आगे चलकर मुस्लिम लीग और मुस्लिम नेतृत्व के साथ समझौता करने का एक अन्य मौका 1936-37 में भी कांग्रेस पार्टी को मिला था। उत्तरप्रदेश में मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच चुनावी समझौता हुआ था। मुस्लिम लीग के दो नेता मोहम्मद इस्माइल और चौधरी खलीकुज्जमां यह मानकर चलते थे कि चुनाव के बाद कांग्रेस पार्टी उनके साथ मिली-जुली सरकार कायम करेगी और उन्हें मंत्रिमंडल में समाविष्ट कर लिया जाएगा। चुनावों से पहले कांग्रेस को यकीन नहीं था कि वह अपने अकेले के बूते पर इन चुनावों में अधिक स्थान ले सकेगी। लेकिन चुनावों में कांग्रेस को विधान-सभा में बहुमत प्राप्त हो गया जिससे मुस्लिम लीग पर निर्भर रहने की उन्हें आवश्यकता नहीं रही। इसलिए कांग्रेस पार्टी अड़ गयी। कुछ लोगों का कहना है कि कांग्रेस मुस्लिम लीग के एक नेता को मंत्रिमंडल में लेने के लिए तैयार थी, मगर दोनों को नहीं। इस बात को लेकर उत्तरप्रदेश के मुस्लिम नेतृत्व में काफी असंतोष उत्पन्न हो गया और उसके बाद मुस्लिम लीग ने उत्तरप्रदेश के मुसलमानों की छत्रछाया में अपना पृथकतावादी और अलगाववादी आंदोलन तेजी से आगे बढ़ाना आरंभ कर दिया। यदि उस समय उत्तरप्रदेश और बम्बई में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की साझेदारी वाली सरकारें स्थापित हो जातीं तो हो सकता था कि आगे चलकर स्वराज्य प्राप्ति और केंद्रीय ढाँचे के बारे में भी उन दोनों के बीच समझौता हो जाता।
जैसा कि हमने पीछे पढ़ा, राउंड टेबल कांफ्रेंस के समय और उसके बाद भी कुछ वर्षों तक जिन्ना साहब और जिम्मेदार मुसलमान नेतृत्व ने पाकिस्तान की मांग का समर्थन नहीं किया था। जिस समय पर संविधान कानून के बारे में ब्रिटेन की संयुक्त पार्लियामेंट्री समिति सबूत इकट्ठा कर रही थी तब उसके सामने कई मुसलमान गवाही देने आए थे। इन गवाहों में से किसी ने भी पाकिस्तान की मांग का समर्थन नहीं किया था। लेकिन कंजरवेटिव पार्टी (इंग्लैण्ड) का जो सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी विभाग था उसने और अंग्रेज नौकरशाहों ने इसमें काफी रुचि दिखाई थी। इस संयुक्त पार्लियामेंटरी समिति के सामने कुछ लोगों से जो प्रश्नोत्तर हुए उनसे भी यह सारांश निकलता है कि तब तक पाकिस्तान की मांग का समर्थन मुसलमान नेतृत्व नहीं कर रहा था, और न साधारण जनता।
पाकिस्तान के बारे में युसुफ अली नामक एक मुस्लिम प्रतिनिधि से प्रश्न पूछा गया। उसने कहा कि “जहां तक मुझे पता है पाकिस्तान की मांग की योजना किसी छात्र (कैंब्रिज के चौधरी रहमत अली) की योजना है। किन्हीं जिम्मेदार लोगों ने इस मांग का समर्थन नहीं किया है।”
जफरूल्ला खां से भी इसी तरह का प्रश्न पूछा गया। उन्होंने जवाब में कहा, “जहां तक इस योजना पर हम लोगों ने गौर फरमाया है, हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यह पूर्णतः अव्यावहारिक और स्वप्नरंजन मात्र है।”
तीसरे एक मुस्लिम गवाह डा. खलीफा शुजाउद्दीन ने भी ऐसे ही एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि “इस योजना के बारे में इतना ही कहना काफी है कि किसी भी महत्त्वपूर्ण और जिम्मेदार मुसलमान व्यक्ति ने इसको विचार करने लायक नहीं समझा है और न इसके साथ कोई संबंध रखा है।’’
इस विवरण का मतलब यह है कि 1932 तक, यानी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस के समय तक पाकिस्तान की मांग का विचार मुस्लिम नेतृत्व के दिमाग में बिल्कुल नहीं आया था। इस संदर्भ में मौलाना मोहम्मद अली द्वारा राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस के चौथे अधिवेशन में दिए गए भाषण का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा। मौलाना मोहम्मद अली खिलाफत और असहयोग आंदोलन के समय गांधीजी के प्रमुख सहयोगी थे और इसमें उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मोहम्मद अली अपने गोलमेज सम्मेलन के भाषण में