— विमल कुमार —
नवें दशक के आरम्भ में जिन कवयित्रियों ने बहुत जल्दी अपनी पहचान बनायी थी उनमें एक निर्मला गर्ग भी हैं, यद्यपि वह अपनी अन्य समकालीन कवयित्रियों की तरह अपने साहित्यिक करियर को लेकर सचेत नहीं रहीं। उनके लिए साहित्य समाज-परिवर्तन की एक अनिवार्य कार्रवाई रही है और इस नाते वह एक एक्टिविस्ट के रूप काफी सक्रिय रहीं। इसलिए साहित्य के सत्ता-विमर्श से दूर रहीं। “यह हरा गलीचा” और “कबाड़ी का तराजू” जिन लोगों ने पढ़ी होगी, वे निर्मला जी की काव्य प्रतिभा से अच्छी तरह परिचित होंगे, उनके दो अन्य संग्रह भी काफी सराहे गए। निर्मला जी की कविताओं को पढ़कर भी लगता रहा कि वह हिंदी की समकालीन कविता की परंपरा से अच्छी तरह वाकिफ हैं और उसका एक हिस्सा भी रही हैं।
करीब दस साल के अंतराल के बाद उनका पांचवां कविता संग्रह “अनिश्चय के गहरे धुएं में” आया है।
वाकई जब निर्मला जी का संग्रह आया तो हम सबका जीवन ही नहीं पूरी दुनिया का जीवन अनिश्चय के धुएं में घिरा है।आर्थिक उदारवाद और विश्व पूंजीवाद के इस दौर में चीजें जिस तरह घटित हो रही हैं उसमें एक गहरी अनिश्चितता दिखाई देती है। उग्र राष्ट्रवाद और बाजार के इस गठबंधन ने देश और जीवन को इस मुकाम पर ला खड़ा कर दिया है जहां अब कुछ भी निश्चित नहीं। इसलिए उनका यह संग्रह अपने समय को दर्ज करता है।

निर्मला जी गहरे रूप से प्रतिबद्ध कवयित्री रही हैं पर वह अपनी रचनाओं में प्रदर्शित नहीं करती रहती हैं। विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों में रहकर कविता को लेकर समर्पित निर्मला जी की इस किताब में 44 कविताएं हैं। उनकी यह किताब फासिस्टों के खिलाफ लड़नेवाले लोगों को समर्पित है।
निर्मला जी राजनीतिक रूप से सचेत कवयित्री हैं। ऐसे समय में जब कोहरा फैल रहा हो वह अपनी पहली कविता “कुहरा” में लिखती हैं –
घर से दफ्तर तक
संसद से सड़क तक
खेत से कारखाने तक
सचिवालय से न्यायालय तक
फैल रहा है
हर ओर गाढ़ा मटमैला कोहरा
फैल रहा है
किताबों पर
पोस्टरों पर
विचारों पर ”
निर्मला जी सही कहती हैं, आज हम जिस दौर में जी रहे हैं उसमें सभी जगह यह कुहरा व्याप्त है।
इस संग्रह के शीर्षक “अनिश्चय के गहरे धुंए में” वह लिखती हैं-
“एसी के रिमोट से मैं टीवी ऑन कर रही हूं
और टीवी का रिमोट …..?
रखा है वॉशरूम के स्लैब पर मोबाइल डायरी रखने की दराज में है और डायरी …..?
कहीं नहीं है
डायरी में रोजनामचे के अलावा कुछ कविताएं भी थीं
जिन्हें मैंने
अनिश्चय के गहरे धुएं में लिखा था”
इन दोनों कविताओं को मिलाकर पढ़िए तो इस युग को समझा जा सकता है। यह उत्तर आधुनिकता का युग है। लेकिन कवयित्री सचेत है। उन्हें पूरी दुनिया के हालात पता हैं। दो साल पहले ही उन्होंने अपनी एक कविता में तंज करते हुए लिख दिया था –
“हे हनुमान जी !जरा चौकस रहें लड्डू ही ना खाते रह जाएं
तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना बनती रहती है
यह सनकी तानाशाह का समय है”
मौजूद रूस और यूक्रेन युद्ध की आशंकाओं की तरफ उन्होंने एक संकेत अपनी कविता में पहले ही दे दिया था। दोनों देशों में “राष्ट्रवाद” के इस उबाल में मारे जा रहे लोगों को देखते हुए यह कथन सच लगता है कि हम वाकई सनकी तानाशाहों के समय मे जी रहे हैं और भारत भी इससे अछूता नहीं है, जहां यह अधिनायकवाद बाजार और धर्म के गठजोड़ पर फल-फूल रहा है मजबूत होता जा रहा है।
निर्मला जी धर्म के इस अश्लील प्रदर्शन और उपयोग पर उंगली उठाती हैं और कहती हैं – “अक्षर धाम में अक्षर नहीं है”।हर कविता में उनकी दृष्टि साफ है और उनका अपना एक पक्ष है एक स्टैंड है। एक तरह की प्रतिबद्धता है पर उनके यहां प्रतिबद्धता वाचाल नहीं है और उसके नगाड़े वह दिन-रात नहीं पीटती रहती हैं।
वह गहरी मानवीय दृष्टि के साथ ईमानदारी से अपनी बात कहती हैं। गुजरात दंगों पर शोर मचानेवाले 84 के दंगे पर खामोश रहे लेकिन निर्मला जी ने अपनी लेखकीय ईमानदारी का परिचय देते हुए “बीसवीं सदी के कैलेंडर में” जैसी कविताएं लिखीं जिसमें उन्होंने दो टूक शब्दों में लिखा –
बीसवीं सदी के कैलेंडर में सन 84 की जगह
कुछ धब्बे हैं
और कुछ गन्ध
और कुछ शब्द
वहां आज भी रख टपक रहा है
हवा में टायरों के साथ
मांस जलने की चिरायंध है…”
…..
