कन्हैया के कातिल जीतेंगे या भारत का भविष्य

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— योगेंद्र यादव —

दयपुर में कन्हैया लाल की हत्या से पूरा देश स्तब्ध है। होना भी चाहिए। कोई भी हत्या अपने-आप में भयावह है, लेकिन यह सिर्फ एक हत्या नहीं थी। योजना बनाकर इरादतन और जिस नृशंस तरीके से इस हत्या को अंजाम दिया गया, वह इसे बर्बरता का एक नमूना बनाती है। यही नहीं, इस हत्या के पीछे कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं थी। यह हत्या शुद्ध धर्मान्धता का नतीजा थी। रियाज अत्तारी और गौस मोहम्मद इस बात से खफा थे कि कन्हैया लाल के फेसबुक अकाउंट से पैगंबर मोहम्मद का अपमान करनेवाली नुपुर शर्मा का समर्थन किया गया था।

बात यहीं तक सीमित नहीं है। हत्यारों ने खुद इस घटना का वीडियो बनाया और इसे प्रचारित-प्रसारित किया। बाद में पता चला कि एक हत्यारा अत्तारी भारतीय जनता पार्टी के माइनॉरिटी सैल (अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ) से जुड़ा रहा है। उसकी तस्वीरें भाजपा नेताओं के साथ मिलीं। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि वह भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता था या सत्ताधीशों के साथ जुड़कर फोटो खिंचवाने वाला छुटभैया नेता।

इस कुकृत्य का सूत्रधार जो भी हो, यह स्पष्ट है कि इस हत्या का इरादा सिर्फ एक व्यक्ति से बदला लेने का नहीं था, बल्कि इसे प्रचारित-प्रसारित कर हिंदू समुदाय में आतंक और मुसलमानों में अलगाव फैलाना, हिंदू-मुसलमान के बीच घृणा और अविश्वास की खाई को गहरा करना था। कन्हैया के माध्यम से भारत पर हमला करने की साजिश थी।

क्या यह साजिश सफल होगी? अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, लेकिन हम जानते हैं कि ऐसी साजिश कब सफल होती है। यह साजिश सफल होती है जब ऐसी किसी घटना की प्रतिक्रिया सांप्रदायिक आधार पर हो, मानवीय आधार पर नहीं। इस घटना को हिंदू और मुसलमान अलग-अलग चश्मे से देखें। ऐसी साजिश और भी सफल होती है, जब राज्य, शासन और पुलिस एकतरफा रुख अपनाएं, आग बुझाने की बजाय उसे हवा दें।

उदयपुर मामले में हमें कम से कम इतना संतोष हो सकता है कि कुछ सिरफिरे लोगों को छोड़कर इस घटना की हर नागरिक ने निंदा की, चाहे वे हिंदू थे या मुसलमान। देश के तमाम मुस्लिम नेताओं, कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और संस्थाओं ने इस हत्या की निंदा की, बिना किंतु-परंतु के। शुरू में कन्हैया लाल को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने में हुई गफलत के बाद राजस्थान सरकार ने काफी सशक्त और निर्णायक कदम उठाए, दोषियों को गिरफ्तार किया और द्वेष तथा हिंसा फैलानेवालों को सख्ती से रोका। अगले ही दिन नेशनल इंवैस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने जाँच अपने हाथ में ले ली और उम्मीद करनी चाहिए कि कन्हैया लाल के कातिलों को जल्द से जल्द और कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी।

क्या इस मामले में कड़ी कार्रवाई से किसी और कन्हैया के किन्हीं और संभव कातिलों को रोका जा सकेगा? धर्म के नाम पर घृणा और हिंसा पर काबू पाने में सफलता मिलेगी? क्या हम इस भयावह तांडव से भारत का भविष्य सुरक्षित कर पाएंगे?  

