— जयराम शुक्ल —
राजनीति और नेतागिरी आज जिस पतनशीलता के दौर से गुजर रही है, आम आदमी के मुद्दे कारपोरेट के डस्टबिन में डाले जा रहे हैं, ऐसे में यमुना प्रसाद शास्त्री की रह-रहकर याद आना स्वाभाविक है। शास्त्री जी जीवन पर्यन्त राजनीति की अंधेरी कोठरी में सर्वहारा वर्ग के लिए रोशनदान की तरह उजाले की उम्मीद जगाते रहे। उनकी दृष्टि वैश्विक थी इसीलिए जिस झोपड़े में उन्होंने जीवन गुजारे उसे वसुधैव कुटुम्बकम का नाम दिया।
शास्त्री जी की जरूरत विंध्य को ही नहीं, देश और दुनिया को भी रही है। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। शास्त्री के हृदय में जितना दर्द हनुमना के जड़कुड और अर्जुन कहुआ के गरीब आदिवासियों के लिए था, उतनी ही तड़प अफ्रीका और लातिन अमेरिका में भूख और कुपोषण से पीड़ित बच्चों के लिए थी। यूपीए सरकार के तमाम घपलों घोटालों के बावजूद जिन अच्छे कामों के लिए जाना जाएगा, उन सभी को शास्त्रीजी पार्लियामेंट में बहुत पहले ही अशासकीय संकल्पों के जरिए प्रस्तुत कर चुके थे।
राइट टु इनफारमेशन, राइड टु फूड, राइट टु वर्क, राइट टु एजुकेशन, इन सबकी मौलिक अवधारणा शास्त्री जी की ही थी। शास्त्रीजी 77 में लोकसभा के लिए चुने गए। यह दुनिया के लिए बड़ी खबर थी। एक रंक ने राजा को हरा दिया। उनकी नेत्रहीनता को लेकर भी तमाम चर्चाएं होती रहीं। अच्छी भी और बुरी भी। लेकिन मेरे जैसे बहुत से लोग कल भी मानते थे और आज भी याद करते हैं कि शास्त्री जी जैसी दिव्य दृष्टि सभी राजनेताओं को मिले।
शास्त्री जी लोकतांत्रिक समाजवाद के पक्षधर रहे। आचार्य नरेन्द्रदेव के वे सच्चे अनुयायी या यों कहें सच्चे उत्तराधिकारी थे। उन्हें सत्ता सुख के दो मौके आए। 77 में और फिर 89 में। 77 में तो वे प्रदेश की सत्ता की राजनीति के नियंता ही थे। जैसे चाहा वैसे प्रदेश की सरकार चली। पहली बार विधायक बने उनके कई साथी अनुयायी कैबिनेट में पहुंचे, पर शास्त्रीजी स्वयं सत्ता से निर्लिप्त रहे।
सन् 89 के दौर में जब वीपी सिंह सरकार का पतन हुआ और कांग्रेस के समर्थन से चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री पद के लिए सक्रिय हुए तो वे शास्त्री जी से भी मिलने पहुंचे। मुझे याद है शास्त्री जी उन दिनों दिल्ली के एस्कार्ट हास्पिटल में थे। चन्द्रशेखर ने उनके सामने अपने कैबिनेट में मंत्री बनने का प्रस्ताव रखा। सरकार के पतन से आहत शास्त्रीजी ने जवाब दिया कि मेरा तो आपके साथ जाने का प्रश्न ही नहीं उठता, किन्तु मेरी राय तो यह है कि चन्द्रशेखर जी, आप भी यह अपकर्म न करें क्योंकि कांग्रेस कभी किसी की सगी नहीं रही।
शास्त्री जी चन्द्रशेखर के अनन्य मित्रों में से थे। भारत यात्रा में उनके साथ मीलों की दूरियां नापीं, पर जब राजनीति के सिद्धान्तों की बात आयी तो चन्द्रशेखर को भी खरी-खरी सुनाने में पीछे नहीं रहे।
