भारत में ‘विविधता में एकता’ का सिद्धांत और ‘सर्वधर्म समभाव’ का संकल्प खतरे में है। इसका सबसे शर्मनाक पक्ष नफरत की राजनीति है। मुसलमानों और ईसाइयों का मान-मर्दन इसका प्रमुख कार्यक्रम है। इसके लिए ‘हिंदू धर्म खतरे में’ और ‘मुसलमानों का तुष्टिकरण बंद हो’ जैसे भड़काऊ नारे फैल चुके हैं। बाबर जैसे विदेशी हमलावर और औरंगजेब जैसे धर्मांध व्यक्तियों को इस्लाम का प्रतिनिधि बताते हुए उनकी बर्बरता का हिसाब आज के भारतीय मुसलमानों से माँगा जा रहा है। औरंगजेब के अंदाज में मुस्लिम आस्था के प्रतीकों को निशाना बनाया जा रहा है। इसमें राजसत्ता की भूमिका एकतरफा होती दीखती है। न्यायपालिका से इस अन्याय में हस्तक्षेप की उम्मीद घट चुकी है। कानून-व्यवस्था को दबंगई से अप्रासंगिक बनाया जा रहा है।
इससे राष्ट्रीय एकता को खतरा बढ़ रहा है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। इसका विरोध करनेवालों को हिंदू विरोधी, ‘लिबरल’, वामपंथी और पाकिस्तान के दलाल तक धड़ल्ले से बताया जा रहा है। भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक समस्याओं के लिए गांधी को ‘अपराधी’ और नेहरू को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।
दुनिया बहुधर्मी है। भारत भी एक बहुधर्मी देश है। इसमें दुनिया के हर पुराने-नए धर्म के लिए जगह रहती आयी है। भारत की सीमाओं के प्रदेशों में तो गैर-हिंदू धर्मावलंबियों की ही बहुतायत है।
लेकिन एकाएक धार्मिक विविधता को लेकर कुछ राजनीतिक नेताओं और संगठनों में असुरक्षा पैदा हो गयी है। ऐसे लोग मानवता को ‘हिंदुत्व’ के चश्मे से देखना चाहते हैं। भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की कोशिश में हैं। किताबी तौर पर ‘हिंदुत्व’ को विनायक दामोदर सावरकर ने परिभाषित किया है। इसके अनुसार भौगोलिक भारत को अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानना मुख्य आधार है, जिसमें भारत की संस्कृति के महादोषों में अहिंसा और धार्मिक समन्वय को गिनाया गया है। सावरकर ने हिंदुओं में बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों के दौरान व्याप्त सात बंधनों को तोड़ने की शिक्षा दी। इसमें रोटी-बेटी के रिश्ते में जाति का बंधन, सामाजिक जीवन में छुआछूत, खानपान में शाकाहार, आवास-प्रवास में समुद्र यात्रा निषेध आदि को समाप्त करने का आवाहन था। हिंदू सांप्रदायिकता को फैलाने में जुटे लोग सावरकर से लेकर शिवाजी, राणा प्रताप, लक्ष्मीबाई, विवेकानंद, भगतसिंह, सुभाष, और पटेल का समय-समय पर इस्तेमाल करते हैं।
हमारा समय राष्ट्रीयता और वैश्विकता के बीच संवाद और विवाद का समय है। विश्व व्यवस्था में से ही राष्ट्रों का जन्म हुआ है और राष्ट्रों के परस्पर सहयोग और प्रतिद्वंद्विता से दुनिया का रूप बनता बिगड़ता है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सनातन सत्य का ‘अस्मिता’ की जरूरत से मुकाबला है। दुनिया के हर हिस्से में ‘कोस कोस पर पानी बदले, पाँच कोस पर बानी’ का सांस्कृतिक तथ्य मौजूद है। लेकिन इस विविधता में ‘एकता’ की जरूरत को पूरा करने के लिए भाषा, धर्म, नागरिकता और आर्थिक प्रबंधन का सहारा लेकर राष्ट्रीय आंदोलन में भाषा और धर्म की विविधता के समाजवैज्ञानिक सच को राजनीतिक कौशल से राष्ट्रीयता की रचना में युद्ध, साहित्य, राज्यसत्ता, बाजार, इतिहास और संस्कृति (विशेषकर भाषा) के संयोग से पैदा ‘अस्मिता’ धुरी का काम करती है। लेकिन मानव सभ्यता की कहानी में विश्व का ‘बहुभाषी’, ‘बहुधर्मी’ और ‘बहुराष्ट्रीय’ होने का सच बना हुआ है। मानवता की चेतना में धार्मिक, राजनीतिक, भाषाई और आर्थिक एकरूपता का आग्रह अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन यह अप्राकृतिक है। हम सभी ‘एकता’ की तलाश में हैं क्योंकि इससे ‘ममत्व’ और ‘अपनत्व’ पनपता और बढ़ता है। इसके समांतर ‘अन्यता’ मानवमात्र के अस्तित्व में निहित प्रवाह और अनित्यता का अनिवार्य पक्ष है।
‘एक भाषा – एक देश’ यूरोप का योगदान है। इसमें सरकारी शिक्षा और प्रशासन में एक भाषा को, कई अन्य भाषाओं की उपेक्षा करते हुए, संरक्षण देकर ‘राष्ट्रीय’ भाषा का दर्जा देना बहुत महत्त्वपूर्ण कदम रहा है। इस सांस्कृतिक भेदभाव के कारण सभी प्रमुख देशों में भाषाई ‘अलगाववाद’ की धारा भी पैदा हुई है।
