तमाम उम्र मुझे इस बात का फख्र रहा है कि मैंने अपनी वैचारिक आंखें सोशलिस्ट तहरीक में खोली थीं। लड़कपन, स्कूल के तालिबेइल्म के वक्त ही सोशलिस्टों की टोली में शामिल हो गया था। 20 वर्ष की उम्र में छात्र आंदोलन के सिलसिले में डॉ राममनोहर लोहिया की रहनुमाई में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद होने का ऐतिहासिक मौका मिला था। तब से लेकर आज तक मेरी जिंदगी में एक पल या मौका नहीं आया, जब मेरी आस्था उससे डिगी हो। और सच कहूं, जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया हर तरह के सियासी उतार-चढ़ाव, झंझावातों, टकरावों के बावज़ूद मेरी आस्था अधिक से अधिक पुख्ता होती गई।
शुरुआती दिनों में गैर-कांग्रेसवाद की नीतियों, नारों, संघर्ष के उन दिनों में पूरी शिद्दत,जोश-खरोश के साथ जेल और रेल की यात्राओं में आनंद लेता रहा।
दिल्ली का बाशिंदा होने के कारण सोशलिस्ट नेताओं से लेकर मुल्क के दीगर नेताओं, पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ निकटता से संपर्क तथा जानने का मौका भी मिलता रहा। 1967 में गैरकांग्रेसी सरकारों के वजूद में आने तथा विशेषकर मंत्री की कुर्सी पर बैठनेवाले अपने साथियों, नेताओं की कार्यशैली को हैरत से देखता रहा।
दूसरा दौर आपातकाल के बाद सोशलिस्ट पार्टी के वजूद को खत्म कर बनी जनता पार्टी की सरकार का आया। हालांकि मैं सोशलिस्ट पार्टी के अस्तित्व को मिटा कर जनता पार्टी बनाने के एकदम खिलाफ था। जनता पार्टी के कारनामों को देखकर मोह एकदम भंग हो गया। परंतु जल्दी ही सोशलिस्ट रहबर मधु लिमये, राजनारायण का दोहरी सदस्यता के सवाल पर टकराव के बाद मधु लिमये की रहनुमाई में जनता पार्टी से मुक्ति का अवसर मिल गया।
तब से लेकर आज तक सोशलिस्टों द्वारा वक्त-वक्त पर गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपा गठजोड़ों से बनी पार्टियों, समूहों का कार्यकर्ता बना रहा। मेरी आखिरी पार्टी की सदस्यता चंद्रशेखर जी की समाजवादी जनता पार्टी के साथ थी, उसके बाद से मैं किसी सियासी पार्टी का सदस्य नहीं बना।
लगभग 57- 58 सालों के इस सियासी सफर में सोशलिस्ट तहरीक विशेषकर लोहिया, लिमये, राजनारायण की तालीम और संघर्षों से एक नायाब तोहफा, सीख, देन मिली कि बड़े से बड़े जोरावरों, सत्ताधीशों, धनपशुओं की शोहरत और दौलत का कोई रुतबा मुझ पर कभी गालिब नहीं रहा।
मेरी जिंदगी का सबसे गलत अनुमान संघ, भाजपा को लेकर हुआ। मेरा यकीन था कि हिंदुस्तान में कोई भी तासुबी तंजीम बरसरे इकतदार नहीं हो सकती है। परंतु हुआ इससे उलट, भाजपा जैसी पार्टी बहुमत से मरकज में कब्जा कर बैठी।
अब सवाल है, आज के सियासी माहौल में क्या किया जाए?आज भी मैं देखता हूं, हमारे कुछ साथी गैर-कांग्रेसवाद की मानसिकता के दबाव में हैं। जवाहरलाल नेहरू, कांग्रेस को लेकर किंतु-परंतु के साथ सवालिया निशान लगाते रहते हैं।हालांकि उनकी आलोचना भी वाजिब है। आजादी के बाद कांग्रेसी राज की कारगुज़ारियों से उनका रंज भी जायज है। अगर कांग्रेस में यह कमियां ना रही होतीं तो उसकी ऐसी दुर्गति क्यों होती।
एक लंबी मुद्दत तक कुर्सी पर आसीन कांग्रेसी जो मंत्री, मुख्यमंत्री, एमपी, एमएलए, राज्यपाल, एंबेसडर बड़े से बड़ा सत्ता सुख भोगते रहे, कांग्रेस के बुरे समय, मलाई चाटने की आशा न देखकर कांग्रेस को जलील कर, मोदी की मुस्कुराहट का बेसब्री से इंतजार करते हुए देखता हूं, तो बेहद गुस्सा आता है।
राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हैं। संघ भाजपा बदहवास की हालत में कभी राहुल की कमीज, जूते या अपनी सगी भांजी के साथ के वात्सल्य चित्र तथा बस/लारी/कंटेनर जो भी कहो में बनाए गए अस्थायी निवासस्थल को लेकर हमलावर हैं। मोदी की नथुने फुलाकर, भौंहें चढ़ाकर, चिंघाड़ने वाली मंत्री जिसका एकमात्र निशाना राहुल पर हमला करना है, जल्दबाजी में विवेकानंद के नमन का सवाल उठा बैठी।
मेरी वैचारिक परवरिश हर उस आदमी के साथ खड़ा होने की है, जो मेरी निगाह से ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ लड़ता है, सड़क पर है। और आज की हकीकत है कि राहुल भाजपा से टकरा रहा है।
अब मेरा जमीर मुझे इजाजत नहीं देता कि मैं उस पर मीन मेख निकालूं।
मेरी ख्वाहिश है कि गांधीवादी, लोकतांत्रिक समाजवाद में यकीन रखनेवालों की एक पार्टी बने। परंतु उसकी बुनियादी शर्त लोहिया की सप्त क्रांति में यकीन रखना अनिवार्य हो।
सिद्धांतों, विचारों की तपिश देनेवाली सोशलिस्ट तहरीक का मुझ पर बड़ा कर्ज है। मैं इस पर कहां तक अमल कर पाया कह नहीं सकता। हां, कोशिश जरूर की है।
मेरी तमन्ना है कि सोशलिस्ट हल चक्र के निशान वाले झंडे में लिपट कर अपनी यात्रा पूरी कर सकूं।
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