मधु दंडवते, रामकृष्ण हेगड़े और सुरेन्द्र मोहन उन नेताओं में थे जिनके प्रति शास्त्री के हृदय में अपार सम्मान था। वे लोग भी शास्त्री से असीम स्नेह रखते थे। दलितों-पीड़ितों और आदिवासियों के लिए आन्दोलन का कोई न कोई मुद्दा वे ढूंढ़ ही लेते थे।
आन्दोलन का समापन शास्त्री जी के अनशन के साथ होता था। एक बार सुरेन्द्र मोहन जी ने कहा- शास्त्रीजी, बायपास हो चुकी है, एसीटोन जाने लगता है, अब तो अपनी देह का खयाल रखते हुए ये ‘वार्षिक कार्यक्रम’ न किया करिए। शास्त्री जी उस वक्त तो चुप रहे और संतरे का जूस पीकर अनशन त्याग दिया।
बाद में मैने सुरेन्द्र मोहन जी की नसीहत का ध्यान दिलाया तो लगभग डांटते हुए बोले, मेरे अनशन से अगर पांच भूखे परिवारों तक इमदाद पहुंच जाती है और उनका चूल्हा जलता है तो ऐसा अनशन साल में एक बार नहीं, कई-कई बार करूंगा। मैने कब चिन्ता की कि कोई मेरा अनशन तुड़वाने आए।
दरअसल शासन-प्रशासन शास्त्री जी के अनशन की घोषणा के साथ ही सक्रिय हो जाता था और हर पंचायत तक राशन और मजूरों के लिए काम के इस्टीमेट बनने शुरू हो जाते थे। शास्त्री जी बेबसों, निर्धनों और मुसीबतज़दा लोगों के लिए स्वयमेव एक राहत थे।
राजनीति में गांधी के बाद शास्त्री ही ऐसे दुर्लभ हठयोगी थे कि उन्होंने जो ठान लिया सो ठान लिया। इस बात की कतई चिंता नहीं कि साथ में कितने लोग चल रहे हैं। झगराखाड़ कोयलरी के मजदूरों के लिए उन्होंने ‘दिल्ली’ मार्च किया। पैदल ही सरगुजा से दिल्ली की ओर चल पड़े। रास्ते में केन्द्र सरकार का दूत पत्र के साथ पहुंचा कि मांगें मान ली गईं।
अस्वस्थता के बावजूद आखिरी दिनों में सिंगरौली से भोपाल के लिए कूच कर दिया। मुद्दा था सिंगरौली के एक गरीब परिवार के साथ दबंगों का अत्याचार। आज नेताओं के साथ वक्त गुजारने वाले टहलुए देखते ही अरबपति बन जाते हैं, इसके उलट शास्त्री जी का कबीराना अन्दाजा था- ‘जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ’।घर फूंक कर शास्त्री जी का हाथ पकड़ने वालों की कभी कमी नहीं रही।
एक बार विधायक होने के बाद नेता अपने आल औलाद के बारे में सोचते हैं। यही सवाल 90 के विधानसभा चुनाव में जब मैंने उनके पुत्र देवेन्द्र की टिकट की पैरवी के साथ किया तो मुझे फिर एक बार डांट मिली- ‘‘हां अन्धा तो हूं ही तुम मुझे धृतराष्ट बनने के लिए कह रहे हो।’’
आखिर में शास्त्री जी के लिए आइंस्टीन के वही शब्दांश जो उन्होंने गांधी के लिए कहा था- ‘‘आनेवाली पीढ़ी शायद ही इस बात पर यकीन करे कि भारत में हाड़-मांस का ऐसा भी कोई शख्स था, जिसकी अहिंसक हुंकार से सत्ताएं हिल जाया करती थीं।” शास्त्री जी की स्मृति को शत-शत नमन!