न जन्म लेता है। यही कारण है कि उनका साहित्य बार-बार पढ़े जाने की माँग करता है। हर पाठ के साथ उसका अर्थ बदलता नहीं, बल्कि गहराता जाता है।

धर्मवीर भारती का महत्व इस बात में भी है कि उन्होंने साहित्य और जीवन के बीच कोई कृत्रिम दूरी नहीं बनाई। उनके लिए लेखन कोई पृथक क्रिया नहीं थी; वह जीवन का ही विस्तार था। इसलिए उनके शब्दों में जीवन की थकान भी है, और उसकी जिद भी। वहाँ निराशा आती है, लेकिन वह अंतिम नहीं होती। वहाँ करुणा है, लेकिन वह भावुकता में नहीं बदलती। वहाँ प्रेम है, लेकिन वह सामाजिक यथार्थ से आँख नहीं चुराता। इस संतुलन ने उनके साहित्य को एक गहरी नैतिक विश्वसनीयता दी है।

आज के समय में, जब साहित्य कई बार या तो तात्कालिक प्रतिक्रियाओं में सिमट जाता है या फिर केवल शिल्प-प्रदर्शन बनकर रह जाता है, धर्मवीर भारती का लेखन एक वैकल्पिक रास्ता सुझाता है। वह रास्ता धीमा है, लेकिन स्थायी है। वह कहता है कि शब्दों की गरिमा शोर में नहीं, संयम में होती है। वह यह भी स्मरण कराता है कि लेखक का सबसे बड़ा साहस सत्ता से टकराना नहीं, बल्कि स्वयं से ईमानदार होना है।

धर्मवीर भारती की कविता और गद्य—दोनों—मनुष्य की भीतरी यात्रा के दस्तावेज़ हैं। वे बाहरी घटनाओं को भीतर की संवेदना से जोड़ते हैं। युद्ध उनके यहाँ केवल ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि नैतिक विफलता का प्रतीक है। प्रेम केवल निजी अनुभव नहीं, बल्कि सामाजिक संरचनाओं से टकराती मानवीय आकांक्षा है। अकेलापन केवल मनोदशा नहीं, बल्कि आधुनिक मनुष्य की नियति है। इस प्रकार भारती का साहित्य निजी और सार्वजनिक, दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं करता, बल्कि उन्हें एक-दूसरे में विलीन करता है।

उनके लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि शायद यही है कि वह पाठक को अकेला नहीं छोड़ता, लेकिन उसे सहारा भी नहीं देता। वह साथ चलता है, लेकिन दिशा नहीं बताता। पाठक को स्वयं तय करना पड़ता है कि वह किन प्रश्नों के साथ आगे बढ़ेगा। यह स्वतंत्रता ही साहित्य की सबसे बड़ी देन है, और भारती इस स्वतंत्रता के सबसे सजग प्रहरी हैं।

धर्मवीर भारती को पढ़ते हुए यह भी स्पष्ट होता है कि उन्होंने भाषा को कभी सत्ता का औज़ार नहीं बनने दिया। उनकी भाषा संवाद की भाषा है—संकोच के साथ, जिम्मेदारी के साथ। उसमें आक्रामकता नहीं, लेकिन स्पष्टता है। उसमें दंभ नहीं, लेकिन दृढ़ता है। यही भाषा उनके विचारों को टिकाऊ बनाती है। वह भाषा समय के साथ पुरानी नहीं पड़ती, क्योंकि वह फैशन में नहीं, अनुभव में रची-बसी है।

उनके साहित्य का उपसंहार करते हुए यह कहना आवश्यक है कि भारती किसी एक पीढ़ी के लेखक नहीं हैं। वे हर उस समय के लेखक हैं, जहाँ मनुष्य अपने भीतर और बाहर के संसार के बीच फँसा हुआ है। जहाँ मूल्य टूट रहे हैं, लेकिन पूरी तरह नष्ट नहीं हुए हैं। जहाँ प्रश्नों से बचना आसान है, लेकिन प्रश्न करना आवश्यक है। भारती का साहित्य इसी आवश्यकता का स्मरण कराता है।

उनकी जयंती पर, या किसी भी दिन, उन्हें याद करना दरअसल साहित्य की उस परंपरा को याद करना है, जो मनुष्य को उसके सबसे कठिन प्रश्नों के सामने खड़ा करती है—बिना भय के, बिना नारे के, बिना शोर के। यह परंपरा आज भी उतनी ही ज़रूरी है, जितनी उनके समय में थी। शायद उससे भी अधिक।

धर्मवीर भारती का साहित्य हमें यह सिखाने नहीं आता कि जीवन कैसे जिया जाए; वह हमें यह दिखाता है कि जीवन को गंभीरता से लेना क्यों आवश्यक है। उनके शब्द हमें थोड़ी देर के लिए असहज करते हैं, हमारे भीतर प्रश्न छोड़ जाते हैं, और फिर चुपचाप हट जाते हैं। यही चुप्पी, यही प्रश्न, यही असहजता—धर्मवीर भारती की सबसे स्थायी विरासत है।


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