इसका उत्तर देने के लिए हमें फ्लैशबैक का सहारा लेना होगा। आज से 5 साल पहले 2017, तारीख 1 अप्रैल, स्थान उसी राजस्थान के अलवर जिले में बहरोड़। उस दिन देश की पहली बहुचर्चित वीडियो लिंचिंग हुई थी, पहलू खान नामक एक नागरिक की। जयपुर के पशु मेले से सरकारी रसीद लेकर अपने घर के लिए दुधारू गाय लाते वक्त पहलू ख़ान को एक भीड़ ने रोका और तमाम सफाई देने के बावजूद पब्लिक के सामने वीडियो की आंख तले मार-मार कर उसकी हत्या कर दी।

पहलू ख़ान की हत्या भी सामान्य हत्या नहीं थी, इसके पीछे भी धर्मान्धता थी, एक समुदाय के लोगों में डर फैलाने की नीयत थी।

लेकिन उस वक्त पूरा देश स्तब्ध नहीं हुआ। राजस्थान के गृहमंत्री ने घटना पर लीपापोती की। अपने आप को हिंदुओं का प्रतिनिधि बतानेवाले कुछ लोगों ने हत्यारों की तुलना भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद से की। केस की जाँच में इतनी ढिलाई हुई की जाँच अफसर चार बार बदले गए। आरोपियों को आनन-फानन में जमानत मिल गयी और 2 साल में ही सभी 6 आरोपियों को कोर्ट ने बरी भी कर दिया।

इसी राजस्थान में उसी वर्ष दिसंबर में उदयपुर के नजदीक राजसंमद में एक और घटना हुई थी। शंभूलाल रेगर नामक एक व्यक्ति ने अफराजुल शेख नामक एक मजदूर की कुल्हाड़ी से हत्या की, इसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण किया और इसे मुसलमानों के लव जेहाद का बदला लेने की कार्रवाई घोषित किया। इस घटना के बाद देशभर में शंभुलाल का महिमामंडन हुआ, उसके परिवार के लिए चंदा अभियान चलाया गया और इसी उदयपुर शहर में उसके पक्ष में प्रदर्शन हुए। जेल में रहते हुए शंभुलाल ने मुसलमानों के खिलाफ वीडियो बनाए। एक पार्टी ने तो उसे लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाने की पेशकश भी की।

पिछले पाँच साल में देश में ऐसी दर्जनों घटनाएँ हो चुकी हैं। इसके शिकार अक्सर मुसलमान तो हुए ही, लेकिन कई बार दलित और आदिवासी व्यक्तियों की नृशंस हत्या की भी खबर आती रही है। अब यह खबर इतनी आम हो गयी है कि हिंदी के अखबारों में ‘मॉब लिंचिंग’ एक सामान्य शब्द बन गया है।

भारत सरकार ने संसद में बताया कि 2017 के बाद से नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों में मॉब लिंचिंग की गिनती बंद कर दी गयी है। राजस्थान और झारखंड सरकार ने इसके विरुद्ध कानून पास किए लेकिन केंद्र सरकार ने अभी उन्हें रोक रखा है। कल ही मध्यप्रदेश के गुना जिले से सहरिया आदिवासी समुदाय की रामप्यारी बाई को जिंदा जलाए जाने का वीडियो सामने आया है, खबर बनी है, लेकिन पूरा देश क्षुब्ध नहीं है।

कड़वा सच यह है कि हम हत्या और हत्या में अंतर करते हैं, लाश को कपड़े से पहचानते हैं। इतिहास बताता है कि कानून का राज टुकड़ों में स्थापित नहीं होता। या तो देश में हर कोई सुरक्षित है, या फिर कोई भी सुरक्षित नहीं है। किसी भी गली में एक भीड़ के सामने खड़ा हर निहत्था इंसान अल्पसंख्यक है, चाहे उसका जाति-धर्म कुछ भी हो। जब तक हम बिना उसकी जाति, धर्म, भाषा या कपड़ा देखे उसकी सुरक्षा के लिए खड़े नहीं होते, तब तक कन्हैया लाल के कातिल जीतेंगे।

(नवोदय टाइम्स से साभार)


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