संजीव ठाकुर और नाज़िमा परवीन की कविताएं

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‌पेंटिंग : शैलजा सुमन


— संजीव ठाकुर —

1. चिड़ा-चिड़ी संवाद

चिड़ी ने चिड़े से पूछा –
“ये कैसे समय में जी रहे हैं हम ?
न खाने को दाना,
न रहने को पेड़ की डाली
न उड़ने की आज़ादी
न विचरने को निरभ्र आकाश
गुलेलबाजों से घिरे-घिरे
ये कैसा जीवन जी रहे हैं हम ?”

चिड़े ने चिढ़कर कहा –
“इसमें मेरा नहीं,
दोष मेरे माँ-बाप का है
तुम्हारे माँ-बाप का है
उन सबके माँ-बाप-दादा-परदादा-लकड़दादा-छकड़दादा का है
यही जगह मिली थी
जन्म लेने को उन्हें
मरने को उन्हें
बिल्लों की बस्ती में
साँपों की बाँबी में ?”

चिड़ी ने मुलायम स्वर में कहा–
“बाप-दादा को क्यों देते हो दोष ?
वो तो तूफान में भी
उड़ने का रखते थे माद्दा
खेत, खलिहान से उठा लाते थे चारा
चोंच से फोड़ देते थे अजगर की आँखें !
गुलेलबाजों को चकमा दे देते थे ।
पंख हमारे ही हो गए कमजोर
पंजों में न रहा कोई ज़ोर !
चोंच असमय घिस गईं हमारी।”

अचानक कुछ हुआ जैसे
चिड़े को होश आया, जोश आया
वह ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर
दाएँ-बाएँ, बाएँ-दाएँ
उल्टा-पुल्टा, आड़ा-तिरछा उड़ने लगा
अपने पंखों को तौलने लगा
हवा में कलाबाजियाँ खाने लगा
साँपों की बाँबियों में चोंच डाल
साँपों को चिढ़ाने लगा
बिल्लों के सिर पर ‘टोकना’ मार
उन्हें खिजाने लगा
गुलेलबाजों की गुलेलों पर
बीट करने लगा।
उसने पेड़ की बची-खुची डाली पर
तिनकों को जमा कर
खुले में घोंसला बना लिया
चिड़ी इधर-उधर दाने की तलाश में उड़ने लगी
माँ बनने की सोचने लगी।

2. ठंडा लहू

लटकती रहती है एक तलवार
मेरे मित्रों पर
काम करते हैं जो
अखबारों में,
पत्रिकाओं में,
निजी संस्थानों में।
छूट दे रखी है
निजीकरण की दुम बनी सरकारों ने
कुछ लोगों को
यह कहने की–
“नहीं है ज़रूरत अब आपकी
हमारे संस्थान को !”
बह रहा होगा
कितना ठंडा लहू
उनकी नसों में?
कहते हुए ज़रा भी नहीं काँपता
उनका कलेजा?
कौन सी पढ़ाई पढ़कर आए हैं
वे लोग ?
गटर में धकेलने से पहले
किसी परिवार को
सौ बार तो क्या
एक बार भी नहीं सोचते
“आई एम सॉरी मिस्टर …” कहना
कितना आसान होता है उनके लिए !

क्या उन्हें पता नहीं होता–
सुनने को मिल सकता है
वही संवाद
उन्हें भी
कभी भी?

 3. राजा सोचता नहीं है

राजा सोचता नहीं है
सोचना उसे आता ही नहीं
न ही सोचने की जरूरत
महसूस होती है उसे
सच तो यह है कि
सोचना उसकी शान के खिलाफ है
उसे तो सोते-जगते,
हगते-मूतते
कुछ खयाल आता है
और उसे पूरा करने के लिए
वह फरमान ज़ारी कर देता है।
उसे इस बात से
कोई मतलब नहीं
पूरी की पूरी फसल हो जाएगी
बर्बाद
उसके फरमान से

नदियों का रंग लाल हो जाएगा
चिड़ियाँ भूल जाएँगी उड़ना
कोयल गाना !

उलट-पुलट जाए पूरी सृष्टि
राजा को फर्क नहीं पड़ता
सबसे जरूरी है उसके लिए
अपने हुक्म की तामील !

