आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के हर समाधान ने नयी समस्या को जन्म दिया

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कार्टून 'सत्याग्रह' से साभार


— अरुण कुमार —

मोदी जी ने प्रधानमंत्री के रूप में आठ वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लिया है। उनकी उपलब्धियों की उनकी सरकार और सत्ताधारी पार्टी ने ही प्रशंसा की है। पिछले दो वर्षों में उत्सव जैसा कोई आयोजन नहीं किया जा सका क्योंकि एक तो भयावह महामारी और दूसरी कमजोर गवर्नेंस से स्थिति गंभीर बनी रही। सरकार द्वारा दूसरे कार्यकाल के केवल 3 वर्षों को नहीं, बल्कि 8 वर्षों को उजागर कर खोयी साख वापस कायम करने की कोशिश की गयी। (जब तक कि सत्ताधारी दल के नेताओं के ईशनिंदा बयानों से तूफान नहीं आ गया)

सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था के दुनिया की सबसे तेजी से बढ़नेवाली (8.7%) प्रमुख अर्थव्यवस्था बनने का श्रेय ले रही है। लेकिन, इस आंकड़े को लेकर भी संशय बना हुआ है।

उच्च खुदरा मुद्रास्फीति 7.8 फीसद, राजकोषीय घाटा 6.3 फीसद, बेरोजगारी लगभग 8 फीसद, श्रम बल भागीदारी दर 40 फीसद, 72 के स्तर पर उपभोक्ता विश्वास, तेजी से बढ़ रहा चालू खाते का घाटा, घटती विदेशी मुद्रा भंडार, डॉलर के मुकाबले गिरता रुपया जैसी स्थितियाँ निरंतर बनी हुई हैं। वास्तव में प्रथम पाँच वर्षों के कार्यकाल और पिछले तीन वर्षों के आर्थिक संकट को अलग-अलग देखऩे की आवश्यकता है। आठ साल की बात करके पिछले तीन वर्षों के संकट को छिपाने के सरकार द्वारा जन धन, उज्ज्वला, किसान सम्मान निधि, सभी के लिए शौचालय, आधार, विद्युतीकरण, सभी के लिए आवास और भोजन का अधिकार जैसी कई योजनाएं, जो अतीत काल से जारी हैं, का सहारा लेना सही नहीं है। हाँ, इन्हें और आगे बढ़ाने का श्रेय तो लिया जा सकता है। प्रथम पाँच वर्ष का समय भी संकट काल ही था। हालांकि इसके कारण अलग थे। 

दो दौर में विभाजित आठ वर्ष

इन दो काल अवधियों में मुख्य अंतर यह है कि पहले पाँच वर्षों में अर्थव्यवस्था में संकट नीतियों की वजह से था, जबकि बाद के तीन वर्षों में संकट सरकार के नियंत्रण से बाहर की घटनाओं से उत्पन्न हुआ और अपर्याप्त और ढुलमुल कार्रवाई के चलते इसमें और इजाफा हुआ। व्यवसाय या बाजार समर्थक, ‘सप्लाई साइड’ नीतियाँ देश की जरूरतों के अनुरूप तो नहीं थीं, लेकिन सत्ताधारी पार्टी के वैचारिक बोझ के कारण आठ वर्षों से जारी हैं। सत्ता में आने से पहले, भारतीय जनता पार्टी ने पिछली सरकार द्वारा शुरू की गयी कल्याणकारी योजनाओं (जैसे, मनरेगा) की निंदा की थी। हालांकि, सरकार इन योजनाओं को जारी रखने और आगे बढ़ाने के लिए विवश हुई, क्योंकि इसकी नीतियों के कारण, हाशिए पर बैठे लोगों का संकट बढ़ता जा रहा है। इन्हीं योजनाओं ने शायद एक सामाजिक विस्फोट को रोक लिया।

सरकार ने दावा किया है कि उसने संरचनात्मक बदलावों पर जोर दिया है, जिससे लंबे समय में अर्थव्यवस्था को फायदा होगा। उदाहरण के लिए, दिवालियापन कोड का कार्यान्वयन, जीएसटी, डिजिटलीकरण, भ्रष्टाचार की जाँच आदि। इनमें से कुछेक तो उपयोगी हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश अनुपयोगी साबित हुए हैं, क्योंकि उन्हें पर्याप्त विचार के बिना ही लागू किया गया था, जैसे नोटबंदी, जीएसटी और डिजिटलीकरण आदि। इन नीतियों का नकारात्मक प्रभाव इन योजनाओं के फायदों से कहीं अधिक है। 