आज भी शर्मिंदा हैं
बीसवीं सदी के कैलेंडर में
सन ’84 ”
वह अपना स्टैंड बार-बार कविताओं में स्पष्ट करती हैं। “फिलहाल” कविता में वह लिखती हैं –
31 दिसंबर और 1 जनवरी के बीच चौड़ी खाई है
इसे पार करने के लिए
फिलहाल मेरे पास कुछ नहीं है
मैं वहीं रहूंगी
इसी 3 1 दिसंबर में
फिलहाल ……”
निर्मला जी ने एक कविता ‘प्रतिव्यक्ति खुशी’ लिखी है जो सर्वथा नया विषय है। प्रतिव्यक्ति आय की जगह प्रतिव्यक्ति खुशी की अवधारणा दुनिया के अकादमिक जगत में विकसित की गयी है और विकास को इस दृष्टि से देखने का उपक्रम किया जा रहा है। निर्मला जी अमरीका और भूटान की तुलना करते हुए विकास की सैद्धांतिकी पर प्रश्न उठा रही हैं। निर्मला जी राजनीतिक रूप से काफी जागरूक कवयित्री हैं और विश्व में सभ्यता के विकास को लेकर चल रही बहसों से मुख मोड़कर नहीं बैठी हैं। उनकी कविता चुटपुटिया बटन की कविता नहीं है।
वैसे उनका यह संग्रह उनके आरंभिक दो संग्रहों से बहुत आगे की बात नहीं कहता लेकिन इतना तो तय है यह संग्रह समाज में जो कुछ घट रहा है उसको दर्ज करने की कोशिश करता है और अंत में यह भी कहता है- “लिखो कुछ और भी कभी”
“तुम हमेशा दुख यातना और उदासी और ऊब ही क्यों लिखते हो
लिखो कुछ और भी
होठों पर आया वह जरा सा
स्मित लिखो
आंखों में चमक रहे खुशी के
नन्हे कण लिखो
धूप बहुत तीखी है आज
बिक गए
घड़े वाली के सारे घड़े
घर लौटते हुए उसके पैरों की चाल लिखो
शकुंतला की साड़ी का रंग
बहुत चटक है आज !
बाल भी सुथरे
जुड़े में बंधे हुए
चंपा का एक फूल भी खुसा हुआ है वहां
तसले में रेत भरते हुए
गुनगुना रही है वह
उसका मर्द असम गया था
आज लौट रहा है…
लिखो
उसका यह गुनगुनाना भी लिखो…
निर्मला जी इस कोहरे और अनिश्चय में एक उम्मीद और सकारत्मकता की कवि हैं क्योंकि प्रगतिशीलता के नाम पर हिंदी कविता में जीवन में उमंग और उल्लास को एक सिरे से नकार दिया गया है। निर्मला जी वंचित लोगों की उत्सवधर्मिता की बात करती हैं, वह अमीरों का कोरस नहीं गातीं और कलावादियों के प्रलाप पर भी कविता लिखती हैं।
उम्मीद है निर्मला जी की काव्ययात्रा की तरफ लोगों का ध्यान जाएगा और वह समकालीन कविता में अपने लिए एक स्पेस बनाएंगी।
किताब : अनिश्चय के गहरे धुएं में (कविता संग्रह)
कवयित्री : निर्मला गर्ग
परिकल्पना प्रकाशन, 69 ए-1, बाबा का पुरवा, पेपरमिल रोड, निशातगंज, लखनऊ-226006, फोन : 0522-4108495
मूल्य : 100 रु.
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