कुछ लोग अंग्रेजी को विश्वभाषा मानते हैं लेकिन इससे यह सच नहीं छिपाया जा सकता कि स्वयं ब्रिटिश संसद में चार भाषाओं का इस्तेमाल होता है। इंग्लैंड का उपनिवेश रह चुके कनाडा में ‘एक देश – एक भाषा’ के सिद्धांत के आधार पर अंग्रेजी के वर्चस्व की नीति से इसके फ्रेंचभाषी प्रदेश ( क्यूबेक) को अलग देश बनने की दिशा में बढ़ा दिया है। इसी प्रकार साम्यवादी क्रांति के बाद बने सोवियत संघ में रूसी भाषा के वर्चस्व का प्रयास किया गया। लेकिन इससे अन्य भाषाएँ समाप्त नहीं की जा सकीं। मास्को की ताकत घटते ही 12 राष्ट्रीयताओं का उदय हो गया। चीन की विशाल आबादी में 92 प्रतिशत लोग ‘हान’ समुदाय के हैं फिर भी चीन में साम्यवादी क्रांति के बाद से राष्ट्र निर्माण के नाम पर तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान और मंगोलिया के लोगों की भाषाओं की उपेक्षा महंगी पड़ रही है। यही बात धार्मिक एकरूपता को लेकर रही है। हिटलर के जर्मनी से लेकर याह्या ख़ां के पाकिस्तान तक बार बार की असफलता के बावजूद राष्ट्रीय एकता के लिए धार्मिक एकरूपता का सपना कमजोर नहीं हुआ है।
इसके मुकाबले में ‘बहुभाषी और बहुधर्मी राष्ट्र’ की संभावना को यूरोपीय राष्ट्रों के साम्राज्यवाद के शिकार समाजों में विकसित किया गया है। इसमें भाषा, धर्म और सरकारों की ‘अस्मिता’ या पहचान एक परिवर्तनशील सामाजिक तथ्य है। इसीलिए अनेक राष्ट्रों से एक राष्ट्र की रचना और एक राष्ट्र में से अनेक राष्ट्रों का जन्म आधुनिक विश्व की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। लेकिन राष्ट्रनिर्माण में समकालीन दुनिया की अनिवार्य भूमिका है और भारत दुनिया के अनूठे देशों में से प्रमुख है।
भारतीय समाज की बनावट की दुनिया के अन्य समाजों से तुलना करने पर ‘विविधता में एकता’ की खूबी सामने आती है। विविधता के मुख्य कारकों में भूगोल, इतिहास, भाषा, धर्म, राजनीति और आर्थिक रूप की मुख्य भूमिका रहती आयी है। भारत में ‘राष्ट्रीयता’ के विकास में इन कारकों से पैदा विविधता को समेटना बड़ी चुनौती रही है।
इसके लिए भारतीय समाज ने मुस्लिम अलगाववादियों की माँग पर पाकिस्तान के बनने और टूटने से कुछ सीख भी ली है। इसमें धार्मिक विविधता को स्वीकारते हुए न्यायपूर्ण समाज की तरफ संविधान सम्मत तरीके से बढ़ना एक बड़ी सीख है। हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक जमातें इसकी उपेक्षा कर रही हैं।
इसका इलाज किया जा सकता है। इसमें पहली जिम्मेदारी गैर-सांप्रदायिक राजनीतिक दलों की है। क्योंकि यह नफरत की राजनीति के नफा-नुकसान से पैदा समस्या है।
इसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,बौद्ध, जैन आदि धर्म संस्थानों की जरूरत है। क्योंकि सांप्रदायिक सद्भावना के बिना सभी धर्म संस्थान असामाजिक तत्त्वों की मुट्ठी में आ जाएँगे। 1946 से लेकर 1984, और 1992 में यह हो चुका है।
इस आग को बुझाने में शिक्षा केंद्रों और मीडिया की साझेदारी की जरूरत है। अर्धसत्य से पैदा धुन्ध को तथ्य के प्रकाश से दूर करने पर घृणा और भय का ॲंधेरा भी दूर होगा।
लेकिन इस सब से बड़ी भूमिका सरोकारी नागरिकों की है। अपने पड़ोस के अन्य धर्मावलंबियों से संवाद और सहयोग से शुरू किया जाए। मिलकर समाज के वंचित सदस्यों की मदद के काम किए जाएं। सर्वधर्म सद्भावना को बढ़ानेवाली रचनाओं और फिल्मों का प्रचार किया जाए। सद्भाव के प्रतीकों के बारे में लोकशिक्षण किया जाए। यह ज्योति से ज्योति जलाने का काम है। बिना इसके हम एक महान संस्कृति के सांप्रदायिकता के साँप से डँसे जाने के लाचार गवाह बने रहेंगे। जबकि नफरत की राजनीति के पक्ष में आज की युवा पीढ़ी नहीं है। न जनसाधारण को सांप्रदायिक मारकाट पसंद है।
वर्तमान भारतीय स्थिति, जो धर्म को लेकर बिगड़ती ही जा रही है..इस स्थिति को केंद्र में रखकर, आदरणीय प्रोफ० आनंद साहब का यह शानदार आलेख, उदार मानसिकता के लोगो का तो मनोबल बढ़ाती ही है बल्कि कट्टरपंथियों के लिए भी एक सीख है !
*इस शानदार आलेख हेतू प्रोफ० आनंद साहब को हार्दिक धन्यवाद* 😊🙏💐