5.6 फीसद प्रतिवर्ष की दर से बढ़नेवाली कोई भी अर्थव्यवस्था विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मानदंडों जैसे शिक्षा तक पहुँच, हवाई यात्रा और मोबाइल फोन धारक की संख्या में सुधार की स्थिति प्रदर्शित करेगी। असल में अंतर्निहित कठिनाइयों को दूर किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, भारत की वैश्विक रैंक 10वें से सुधरकर 6वें स्थान पर आ गयी, लेकिन पुख्ता प्रयास खासकर समाज के हाशिए पर जीवनयापन करने वाले लोगों के लिए कारगर साबित हो सकते हैं। नीतियों के वृहद पहलुओं से उत्पन्न चुनौतियों ने विशिष्ट नीतियों की उपलब्धियों को आच्छादित कर दिया है।

प्रथम पाँच वर्ष का कार्यकाल 

प्रथम पाँच वर्षों के कार्यकाल में वर्ष 2016 में नोटबंदी की घोषणा हुई, वर्ष 2017 में संरचनात्मक रूप से त्रुटिपूर्ण जीएसटी को लागू किया गया, वर्ष 2018 में एनबीएफसी संकट और डिजिटलीकरण पर जोर दिया गया। इन आर्थिक झटकों को एक के बाद एक बहुत ही कम अंतराल में लागू किया गया, जिसने ‘आपूर्ति पक्ष’ की नीतियों के कारण अंतर्निहित संकट को और बढ़ा दिया और इससे अर्थव्यवस्था की मूल संरचना को ही विकृत कर दिया। विशाल असंगठित क्षेत्र, जिसमें 94 फीसद कार्यबल कार्यरत है, को स्थायी रूप से नुकसान पहुँचा है। यह अर्थव्यवस्था का वह मार्जिनल क्षेत्र है, जो उन लोगों को संकटकाल में राहत प्रदान करता है और जो अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक संगठित क्षेत्र से वंचित रह जाते हैं तथा जो रोजगार की दृष्टि से अधिक लाभदायी भी है और जो रोजगार के अवसर प्रदान करता है।

असंगठित क्षेत्र में स्वरोजगार, लघु और सूक्ष्म इकाइयाँ आती हैं। यह स्पष्ट है कि उपरोक्त झटकों ने इस क्षेत्र को ही हाशिए पर डाल दिया। रोजगार और आय में गिरावट के कारण माँग में कमी आयी और अर्थव्यवस्था में मंदी की स्थितियाँ उत्पन्न हुईं। इस झटके ने अर्थव्यवस्था के डेटाबेस को भी अविश्वसनीय बना दिया। चूंकि असंगठित क्षेत्र के आँकड़े तो कभी-कभार ही प्रस्तुत किए जाते हैं, इसलिए बीच के वर्षों में इसे संगठित क्षेत्र द्वारा प्रॉक्सी कर दिया जाता है। लेकिन एक बार इस प्रकार के झटके के कारण अर्थव्यवस्था का मूल स्वरूप बदल जाने के बाद यह पद्धति ही अप्रासंगिक हो जाती है। ढलान पर जा रहे असंगठित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व सुधार की दिशा में अग्रसर संगठित क्षेत्र द्वारा नहीं किया जा सकता।

प्रथम कार्यकाल की पृष्ठभूमि

यूपीए-2 शासन के दौरान भुगतान संतुलन, उच्च मुद्रास्फीति, बड़े भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा और नीतिगत निर्णयों को प्रभावित करनेवाली बाहरी समस्याओं/झटकों के कारण 2012-13 में अर्थव्यवस्था को संकट का सामना करना पड़ा। इस स्थिति ने मोदी सरकार को अपनी सभी समस्याओं के लिए यूपीए-2 के कुप्रबंधन को दोष देने का मौका दे दिया। क्या यही सच्चाई नहीं है? 2012-13 के संकट के दौरान तीसरी और चौथी तिमाहियों में अर्थव्यवस्था में क्रमशः 5 फीसद और 4.44 फीसद की कमजोर गति से वृद्धि दर्ज की गयी। 2014 में, जब मोदी प्रधानमंत्री बने, अर्थव्यवस्था पहले ही पहली और दूसरी तिमाही में क्रमशः 7.76 फीसद और 8.52 फीसद की अनुकूल वृद्धि दर से सही दिशा में जा रही थी। इसके बाद, विकास दर कई बार 8 फीसद को भी छू गयी थी। 2012-13 का संकट लगभग समाप्त हो गया था।