4. बन चुका होता

उनके जैसा बनना
होता अगर आसान
मैं बन चुका होता
अपने अंदर के ‘मैं’ को
निकालकर
फेंक चुका होता
मंदिर का घंटा बजा
फर्श पर नाक सटा चुका होता
कीमती जूतों को जीभ से
चाट चुका होता
पिल्ले की तरह
कुत्ते के पीछे
घूम चुका होता

यह तो बनाने वाले की मर्जी
ऐसे कल-पुर्जे लगा दिए
दिमाग में
कुछ पेंच ढीले छोड़ दिए
रपटीले रास्ते ही रास आए मुझे
मैं उनके जैसा
बन ही नहीं सका !

पेंटिंग : विनोद अरोरा


— नाज़िमा परवीन —

1. मेरा तिरंगा

मेरा तिरंगा
सड़कों पर दौड़ता,
पसीने में सराबोर, मैला-कुचैला,
हरी-लाल बत्ती तो तकता हुआ,
चमचमाती कारों की खिदकियों में झाँकता,
सही मौल की इलतेजा में गिदगिड़ाता हुआ,
सौ के पाँच से, सौ के दस तक में बिकने को ताययार,
मेरा तिरंगा।

थक कर चूर होता हुआ,
अगली बत्ती का इंतज़ार करता,
दो जून की रोटी के लिए गिरता, संभालता, दौड़ता,
ल-दीनियात, फसताइयत, जम्हूरियत* के माइनों और अफसानों से दूर,
पाँच साल की उम्र में, 75 साल का जश्न मनाता हुआ,
मेरा तिरंगा।

में सोंचती हू अक्सर, क्या सोचता होगा वो?
हर बार हरी बत्ती पर रुक कर हिसाब लगाता होगा,
आज कितना खाना खाएगा, क्या-क्या खाएगा?
अगली लाल बत्ती पर कितना मौल लगाएगा,
उसके लिए रंगों के मायने बिलकुल अलग हैं,
जब लाल सिग्नल पे सब रुकते हैं, तो वो भागता है,
और जब हरे पर चलते हैं, तो रुक जाता है, सांस लेता है, हिसाब लगता है,
इन लाल-हरे रंगों के उल्टे-पुलटे मएनो में उलझा,
ज़िंदगी कि रफ्तार में पीछे छूटता,
मेरा तिरंगा।

उसे भी पता है कि यह बरस खास है,
आज़ादी का 75वां साल दौबरा नहीं आयेगा,
नए जोश से भरा, नयी-नयी तरकीबें बनाता,
हाथ आए इस मौक़े पर खुश होता हुआ, दुवाएँ देता हुआ,
अपने झंडे को गाड़ियों के आगे शान से लहराता,
‘घर-घर तिरंगे’ की मुहिम का खास सिपाही!
मेरा तिरंगा।

वो नहीं जानता कि वो कितना अनमोल है…
कि वो भी मुल्की-आइन के पहले पन्ने पर दर्ज ‘द पीपल’ है,
वो गांधी के रामराज का आख़िरी आदमी है,
वो नेहरू के सपनों का भारत है,
‘सबके साथ’ खड़ा वो आदमी है जिसका पसीना ‘सबके विकास’ में शामिल है,
मेरा तिरंगा।

मगर, यह जितना भोला है, उतना ही ख़तरनाक भी है,
अगर, यह भागना, दौड़ना, गिढ़गिराना भूल गया,
और अपना असली मौल पहचान गया,
तो मांगना छोड़ देगा, और पूछने लगेगा,
बेचना छोड़ कर, हथियाने लगेगा।
इसे सड़कों पर ही रखना होगा,
घर-घर तिरंगा पहुंचाने के लिए,
75वां, 100वां, 200वां जश्न मनाने के लिए,
मेरा तिरंगा!
(ल-दीनीयत – धर्मनिरपेक्षता, फसताइयत- फासीवाद, जम्हूरियत- लोकतन्त्र)

2. जज़्बात से अल्फाज़ तक

हमने सोचा के चलो कुछ शायराना सा लिखा जाए,
भटकते फिरते कुछ अशआर को अल्फ़ाज़ में पिरोया जाए,
कुछ आशिक़ाना, कुछ दीवानेपन की, कुछ मखमली सी
बातें हों,
लब -ओ -रुखसार पे बिखरी ज़ुल्फ़ों की,
उनकी निगाह-इ-नज़र, बेरुखी की बातें हो,

