12 मई। जनवादी लेखक संघ ने कहा है कि विश्वविद्यालय परिसरों में आलोचनात्मक विवेक पर हमलों की बारंबारता जिस तरह बढ़ी है, वह बेहद चिंताजनक है। रामनवमी और हनुमान जयंती को सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के अवसर की तरह इस्तेमाल करने का सिलसिला अभी बमुश्किल थमा ही था कि परिसरों की शांति भंग की जाने लगी। आरएसएस से जुड़े सैकड़ों संगठन इस काम में मुस्तैदी से जुटे हैं।
जनवादी लेखक संघ के बयान में आगे कहा गया है कि 5 मई को वडोदरा के महाराजा सियाजीराव यूनिवर्सिटी के ललित कला संकाय में, जहाँ सालाना कला-प्रदर्शनी के लिए कृतियों के चयन का काम चल रहा था, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों ने घुसकर हिंसक हंगामा किया। उनकी शिकायत थी कि प्रदर्शनी में एक आपत्तिजनक कलाकृति प्रदर्शित हो रही है जिसमें हिंदू देवी-देवताओं के कट-आउट्स स्त्रियों के खिलाफ हुए अपराधों की अखबारी खबरों से बनाए गए हैं। सच्चाई यह है कि उस समय तक उस कलाकृति की तस्वीर सोशल मीडिया पर भले ही साझा की गयी हो, प्रदर्शनी के लिए चयनित भी नहीं हुई थी। इसके बावजूद उनके हंगामे के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक जाँच कमेटी गठित कर दी, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर 11 मई को हुई सिंडिकेट की बैठक में उस कृति को बनानेवाले विद्यार्थी कुंदन यादव को विश्वविद्यालय से बर्खास्त कर दिया गया और संकाय के अनेक शिक्षकों को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया।
बयान में आगे बताया गया है कि 7 मई को शारदा यूनिवर्सिटी ने कुछ लोगों की शिकायत पर उस असिस्टेन्ट प्रोफेसर को निलंबित कर दिया जिसने राजनीति विज्ञान के स्नातक के प्रश्नपत्र में यह प्रश्न दिया था कि “क्या आप फासीवाद/नाजीवाद और हिंदू दक्षिणपंथ (हिंदुत्व) के बीच कुछ समानताएँ देखते हैं? तर्कसहित विश्लेषण करें।” यह कोई अजूबा सवाल नहीं है। फासीवाद/नाजीवाद और हिंदुत्व के बीच अनेक राजनीति विज्ञानियों ने समानताएँ रेखांकित की हैं, जिनसे राजनीति विज्ञान के किसी विद्यार्थी को परिचित होना ही चाहिए। पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस प्रश्न को “भारत की समावेशी संस्कृति के खिलाफ” मानते हुए असिस्टेन्ट प्रोफेसर श्री वक़स फ़ारूक़ कुट्टी को अविलंब निलंबित कर दिया। दो दिन बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी इस मामले में अपनी मुस्तैदी साबित करने के लिए शारदा यूनिवर्सिटी से ‘एक्शन टेकन रिपोर्ट’ की माँग की और कहा कि राजनीति विज्ञान के प्रश्नपत्र में पूछा गया यह प्रश्न “हमारे देश की भावना और प्रकृति, जो अपनी समावेशिता और एकरूपता के लिए जानी जाती है,” के खिलाफ है। शारदा यूनिवर्सिटी और यूजीसी, दोनों ने इस प्रश्न पर जो टिप्पणियाँ की हैं, वे इस बात का सबूत हैं कि वे हिंदुत्व को, जो स्पष्ट तौर पर एक राजनीतिक विचारधारा है, भारत राष्ट्र का पर्याय मानते हैं और उसके संबंध में किसी तरह के तर्कपूर्ण विश्लेषण की इजाजत देना उन्हें मंजूर नहीं है।
जनवादी लेखक संघ ने अपने बयान में आगे कहा है कि 10 मई को लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर रविकांत चंदन को निशान बनाया गया। एक यूट्यूब चैनल पर प्रो. रविकांत द्वारा ज्ञानवापी मुद्दे पर की गयी टिप्पणी के खिलाफ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने परिसर में नारेबाजी और तोड़फोड़ की और पहले उनकी कक्षा में पहुँचकर, फिर प्रॉक्टर के दफ्तर में उनका घेराव करके उनके साथ हिंसा करने का प्रयास किया। परिषद के उन विद्यार्थियों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट दायर होने के बावजूद अभी तक तत्संबंधी कार्रवाई की कोई खबर नहीं है।
जनवादी लेखक संघ ने कहा है कि ये सभी घटनाएँ बेहद निंदनीय हैं। अलग अलग नामों से सक्रिय आरएसएस के अनेक संगठन आलोचनात्मक विवेक को ध्वस्त करके एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जहाँ साहित्य, कला और विचार की दुनिया हिंदुत्व के आगे नतमस्तक हो, जहाँ इतिहास की उनकी दुर्व्याख्याओं को ही मान्य और मानक इतिहास का दर्जा मिले, जहाँ उनके द्वारा सुझाई गयी परंपरा को ही परंपरा माना जाए और सभी गैर-परंपरागत विचार दंड के भागी हों।
जनवादी लेखक संघ ने कहा है कि वह इन कोशिशों की कठोर निंदा करता है और यह विश्वास व्यक्त करता है कि लेखक-कलाकार-विचारक विवेक पर होनेवाले इन हमलों के खिलाफ दृढ़तापूर्वक खड़े रहेंगे। विश्वविद्यालयों के प्रशासन लगभग सभी उदाहरणों में हिंदुत्ववादियों के आगे झुकते, और कई बार आगे बढ़कर उनका काम पूरा करते नजर आ रहे हैं। हम इसकी भी भर्त्सना करते हैं और आशा करते हैं कि विश्वविद्यालयों के शिक्षक प्रशासन की इन हरकतों का पुरजोर प्रतिकार करेंगे।