कहते हैं : “पहली बार हिंदुस्तान में एक बड़ी क्रांति लायी जा रही है। पहली बार हिंदुस्तान में बहुमत का शासन स्थापित होने जा रहा है। रामचंद्र के जमाने में कोई बहुमत वाला शासन नहीं था अन्यथा उन्हें वनवास नहीं जाना पड़ता। उसी तरह प्राचीन पांडव व कौरव राजाओं के जमानों में भी बहुमत वाले राज्य का कोई सवाल नहीं था। मोहम्मद गजनी, अकबर और औरंगजेब के जमाने में भी बहुसंख्यकों के राज्य का कोई सवाल नहीं था। शिवाजी और रणजीत सिंह का राज्य भी बहुमत का राज्य नहीं था। वारेन हेस्टिंग्ज और क्लाइव ने जब भारत पर शासन किया तो उनके प्रशासन के पीछे बहुमत की शक्ति नहीं थी और लार्ड इरविन के जमाने में भी कोई बहुमत का राज्य नहीं था। आज पहली बार हम बहुमत का शासन हिंदुस्तान में लाने का काम कर रहे हैं। मैं अल्पसंख्यक समाज का सदस्य हूं फिर भी बहुमत के राज्य को मैं कबूल कर रहा हूं, हालांकि मैं अच्छी तरह जानता हूं कि 51 प्रतिशत लोग यदि कहें कि दो और दो पांच होते हैं और 49 प्रतिशत यदि कहेंगे कि दो और दो चार होते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि 51 प्रतिशत लोग दो और दो पांच बता रहे हैं, यह सही नहीं माना जाएगा। इसके बावजूद भी मैं बहुमत का राज्य मानने के लिए तैयार हूं। सौभाग्य से मुसलमानों के बहुमत वाले कुछ प्रांत भी हैं। इसलिए हमारी मान्यता है कि संघराज्य का विधान हमारे लिए (हिंदुस्तान के लिए) अनुकूल रहेगा। केवल हिंदू-मुसलमान समस्या का हल करने के लिए नहीं, बल्कि राजाओं (देसी रियासतों) की दृष्टि से भी यह आवश्यक होगा। यह बात भी हम लोगों के पक्ष में जाती हैं। हिंदुस्तान में केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण वाली शक्तियां इस तरह एक-दूसरे के बीच संतुलन स्थापित किए हुए हैं कि संघराज्य के अलावा हमारे सामने कोई विकल्प नहीं हैं। मेरी राय में आज, इसी समय इसे तत्काल लागू किया जाना चाहिए। हम लोग तो इस सम्मेलन को छोड़ने से पहले संघराज्य की स्थापना देखना चाहते हैं। यह कोई लंबान का आदर्श नहीं है जैसे ब्रिटिश सरकार कह रही है। इस संबंध में राजा-महाराजाओं के साथ हमें एक संधि करनी चाहिए और उसमें सम्राट तथा देसी राजाओं की सहमति प्राप्त करनी चाहिए।”
इस तरह का भाषण मौलाना मोहम्मद अली ने दूसरी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में दिया था। जहां तक जिन्ना साहब का सवाल है, जिन्ना साहब तो 1935 में भी इसी विचार के थे जैसा कि पहले कहा जा चुका है। केंद्रीय विधानसभा में 7 फरवरी, 1935 को दिये गए अपने भाषण में जिन्ना साहब ने यह साफ करते हुए कि धर्म का प्रश्न राजनीति में नहीं घुसेड़ना चाहिए, कहा था कि “मैं अखिल भारतीय संघराज्य का विरोधी नहीं हूं, न महात्मा गांधी ही इसके विरोधी हैं।”
इस बात से पता चलता है बड़े मुस्लिम नेता 1935 तक बहुमत पर आधारित जवाबदेह सरकार और संघराज्य के पक्ष में थे। संघराज्य का मतलब है कि वे चाहते थे कि सत्ता का अधिकाधिक विकेंद्रीकरण हो और प्रांतों या राज्यों को अधिकाधिक अधिकार दिए जाएं। लेकिन साथ ही साथ हिंदुस्तान की एकता बनाए रखने के लिए एक मजबूत केंद्रीय सरकार की आवश्यकता भी वे महसूस करते थे। केंद्रीय सरकार के पास पर्याप्त अधिकार रहने चाहिए, इस बात को भी वे कबूल करते थे। ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि 1936-37 के समय जो घटनाएं हुईं, वे एक माने में निर्णायक साबित हुईं। यदि इस बीच हमारे तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं ने मुस्लिम लीग और जिन्ना साहब के साथ समझौता कर लिया होता तो हो सकता था कि आगे चलकर संघराज्य के निर्माण में मुस्लिम नेतृत्व का, अथवा कम से कम जिन्ना साहब का सहयोग उन्हें मिल जाता। जिन्ना साहब के अलावा न वहां किसी में वह जिद थी, न चरित्र, न कौशल कि जो पाकिस्तानी आंदोलन को नेतृत्व दे पाता।
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