पर जो अशआर भटकते से मेरे सिरहाने पहुंचे,
मुझको जगाने, मेरे जज़्बात को तरतीब से सजाने पहुंचे,
उनका हर लफ्ज़ लहू में भीगा था,
वह ज़ुल्म की दास्ताँ बन कर आये थे,
और उन सूखे सुर्ख फूलों के दर्द भी सींच लाये थे,
जो दबे बैठे थे पन्नों में, ज़ुल्म-ओ -सितम की यादगार बन कर,

उनको मेरे जज़्बात की नर्मियों से इंकार न था,
बस बदलते मौसम की सख्तियों से,
उलझते, मचलते मेरे ख़यालात पर परेशान से थे,
जो मखमली बातों की गिरफ्त से निकलना चाहते थे,

वह मेरी इस्लाह* के कारिंदे* बन कर
मुझको बहलाते, सहलाते, समझाते-बुझाते बोले,
कहीं तो दर्ज करो यह बेचैनी, या इसका सबब,
यह बदलते हालत, यह दास्ताँ-इ-ज़ुल्म-इ-निज़ाम लिखो,

चलो! आशिक़ी, दीवानगी को नया नाम दे दो,
ज़ुल्म की किताबों में, चुपके से कहीं कोई ‘नाम’ लिख दो,
इन पन्नों में कुछ जगह ‘ख़ाली’ लिख दो।

तुम्हारे जज़्बात भी उतर आएंगे अल्फ़ाज़ में
बस ज़रा कहीं ‘सुर्ख’*, कहीं ‘स्याह’* रोशनाई लिख दो
तुम ‘सर-इ-राह’, ‘सरे-इ-शाम’, ‘अल्फ़ाज़ों पे पहरा’,
‘क़तरा-क़तरा आज़ाद’ निगाहों का अफसाना लिख दो।

खून-इ-जिगर से न हो पाएगी यह इबारत पूरी,
तुम ज़रा जज़्बात को खुरचने की कहानी लिख दो,
रग़ों में दौड़ते फिरते लहू की रवानी लिख दो,
सैलाब के बदले इंक़लाब की दास्तान लिख दो,
आने वाली सुबह से पहले की गहरी, काली रात लिख दो।

(इसलाह – संशोधन, कारिंदे – कर्मचारी, सुर्ख-लाल, स्याह – काला)

3. दायरे

ज़िन्दगी एक दायरा है,
अनगिनत, पोशीदा* दायरों का दायरा
इन दायरों की दीवारें नहीं हैं,
सिर्फ हदें हैं…
अनकही, गैर-मुअय्ययन*, नामुकम्मिल*,
जो बनती-बिगड़ती रहती हैं वक़्त-बेवक़्त,

एक दुसरे को लांघते,
एक दुसरे में उलझते-सुलझते ये दायरे
समां गए हैं मुझमे मेरी पहचान बन कर,

मैं सोचती हूँ अक्सर …
कहाँ से आए हैं यह दाएरे?
किसने बनाए?
यह मुझसे पैदा हैं या मैं इनसे ?
ये दायरे, मेरी पहचान भी हैं
और मेरा सवाल भी…
(पौशीदा-अद्रश्य, गैर-मुअय्ययन – अनिश्चित, नामुकम्मिल- अधूरे)

4. मैं कौन हूॅं

अब मुझे सड़ती हुई लाशों की बू नहीं आती,
अब मुझे रोती-बिलखती आवाज़ें परेशान नहीं करतीं,
अब गहरे लाल खून से सने पैरहन सताते नहीं मुझे,
वो आग भी दिल को अब नहीं जलाती,
जिसने राख कर दिए हैं दर-ओ-दीवार, दालान, गलियां और चौबारे,
किसी के जिस्म को नोचते, खसोटते हाथ भी
झकझोरते नहीं मुझे,

आखिर मैं कौन हूँ?
ये क्या हुआ है मुझे?
क्या कुछ मर गया है मेरे अंदर भी?
उन सभी की तरह,
जो सड़ा रहे थे लाशों को,
जला रहे थे बस्तियों को,
उधेड़ रहे थे जिस्मों को,
आखिर क्या हूँ मैं?

मैं ज़ालिम हूँ, या ग़ाफ़िल हूँ,
मैं आमिल हूँ, या बातिल हूँ,
किससे पूछूँ, कौन बताएगा मुझे,
सभी तो मुझसे है इस शहर में।

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