लेकिन 2017-18 की चौथी तिमाही से, भारत के महामारी की चपेट में आने से ठीक पहले, आधिकारिक विकास दर 8.1 फीसद से गिरकर 2019-20 की चौथी तिमाही में 3.1 फीसद हो गयी थी। यह गिरावट मोदी सरकार द्वारा अपनायी गयी नीतियों का परिणाम थी। 

यह मान भी लिया जाए कि आधिकारिक डेटा सही है, औसत विकास दर संभावित (उच्चतम दर) से 2.5 फीसद कम थी। करीब 170 लाख करोड़ रु. की अर्थव्यवस्था के लिए दो साल में 8.5 लाख करोड़ रु. का घाटा हुआ। अगर इसमें असंगठित क्षेत्र में गिरावट (जैसे, 5 फीसद) के कारण होनेवाले नुकसान को जोड़ा जाए, तो कुल नुकसान लगभग 13.5 लाख करोड़ रुपए हो जाएगा। अधिकांशतः नुकसान असंगठित क्षेत्र का था और यह सभी कल्याणकारी योजनाओं से भी कहीं अधिक था। 

बढ़ती असमानताएँ

वास्तव में आय संबंधी सर्वेक्षण कर पाना कठिन है, चूंकि लोग सही रिपोर्टिंग नहीं करते हैं। फिर भी, प्राइज सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2015-16 और 2020-21 के बीच निचले स्तर पर आय में 60 फीसद की कमी आयी, जबकि 20 फीसद सर्वाधिक अमीर तबके की आय में 39 फीसद की वृद्धि दर्ज हुई। यह महामारी का आंशिक परिणाम है। निहितार्थ यह है कि देश में असमानता बढ़ रही है और आधे से अधिक निचले स्तर के लोगों का आर्थिक संकट बढ़ रहा है। वर्ष 2018 में दिल्ली द्वारा किए गए सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि अखिल भारतीय स्तर पर अनुमानतः 90 फीसद परिवारों ने प्रतिमाह 10,000 रुपए से कम और 98 फीसद ने प्रतिमाह 20,000 रुपए से कम राशि खर्च की। ये आँकड़े वर्ष 2018 में गरीबी की सीमा को इंगित करते हैं। इन आँकड़ों को अगर प्राइज सर्वेक्षण के साथ जोड़कर देखा जाए, तो प्रतीत होता है कि महामारी के दौरान गरीबी के स्तर में आशातीत वृद्धि हुई है। लेकिन सरकार यदि खाद्यान और गैस जैसी कुछ आवश्यक चीजों के प्रावधान न करती, तो गरीबी और भी भयावह होती।

ओक्सफेम और क्रेडिट सुइस द्वारा प्रतिवर्ष आर्थिक असमानता पर जारी किए जानेवाले डेटा एक अलग ही तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सर्वेक्षण के अनुसार आर्थिक संपन्नता अधिकांशतः शीर्ष 1 फीसद (51.5%) और शीर्ष 10 फीसद (77.4%) लोगों तक ही सीमित है। निचले स्तर के 60 फीसद लोगों के पास केवल 4.7 फीसद भाग ही था। ‘आपूर्ति पक्ष’ की नीतियाँ, संपन्न व्यक्तियों को रियायतें देने पर केंद्रित नीतियाँ आय और आर्थिक असमानताओं को और बढ़ा देती हैं। जहाँ-जहाँ विपक्ष मजबूत स्थिति में नहीं था, गरीब जनता ने राजनीतिक रूप से कल्याणकारी योजनाओं का जवाब सत्तारूढ़ दल को वोट देकर दिया। वे इन नीतियों को कमजोर अर्थव्यवस्था और उन्हें होनेवाली आय की हानि से नहीं जोड़ पाते। सत्तापक्ष को भी नोटबंदी की नाकामी और जीएसटी के कारण उत्पन्न संकट का आभास हो चुका है। हालांकि इनकी घोषणा बड़े जोर-शोर से की गयी थी, लेकिन चुनाव प्रचार में इनका इस्तेमाल करने से परहेज किया गया। 

