वैज्ञानिक चेतना और साहित्य

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— शैलेन्द्र चौहान —

विज्ञान और साहित्य के अंर्तसंबंधों की बात जब की जाती है तब यह ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि विज्ञान, विज्ञान है कला, कला। यहाँ बात मैं अंर्तसंबंधों की कर हूँ स्थूल संबंधों की नहीं। साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव रूपांतरित होकर पड़ता है सीधा नहीं। हाँ कहीं कभी यदि भावभूमि की जगह दृश्य चित्रण होता है तब अवश्य वैज्ञानिक उपकरण या दृश्य साहित्य में अंकित होते हैं जिन्हें साहित्यकार देखता सुनता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “ज्ञान राशि के संचित कोष ही का नाम साहित्य है।” इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि साहित्य और जीवन का आपस में गहरा संबंध है।

साहित्य का आधार जीवन है। एक सच्चा साहित्यकार कभी भी समाज अथवा युग की उपेक्षा नहीं कर सकता। साहित्य ही अपने समाज का स्वर और संगीत है। अन्धकार वहीं जहाँ आदित्य नहीं है। मुर्दा है वह देश, जहां साहित्य नहीं है।

निश्चित रूप से वैज्ञानिक सोच और उसकी साहित्यिक परिणति ही साहित्य की वह लोकमंगला धारा है जिससे मनुष्य विकासकामी और प्रगतिकामी बनता है अन्यथा अर्नगल, दिशाहीन और अस्पष्ट साहित्य, यथार्थ से कोसों दूर मानव को कूपमण्डूक बनने में ही मदद करता है। वह साहित्य अवैज्ञानिक साहित्य होता है जो कुण्ठाओं, विकृतियों और दृष्टिहीनता से भरा होता है। वैज्ञानिक सोच न केवल तर्कों पर आधारित होता है बल्कि यथार्थ, भौतिक प्रयोग तथा गणितीय और सांख्यिकीय निष्कर्षों पर आधारित होता है। साहित्य के संदर्भ में ये निष्कर्ष सीधे गणितीय तथ्यों पर आधारित नहीं माने जा सकते। मनुष्य की अपनी ए्क जैविक पहचान है वैचारिक अस्मिता है। और अपने सहधर्मी, सहयोगी तथा सहकर्मी के ऊपर आश्रित होने का, विश्वास करने का, उससे स्नेह करने का भावनात्मक, और वैचारिक आधार भी है। अत: वैज्ञानिक साहित्य की अवधारणा विज्ञान की शब्दावली, नियम या तथ्य मानने और उन्हें साहित्य में उतारने की कतई नहीं है यह तो मात्र एक विषय है। इससे कहीं आगे वैज्ञानिक साहित्य विज्ञान सम्मत यथार्थ और आदर्श तथा मानवीय संबंधों की भावभूमि पर ही रचा जा सकता है।

मानवीय गरिमा, मानवीय चरित्र का उदात्तीकरण और लोकमंगल मोटे मोटे प्रत्यय हैं जो वैज्ञानिक चेतना के साहित्य में समाविष्ट होते हैं। इन्हें जितनी अधिक कलात्मकता और अनुभूति की प्रगाढ़ता से साहित्य में उतारा जा सकता है वही साहित्यकार की सफलता का मानदण्ड होता है।

वैज्ञानिक साहित्य का एक स्थूल पक्ष भी है- यथार्थ, और उसका वैचारिक चित्रण जैसे कि रिपोर्ताज, डायरी, लेख, राजनीतिक आलेख इत्यादि। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में यह सब विविध आयाम आज परिलक्षित होते हैं। स्व. रघुवीर सहाय एक अच्छे कवि रचनाकार तो थे ही वह एक अच्छे सम्पादक तथा अखबारनवीस भी थे। उनके रिपोर्ताज शैली में कुछ लघु निबंध संकलित हैं ‘भँवर, लहरें और तरंग’ नाम से। उसका अन्तिम निबंध है, ‘रोटी का हक’। वैज्ञानिक विचार मंथन की एक साहित्यिक प्रस्तुति यह भी है – “पिछले कुछ वर्षों में कुछ एक झूठ चारों तरफ फैले हैं उनमें से एक है कि जनता को सबसे पहले रोटी चाहिए। यह कथन झूठ इसलिए है कि यह रोटी को पहले रखकर बाकी चीजों को बाद में रखता है। बताता नहीं कि बाकी चीजें क्या हैं। भ्रम पैदा करता है कि जब पहले रोटी आ जाएगी तो बाकी चीजें भी अपने आप पैदा हो जाएंगी। माने रोटी और बाकी चीजें अलग-अलग दो बातें हैं और कुल मिलाकर यह सिद्धांत फैलता है कि रोटी पैदा करने के साधन पर जनता का अधिकार आवश्यक नहीं। उसे रोटी दे दी जाती है यही लोकतंत्र है।

यह लोकतंत्र नहीं है। रोटी और रोटी पैदा करने का अधिकार दो अलग अलग चीजें नहीं हैं। रोटी पैदा करने के साधनों पर अधिकार जीवन में पूरा हिस्सा लेने का राजनैतिक अधिकार है। और लोकतंत्र उस अधिकार पर अधिकार रखने की आजादी का नाम है। रोटी देने की धारणा सामंती और लोकतंत्र विरोधी धारणा है क्योंकि वह साधनों पर अधिकार मुठ्ठी भर लोगों का ही रखना चाहती है।” (3 दिस. 1974)

इस निबंध की भाषा थोड़ी अटपटी है परंतु इसके तर्क और मंतव्य निश्चित रूप से विज्ञान सम्मत है। विश्लेषण और उदाहरण दोनों यहाँ हैं अत: यह विज्ञान का ही साहित्य पर प्रभाव प्रमाणित करता है। तमाम विश्लेषण और सोच विचार के बाद रचनाकार का सोच और उसके मनोभाव एक ऐसी आधारभूमि को तलाश लेते हैं जो उसे सही और श्रेष्ठ प्रतीत होती है। यहाँ रचनाकार एक निस्संग और निष्प्राण दृष्टा की तरह चुप नहीं बैठा रहता बल्कि वह अपनी भूमिका तय कर लेता है और वह पक्षधरता के साथ सृजन करता है।

यह पक्षधरता दलित और शोषित के प्रति ही क्यूं है? क्योंकि समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच एक बहुत बड़ी दूरी है। एक शोषित है दूसरा शोषक। वैज्ञानिक साहित्य मानव की बराबरी की वकालत करता है। वह आँख बन्द करके रूढ़ियों का अनुसरण नहीं करने देता, वह चेतना को जागृत करता है। और कवि धूल को आँधी के साथ उड़ने की स्वाभाविक क्रिया और उसकी परिणति से आगाह कराता है। पक्षधरता के बाद प्रतिबद्धता भी वैज्ञानिक विचारधारा की अनुगामिनी हुई है। यह प्रतिबद्धता किसी द्रोणाचार्य की कौरवों के साथ प्रतिबद्धता नहीं है। न ही सत्ता की इजोरदार, अपराधी तत्वों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और खुले बाजार के लिए प्रतिबद्धता है क्योंकि विनाश और विकास दोनों ही विज्ञान ने आसान बनाए हैं। आज भारत की राजनीतिक सत्ता पूंजी के प्रति प्रतिबद्धता से संचालित है परंतु एक रचनाकार की प्रतिबद्धता मानव के अस्तित्व, बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तथा सृष्टि के कल्याण के प्रति है।

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