दूसरा कार्यकाल

मौजूदा सरकार के दूसरे कार्यकाल (30 मई 2019 से) में भी अर्थव्यवस्था में गिरावट जारी रही। सरकार सुधारात्मक उपायों के स्थान पर अपनी ‘आपूर्ति पक्ष’ की नीतियों पर कायम रही। उदाहरण के लिए, सरकार ने कारपोरेट कर की दर को कम कर दिया था। इससे प्रत्यक्ष कर संग्रहण में गिरावट आयी और अतिरिक्त निवेश को प्रोत्साहित किए बिना और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिए बिना राजकोषीय घाटे में वृद्धि दर्ज हुई। अर्थव्यवस्था में निवेश दर पिछले वर्ष 32.7 फीसद से गिरकर 32.2 फीसद रह गई। 2012 में यह दर 35 फीसदी थी। महामारी और अब यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से स्थिति और बिगड़ गयी है। आपूर्ति के गंभीर वैश्विक व्यवधान के साथ दुनिया एक नए ‘शीत युद्ध’ की ओर बढ़ रही है। जबकि यह संकट सरकार की नीतियों के कारण नहीं है। अब प्रश्न यह है कि सरकार ने इस प्रतिकूल स्थिति से निपटने के लिए क्या उपाय किए हैं?

वर्ष 2007 के वैश्विक वित्तीय संकट ने दुनिया को प्रभावित किया था, लेकिन भारत के आर्थिक मानदंड सुदृढ़ स्थिति में थे। वर्ष 2019-20 में स्थितियाँ इतनी अनुकूल नहीं थीं। विकास दर गिर गयी थी, राजकोषीय घाटा अधिक था और निर्यात स्थिर था। इसलिए, अर्थव्यवस्था के लिए महामारी से उत्पन्न अभूतपूर्व चुनौती से निपटना मुश्किल हो गया था। असल में अब सरकार को ट्रैक बदलने की जरूरत थी, लेकिन वह उसी ‘आपूर्ति पक्ष’ की नीतियों पर कायम रही। हाशिए पर जीवन यापन कर रहे वर्गों के लिए स्थितियाँ अत्यंत विकट हो गयीं। उन्हें केवल एक न्यूनतम राशि (जीडीपी का लगभग 1.5 फीसद) से संतोष करना पड़ा। ऐसे में भारत जैसी प्रमुख अर्थव्यवस्था को 24 फीसद की सबसे तेज गिरावट का सामना करना पड़ा।

मार्च 2020 में अचानक उत्पन्न लॉकडाउन की स्थिति ने हाशिए पर जीवन यापन कर रहे वर्गों को बुरी तरह से प्रभावित किया। भारत में ऐसी भयावह परिस्थितियों में सामूहिक प्रवास जैसी स्थितियाँ दुनिया में कहीं और नहीं देखी गयीं। इसने कल्याणकारी योजनाओं की दावा की गयी सफलता के बावजूद भारतीयों के अधिकांश लोगों के जीवन की दयनीय स्थितियों को उजागर कर दिया।

असंगठित क्षेत्र में संकट का मतलब है रोजगार सृजन में गिरावट, बेरोजगारी में वृद्धि और अल्प श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) । एलएफपीआर 2016 में 47 फीसद से गिरकर 2021 में 40 फीसद रह गयी। महिलाओं के मामले में यह गिरावट का स्तर अपेक्षाकृत अधिक रहा।

इसका निहितार्थ यह भी हो सकता है कि 60 फीसद कामकाजी उम्र की आबादी काम नहीं कर रही है, इस समूह में बड़ी संख्या में लोग काम की तलाश में भी नहीं हैं, असंगठित क्षेत्र में गिरावट आ रही है और बड़ी संख्या में लोग काम से हटाए गए हैं। ऐसी स्थिति में कार्यबल, अर्थव्यवस्था की विकास दर मजबूत नहीं हो सकती है। आँकड़ों से यह भी पता चलता है कि एक युवा जितना अधिक शिक्षित होगा, बेरोजगारी का स्तर उतना ही अधिक होगा।

सरकार का अति आत्मविश्वास

वास्तव में सरकार अति आत्मविश्वास में रही। महामारी की दूसरी लहर के बारे में चेतावनियों के बावजूद सरकार ने पूर्व तैयारी नहीं की और इसका परिणाम यह हुआ कि देश में अभूतपूर्व संख्या में मौतें और स्वास्थ्य संकट के चलते भयानक तबाही हुई। हालांकि सरकार इससे इनकार करती रही है, लेकिन कुछ विशेषज्ञों के अनुसार लाखों लोग मारे गए, जिनका कोई रिकार्ड नहीं है। आबादी के वैक्सीनेशन की तैयारी धीमी थी। भारत टीकों का सबसे बड़ा निर्माता है, लेकिन इसके बावजूद टीकाकरण अभियान की शुरुआत 1.5 महीने में 1.5 करोड़ फ्रंटलाइन वर्कर्स आदि का टीकाकरण करने की योजना के साथ 16 जनवरी, 2021 को हो पायी। उस दर पर पूरी आबादी को टीका लगाने में 23 साल लग जाते। बाद में, टीकाकरण में तेजी लायी गयी, लेकिन तब तक देश में वायरस की डेल्टा लहर अपना असर दिखा चुकी थी। व्यवसायों के पक्ष में ‘आपूर्ति पक्ष’ नीतियों ने श्रम कानूनों और कृषि उपज में व्यापार में बदलाव की शुरुआत की। यह मान लिया गया था कि महामारी के दौरान विपक्ष चुनौती नहीं दे पाएगा। किसानों ने एक साल से अधिक समय तक जोरदार विरोध किया और सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर किया।

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विनिवेश एक अन्य ‘आपूर्ति पक्ष’ नीति है। यह अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करने की सरकार की क्षमता को कमजोर करती है। उस समय महामारी और अब यूक्रेन युद्ध के कारण उत्पन्न संकट को देखते हुए अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए एक मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र की आवश्यकता प्रतीत होती है। कल्याणकारी योजनाओं से उन गरीबों को राहत मिली, जिन्हें मुफ्त राशन और रसोई गैस आदि उपलब्ध करायी गयी। लेकिन ये नीतियाँ परस्पर विरोधाभासी हैं। सरकार की मैक्रो नीतियां गरीबों को हाशिए पर ले जा रही हैं, जबकि माइक्रो नीतियां उनके जीवन यापन को संबल देने की कोशिश कर रही हैं। यह कोई मजबूत समाधान नहीं हो सकता, क्योंकि यह राजकोषीय घाटे को बढ़ाता है, ऐसा ‘आपूर्ति पक्ष’अर्थशास्त्रियों का मानना है। जैसे-जैसे बजट घाटा बढ़ता है, इन नीतियों के कमजोर पड़ने का दबाव बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में गरीबों से संबंधित योजनाएँ अधर में लटक जाएंगी, क्योंकि रोजगार की कमी के कारण उनकी आय में वृद्धि नहीं हो पाएगी।

सरकार का यह दावा है कि वह काले धन की अर्थव्यवस्था को रोकने में कामयाब रही है, लेकिन इसके संबंध में कोई पुख्ता सबूत नहीं है। यह सही है कि 2-जी घोटाले जैसे बड़े मामले पिछले आठ साल के दौरान सामने नहीं आए हैं, लेकिन राफेल सौदा, मुंदरा में अदानी बंदरगाह पर बड़े पैमाने पर नशीली दवाओं की बरामदगी, सहकारी बैंकों में भ्रष्टाचार और उनकी विफलताए, बैंकों (यहाँ तक कि सरकारी बैंकों) के माध्यम से हवाला जैसे बड़े घोटाले जरूर सामने आए हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। मीडिया, जिस पर शासक दल का कड़ा नियंत्रण है, के द्वारा इनकी तहकीकात की कोई कोशिश नहीं की गयी है। रोजाना छोटे-छोटे मामले सामने आ रहे हैं। महामारी की डेल्टा लहर के दौरान ऑक्सीजन सिलेंडर, दवाओं आदि की बड़े पैमाने पर कालाबाजारी हुई, लेकिन किसी पर मुकदमा नहीं चलाया गया।

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